06/10/2025
                                            *आयुर्वेद का शरद पूर्णिमा से संबंध*
दरअसल, वर्षा ऋतु में शरीर में पित्त बढ़ता है और शरद ऋतु में शरीर में यही पित्त सबसे ज्यादा होता है। खीर खाने से पित्त और इससे होने वाली बीमारियां नहीं होती हैं। यही वजह है कि वर्षा ऋतु खत्म होने पर श्राद्ध आते हैं और इन दिनों खीर खाने की परंपरा है।
शरद पूर्णिमा पर खीर खाने का वैज्ञानिक और धार्मिक महत्व के साथ आयुर्वेदिक महत्व भी है और यह स्वास्थ्य के लिए भी लाभदायक है। शरद पूर्णिमा की रात चंद्रमा की रोशनी में रखी गई खीर खाने से रोग प्रतिरोधकता और आरोग्य में वृद्धि होती है। अश्विन माह की पूर्णिमा को शरद पूर्णिमा के नाम से भी जाना जाता है। इस दिन से शरद ऋतु का आगमन होता है।
शरद पूर्णिमा वर्षा ऋतु और शीत ऋतु के संधिकाल में पड़ती है, इसलिए इस दिन का धार्मिक के साथ चिकित्सकीय महत्व भी है। आयुर्वेद में शरद पूर्णिमा की रात में चंद्रमा की रोशनी को अमृत से समान बताया गया है। मान्यता है इस रात चंद्र दर्शन नेत्र विकार दूर करता है और इस रात चंद्रमा की रोशनी में रखी गई खीर को खाने से रोग प्रतिरोधकता एवं आरोग्य में वृद्धि होती है। धार्मिक ग्रंथों के अनुसार चंद्रमा को मन का देवता माना गया है। शरद पूर्णिमा की रात को चांद अपनी 16 कलाओं से परिपूर्ण होकर पृथ्वी पर अमृत की वर्षा करता है। इस दिन चांदनी रात में दूध से बने उत्पाद का चांदी के पात्र में सेवन करना चाहिए।
चांदी में प्रतिरोधक क्षमता अधिक होती है इससे विषाणु दूर रहते हैं। खीर में मौजूद सभी सामग्री जैसे दूध, चीनी और चावल के कारक भी चंद्रमा ही है इसलिए इनमें चन्द्रमा का प्रभाव सर्वाधिक रहता है। शरद पूर्णिमा के दिन खुले आसमान के नीचे खीर पर जब चन्द्रमा की किरणें पड़ती है तो यही खीर अमृत तुल्य हो जाती है जिसको प्रसाद रूप में ग्रहण करने से व्यक्ति वर्ष भर निरोग रहता है। इसके पीछे वैज्ञानिक तर्क है कि दूध में लैक्टिक अम्ल होता है जो कि चंद्रमा की किरणों से रोगाणुनाशक शक्ति अर्जित करता है। चावल के स्टार्च के मिश्रण से ये प्रक्रिया और तेज हो जाती है। इस खीर को खाने से दमा, त्वचा रोग और श्वांस रोग में विशेष लाभ मिलता है। आयुर्वेद के आचार्यों ने श्वास रोग को पित्त से उत्पन्न बीमारी माना है।
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