23/05/2024
कल और आज के बीच कैलेंडर पर सिर्फ एक तारीख बदलती है, लेकिन कुछ तारीख़ें ऐसी होती हैं, जिन्हें अगर मिटा दिया जाएं तो ये दुनिया अधूरी हो जाएगी। भारतवर्ष के हजारों वर्षों के गौरवशाली इतिहास से यदि 'बुद्ध पूर्णिमा' का दिन हटा दिया जाए तो शायद ये दुनिया हमें विश्व गुरु मानने में संकोच करने लगेगी।
आपने कभी विचार किया है कि शाक्य वंश के राजकुमार 'सिद्धार्थ' गौतम बुद्ध बने क्यों'? क्योंकि वह दुख स्वीकार करने के लिए तैयार नहीं थे, वह दुख की जड़ों तक पहुंचकर उसे हमेशा के लिए समाप्त कर देना चाहते थे। उन्होंने ऐसा किया भी और ऐसा करने का मार्ग भी बताया! जब तक हम सुखों के पीछे अंधों की तरह भागेंगे, दुख भी हमारा पीछा करते रहेंगे। सुख और दुःख साथ आते हैं। जैसे सिक्के को तोड़कर उसके दो पहलू अलग नहीं किए जा सकते, वैसे ही यह असंभव है कि सुख और दुःख अलग कर दिए जाएं। समदर्शी होना पड़ेगा, दोनों को एक नज़र से देखना पड़ेगा, तभी हम इस अंधी दौड़ से मुक्त हो पाएंगे।
एक दिन भगवान बुद्ध के दर्शन करने के लिए एक नगर सेठ आया। बड़ा धन कुबेर। तमाम हाथी-घोड़े सेवक-सेविकाओं के साथ भगवान के पास पहुंचा। दर्शन किए और जाते-जाते उसने भगवान से कहा, 'आप बुद्ध हैं, मुझे बड़ा दुःख होता है जब मैं आपको मिट्टी के पात्र में भिक्षा मांगते हुए देखता हूं। मैं आपके लिए सोने का भिक्षा-पात्र लाया हूं, कृपा करके इसे स्वीकार करें।' भगवान ने मुस्कराकर कहा, 'ठीक है, रख दो।' ये बात भगवान बुद्ध के सबसे प्रिय शिष्य आनंद को अच्छी नहीं लगी। सेठ के जाते ही आनंद फट पड़े, 'भगवान, ये आपने क्या किया? आप भी सोने-चांदी का मोह त्याग नहीं पाए? आपने सोने का भिक्षा पात्र स्वीकार कर लिया। मैं बड़ा निराश हूं, क्या सोचता था आपके बारे में और आप क्या निकले!'
भगवान ने आनंद को पास बुलाया और कहा, 'आनंद, सोने और मिट्टी के अंतर पे तुम रुके हुए हो, मैं तो कब का उसके पार जा चुका हूं। मुझे तो बस भिक्षा-पात्र चाहिए, वो किस धातु का बना है, मुझे इससे क्या?'
आनंद ने कहा, 'यदि आपको कोई फ़र्क़ ही नहीं पड़ता, तो आपको सोना ठुकरा देना चाहिए था।'
भगवान ने उत्तर दिया, 'यदि मैं सोना ठुकरा देता, तो इसका एक ही अर्थ था मैं अब तक सोने और मिट्टी का अंतर भुला नहीं पाया, अब तक मेरी आंखों ने समदर्शी होना नहीं सीखा। प्रत्यक्ष नहीं तो परोक्ष सही, पर माया ने अब तक मुझे जकड़ रखा है।'।
कितनी बड़ी बात कह दी भगवान बुद्ध ने। अगर हम अपने दिए हुए दान को दान मानते हैं, तो सच्चे दानी नहीं हैं, अपने किए हुए परोपकार को परोपकार मानते हैं, तो अभी हमारे पूर्ण परोपकारी होने में कुछ कमी है। जिस दिन हमारा आस्तित्व ही दानमय हो गया, हमारा व्यक्तित्व ही परोपकारी हो गया, उस दिन हम जो दें वही दान है, जो करें वही परोपकार है। हम दानी और परोपकारी होने के अहंकार से सदा के लिए मुक्त हो जाएंगे।