28/08/2022
Alakh Niranjan Om Shiva Gorakh-Adesh
ॐ नमो भगवते गोरक्षनाथाय
सिद्धसिद्धान्तपद्धति -
छठा उपदेश [ अवधूत योगी ] -
अथ कोऽवधूत योगिनामेत्यपेक्षायामाह । यः सर्वांन् प्रकृतिविकारानवधुनोतीत्यवधूत योगी । योगोऽस्यास्तीति धूञ्कम्पने धूञिति धातुः कम्पनार्थे वर्तते । कम्पनं चालनं देह दैहिक प्रपञ्चादिषु विषयेषु सङ्गतं मनः परिगृह्य तेभ्यः प्रत्याहृत्य स्वधाममहिम्न परिलीन चेताः प्रपश्वशून्य आदिमध्यान्त निधनभेदवर्जितः ॥ १ ॥
( सद्गुरु से सदुपदेशामृत प्राप्त कर व्यष्टि- पिण्ड और ब्रह्माण्ड में जीवात्मा-परमात्मा का सामरस्य स्थापित कर सिद्धि प्राप्त करने पर नित्य अवधूत स्वरूप की प्राप्ति होती है ।) अवधूत योगी का स्वरूप क्या है, इस जिज्ञासा के समाधान के लिये अवधूत के लक्षण का वर्णन किया जाता है। जो समस्त प्रकृति-विकार - देह, इन्द्रिय, मन और अनात्मसम्बन्धरूप विषयप्रपञ्चादि मलों का अवधूनन- त्याग कर निर्मल स्वरूप में संस्थित हो जाता है, वही अवधूत योगी है। धू धातु 'कम्पन, चालन' अर्थ में प्रयुक्त होता है, जिसका श्रय यह है कि दैहिक प्रपञ्चादिविषयों में आसक्त मन को निगृहीत कर उन विषयों से प्रत्याहारित कर - हटाकर प्रपञ्चरहित होकर तथा जन्म-मरण आदि दुःखों से – द्वन्द्वात्मक परिस्थितियों से छुटकारा पाकर अपने अखण्ड ज्ञानस्वरूप परम शिव में ( सामरस्य के द्वारा ) तल्लीनचित्त योगी हो त्य अवधूत है ।। १ ।।
जयकारो वायुबीजं स्याद्रकारो वह्निबीजकम्
तयोरभेदोंकारश्चिदाकारः
प्रकीर्तितः ॥ २ ॥
'य' वायु का बीज है, 'र' अग्नि का बीज है, दोनों का ऐक्य - सामरस्य ही चिद्रूप ओंकार 'ऊं कहा जाता है ।। २ ॥
विशेष-- तन्त्र में शिव को बिन्दु और शक्ति को बीज कहा गया है। इस तरह महायोगी गोरखनाथ ने अपने योगग्रन्थों में जहाँ पाँच भूत-तत्व, पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और आकाश की धारणा का निर्देश किया है, वहीं उनके बीज का भी क्रमश 'ल' 'व', 'र' 'य' और ह' का वर्णन किया है। सिद्धसिद्धान्तपद्धति के उपर्युक्त दूसरे श्लोक में 'य' और 'र' बीज के कथनका आशय है सभी तत्वों के 'बीज' का ग्रहण पाँच भूतों का लय अपने 'बीज' में स्थापित होता है और चिद्रूप वीज का लय ऊंकार-प्रणव में होता है। ओंकार ॐकार ही समस्त वीज मन्त्र और शब्दों का उपादान कारण है । इस तरह चिद्रूपा शक्ति से ऊंकार प्रणव का तादात्म्य ही शक्ति और शिव की अभेदता - एकता अथवा समरसता है इस सामरस्यसे योगी दिव्य शरीर वाला हो जाता है । भगवान् शिव का प्रकारान्तर से कथन है ।
ग्रह विदू रजः योगिनां साधनावस्था शक्तिरुभयार्मेन यदा भवेद् दिव्यं वपुस्तदा ॥ ( शिवसंहिता ४ । ८७ )
तदेतद् व्यक्तमुच्यते क्लेशपाशतरङ्गाणां कृन्तनेन विमुण्डनम् । सर्वावस्थाविनिर्मुक्तः सोऽवधूतोऽभियते ॥ ३ ॥ जो अविद्या, अस्मिता, राग, द्वेप और अभिनिवेश, पंचक्लेशरूपी जाल के वेग का उच्छेद कर देता है और जाग्रत, स्वप्न, सुषुप्ति, तीनों अवस्थाओं में प्रपञ्च से मुक्त हो जाता है, वही ( आत्मस्वरूप में स्थित ) योगी अवधूत कहा जाता है ।। ३ ।।
निजस्मरविभूतिर्यो योगी स्वाङ्गे विभूषितः आधारे यस्य वा रूढ़िः सोऽवधूतोऽभिधोयते ।। ४ ।।
अविद्यादि पंच क्लेश के स्मरण से परे होकर जो योगी अपने स्वरूप को इन पाँचों क्लेश के नाशरूप भस्म से समलंकृत करता है और आचार्य ( गुरु ) द्वारा निर्दिष्ट योगमार्ग में नित्य आरूढ - दृढ़ रहता है, वही अवधूत कहा जाता है ।। ४ ।।
लोकमध्ये स्थिरासीनः समस्तकलनोज्झितः । कौपोनं खर्परोऽदैन्यं सोऽवधूतोऽभिधीयते ५ ।
( अपने स्वरूप का स्मरण कराने वाले विभूतिरूप अलंकार से शोभित ) विपयप्रपञ्चरूप संसार ( लोक ) में अखण्ड आत्मस्वरूप में दृढभाव से स्थित रहनेवाला, समस्त संकल्पविकल्परूप भेद-भाव से विमुक्त, कटि में ( वस्त्ररूप ) केवल मात्र कौपीन, हाथ में ( जल पीने के लिये तथा भिक्षा ग्रहण के उद्देश्य से ) खर्पर मात्र धारण कर ( लोक में ) देभ्यरहित सर्वसमर्थ रूप में विचरण करने वाला अभय योगी ही अवधूत कहलाता है ।। ५ ।।
अवधूत के वेष और चिह्न
शं सुखं खं परं ब्रह्म शङ्ख सङ्घट्टनाद् भवेत् । सिद्धान्तो धारितो येन सोऽवधूतोऽभिधोयते । ६ ।
'शं' शब्द सुख ( लोककल्याण ) का वाचक है और 'ख' शब्द ( अपने अखण्ड ज्ञानस्वरूप परमात्मा ) परब्रह्म का वाचक है। दोनों के मेल- ऐक्य अथवा योग से 'शंख' शब्द सिद्ध होता है । अपने आत्मस्वरूप में स्थित होकर अपने ज्ञानरूप उपदेशामृत और योगसाधन से जगत् के प्राणियों को सन्मार्ग पर लगा कर उनका कल्याण सम्पादन करने वाला ही अवधूत है । वह शंख धारण करता है - यही सिद्धान्त है । ( शंख को बाह्य चिह्न भी परिलक्षित किया जा सकता है ।) अतएव शंख धारण करने वाला अवधूत कहा जाता है ।। ६ ।।
पादुका पदसंवित्ति गत्वक् स्यादनाहता । शेली यस्य परासंवित् सोऽवधूतोऽभिधीयते ७ । मेखला निवृत्तिनित्यं स्वस्वरूपं कटासनम् । निवृत्तिः षड्विकारेभ्यः सोऽवधूतोऽभिधोयते । ८ ।
चित्प्रकाशपरानन्दौ यस्य वै कुण्डलद्वयम् । तोभिधीयते । ६ ।
जपमालाक्षविश्रान्तिः यस्य धैर्यमयोदण्डः पराकाशश्च खर्परम् । योगपट्टी निजा शक्तिः सोऽवधूतोऽभिधीयते १० ।
पादुका परमात्म-ज्ञान का स्वरूप है, जिसने पैर में पादुका को धारण किया है, ( आन्तरिक लक्षण के रूप में ) जो परमात्म-ज्ञान के आश्रय में स्थित है, जिसने मृगचर्म धारण किया है अथवा ( मृगचर्मरूप ) अनाहत नाद से जो विशोभित है, पराशक्तिरूप ( चिद्रूप ) ज्ञान से जो युक्त है अथवा परासंवित् रूप शेली जिसने गले में धारण की है, वह अवधूत कहा जाता है। जिसने कटि में मेखला पहनी है अथवा जो मेखलारूप ( प्रापंचिक विषयों में ) निवृत्ति को धारण करने वाला है, जो स्थिर आसन पर स्थित है अथवा स्थितआसनरूपी आत्म स्वरूप में ही जो संस्थित है, जो काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद और मत्सर-छः विकारों से निवृत्त – परे है, वही अवधूत है जिसने कानों में दो कुण्डल धारण किये हैं अथवा चित्प्रकाश और परमानन्द से जो सम्पन्न है, जपमाला धारण कर ( मन्त्रजाप पूर्वक) जो आत्मसत्ता का स्मरण करता है अथवा जिसकी दृष्टि में विषय-प्रपंचों से उपरति ही चित्त-विश्रान्ति है, वही अवधूत कहा जाता है। जो दण्ड धारण करता है अथवा धैर्य धारण करना जिसके लिये ( योगसाधना में ) दण्डरूप है, जो हाथ में खर्पर ( खप्पर ) धारण करता है या पराकाश ही जिसके लिये खर्पर है और जो योगपट्टधारण करता है अथवा निजाशक्ति ही जिसके लिये योगपट्ट है, वही अवधूत कहा जाता है ।। ७-१० ।।
भेदाभेदी स्वयं भिक्षां कृत्वा स्वास्वादने रतः । जारणातन्मयी भावः सोऽवधूतोऽभिधीयते ११ । अचिन्त्ये निजदिग्देशे स्वान्तरं वस्तु गच्छति । एकदेशान्तरीयो यः सोऽवधूतोऽभिधीयते १२ । स्वपिण्डममरीकर्तुमनन्ताममरीं च यः । स्वयमेव पिबेदेतां
सोऽवधूतोऽभिधीयते १३ ।
अचिन्त्यावज्रवद्गाढ़ा वासनामलसंकुला ।
सा वज्री भक्षिता येन सोऽवधूतोऽभिधीयते १४ श्रावर्तयति यः सम्यक् स्वस्वमध्ये स्वयं सदा । समत्वेन जगद् वेत्ति सोऽवधूतोऽभिधीयते १५
जो भेद, अभेद, द्वैत और अद्वैत से अतीत होकर द्वैताद्वैत विलक्षण स्वसंवेद्य, अखण्ड ज्ञानस्वरूप आत्मरस के आस्वादन में तत्पर है और जागरण रागद्वेष भाव में पूर्ण वैराग्यभाव से तन्मय है अथवा सच्चिदानन्दस्वरूप में स्वस्थ है, वह अवधूत कहा जाता है। जो देश-काल से अतीत सर्वव्यापक अपने ही में असीम परमात्मा को प्राप्त कर लेता है और ( दूसरों की दृष्टि में ) एकान्त वास में रहते हुए भी जो अपने स्वसंवेद्य स्वरूप में सब जगह विद्यमान है, वही अवधूत कहा जाता है जिसने पार्थिव-भौतिक शरीर को अमर- मृत्युरहित करने के लिये ( बेचरी मुद्रा की सिद्धि के द्वारा ) सहस्रार से द्रवित चन्द्रामृत का ( विपरीत करणी से ) स्वयं पान कर लिया है अथवा जो पान कर लेता है, वह अवधूत कहा जाता है। जिसने मल से दूषित वज्रनाड़ी को (प्रारणायाम आदि की सिद्धि से) मल रहित कर लिया है अथवा वज्रोली के अभ्यास द्वारा जिसने शरीर में वीर्य को ऊर्ध्वमुख कर जीर्ण कर दिया है, पचा लिया है, वह अवधूत कहलाता है। जो अपने आत्मस्वरूप में परमात्मा की अभेदानुभूति करता है अथवा आत्मा-परमात्मा में सामरस्य की सिद्धि कर आत्मपद में प्रतिष्ठित हो जाता है, वही सर्वत्र व्यापक योगी अवधूत कहा जाता है ।। ११-१५ ।।
अवधूत की अवस्था ( स्थिति )
स्वात्मानमवगच्छेद्यः स्वात्मन्येवावतिष्ठते ।
अनुत्थानमयः सम्यक् सोऽवधूतोऽभिधीयते । १६ ।
अनुत्थाधारसम्पन्नः परविश्रान्तिपारगः ।
धृतिचिन्मयतत्वज्ञः सोऽवधूतोऽभिधीयते १७ ।
अव्यक्तं व्यक्तमाधत्ते व्यक्तं सर्वं ग्रसत्यलम् । स सत्यं स्वान्तरे सन्न सोऽवधूतोऽभिधीयते । १८ अवभासात्मको भासः प्रकाशे सुखसंस्थितः ।लीलयारमते लोके सोऽवधूतोऽभिधीयते । क्वचिद् भोगी क्वचित्त्यागी क्वचिन्नग्नोदिगम्बरः ।
aafarar aaचाचारी सोऽवधूतोऽभिधीयते । १६ ।
जो अपने अखण्ड आत्मस्वरूप का प्रत्यक्ष अनुभवी - साक्षात्कार करने वाला है और अपने उस स्वरूप में स्थित है और अनुत्थान ( आत्मा-परमात्मा के ऐक्य ) भाव में तल्लीन है, वही अवधूत कहलाता है । जो परमात्मात्रात्मा के एक स्वरूपमय तादात्म्य में स्वार्थित आत्माभिव्यक्त है और सत्स्वरूप में स्थिति ( विश्रान्ति) का स्वामी है और धैर्यपूर्वक सच्चिदानन्द - परमात्मतत्व में स्थित है—व्यक्त है तथा स्व में भी लीन ( अव्यक्त ) हो जाता है अथवा व्यक्त को अव्यक्त और अव्यक्त परमात्मा को व्यक्त करता है, वह ( अपने भीतर सत्स्वरूप में विद्यमान ) अवधूत कहा जाता है । जो समस्त चराचररूप जगन्मात का प्रकाशक है और अपनी ही अन्तज्योंति- अखण्डपरमात्म प्रकाश में आनन्द का अनुभव करता है और इस लोक में लोकव्यवहार में स्वस्थ है, वह अवधूत कहलाता है जो भोगी, योगी, नग्न दिगम्बर, योगिराज तथा गुरु- सभी रूपों में अखण्ड स्वरूप में प्रतिष्ठित रह कर जीवन धारण करता है, वही अवधूत कहलाता है ।। १६-१६ ॥
एवं विध नानासंकेतसूचको नित्यप्रकाशे वस्तुनि निजस्व रूपी सर्वेषां सिद्धान्तदर्शनानां स्वस्वरूपदर्शने सम्यक् सद् वोधकोऽवधूत योगीत्यभिधीयते स सद्गुरुर्भवति । यतः सर्व दर्शनानां स्वस्वरूपदर्शने समन्वयं करोति सोऽवधूतयोग स्यात् । २० ।
इस तरह नित्य प्रकाश-शुद्ध, बुद्ध, व्यापक आत्मस्वरूप में ही अनेक ( विभिन्न ) सिद्धान्त दर्शनों का स्वरूप-दर्शन में ही सद्बोध सिद्ध ( प्रकाशित ) करने वाला अवधूत कहा जाता है, वह योगी अवधूत सद्गुरु होता है; क्योंकि वह सभी दर्शनों ( अभेदात्मदर्शी मतों ) का स्वरूप में ही समन्वय ( आत्मानुभव ) करता है वास्तव में सर्वत्र आत्मदर्शन करने वाला योगी ही अवधूत है ॥ २० ॥
प्रवधूत की सर्वस्वरूपता
प्रत्याश्रमीच योगी च ज्ञानी सिद्धश्च सुव्रतः । ईश्वरश्च तथा स्वामी धन्यः श्रीसाधुरेव च । २१ । जितेन्द्रियश्च भगवान् स सुधी कोविदो बुधः । चार्वाकश्वार्हतश्चेति तथा बौद्धः प्रकाशवित् । २२ । तार्किकश्चेति सांख्यश्च तथा मीमांसको विदुः । देवतेत्यादि विद्वद्भिः कीर्तितः शास्त्रकोटिभिः । २३ । आत्मेति परमात्मेति जीवात्मेति पुनः स्वयं । अस्तितत्त्वं परं साक्षाच्छिव रुद्रादिसंज्ञितम् । २४ ।
अवधूत अपने स्वसंवेद्य, द्वैताद्वैत विलक्षण, अखण्ड आत्मस्वरूप में आत्मस्थित रहता है, इसलिये वह आश्रम ( ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ और संन्यास ) की अवस्थाओं से परे होने से अत्याश्रमी कहा जाता है, वह ( स्वरूप- ) ज्ञानी तत्वविद्, सिद्ध और योगसाधना व्रत में — जगन्मात्र को परमात्मस्वरूप समझने में दृढ़ होता है । वह सृष्टि, पालन ( स्थिति ) और संहार में ( शक्तियुक्त होने से साक्षात् ) ईश्वर होता है, वह स्वामी ( आत्मनिग्रही ) होता है, वह सर्वदा कृतार्थ और साधु होता है । वह जितेन्द्रिय, आत्मज्ञ, सद्बोधयुक्त, तत्वचिन्तक और सर्वतन्त्र स्वतन्त्र साकार सगुण भगवान् ( सर्वसमर्थ ) होता है । वह समस्त नास्तिक आस्तिक दर्शन में आत्मबुद्धि रखने के कारण सब में अखण्ड आत्मस्वरूप में समाहित रहने वाला, चार्वाक ( सांसारिक विषय भोग प्रवृत देहात्म वादी ), आत्मस्वरूप को प्राप्त अर्हत ( जैन ), स्वात्मप्रकाश में प्रबुद्ध होकर भी ( बुद्धिवृत्तरूपक्षणिक आत्मविज्ञानवादीसुगत ) बौद्ध, न्यायवैशेषिक दर्शनाव लम्बी परिणामवादी, सांख्यवादी तत्त्वनिष्ठ ) ज्ञानी, कर्मकाण्ड को ही परमफल प्राप्ति कराने वाले साधन में निष्ठ पूर्वमीमांसक, संसार का कारण देवता, स्वभाव, काल, कर्म समझने वाले अनेकानेक शास्त्रों और विद्वानों के विचार का समर्थक, वह योगी अवधूत आत्मदर्शन में स्वस्थ होने से सर्वस्वरूप होता है । आत्मा, परमात्मा, जीवात्मा, स्वस्वरूप, शिवरुद्र-नामयुक्त साक्षात् सर्वात्मा ही अवधूत योगी होता है ।। २१-२४
प्रवधूत की सर्वस्वरूपता
प्रत्याश्रमीच योगी च ज्ञानी सिद्धश्च सुव्रतः । ईश्वरश्च तथा स्वामी धन्यः श्रीसाधुरेव च । २१ । जितेन्द्रियश्च भगवान् स सुधी कोविदो बुधः । चार्वाकश्वार्हतश्चेति तथा बौद्धः प्रकाशवित् । २२ । तार्किकश्चेति सांख्यश्च तथा मीमांसको विदुः । देवतेत्यादि विद्वद्भिः कीर्तितः शास्त्रकोटिभिः । २३ । आत्मेति परमात्मेति जीवात्मेति पुनः स्वयं । अस्तितत्त्वं परं साक्षाच्छिव रुद्रादिसंज्ञितम् । २४ ।
अवधूत अपने स्वसंवेद्य, द्वैताद्वैत विलक्षण, अखण्ड आत्मस्वरूप में आत्मस्थित रहता है, इसलिये वह आश्रम ( ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ और संन्यास ) की अवस्थाओं से परे होने से अत्याश्रमी कहा जाता है, वह ( स्वरूप- ) ज्ञानी तत्वविद्, सिद्ध और योगसाधना व्रत में — जगन्मात्र को परमात्मस्वरूप समझने में दृढ़ होता है । वह सृष्टि, पालन ( स्थिति ) और संहार में ( शक्तियुक्त होने से साक्षात् ) ईश्वर होता है, वह स्वामी ( आत्मनिग्रही ) होता है, वह सर्वदा कृतार्थ और साधु होता है । वह जितेन्द्रिय, आत्मज्ञ, सद्बोधयुक्त, तत्वचिन्तक और सर्वतन्त्र स्वतन्त्र साकार सगुण भगवान् ( सर्वसमर्थ ) होता है । वह समस्त नास्तिक आस्तिक दर्शन में आत्मबुद्धि रखने के कारण सब में अखण्ड आत्मस्वरूप में समाहित रहने वाला, चार्वाक ( सांसारिक विषय भोग प्रवृत देहात्म वादी ), आत्मस्वरूप को प्राप्त अर्हत ( जैन ), स्वात्मप्रकाश में प्रबुद्ध होकर भी ( बुद्धिवृत्तरूपक्षणिक आत्मविज्ञानवादीसुगत ) बौद्ध, न्यायवैशेषिक दर्शनाव लम्बी परिणामवादी, सांख्यवादी तत्त्वनिष्ठ ) ज्ञानी, कर्मकाण्ड को ही परमफल प्राप्ति कराने वाले साधन में निष्ठ पूर्वमीमांसक, संसार का कारण देवता, स्वभाव, काल, कर्म समझने वाले अनेकानेक शास्त्रों और विद्वानों के विचार का समर्थक, वह योगी अवधूत आत्मदर्शन में स्वस्थ होने से सर्वस्वरूप होता है । आत्मा, परमात्मा, जीवात्मा, स्वस्वरूप, शिवरुद्र-नामयुक्त साक्षात् सर्वात्मा ही अवधूत योगी होता है ।। २१-२४ ।।
स स कर्म इत्युक्तः ब्रह्मा विष्णुश्च रुद्रश्च सोऽक्षरः परमस्वराट् । स एवेन्द्रः स च प्राणः कालाग्निः स च चन्द्रमाः । २६ स एव सूर्यः स शिवः स एव परमः शिवः । एव योगगम्यश्च सांख्यशास्त्रपरायणैः । २७ । एव कर्ममीमांसकैरपि । सर्वत्र सत्परानन्द इत्युक्तो व्यवहारैरयं मुद मोदे तु रा देने जोवात्मपरमात्मनोः । उभयोरेकसंवित्तिमुद्रेति परिकोर्तिता । ३० । मुद्रति कथिता साक्षात् सदा भद्रार्थदायिनी ३१
शरीरपद्मकुहरे
यत्सर्वेषामवस्थितम् ।
तदवश्यं महापाशाच्छेदितव्यं मुमुक्षुभिः २५
वैदिकैरपि २८ ।
भेदस्तस्मादेकस्य नान्यथा । २६ ।
मोदन्ते देवसङ्घाश्च द्रवन्तेऽसुरराशयः ।
अस्मिन्मार्गेऽदोक्षिता ये सदा संसार रागिणः । तेहि पाखण्डिनः प्रोक्ताः संसारपरिपेलवाः । ३२ अवधूततनुर्योगी निराकारपदे स्थितः । सर्वेषां दर्शनानाश्च स्वस्वरूपं
प्रकाशते । ३३ ।
सभी प्राणियों के शरीर में स्थित ( पद्मकुहर) हृदय में आत्मस्वरूप स्थित है । यह अविद्यारूप महान् मोह-शोक आदि पाशों से आबद्ध है, ( मोक्ष पद की प्राप्ति करने वाले ) मुमुक्षुओं को चाहिये कि इस पाश का उच्छेद कर अपने अखण्ड आत्मस्वरूप में स्वस्थ हो जायें । यह आत्मस्वरूप ( आत्मतत्व ) ही ब्रह्मा, विष्णु, रुद्र, अक्षर, स्वराट् इन्द्र, प्राण, काल, अग्नि, चन्द्रमा, सूर्य, शिव के नामरूप में अभिव्यक्त परम शिव है
योगसाधना के फलस्वरूप इसी स्वसंवेद्य तत्व का परम अनुभव होता है । सांख्यशास्त्र के तत्वज्ञ इसी को परम पुरुष जानते हैं, पूर्वमीमांसा मत से यज्ञादि कर्म के फलस्वरूप इसी महत्तत्व का दिग्दर्शन परिलक्षित है, श्रुति की ऋचायें और वेदान्त सूत्र इसी को परमानन्दस्वरूप परमात्मा कह कर प्रतिपादित करते हैं। इस तरह विभिन्न दर्शनों में व्यवहृत नाम-रूपों में अभिव्यक्त सत्स्वरूप । यह आनन्द प्रदान करता है और जीवात्मा-परमात्मा के ऐक्य - स्वरूप अथवा सामरस्य का यह आत्मतत्व परम सत्य है, दोनों की अखण्ड ज्ञानस्वरूपावस्थिति संवित्ति मुद्रा के रूप में परिकीर्तित--प्रसिद्ध है। ( मुद्रा में मुद् का अर्थ है आनन्द और रा का अर्थ है प्रदान करना । ) मुद्रा ( बाह्य चिह्न के रूप में ) योगी अपने कानों में धारण कर देवताओं को प्रसन्न कर कल्याणभाजन होते हैं और असुरों को भयभीत - कम्पित ( द्रवित ) करते हैं अथवा देवता आनन्दित होते हैं और असुर भयभीत होकर भाग जाते हैं। इस योगमार्ग -- सिद्धामृत मार्ग में जो सद्गुरुद्वारा दीक्षित - - उपदिष्ट नहीं हैं और संसार के विषय भोगादि प्रपंच में रागासक्त हैं। तथा संसार को ही रमणीय समझ कर आत्मस्वरूप के सम्बन्ध में विस्मृत होते हैं, वे ही पाखण्डी - मिथ्यावादी कहलाते हैं । अवधूत योगी तो अपने योगज्ञान के प्रकाश से समस्त आत्मसम्बन्धी तत्वज्ञान में स्वरूप का बोध प्राप्त कर अपने अखण्ड आत्मस्वरूप में संस्थित होकर आत्मतत्व को प्रकाशित करता है ।। २५-३३ ।।
सर्वतो भरिताकारं निजबोधेन वृतम् । चरते ब्रह्मविद्यस्तु ब्रह्मचारी स कथ्यते । ३४ । गृहिणी पूर्णता नित्या गेहं व्योमं सदा बलम् । यस्तया नित्रसत्यत्र गृहस्थः सोऽभिधीयते ३५ । तदान्तः प्रस्थितो योऽसौ स्वप्रकाशमये वने । वानप्रस्थः स विज्ञेयो न वने मृगवच्चरन् । ३६ । परमात्माऽथ जीवात्मा ग्रात्मन्येव स्फुरत्यलम् । तस्मिन्न्यस्त सदा येन संन्यासीसीऽभिधीयते । ३७ ।
अत्याश्रमी - आश्रम धर्मपालन की मर्यादा से परे अवधूत योगी सर्वभाव से ब्रह्मस्वरूप में अखण्ड ज्ञानयुक्त आत्मबोध से पूर्ण होकर ब्रह्मज्ञानी - साक्षात् ब्रह्मरूप होने से ब्रह्मचारी कहा जाता है । वह यद्यपि अनिकेत, पवित्रात्मा और योगसाधना में ही नित्य तृप्त होता है तथापि वह गृहस्थ कहा जाता है, क्योंकि पूर्णता—अखण्ड ब्रह्मरूपता ही उसकी जीवन संगिनी अथवा सहधर्मिणी है, सर्वव्यापक शून्य ( व्योम) ही उसका निवास है अथवा वह ब्रह्म - अलख निरञ्जन परमेश्वर में स्वशक्ति से स्वस्थ अथवा अधिष्ठित होता है स्वप्रकाशमय - अखण्ड अन्तर्ज्योतिरूप वन में ही समस्त चित्तवृत्तियों का निरोध कर ब्रह्म का एकमात्र चिन्तन करता है, इस तरह वह वानप्रस्थ है, केवल वन में हरिण की तरह निवास करने से कोई वानप्रस्थ नहीं होता है । सर्वज्ञत्व - उपाधिसहित परमात्मा और अल्पज्ञत्व उपाधिसहित जीवात्मा की निरुपाधि अखण्ड आत्मस्वरूप में अभेदता की प्रतीति करनेवाला अवधूत योगी अपने समस्त संकल्प का ज्योतिःस्वरूप आत्मा: (परमात्मा) में न्यास कर देता है, वह संन्यासी कहा जाता है ।। ३४-३७।।
मायाकमकलाजालमनिश येन दण्डतम् । अचलो नगवद् भाति त्रिदण्डी सोऽभिधीयते । ३८ । एकं नानाविधाकारं चञ्चलन्तु सदा तु यत् । तच्चित्तं दण्डितं येन एकदण्डी स कथ्यते । ३६ । शुद्धं शान्तं निराकारं परानन्दं सदोदितम् । तं शिवं यो विजानाति शुद्ध शैवो भवेत्तु सः । ४० । सन्तापयति दीप्तानि स्वेन्द्रियाणि च यः सदा । तापसः स तु विज्ञेयो न च गोभस्मधारकः । ४१ । क्रियाजालं पशुं हत्वा पतित्वं पूर्णतां गतम् । यस्तिष्ठेत् पशुभावेन स वै पाशुपतो भवेत् । ४२ ।
संन्यास आश्रम में बाँस के तीन दण्ड धारण करने वाला त्रिदण्डी संन्यासी कहा जाता है, वह माया ( अविद्या ), कर्म ( धर्म-अधर्म ) और कलाजाल ( प्राणादि लिंग शरीर ) के बन्धनका तत्वज्ञान द्वारा: निवारण कर देता है और अपने अखण्ड आत्मस्वरूप में पर्वत के समान अचल - दृढ़ हो जाता है, इस तरह योगी त्रिदण्डी कहलाता है, केवल बाँस के तीन दण्ड ( बाह्य संन्यास-चिह्न के रूप में ) धारण करनेवाला त्रिदण्डी नहीं होता । जो अनेक संकल्प-विकल्प में भ्रमित, अनेक राग-द्वेष आदि वृत्तियों में चश्वल रहता है, उस चित्त को नियन्त्रित - वश में करनेवाला योगी ही एकदण्डी संन्यासी कहा जाता है जो शुद्ध ( गुणातीत, निर्विकार ), निराकार अलख निरञ्जन सर्वव्यापक ), परमानन्द-स्वरूप, स्वप्रकाशित ( स्वसंवेद्य अखण्ड परब्रह्म ) परमेश्वर ( . शिव ) को तत्वत्तः जान लेता है, वही अवधूत योगी शैव है । जो विषय भोग में उद्दीप्त- रागासक्त समस्त इन्द्रियों को प्रत्याहारित ( नियन्त्रित ) कर अखण्ड आत्मस्वरूप में लीन कर देता है, वही योगी तपस्वी ( तापस ) कहलाता है, अंगों को भस्म से रञ्जित करने वाला तापस नहीं होता। जो कर्मजालरूप पशुत्व ( जीवभाव ) का त्याग कर अखण्ड, परात्पर, पूर्णतम परमशिव की उपासना में तत्पर होकर शिवरूप में प्रतिष्ठित हो जाता है, वही वास्तव में पाशुपत ( शैव ) है ।। ३८-४२ ।।
परानन्दमयं लिङ्गं निजपीठे सदाऽचले । तल्लिङ्गं पूजितं येन स वै कालमुखो भवेत् । ४३ । विलयं सर्वतत्त्वानां कृत्वा संधार्यते स्थिरम् । सर्वदा येन वीरेण लिङ्गधारी भवेत्तु सः । ४४ । अन्तकादीनि तत्त्वानि त्यक्त्वा मग्नो दिगम्बरः । यो निर्वाणपदे लीनः स निर्वाणपरो भवेत् । ४५ । स्वस्वरूपात्मकं ज्ञानं समन्त्रं तत् प्रपालितम् । अनन्यत्वं सदा येन स वैकापालिको भवेत् । ४६ ।
जो सच्चिदानन्दस्वरूप, संसार का कारणरूप अपने नित्यधाम में सदा स्थित है, उस लिङ्ग ( परमेश्वर शिव ) की पुष्पचन्दनादि से उपासना - पूजा करने वाला कालमुख कालजयी महाकाल का उपासक कहलाता है । जो समस्त भौतिक तत्व के प्रति विद्यमान अहंकार-भाव का संसाराभिमानरूप शत्रु का. वीरतापूर्वक दमन कर देता है, वही वीरशैव-लिङ्गधारी कहा जाता है । जन्म मरण आदि विनश्वर वस्तुओं का परित्याग कर संसारात्मक आवरण से जो रहित होता है तथा परब्रह्म परमेश्वर में लीन रहता है, वही दिगम्बर, निर्वाण में स्वस्थ - निर्वाणी संन्यासी कहा जाता है। जो गुरु से मन्त्र प्राप्त कर उनके द्वारा उपदिष्ट साधन मार्ग पर चलते हुए अपने शिवस्वरूप में बोधयुक्त तथा अनन्य रहता है, एकमात्र अपने उपास्य का ही ध्यान और चिन्तन करता है, वही कापालिक कहा जाता है ।। ४३-४६ ।।
'महाव्याप्तिपरं
तत्त्वमाधाराधेयवर्जितम् ।
तद् व्रतं धारितं येन स भवेद् वै महाव्रतः । ४७ ।
कुलं सर्वात्मकं पिण्डमकुलं सर्वतोमुखम् । तयोरैक्यपदं शक्तिर्यस्तां वेद स शक्तिभाक् । ४८ । कौल सर्व कलाग्रासः सकृतः सततं यया । तां शक्ति यो विजानाति शक्तिज्ञानी स कथ्यते ज्ञात्वा कुलाकुलं तत्वं सक्रमेण क्रमेण तु स्वप्रकाशमहाशक्त्या ततः शक्तिपदं लभेत् । ४९ ।
अलख निरञ्जन, द्वैताद्वैतविलक्षण, आधार-आधेयरहित ( सर्वव्यापक ), अखण्ड, अविनाशी परमशिव की उपासना का व्रती होने से ( इस तरह का उपासक ) महाव्रती कहा जाता है। पिण्डरूप, कार्यात्मक ( सर्वात्मक ) समष्टि सृष्टिरूप (शिव) ही कुल है, अखण्ड चिद्रूप, अपने में ही निजाशक्ति को संचरित करनेवाला (शिव) अकुल है, कुल-अकुलरूपिणी शक्ति - कुल-अकुल की एकता की महाकारणशक्ति को जाननेवाला ही शक्ति-उपासक ( शाक्त ) कहा जाता है । जिस शक्ति के द्वारा नित्य प्राणादिवस्तु उपादानरूप समस्त कलाओं का ग्रास - विलय कर दिया जाता है, उस प्रलयकारिणी ( महाकाली ) को जानने वाला शक्तिज्ञानी कहा जाता है क्रमपूर्वक कुल अकुल शक्ति से तादात्म्य स्थापित करनेवाला ( उपासक ) शक्तिपद को प्राप्त करता है अथवा कुलाकुलतत्व को उसी से स्वप्रकाशचिद्रूपिणी महाशक्ति में ( स्वाधिष्ठानपूर्वक ) ऐक्य स्थापित करनेवाला साधक शक्तिपद में स्थित होता है ।। ४७-४६ । यथाक्रम जानकर क्रम
मदो मद्य मतिर्मुद्रा माया मीनं मनः पलम् मूच्छेनं मैथुनं यस्य तेनासौ शाक्त उच्यते । ५० ।
( तन्त्र-उपासना के क्षेत्र में वामाचार में मद्य, मुद्रा, मीन, मांस और मैथुन, पंचमकार का सेवन विहित सिद्ध करनेवाले वाममार्गियों ने समाज में साधन सम्बन्धी सत्स्वरूप की प्राप्ति के प्रति व्यामोह उत्पन्न कर दिया । महायोगी गोरखनाथजी ने इस व्यामोह का खण्डन किया।) जीव का अहंकार से प्रेरित होकर अपने को ही सर्वशक्तिमान् मानना ही मद अथवा अभिमान है, यही मद्य है । जीब की कामना - अभिलाषा पूर्ति की इच्छा अथवा मति ही मुद्रा है, शष्कुली ( पूड़ी ) के रूप में मुद्रा का अर्थ नहीं घटित होता है । कुलं सर्वात्मकं पिण्डमकुलं सर्वतोमुखम् । तयोरैक्यपदं शक्तिर्यस्तां वेद स शक्तिभाक् । ४८ । कौल सर्व कलाग्रासः सकृतः सततं यया । तां शक्ति यो विजानाति शक्तिज्ञानी स कथ्यते ज्ञात्वा कुलाकुलं तत्वं सक्रमेण क्रमेण तु स्वप्रकाशमहाशक्त्या ततः शक्तिपदं लभेत् । ४९ ।
अलख निरञ्जन, द्वैताद्वैतविलक्षण, आधार-आधेयरहित ( सर्वव्यापक ), अखण्ड, अविनाशी परमशिव की उपासना का व्रती होने से ( इस तरह का उपासक ) महाव्रती कहा जाता है। पिण्डरूप, कार्यात्मक ( सर्वात्मक ) समष्टि सृष्टिरूप (शिव) ही कुल है, अखण्ड चिद्रूप, अपने में ही निजाशक्ति को संचरित करनेवाला (शिव) अकुल है, कुल-अकुलरूपिणी शक्ति - कुल-अकुल की एकता की महाकारणशक्ति को जाननेवाला ही शक्ति-उपासक ( शाक्त ) कहा जाता है । जिस शक्ति के द्वारा नित्य प्राणादिवस्तु उपादानरूप समस्त कलाओं का ग्रास - विलय कर दिया जाता है, उस प्रलयकारिणी ( महाकाली ) को जानने वाला शक्तिज्ञानी कहा जाता है क्रमपूर्वक कुल अकुल शक्ति से तादात्म्य स्थापित करनेवाला ( उपासक ) शक्तिपद को प्राप्त करता है अथवा कुलाकुलतत्व को उसी से स्वप्रकाशचिद्रूपिणी महाशक्ति में ( स्वाधिष्ठानपूर्वक ) ऐक्य स्थापित करनेवाला साधक शक्तिपद में स्थित होता है ।। ४७-४६ । यथाक्रम जानकर क्रम
मदो मद्य मतिर्मुद्रा माया मीनं मनः पलम् मूच्छेनं मैथुनं यस्य तेनासौ शाक्त उच्यते । ५० ।
( तन्त्र-उपासना के क्षेत्र में वामाचार में मद्य, मुद्रा, मीन, मांस और मैथुन, पंचमकार का सेवन विहित सिद्ध करनेवाले वाममार्गियों ने समाज में साधन सम्बन्धी सत्स्वरूप की प्राप्ति के प्रति व्यामोह उत्पन्न कर दिया । महायोगी गोरखनाथजी ने इस व्यामोह का खण्डन किया।) जीव का अहंकार से प्रेरित होकर अपने को ही सर्वशक्तिमान् मानना ही मद अथवा अभिमान है, यही मद्य है । जीब की कामना - अभिलाषा पूर्ति की इच्छा अथवा मति ही मुद्रा है, शष्कुली ( पूड़ी ) के रूप में मुद्रा का अर्थ नहीं घटित होता है । इसी तरह
माया ही मीन-मछली है, जल में रहनेवाली मछली से तात्पर्य नहीं सिद्ध होता । मन ही मांस ( पल ) है और प्राण अपान का ऐक्य ही मैथुन है अथवा शिव और शक्ति की अखण्ड स्वरूपता में आत्माभिव्यक्ति ही मैथुन है। मद, माया, मन, मुद्रा और मैथुन को महाशक्ति में समर्पित करने वाला ही शाक्त है । ऐसा करने से वह स्वरूप में स्वस्थ हो जाता है। पंचमकार सेवन के इस सात्त्विक रूप से जीवात्मा शाक्त कहा जाता है ।। ५० ।।
यया भासस्फुरद्रूपं कृतं चैव स्फुटं बलात् । तां शक्ति यो विजानाति शाक्तः सोऽत्राभिधीयते । ५१ । यः करोति निरुत्थानं कर्तृ चित् प्रसरेत् सदा । तद्विश्रान्तिस्तया शक्त्या शाक्तः सोऽत्राभिधीयते । ५२ । व्यापकत्वे परं सारं यद्विष्णोराद्यमव्ययम् । विश्रान्तिदायकं देहे तज्ज्ञात्वा वैष्णवो भवेत् । ५३ भास्वत्स्वरूपो यो भेदात् भेदभावोज्झितः खलु । भाति देहे सदा यस्य स वै भागवतो भवेत् । ५४ । यो वेत्ति वैष्णवं भेदैः सर्वासर्वमयं निजम् । प्रबुद्धं सर्व देहस्थं भेदवादी भवेत्तु सः । ५५ । पञ्चानामक्षया हानिः पञ्चत्वं रात्रिरुच्यते । तां रात्रि यो विजानाति स भवत् पाश्चरात्रिकः । ५६ ।
जिस शक्ति के द्वारा हठात् प्रकाशसंच । रक्रियाविशिष्ट जगत् की रचना- सृष्टि की गयी और ब्रह्मरूप प्रकाशित हुआ, उस शक्ति को जो जान जाता है, वह शाक्त कहा जाता है। जो शक्ति को संचार से संकोच कर निरुत्थानस्वरूपस्थिति चित्त- विश्रान्ति में समाधि में तत्पर होकर अपने अखण्ड सच्चिदानन्दस्वरूप में विहार करता है, वही शाक्त कहा जाता है । जो चराचर- समस्त ब्रखाण्ड में व्याप्त विष्णुपद -- अलख निर "तत्व को अपने व्यष्टि-पिण्ड में ही स्थित और अभेद रूप से अभिव्यक्त जानता है, वही नैष्णव कहलाता है । जो स्वप्रकाशरूप भेदातीत होकर सर्वत्र अभेद रूप से व्यापक भगवत्तत्त्व है, उसको जो अपने व्यष्टि पिण्ड में परिव्याप्त -- प्रकाशित अनुभव करता है, वही भागवत कहा जाता है ।
जो व्यष्टि समष्टि में स्वप्रकाशित अखण्ड सर्वात्मस्वरूप को उपासना के स्तर पर विभिन्न रूप में उपास्य समझता है, वह भेदवादी कहा जाता है । पाचभौतिक स्थूल रूप का तिरोधान अथवा प्रलय ही पाश्चरात्र ( परमात्मज्ञान ) कहा जाता है ( विभिन्न वैष्णवागम-जयारव्यसंहिता, पारमेश्वर संहिता तथा नारदपाश्वरान आदि ग्रन्थों में वर्णित ) इस पाश्वरात्नस्वरूप ज्ञान को जानने वाला पावरात्रिक कहा जाता है ।। ५१ – ५६ ।।
येन जीवन्ति जीवा वै मुक्ति यन्ति च तत्क्षणात् । स जीवो विदितो येन सदाजीवो स कथ्यते । ५७ । मः करोति सदा प्रीति प्रसन्ने पुरुषे परे । शासितानीन्द्रियाण्येव सात्त्विकः सोऽभिधीयते । ५८ । सर्वाकारं निराकारं निर्निमित्तं निरञ्जनम् । सूक्ष्मं हंसं च यो वेत्ति स भवेत् सूक्ष्मसात्त्विकः । ५६ सत्यमेकमजं नित्यमनन्तं चाक्षयं ज्ञात्वा यस्तु वदेद्वीरः सत्यवादी स कथ्यते । ६० । ज्ञानज्ञेयमयाभ्यां तु योगनः स्वस्वभावतः । कलङ्का स तु विज्ञेयो व्यापकः पुरुषोत्तमः । ६१ । ध्रुवम् ।
जीवात्मा जिस चैतन्य के बल से जगत् में जन्म लेकर - शरीर प्राप्त कर जीवित रहता है और क्षणमात्र में ( आत्मज्ञान होने पर ) स्वरूप में स्थित होकर मुक्तिपद को प्राप्त होकर चैतन्यस्वरूप हो जाता है, उस परमात्मा से अभिन्न जीवस्वरूप को जो जान लेता है, वह जन्म-मरण दुःख से छुटकारा पाकर सदाजीबी--अमर कहा जाता है। जो परमपुरुष परमात्मा से प्रेम करता है और समस्त विषय- प्रपश्वमयी इन्द्रियों की क्रिया को परमात्मा में लीन कर देता है; वह सात्त्विक कहलाता है । जो समस्त नामरूप में अभिव्यक्त - सर्वाकार और निराकार है, कारणातीत स्त्ररूप में अभिव्यक्त निरञ्जन - मायोपाधिरहित परब्रह्म परमेश्वर है, जो हंम शक्तिशिवरूप परमात्मा है, उसको तत्वतः जान लेने वाला सूक्ष्म - सात्त्विक कहा जाता है जो अखण्ड, अनन्त सत्स्वरूप, नित्य, अक्षय, ध्रुव ( अच्युत--स्वरूप में ही अभिव्यक्त ) निष्क्रिय, अभेद परमात्मा को जानकर तत्व का उपदेश देता है, वही सत्यवादी कहा जाता है मानस और बाह्य- दोनों प्रकार के पदार्थों से परे सर्वव्यापक -- कलंकी, योगमायोपाधिविशिष्ट साकार-सगुण