12/10/2022                                                                            
                                    
                                                                            
                                            प्राणायाम योग के आठ अंगों में से एक है। अष्टांग योग में आठ प्रक्रियाएँ होती हैं- यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान, तथा समाधि । प्राणायाम = प्राण + आयाम । इसका शाब्दिक अर्थ है - प्राण या श्वसन को लम्बा करना या फिर जीवनी शक्ति को लम्बा करना
प्राणायाम के यों तो अनेक प्रकार हैं पर उनमें से आठ बहुत उपयोगी हैं। 
1—अनुालोम—विलोम —   पद्मासन व सिद्धासन में बैठकर मूलबन्ध लगाकर वाम नासापुट से थोड़ा रेचक करके पूरक करना चाहिये। पश्चात् जालन्धरबन्ध लगाकर कुम्भक करना चाहिये, अन्त में जालन्धरबन्ध को खोलकर और उड्डियानबंध लगाकर दक्षिण नासापुट से शनैः-शनैः रेचक करना चाहिये। पुनः एक सेकण्ड बाह्य कुम्भक करके दक्षिण पुट से पूरक करना चाहिये। फिर आन्तरिक बल के अनुसार कुम्भक करके वाम स्वर से रेचक करना चाहिए। इस प्रकार जो प्राणायाम हो जाते हैं। पुनः एक सेकण्ड बाह्य कुम्भक करके पूर्वानुसार आवृत्ति करनी चाहिये। इस प्रकार एक साथ 10 प्राणायाम करना चाहिये। फिर प्रतिदिन 5-5 प्राणायाम बढ़ाकर एक सप्ताह में उसकी संख्या 40 कर देनी चाहिये। कुम्भक के समय अपने इष्टदेव के मन्त्र का जप करना चाहिये। कुम्भक कभी कम, कभी अधिक, यों अनियमित नहीं करना चाहिये। प्राणायाम के समय शरीर को शिथिल, सरल और अचल रखना चाहिये। नेत्र बन्द रखने चाहिये। दक्षिण नासापुट से रेचक और पूरक करना हो तो दाहिने हाथ की अनामिका और कनिष्ठिका को बायें नासापुट पर रक्खें। उसी प्रकार वाम नासापुट से रेचक और पूरक करना हो तो दाहिने हाथ के अंगुष्ठ से दक्षिण पुट को बन्द करे।
यदि आरम्भ में 16।। सेकण्ड तक कुम्भक न हो सके तो इससे भी कम समय तक कुम्भक करना चाहिये। अधिक देर तक कुम्भक करने का हठ नहीं करना चाहिये। कुम्भक का समय सेकण्ड के हिसाब से धीरे-धीरे बढ़ाना चाहिये। इस प्रकार लगभग 3-4 महीने में मध्यम प्राणायाम में प्रवेश हो जायगा और उसके बाद तीन-चार महीने अभ्यास करने पर उत्तम प्राणायाम में प्रवेश हो जायगा। तत्पश्चात् अन्य कुम्भकों का अभ्यास देश, काल और प्रकृति के अनुसार विचार कर करना चाहिए। उत्तम प्राणायाम के बाद खेचरी का अभ्यास भी हो सकता है। खेचरी के अभ्यास से कुम्भक जल्दी बढ़ता है।
कोई-कोई आचार्य चालीस प्राणायाम का अभ्यास नियमित हो जाने पर कनिष्ठ कुम्भक के समय से ही महामुद्रा, महाबन्ध और महावेध का अभ्यास कराते हैं। महावेध से प्राणतत्व का शीघ्र ऊर्ध्वगमन होता है, परन्तु यह बलवान् शरीर वालों के लिये हितकर है, निर्बलों के लिये हानिकर है। मुद्राओं की रीति लेखवृद्धि के कारण यहां नहीं दी जा रही है।
प्रातः सायं दोनों समय समान क्रिया करनी चाहिए। परन्तु थकावट हो तो रात्रि के समय कम अभ्यास करे। आसन और विपरीतकरणी मुद्रा करनी हो, तो प्राणायाम से पहले सुबह करे। सायंकाल को आसन और विपरीतकरणी का अभ्यास न करे। विपरीतकरणी रात्रि को करना हानिकर भी माना गया है।
2—सूर्यभेदी —    पहले थोड़ा रेचक करके सूर्यनाड़ी (दाहिने नासापुट) से पूरक करना चाहिए। फिर कुम्भक करके चन्द्रनाड़ी (बायें नासापुट) से रेचक करना चाहिये। पूर्ववत् जालन्धरादि बन्ध इस प्राणायाम में भी लगाना आवश्यक होता है। इस प्रकार के प्राणायाम को सूर्यभेदन प्राणायाम कहते हैं। अनुलोम-विलोम में दोनों नासापुटों से पूरक और रेचक होता है, परन्तु इसमें एक ही पुट से अर्थात् दक्षिण से पूरक और वास से रेचक होता है। यही दोनों में अन्तर है।
दक्षिण फुफ्फुस का सम्बन्ध यकृत् से होने के कारण इस प्राणायाम से शरीर में पित्तवृद्धि होती है तथा उष्णता बढ़ती है जिससे वात और कफ का प्रकोप शान्त होता है। कपालदेश में संचित श्लेष्म, वातवहा नाड़ियों के विकार, रक्तदोष, त्वचादोष, उदरकृमि, प्रस्वेद से उत्पन्न कृमि, कुष्ठादि रोगों से उत्पन्न कीटाणु नष्ट हो जाते हैं। इस प्राणायाम को गर्मी के दिनों में करना अनुकूल नहीं है। तथा पित्त प्रधान प्रकृति के लोगों के लिये भी हितकर नहीं है।
3—उज्जायी —    मुख को कुछ झुकाकर कण्ठ से हृदय पर्यन्त शब्द करते हुए वायु को फुफ्फुस में प्रविष्ट करें। इस प्रकार दोनों नासापुट से अल्प परिमाण में वायु को खींचे। फिर पूरक करने के बाद 4-5 सेकण्ड कुम्भक करके इड़ा नाड़ी से रेचक करे। इस प्राणायाम में पूरक, कुम्भक और रेचक तीनों स्वल्प परिमाण में ही किये जाते हैं। इसमें जालन्धरादि बन्धों का लगाना उतना आवश्यक नहीं होता। बैठे, चलते, खड़े हुए या सोकर (शवासन में) इस प्राणायाम का अभ्यास किया जा सकता है। जब शारीरिक विकार के कारण दूसरे प्राणायाम न हो सकें या समय अनुकूल न हो तो एक घण्टे के लगभग उज्जायी प्राणायाम करना चाहिये।
इस प्राणायाम से कफ प्रकोप, उदररोग, जलोदर, शोथ, मन्दाग्नि, अजीर्ण, मांस, मेदादि धातुओं के विकार और मलावरोध जनित समस्त रोग दूर हो जाते हैं तथा अग्नि प्रदीप्त होती है।
4—सीत्कारी —     दांतों के बीच जिह्वा को बाहर ओष्ठ तक निकालकर ओष्ठों को फुलाकर मुख से सीत्कार करते हुए वायु का आकर्षण करना सीत्कारी प्राणायाम कहलाता है। इस प्राणायाम में वायु जिह्वा के सहारे भीतर प्रवेश करती है। इसमें 4-5 सेकण्ड कुम्भक करके दोनों नासा पुटों से शनैः-शनैः रेचक करना चाहिये। इसमें भी बन्धों का लगाना आवश्यक नहीं होता। परन्तु यदि अधिक देर तक कुम्भक करना हो तो बन्ध का लगाना आवश्यक हो जाता है।
इस प्राणायाम से यकृत् में पित्त के उत्पन्न करने की क्रिया तक हो जाती है। इससे क्षुधा, तृषा, निद्रा और आलस्यादि का त्रास कम हो जाता है। पित्त कोप शमन होता है, शरीर तेजस्वी बनता है। पूरक के वायु से प्राणतत्त्व को बल मिलता है, अतः शरीर में निर्बलता नहीं आती।
5—शीतली —     जिह्वा को ओष्ठ से एक अंगुल बाहर निकालकर इस प्रकार पक्षी की चोंच के समान आकृति बनाकर बाहर से वायु का आकर्षण करे। फिर कुछ कुम्भक करके दोनों नासापुटों से धीरे-धीरे रेचक करे। यह शीतली प्राणायाम कहलाता है। इससे गुल्म, प्लीहा, उदररोग, अतिसार, पेचिश, पित्तवृद्धि, दाह, अम्लपित्त, रक्तपित्त, क्षुधा, तृषा, उन्माद आदि रोग शमन होते हैं। प्रातः-सायं आधे घंटे तक इस प्राणायाम का अभ्यास करना चाहिए। शीतकाल में और कफप्रकृति के मनुष्य के लिये यह प्राणायाम हितकर नहीं हैं।
6—भस्रा —      पद्मासन से बैठकर बायें नासापुट से प्राणवायु का वेग से पूरक करे, और बिना कुम्भक किये ही आवाज करते हुए दक्षिण नासापुट से रेचक करे। लोहार की भाथी के समान वेगपूर्वक इस विधि से आठ बार पूरक-रेचक करने के बाद नवीं बार पूरक करके कुंभक करे और दृढ़ जालंधरबंध लगावे। फिर दक्षिण नासापुट से शनैः-शनैः रेचक करे। रेचक करने से पहले ही जालंधरबंध खोल दें और उड्डियानबंध लगा लें। पश्चात् तीन सेकंड बाह्य कुंभक करके उपर्युक्त विधि से 8 बार वाम पुट से रेचक करें। फिर नवीं बार दक्षिण पुट से पूरक करके कुंभक करें। तत्पश्चात् नियमानुसार रेचक करें। ये दो प्राणायाम हुए। इस प्रकार सव्यावसव्य 12 प्राणायाम करने चाहिए।
इस प्राणायाम से कुम्भक बहुत बढ़ जाता है, परन्तु यह प्राणायाम अधिक नहीं करना चाहिये। क्योंकि अधिक करने से फुफ्फुस कोष पर आघात होने का पूरा भय है। इस प्राणायाम से त्रिधातुविकृति से उत्पन्न सब रोग नष्ट हो जाते हैं। अग्नि प्रदीप्त होती है। सुषुम्ना स्थित सब मल नष्ट हो जाते हैं। ब्रह्मग्रन्थि, विष्णुग्रन्थि और रुद्रग्रन्थि तीनों का भेदन होकर सुषुम्ना में से प्राणतत्व विहङ्गम गति से उर्ध्वगमन करने लगता है।
7—भ्रामरी —      सिद्धासन लगाकर नेत्र बन्द कर ले और भ्रू में लक्ष्य रक्खें तथा जालन्धर बन्ध लगा ले। इस प्राणायाम में जालन्धरबन्ध बराबर लगा रहता चाहिए। फिर नासापुट से भ्रमर के नाद के समान स्वर सहित पूरक करे। पश्चात् 3 सेकण्ड कुम्भक करके शनैः शनैः आवाज सहित रेचक करे। इस प्रकार 144 प्राणायाम करे। सुनते हैं भ्रामरी और मूर्छा कुम्भक का बौद्ध सम्प्रदाय में अधिक प्रचार है। इस कुम्भक में पांच अवस्थाएं हैं। प्रथमावस्था में कुछ दिन पूरक करके पश्चात् कुम्भक के समय महामुद्रा की जाती है। नियमपूर्वक तीन सेकण्ड का कुम्भक होने पर पुनः सिद्धासन लगाकर रेचक किया जाता है। पहले बायें पैर से, पीछे दाहिने पैर से, पश्चात् दोनों पैर फैला कर महामुद्रा करके इस प्राणायाम का अभ्यास किया जाता है। दूसरे प्राणायामों के साथ की जाने वाली महामुद्रा में और भ्रामरी के साथ की इस महामुद्रा में कुछ अन्तर है। इस महामुद्रा को कोई कोई साधक 48 से 72 तक करते हैं। इसलिए एक वर्ष के पश्चात् जानु से 6 इंच आगे और गुल्फ से 10 इंच ऊपर के भाग में कपाल लग जाता है।
पहली अवस्था की सिद्धि होने के बाद दूसरी अवस्था में खेचरी करके 6 सेकण्ड का कुम्भक होता है। और एक समय विधि के अनुसार मस्तिष्क को बायें से दाहिनी तरफ घुमा कर जालन्धरबन्ध लगा कर रेचक किया जाता है। इस रीति से 144 कुम्भक में 144 बार मस्तिष्क के घुमाने की क्रिया करनी पड़ती है। इस प्रकार तीसरी, चौथी और पांचवीं अवस्था में कुम्भक बढ़ाया जाता है, तथा मस्तिष्क भी अधिक समय तक घुमाया जाता है। मस्तिष्क घुमाने की क्रिया से मस्तिष्क में प्राण तत्व चारों ओर चक्कर लगाता हुआ प्रतीत होता है। इस प्राणायाम की क्रिया के बाद नाद बहुत जोर से उठता है। इसलिए मन की एकाग्रता शीघ्र होती है।
8— मूर्च्छा —      भ्रामरी प्राणायाम का अभ्यास पूर्ण होने पर सिद्धासन में बैठ कर दोनों नासापुट से पूरक करके जालन्धरबन्ध लगाना चाहिये। पश्चात् दोनों कान, नेत्र नासिका और मुंह पर क्रमशः अंगुष्ठ, तर्जनी, मध्यमा, अनामिका और कनिष्ठिका को रख कर 6 सेकण्ड कुम्भक करे। पश्चात् नासिका के छिद्र पर से अनामिका को शिथिल कर जालन्धर बन्ध रखते हुए ही शनैः शनैः दोनों नासापुटों से रेचक करे। दूसरे प्राणायामों के साथ मूर्च्छा प्राणायाम करने से कुम्भक अधिक होता है। परन्तु रेचक दोनों नासापुटों से किया जाता है। अधिक कुम्भक के लिए उड्डियानबंध लगाया जाता है तथा रेचक के समय जालन्धरबन्ध खोल दिया जाता है।
इस प्राणायाम में रेचक के समय बन्ध नेत्र से भूस्थन में प्राणतत्व का श्वेत, नीला, काला और लाल प्रकाश देखने में आता है। इस प्राणायाम को एक बार कर लेने पर भ्रामरी वाले सिद्धासन से बैठ कर, तथा अन्य प्राणायाम वाले शवासन में लेट कर भी नादानुसन्धान करते हैं।