12/10/2025
बुजुर्गों में कब्ज़ एक आम शिकायत है। यह समस्या चालीस के बाद पकड़ने लगती है। तब कोई ना कोई चूरन या गोली लेने से आराम मिल जाता है, फिर उसकी डोज़ डबल, फिर उससे ज़्यादा होते-होते एक समय ऐसा आता है जब कुछ काम नहीं करता। लेकिन आयुर्वेद की दृष्टि में यह केवल पेट की नहीं, पूरे जीवन की गति के ठहर जाने की कहानी है। कई इसके कारण अवसाद में चले जाते हैं, क्योंकि उन्हें लगता है कि कभी भी जाना पड़ सकता है। इस डर से वे मिलना-जुलना तक सीमित कर देते हैं।
यहीं से एक दुष्चक्र की शुरुआत हो जाती है, फिर यह समझाना मुश्किल हो जाता है कि रोग आंत में है या मन में।
आयुर्वेद में कहा गया हैं, “वायुस्तु वृद्धे प्रशस्यते”, यानी वृद्धावस्था में वात दोष स्वाभाविक रूप से बढ़ता है।
जब शरीर की धातुएँ क्षीण होने लगती हैं, रस का पोषण घट जाता है और अग्नि मंद होती है, तब वही वात जो पहले शरीर को गतिमान रखता था अब रोध उत्पन्न करता है।
वही वात जब कोलन में स्थिर होता है, तब मल का गमन कठिन हो जाता है। यही वातज मलबद्धता है।
ऐसे ही जब मांस और स्नायु शिथिल होते हैं तो शरीर की गति और लचक कम हो जाती है और तब वात का अतिक्रमण होकर अवरोध उत्पन्न करता है।
वृद्धावस्था में यह रुकावट केवल पेट की नहीं होती, यह शरीर, इंद्रियों और मन सभी में फैल जाती है।
इसके चिकित्सा में आचार्य वाग्भट बताते हैं कि वृद्धजन के लिए सबसे बड़ी चिकित्सा स्नेहन और बस्ति है।
आयुर्वेद कहता है, “स्नेहाद् बन्धः शरीरस्य।”
शरीर स्नेह से बंधा है, और जब स्नेह सूखता है तो वात बढ़ता है।
शरीर में सूखापन और मन में अकेलापन, यही वृद्धावस्था की कब्ज़ की सबसे गहरी जड़ है।
क्योंकि यह अवरोध केवल आँतों में नहीं, भावनाओं में भी होता है।
जब मन सिकुड़ता है, जब संवाद घटता है, जब जीवन में कुछ नया घटता नहीं, तब भीतर की अग्नि मंद होने लगती है।
आयुर्वेद कहता है, “अग्निः सर्वद्रव्याणां जीवनम्।” अग्नि ही जीवन है।
जब अग्नि ही मंद हो जाए तो न आहार पचता है, न अनुभव।
वृद्धों में कब्ज़ केवल पाचन की गड़बड़ी नहीं होती, बल्कि वात और अग्नि के असंतुलन के साथ-साथ भावनात्मक शुष्कता का भी परिणाम होती है।
उपचार की शुरुआत केवल रेचक द्रव्यों से नहीं, बल्कि शरीर की स्निग्धता और मन की शांति को लौटाने से करनी चाहिए।
जब तक वात का शमन और मन का पुनर्जीवन नहीं होता, तब तक राहत स्थायी नहीं होती।
इसलिए वृद्धावस्था की कब्ज़ में औषधि से अधिक ज़रूरी है स्नेह, संवाद और जीवन में गति लौटाना।
नियमित अभ्यंग, पर्याप्त नींद और स्निग्ध आहार लेना ठीक रहता है।
अब तो आधुनिक चिकित्सा भी आंत और मन के बीच के सीधे संबंध को मानती है।
आंतों की गतिशीलता और मानसिक स्थिरता एक-दूसरे के साथ चलती हैं।
जिस व्यक्ति के मन में संवाद नहीं, उसके शरीर में भी गति नहीं रहती।
अब सवाल यह है कि करें तो करें क्या।
सबसे ज़रूरी बात यह है कि इस समस्या की शुरुआत में ही इसे ख़त्म करने का प्रयास करें, न कि किसी चूर्ण, पीली गोली या किसी सिरप के आदि बनें।
धीरे-धीरे असर करने वाले आयुर्वेदिक द्रव्यों को भी लंबे समय तक बिना परामर्श के न लें।
सुबह खाली पेट गुनगुना पानी या त्रिफला फांटा जल लें।
रात में घृत या एरंड तेल अग्नि की स्थिति के अनुसार लें।
भोजन में घृत, मूंग, लौकी, किशमिश, पका केला और द्राक्षा जैसे स्निग्ध पदार्थ शामिल करें।
प्रतिदिन यदि संभव हो तो तिल तेल से अभ्यंग करें, विशेषकर पैरों, उदर और कमर पर।
वादी चीज़ों को खाने से बचें, वादी विचार भी न सुनें, मतलब जो विचार आपकी मानसिक शांति को भंग करें उन्हें सुने ही न।
मेरे बाबा कहा करते थे, “बुजुर्ग व्यक्ति को कम सुनाई और कम दिखाई देना चाहिए, ख़ुश रहेगा। सब सुन-देख कर छटपटाहट ही मिलेगी।”
दिन में हल्की सैर, प्राणायाम, संगीत या प्रार्थना करें।
और सबसे आवश्यक, किसी न किसी से मन की बात करते रहें।
वृद्ध का उपचार औषधि से नहीं, स्नेह से शुरू होता है।
कब्ज़ को केवल आंतों का रोग मत समझिए,
यह अक्सर उस शांति और स्नेह के सूख जाने का लक्षण होती है,
जो कभी जीवन को भीतर से प्रवाहित करती थी।
वृद्ध की चिकित्सा तभी पूरी होती है जब उसकी देह के साथ उसका मन भी फिर से चलने लगता है।
एक बात और ख़ुद दवा का चुनाव न करें, क्युकी आप केवल मल निकालने पर ही फोकस कर पाएंगे, एक बात और उम्र के साथ कुछ दिक्कते रहेंगी उसको स्वीकार कर लीजिए,देखिए दिक्कत को इस धरती के सबसे मजबूत व्यक्ति ट्रम्प को भी है,उन्हें भी डायपर पहनना पड़ता है ।
इसलिए,एक बार किसी जानकार से मिलें जो आपके दोषों का उपचार करे, न कि केवल मल को बाहर निकालने का प्रयास करे।
#शतभिषा