04/10/2023
आप बच्चों को जंगल में भेजेंगे या ओलिंपिक?
प्रतिष्ठित आईआईटी-जेईई परीक्षा पास करने के बाद जब बच्चे आईआईटी में एडमिशन लेकर अपना कोर्स शुरू करते हैं तो उनमें से काफी बच्चे वहां के माहौल और स्टडी रूटीन में एडजस्ट नहीं हो पाते. इस विषय पर आईआईटी हैदराबाद में एसोसिएट प्रोफेसर मोहन राघवन ने हाल में अपने लेख के माध्यम से बहुत सुंदर बात कही. राघवन के अनुसार बच्चों के एडजस्ट न कर पाने के पीछे एक मुख्य वजह होती है उनका कोचिंग लेना.
IIT-JEE के लिए कोचिंग लेने वाले बच्चों की तुलना वो ओलिंपिक के लिए तैयारी कर रहे किसी एथलीट से करते हैं. ये एथलीट पूरी तरह से अपने कोच के मार्गदर्शन में काम करता है. कोच द्वारा बनाये गए एक कठिन, तय रूटीन को सख्ती से फॉलो करता है. कब जागना है, कब सोना है, क्या डाइट होगी, क्या नहीं खाना है, कितनी एक्सरसाइज करनी है, किससे मिलना है, मोबाइल का प्रयोग कितना करना है, दौड़ कितने समय में पूरी करनी है, आदि सब कुछ ये कोच तय करता है. यानि एथलीट की लाइफ पूरी तरह से कोच के कंट्रोल में होती है. एथलीट पूरी तरह से गाइडेड होता है.
इसी तरह, कोचिंग लेने वाले बच्चों की लाइफ भी पूरी तरह से कोचिंग सेंटर के कंट्रोल में होती है. बच्चों को सिर्फ कोचिंग सेंटर के निर्देशों की पालना करना होता है. ऐसे में जिन बच्चों को कामयाबी मिल जाती है, आईआईटी में एडमिशन हो जाता है, तब ये बच्चे वहां भी उस एथलीट वाले गाइडेड माइंडसेट से ही जाते हैं. लेकिन राघवन के अनुसार आईआईटी में लाइफ पहाड़ों या किसी घने जंगल से में गुम हुए किसी खोजकर्ता की तरह होती हैं. जंगल या पहाड़ों में खोजकर्ता को अपनी मंज़िल और रास्ता खुद ही तय करना होता है. यदि चोटी पर पहुंचना उसकी मंज़िल है तो वहां पहुँचने के कई रास्ते होते हैं. सबसे उचित रास्ता कौन सा रहेगा, यह भी उन्हें खुद ही चुनना होता है. वहां गाइड करने वाला कोई नहीं होता. एक कंट्रोल्ड और गाइडेड वातावरण और माइंडसेट से जब बच्चे अनगाइडेड और स्वतंत्र माहौल में आते हैं तो उन्हें लगता है जैसे वो कहीं गुम हो गए हैं. आदत अनुसार उन्हें गाइडेंस चाहिए होती है और वहां रास्ता बताने वाला कोई नहीं. ऐसे में बच्चों को बहुत परेशानी होती है.
अब इसी उदाहरण को आप अपने बच्चों पर लागू कीजिए. आप उन्हें क्या आदत डाल रहे हैं? अधिकतर पेरेंट्स गाइडेड और कंट्रोल्ड माहौल की. पेरेंट्स या स्कूल टीचर्स बच्चों को बचपन से ही कोचिंग देना शुरू कर देते हैं. क्या करना है, क्या नहीं करना है, कैसे करना है, क्या पहनना है, कितना खेलना है, कितना पढ़ना है, क्या खाना है आदि न जाने कितने बनिर्देश हर रोज़ हम अपने बच्चों को देते देते बड़ा करते हैं. हम उनकी भलाई के नाम पर, उनके बचपने के नाम पर, उनकी नासमझी के नाम पर, उन्हें गाइडेंस की, निर्देशों की ड्रग्स देते रहते हैं. हम उनकी लाइफ को कंट्रोल करना चाहते हैं और करते हैं.
पेरेंट्स को लगता है कि ज़िन्दगी एक ओलिंपिक है और उनके बच्चों को मेडल जीतना ही है. फिर पेरेंट्स बच्चों को स्पेशलाइज़्ड कोचिंग के लिए इंस्टीटूट्स में भेज देते हैं. वहां कुछ बच्चों का सेलक्शन हो जाता है उनमें से भी काफी एडजस्ट नहीं कर पाते. लेकिन उनकी सोचिए जिनका सेलक्शन नहीं होता. उनका माइंडसेट कैसा होता होगा. वो अपनी असफलता को कैसे हैंडल करते होंगे? असफल होने पर पेरेंट्स भी उन बच्चों को खुद के भरोसे छोड़ देते हैं. कोई गाइडेंस नहीं. एक तो असफलता और उस पर जीवन के जंगल में अकेले गुम.
समाधान क्या है? बच्चों को ओलिंपिक में मैडल लाने के लिए तैयार करने से बेहतर है उन्हें बचपन से ही जंगल में छोड़ दें. उनकी अपनी मंज़िल, अपना रास्ता. देर सवेर ढूंढ कर पा ही लेंगे. जीवन कोई ओलिंपिक नहीं जिसे सब कुछ छोड़कर हर वक़्त जीतने की तैयारी में लगे रहें. जीवन तो जंगल है जिसका आनंद लेते हुए अपनी मज़िल की तरफ बढ़ना है. अब आप तय कीजिए कि आप अपने बच्चों को ओलिंपिक की रेस (कंट्रोल्ड और गाइडेड) दौड़ाएंगे या उन्हें जंगल (अनगाइडेड और स्वतंत्र) में छोड़ेंगे? और ये हमें बचपन से ही करना होगा.
दीपक एस राघव -9953635550
करियर और पेरैंटिंग कोच