Astro Sight

Astro Sight Astro Sight provides Astrological Services It is a matter of prolonged and bitter controversy whether these subjects are based on any scientific foundation.

Over the ages, various disciplines of study—such as astrology, palmistry, numerology have tried to peep into the future of either individuals or nations. Such disciplines have been termed as “Occult Sciences” because they are based on experience as opposed to extremely accurate criteria required by modern sciences. But modern astrologers through their research on various branches of Astrology have proved its principles to be scientific and true. For thousands of years these subjects have been practiced in all the countries. Scientists and educated people have been taking valuable advice from scholars in these subjects at critical moments of their lives. Even the top most political leaders who mold the destiny of their nations, take advice from astrologers, palmists & mystics and inquire about their own destiny. Astrology basically entails the recording of the precise positions of planets (of the Solar System) in the form of a horoscope. The moment, a baby is born, planets which are moving through certain zodiac signs are located at certain angles (measured in degrees) to each other. The specific location of the planets can be determined on the basis of the latitude and longitude of the place of birth. Over the centuries, planets have been believed to govern an individual’s mind and body as well as their characteristics. Since the study of astrology is based on mathematics, we can expect high degree of accuracy in determining the results. Specific traits or factors such as behavior, characteristics, health, education and aptitude for a particular profession or vocation are decided according to the effects of the planets and their movements.

26/07/2025

मंगल - केतू युति अंगाराक दोष समाप्त हो रहा है 29 अगस्त 2025 से सावधान रहें तब तक

24/07/2025

*RUDRAKSH*
Precious Gift of Lord Shiva

24/07/2025

🌸🌸 *ॐ नमः शिवाय* 🌸🌸
*प्रदोष व्रत परिचय एवं प्रदोष व्रत विस्तृत विधि :---*
प्रत्येक चन्द्र मास की त्रयोदशी तिथि के दिन प्रदोष व्रत रखने का विधान है. यह व्रत कृष्ण पक्ष और शुक्ल पक्ष दोनों को किया जाता है. सूर्यास्त के बाद के २ घण्टे २४ मिनट का समय प्रदोष काल के नाम से जाना जाता है. प्रदेशों के अनुसार यह बदलता रहता है. सामान्यत: सूर्यास्त से लेकर रात्रि आरम्भ तक के मध्य की अवधि को प्रदोष काल में लिया जा सकता है।
ऐसा माना जाता है कि प्रदोष काल में भगवान भोलेनाथ कैलाश पर्वत पर प्रसन्न मुद्रा में नृ्त्य करते है. जिन जनों को भगवान श्री भोलेनाथ पर अटूट श्रद्धा विश्वास हो, उन जनों को त्रयोदशी तिथि में पडने वाले प्रदोष व्रत का नियम पूर्वक पालन कर उपवास करना चाहिए।
यह व्रत उपवासक को धर्म, मोक्ष से जोडने वाला और अर्थ, काम के बंधनों से मुक्त करने वाला होता है. इस व्रत में भगवान शिव की पूजन किया जाता है. भगवान शिव कि जो आराधना करने वाले व्यक्तियों की गरीबी, मृ्त्यु, दु:ख और ऋणों से मुक्ति मिलती है।
*प्रदोष व्रत की महत्ता*
शास्त्रों के अनुसार प्रदोष व्रत को रखने से दौ गायों को दान देने के समान पुन्य फल प्राप्त होता है. प्रदोष व्रत को लेकर एक पौराणिक तथ्य सामने आता है कि " एक दिन जब चारों और अधर्म की स्थिति होगी, अन्याय और अनाचार का एकाधिकार होगा, मनुष्य में स्वार्थ भाव अधिक होगी. तथा व्यक्ति सत्कर्म करने के स्थान पर नीच कार्यो को अधिक करेगा।
उस समय में जो व्यक्ति त्रयोदशी का व्रत रख, शिव आराधना करेगा, उस पर शिव कृपा होगी. इस व्रत को रखने वाला व्यक्ति जन्म- जन्मान्तर के फेरों से निकल कर मोक्ष मार्ग पर आगे बढता है. उसे उतम लोक की प्राप्ति होती है।
*व्रत से मिलने वाले फल*
अलग- अलग वारों के अनुसार प्रदोष व्रत के लाभ प्राप्त होते है।
जैसे- सोमवार के दिन त्रयोदशी पडने पर किया जाने वाला वर्त आरोग्य प्रदान, पितृ ऋण से मुक्त करता है। सोमवार के दिन जब त्रयोदशी आने पर जब प्रदोष व्रत किया जाने पर, उपवास से संबन्धित मनोइच्छा की पूर्ति होती है। जिस मास में मंगलवार के दिन त्रयोदशी का प्रदोष व्रत हो, उस दिन के व्रत को करने से रोगों से मुक्ति व स्वास्थय लाभ प्राप्त होता है एवं बुधवार के दिन प्रदोष व्रत हो तो, उपवासक की सभी कामना की पूर्ति होने की संभावना बनती है।
गुरु प्रदोष व्रत शत्रुओं के विनाश के लिये किया जाता है। शुक्रवार के दिन होने वाल प्रदोष व्रत सौभाग्य और दाम्पत्य जीवन की सुख-शान्ति के लिये किया जाता है। अंत में जिन जनों को संतान प्राप्ति की कामना हो, उन्हें शनिवार के दिन पडने वाला प्रदोष व्रत करना चाहिए। अपने उद्देश्यों को ध्यान में रखते हुए जब प्रदोष व्रत किये जाते है, तो व्रत से मिलने वाले फलों में वृ्द्धि होती है।
*व्रत विधि*
सुबह स्नान के बाद भगवान शिव, पार्वती और नंदी को पंचामृत और जल से स्नान कराएं। फिर गंगाजल से स्नान कराकर बेल पत्र, गंध, अक्षत (चावल), फूल, धूप, दीप, नैवेद्य (भोग), फल, पान, सुपारी, लौंग और इलायची चढ़ाएं। फिर शाम के समय भी स्नान करके इसी प्रकार से भगवान शिव की पूजा करें। फिर सभी चीजों को एक बार शिव को चढ़ाएं।और इसके बाद भगवान शिव की सोलह सामग्री से पूजन करें। बाद में भगवान शिव को घी और शक्कर मिले जौ के सत्तू का भोग लगाएं। इसके बाद आठ दीपक आठ दिशाओं में जलाएं। जितनी बार आप जिस भी दिशा में दीपक रखेंगे, दीपक रखते समय प्रणाम जरूर करें। अंत में शिव की आरती करें और साथ ही शिव स्त्रोत, मंत्र जाप करें। रात में जागरण करें।
*प्रदोष व्रत समापन पर उद्धापन*
इस व्रत को ११, २६ या ११वर्ष तक त्रयोदशियों का व्रत रखने के बाद व्रत का समापन करना चाहिए. इसे उद्धापन के नाम से भी जाना जाता है।
*उद्धापन करने की विधि*
इस व्रत का उद्धापन करने के लिये त्रयोदशी तिथि का चयन किया जाता है. उद्धापन से एक दिन पूर्व श्री गणेश का पूजन किया जाता है. पूर्व रात्रि में कीर्तन करते हुए जागरण किया जाता है. प्रात: जल्द उठकर मंडप बनाकर, मंडप को वस्त्रों या पद्म पुष्पों से सजाकर तैयार किया जाता है. "ऊँ उमा सहित शिवाय नम:" मंत्र का एक माला अर्थात १०८ बार जाप करते हुए, हवन किया जाता है. हवन में आहूति के लिये खीर का प्रयोग किया जाता है।
हवन समाप्त होने के बाद भगवान भोलेनाथ की आरती की जाती है। और शान्ति पाठ किया जाता है. अंत: में दो ब्रह्माणों को भोजन कराया जाता है. तथा अपने सामर्थ्य अनुसार दान दक्षिणा देकर आशिर्वाद प्राप्त किया जाता है।
🌹🙏ॐ नमः शिवाय🙏🌹

15/09/2023
01/10/2021

* #एकादशी_के_दिन_श्राद्ध_नहीं_होता*❓
शास्त्र की आज्ञा है कि एकादशी के दिन श्राद्ध नहीं करना चाहिये। पुष्कर खंड में भगवान शंकर ने पार्वती जी को स्पष्ट रूप से कहा है ,जो एकादशी के दिन श्राद्ध करते हैं तो श्राद्ध को खाने वाला और श्राद्ध को खिलाने वाला और जिस के निमित्त वह श्राद्ध हो रहा है वह पितर, तीनों नर्क गामी होते हैं ।उसके लिए ठीक तो यही होगा कि वह उस दिन के निमित्त द्वादशी को श्राद्ध करें।
तो हमारे महापुरुषों का कहना है कि अगर द्वादशी को श्राद्ध नहीं करें और एकादशी को करना चाहे तो पितरों का पूजन कर निर्धन ब्राह्मण को केवल फलाहार करावे ।भले ही वह ब्राह्मण एकादशी करता हो या ना करता हो। लेकिन हमें उस दिन उसे फलाहार ही करवाना चाहिए ।
*श्राद्ध में कभी स्त्री को श्राद्ध नहीं खिलाया जाता।* आजकल एक प्रचलन है पिताजी का श्राद्ध है तो पंडित जी को खिलाया और माता जी का श्राद्ध है तो ब्राह्मणी को खिलाया यह शास्त्र विरुद्ध है। स्त्री को श्राद्ध का भोजन करने की आज्ञा नहीं है ।क्योंकि वह जनेऊ धारण नहीं कर सकती, उनको अशुद्ध अवस्था आती है, वह संकल्प नहीं करा सकती, तो ब्राह्मण को ही श्राद्ध का भोजन कराना चाहिए ।ब्राह्मण के साथ ब्राह्मणी आ जाए उनकी पत्नी आ जाए साथ में बच्चे आ जाएं कोई हर्ज नहीं पर अकेली ब्राह्मणी को भोजन कराना शास्त्र विरुद्ध है।

*पितरों को पहले थाली नहीं देवें,*
पित्तृ पूजन में पितरों को कभी सीधे थाली नहीं देनी चाहिए। वैष्णवो में पहले भोजन बनाकर पृथम ठाकुर जी को भोग लगाना चाहिए, और फिर वह प्रसाद पितरों को देना चाहिए, कारण क्या है वैष्णव कभी भी अमनिया वस्तु किसी को नहीं देगा। भगवान का प्रसाद ही अर्पण करेगा और भगवान का प्रसाद पितरों को देने से उनको संतुष्टि होगी। इसलिए पितरों को प्रसाद अर्पण करना चाहिए ।
पित्तृ लोक का एक दिन मृत्यु लोक के 1 वर्ष के बराबर होता है ।यहां 1 वर्ष बीतता है पितृ लोक में 1 दिन बीतता है ।
केवल श्राद्ध ही नहीं अपने पितरों के निमित्त श्री गीता पाठ, श्री विष्णु सहस्त्रनाम ,श्री महा मंत्र का जप ,और नाम स्मरण अवश्य करना चाहिए। पितृ कर्म करना यह हमारा दायित्व है ।जब तक यह पंच भौतिक देह है तब तक इस संबंध में जो शास्त्र आज्ञा और उपक्रम है उनका भी निर्वाह करना पड़ेगा ।
*गया जी करने के बाद भी हमें श्राद्ध करना चाहिए।* *गयाजी का श्राद्ध एक विशिष्ट कर्म है, और प्रत्येक वर्ष की पित्तृ तिथि पर श्राद्ध यह हमारा नित्यकर्म है। इसलिए गया जी के बाद भी श्राद्ध कर्म करना गरुड़ पुराण अनुसार धर्म सम्मत है । यह सभी कर्म सनातन हिंदू धर्मावलंबियों के लिए हमारे ऋषियों ने निर्धारित किए हैं*

05/09/2021

A completely Original Thought:

We in Sanathan Dharma: have 3 major sources of Power..as in God's

1) Brahma Ji - As in the Creator..or the Positive Force,

2) Vishnu Ji - As in the Survivor, the Neutral Force.,

3) Mahesh / ShivJi - As in the Destructor,of the Negative Force,

Our Body is made up of numerous atoms..

Each atom similarly is made up of 3 main parts.

1) Proton - Positive Energy

2) Neutron - Neutral Energy..

3) Electron - Negative Energy..

Come to think of it in this way, each atom of a human body is a power in itself...

To expand Further, to create any thing/object ( any invention for the good of mankind ) we need the positive energy, or the Proton power of the atom, to maintain and sustain any product for the mankind ( like growing and regrowing crops every new farming season ) we need the neutron Power, to destruct any obsolete product ( like an old building about to collapse so that a new building can come up) we need the Electron part of the energy.

ॐ जय शिव ओंकारा,भोले हर शिव ओंकारा।
ब्रह्मा विष्णु सदा शिव अर्द्धांगी धारा ॥

ॐ हर हर हर महादेव...॥

ब्रह्मा विष्णु सदाशिव जानत अविवेका।
प्रणवाक्षर के मध्ये ये तीनों एका ॥

ॐ हर हर हर महादेव..

Astro Sight

29/08/2021

*श्रीकृष्ण जन्माष्टमी पर्व संदिग्ध व्रत पर्व शंका समाधान*
कृष्ण जन्मोत्सव पर्व इस वर्ष सोमवार 30 अगस्त 2021 को मनाया जाएगा। जन्माष्टमी जिसके आगमन से पहले ही उसकी तैयारियां जोर शोर से आरंभ हो जाती है पूरे भारत वर्ष में जन्माष्टमी पर्व पूर्ण आस्था एवं श्रद्धा के साथ मनाया जाता है।

श्री कृष्णजन्माष्टमी भगवान श्री कृष्ण का जनमोत्स्व है। योगेश्वर कृष्ण के भगवद गीता के उपदेश अनादि काल से जनमानस के लिए जीवन दर्शन प्रस्तुत करते रहे हैं। जन्माष्टमी भारत में हीं नहीं बल्कि विदेशों में बसे भारतीय भी इसे पूरी आस्था व उल्लास से मनाते हैं। श्रीकृष्ण ने अपना अवतार भाद्रपद माह की कृष्ण पक्ष की अष्टमी को मध्यरात्रि को अत्याचारी कंस का विनाश करने के लिए मथुरा में लिया। चूंकि भगवान स्वयं इस दिन पृथ्वी पर अवतरित हुए थे अत: इस दिन को कृष्ण जन्माष्टमी के रूप में मनाते हैं। इसीलिए श्रीकृष्ण जन्माष्टमी के मौके पर मथुरा नगरी भक्ति के रंगों से सराबोर हो उठती है।

श्रीकृष्ण जन्माष्टमी के पावन मौके पर भगवान कान्हा की मोहक छवि देखने के लिए दूर दूर से श्रद्धालु इस दिन मथुरा पहुंचते हैं। श्रीकृष्ण जन्मोत्सव पर मथुरा कृष्णमय हो जात है। मंदिरों को खास तौर पर सजाया जाता है। ज्न्माष्टमी में स्त्री-पुरुष बारह बजे तक व्रत रखते हैं। इस दिन मंदिरों में झांकियां सजाई जाती है और भगवान कृष्ण को झूला झुलाया जाता है। और रासलीला का आयोजन होता है।

*पौराणिक मान्यता*

पौराणिक धर्म ग्रंथों के अनुसार भगवान विष्णु ने पृथ्वी को पापियों से मुक्त करने हेतु कृष्ण रुप में अवतार लिया, भाद्रपद माह की कृष्ण पक्ष की अष्टमी को मध्यरात्रि को रोहिणी नक्षत्र में देवकी और वासुदेव के पुत्ररूप में हुआ था। जन्माष्टमी को स्मार्त और वैष्णव संप्रदाय के लोग अपने अनुसार अलग-अलग ढंग से मनाते हैं. श्रीमद्भागवत को प्रमाण मानकर स्मार्त संप्रदाय के मानने वाले चंद्रोदय व्यापनी अष्टमी अर्थात रोहिणी नक्षत्र में जन्माष्टमी मनाते हैं तथा वैष्णव मानने वाले उदयकाल व्यापनी अष्टमी एवं उदयकाल रोहिणी नक्षत्र को जन्माष्टमी का त्यौहार मनाते हैं।

अष्टमी दो प्रकार की है- पहली जन्माष्टमी और दूसरी जयंती। इसमें केवल पहली अष्टमी है।

स्कन्द पुराण के मतानुसार जो भी व्यक्ति जानकर भी कृष्ण जन्माष्टमी व्रत को नहीं करता, वह मनुष्य जंगल में सर्प और व्याघ्र होता है। ब्रह्मपुराण का कथन है कि कलियुग में भाद्रपद मास के कृष्ण पक्ष की अष्टमी में अट्ठाइसवें युग में देवकी के पुत्र श्रीकृष्ण उत्पन्न हुए थे। यदि दिन या रात में कलामात्र भी रोहिणी न हो तो विशेषकर चंद्रमा से मिली हुई रात्रि में इस व्रत को करें। भविष्य पुराण का वचन है- श्रावण मास के शुक्ल पक्ष में कृष्ण जन्माष्टमी व्रत को जो मनुष्य नहीं करता, वह क्रूर राक्षस होता है। केवल अष्टमी तिथि में ही उपवास करना कहा गया है। यदि वही तिथि रोहिणी नक्षत्र से युक्त हो तो 'जयंती' नाम से संबोधित की जाएगी। वह्निपुराण का वचन है कि कृष्णपक्ष की जन्माष्टमी में यदि एक कला भी रोहिणी नक्षत्र हो तो उसको जयंती नाम से ही संबोधित किया जाएगा। अतः उसमें प्रयत्न से उपवास करना चाहिए। विष्णुरहस्यादि वचन से- कृष्णपक्ष की अष्टमी रोहिणी नक्षत्र से युक्त भाद्रपद मास में हो तो वह जयंती नामवाली ही कही जाएगी। वसिष्ठ संहिता का मत है- यदि अष्टमी तथा रोहिणी इन दोनों का योग अहोरात्र में असम्पूर्ण भी हो तो मुहूर्त मात्र में भी अहोरात्र के योग में उपवास करना चाहिए। मदन रत्न में स्कन्द पुराण का वचन है कि जो उत्तम पुरुष है। वे निश्चित रूप से जन्माष्टमी व्रत को इस लोक में करते हैं। उनके पास सदैव स्थिर लक्ष्मी होती है। इस व्रत के करने के प्रभाव से उनके समस्त कार्य सिद्ध होते हैं। विष्णु धर्म के अनुसार आधी रात के समय रोहिणी में जब कृष्णाष्टमी हो तो उसमें कृष्ण का अर्चन और पूजन करने से तीन जन्मों के पापों का नाश होता है। भृगु ने कहा है- जन्माष्टमी, रोहिणी और शिवरात्रि ये पूर्वविद्धा ही करनी चाहिए तथा तिथि एवं नक्षत्र के अन्त में पारणा करें। इसमें केवल रोहिणी उपवास भी सिद्ध है। अन्त्य की दोनों में परा ही लें।

श्रीकृष्ण-जन्माष्टमी की रात्रि को मोहरात्रि कहा गया है। इस रात में योगेश्वर श्रीकृष्ण का ध्यान, नाम अथवा मंत्र जपते हुए जगने से संसार की मोह-माया से आसक्ति हटती है। जन्माष्टमी का व्रत व्रतराज है। इसके सविधि पालन से आज आप अनेक व्रतों से प्राप्त होने वाली महान पुण्यराशिप्राप्त कर लेंगे।

व्रजमण्डलमें श्रीकृष्णाष्टमी के दूसरे दिन भाद्रपद-कृष्ण-नवमी में नंद-महोत्सव अर्थात् दधिकांदौ श्रीकृष्ण के जन्म लेने के उपलक्षमें बडे हर्षोल्लास के साथ मनाया जाता है। भगवान के श्रीविग्रहपर हल्दी, दही, घी, तेल, गुलाबजल, मक्खन, केसर, कपूर आदि चढाकर ब्रजवासीउसका परस्पर लेपन और छिडकाव करते हैं। वाद्ययंत्रोंसे मंगलध्वनि बजाई जाती है। भक्तजन मिठाई बांटते हैं। जगद्गुरु श्रीकृष्ण का जन्मोत्सव नि:संदेह सम्पूर्ण विश्व के लिए आनंद-मंगल का संदेश देता है।

*संदिग्ध व्रत पर्व निर्णय*

गत वर्षो की भाँति इस वर्ष भी दो दिन अष्टमी व्याप्त होने से जन्माष्टमी व्रत एंव उत्सव के सम्बन्ध मे संशय बना हुआ है ओर इसी कारण हमारे पुराणो व धर्मग्रंथो मे कृष्ण जन्माष्टमी व्रत व उत्सव का निर्णय स्मार्त मत (गृहस्थ और सन्यासी) व वैष्णव मत (मथुरा वृन्दावन) साम्प्रदाय के लिए अलग अलग सिद्धांतो से किया है। गृहस्थ व उतरी भारत के लोग कृष्ण जन्माष्टमी व्रत पूजा अर्धरात्रि व्यापिनी अष्टमी रोहिणी नक्षत्र वृषभ लग्न मे करते है जबकि वैष्णव मत वाले लोग विशेष कर मथुरा वृन्दावन अन्य प्रदेशो मे उदयकालिन अष्टमी (नवमी युता) के दिन ही कृष्ण उत्सव मनाते आ रहे है। अर्द्धरात्रि को अष्टमी व रोहिणी नक्षत्र हो या न हो इस बात को महत्व नही देते है। जन्म स्थली मथुरा को आधार मानकर मनाई जाने वाले श्रीकृष्ण उत्सव के दिन ही सरकार छुट्टी की घोषणा करती है। श्रीकृष्ण जन्माष्टमी का व्रत तथा जन्मोत्सव दो अलग अलग स्थितिया है।

*जन्माष्टमी निर्धारण के नियम*
1👉 अष्टमी पहले ही दिन आधी रात को विद्यमान हो तो जन्माष्टमी व्रत पहले दिन किया जाता है।

2👉 अष्टमी केवल दूसरे ही दिन आधी रात को व्याप्त हो तो जन्माष्टमी व्रत दूसरे दिन किया जाता है।

3👉 अष्टमी दोनों दिन आधी रात को व्याप्त हो और अर्धरात्रि (आधी रात) में रोहिणी नक्षत्र का योग एक ही दिन हो तो जन्माष्टमी व्रत रोहिणी नक्षत्र से युक्त दिन में किया जाता है।

4👉 अष्टमी दोनों दिन आधी रात को विद्यमान हो और दोनों ही दिन अर्धरात्रि (आधी रात) में रोहिणी नक्षत्र व्याप्त रहे तो जन्माष्टमी व्रत दूसरे दिन किया जाता है।

5👉 अष्टमी दोनों दिन आधी रात को व्याप्त हो और अर्धरात्रि (आधी रात) में दोनों दिन रोहिणी नक्षत्र का योग न हो तो जन्माष्टमी व्रत दूसरे दिन किया जाता है।

6👉 अगर दोनों दिन अष्टमी आधी रात को व्याप्त न करे तो प्रत्येक स्थिति में जन्माष्टमी व्रत दूसरे ही दिन होगा।

विशेष: उपरोक्त मुहूर्त स्मार्त मत के अनुसार दिए गए हैं स्मार्त मत वाले प्रायः व्रत निर्णय उदयव्यापिनी तिथि को आधार मानकर ही करते है। वैष्णवों के मतानुसार श्रीकृष्ण जन्माष्टमी अगले दिन मनाई जाएगी। ध्यान रहे कि वैष्णव और स्मार्त सम्प्रदाय मत को मानने वाले लोग इस त्यौहार को अलग-अलग नियमों से मनाते हैं।

हिन्दू धर्मशास्त्रों के अनुसार वैष्णव वे लोग हैं, जिन्होंने वैष्णव संप्रदाय में बतलाए गए नियमों के अनुसार विधिवत दीक्षा ली है। ये लोग अधिकतर अपने गले में कण्ठी माला पहनते हैं और मस्तक पर विष्णुचरण का चिन्ह (टीका) लगाते हैं। इन वैष्णव लोगों के अलावा सभी लोगों को धर्मशास्त्र में स्मार्त कहा गया है। दूसरे शब्दों में हम कह सकते हैं कि - वे सभी लोग, जिन्होंने विधिपूर्वक वैष्णव संप्रदाय से दीक्षा नहीं ली है, स्मार्त कहलाते हैं।

*कृष्ण जन्माष्टमी का मुहूर्त*

भगवान श्रीकृष्ण का जन्म रोहिणी नक्षत्र में हुआ था। इसलिए जन्माष्टमी रोहिणी नक्षत्र में मनाया जाना सर्वोत्तम माना गया है। पंचांग के मुताबिक, रोहिणी नक्षत्र 30 अगस्त शाम 06 बजकर 37 मिनट से ही आरंभ हो जाएगा। 31 अगस्त को दिन पर्यन्त रहेगा। ऐसे में 30 अगस्त को पूजा का शुभ मुहुर्त रात्रि 11 बजकर 57 मिनट से 12 बजकर 41 मिनट तक का है और पारण का समय 31 अगस्त की सुबह 09 बजकर 41 मिनट के बाद से 1 घंटे तक है।

जन्‍माष्‍टमी की तिथि:👉 30 अगस्‍त।

अष्टमी तिथि आरंभ👉 रात 11 बजकर 23 मिनट से (29 अगस्त)

अष्टमी तिथि समाप्त 👉 रात 01 बजकर 57 मिनट तक (31 अगस्त)

निशिथ (रात्रि) पूजा का समय 👉 रात 11 बजकर 57 मिनट से 12 बजकर 41 मिनट तक (31 अगस्त)

पारण 👉 सुबह 09 बजकर 41 मिनट के बाद (31 अगस्त) सूर्योदय के पश्चात रहेगा।

इस वर्ष वैष्णव कृष्ण जन्माष्टमी 30 अगस्त को ही मनाई जाएगी।

दही हाण्डी भी 30 अगस्त को ही मनाई जाएगी।

*नोट शास्त्र विचार*
इस वर्ष स्मार्त और वैष्णव दोनो ही सम्प्रदायों द्वारा 30 अगस्त सोमवार के दिन जन्माष्टमी व्रत रखा जाएगा। शास्त्र अनुसार व्रत रखने वाले भक्त 30 तारीख सोमवार के दिन निसंकोच होकर व्रत रख सकते है। क्योंकि कृष्ण जन्माष्टमी में श्रीकृष्ण के जन्म समय मे अष्टमी तिथि और रोहिणी नक्षत्र का होना अत्यंत आवश्यक है और यह 30 तारीख को उपलब्ध रहेगी।

26/07/2021

महादेव की बिल्व पत्रों से पूजा
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त्रिदेवों में भगवान शिव को सबसे जल्दी प्रसन्न होने वाला माना गया है। भगवान शिव को ‘भोलेनाथ’ और ‘औघड़’ माना गया है जिसका तात्पर्य यह है कि वो किसी को बहुत अधिक परेशान नहीं देख सकते और भक्त की थोड़ी सी भी परेशानी उनकी करुणा को जगा देती है।

नीलकंठ रूपेण करुणामय भगवान शिव अपने भक्तों की पीड़ा स्वयं पर ले लेते हैं। इसलिए शास्त्रानुसार जो कोई भी भगवान शिव की दिल से पूजा करता है, वह सदैव ही सभी परेशानियों से मुक्त रहता है।

ऐसे तो भगवान शिव की पूजा की कई विधियां हैं लेकिन सामान्य रूप से बिल्वपत्र चढ़ाकर शिवलिंग पर केवल जल अर्पण करना भी भोलेनाथ की कृपा दिलाता है। अगर यह क्रिया कुछ मंत्रों के उच्चारण के साथ की जाय, तो भोलेशंकर व्यक्ति की हर मनोकामना पूर्ण करते हैं।

हर प्रकार की पूजा और मंत्र उच्चारण में 108 का बहुत महत्व है। यहां हम आपको 108 शिव मंत्रों के बारे में बता रहे हैं, किसी भी दिन इन 108 मंत्रों के साथ आप भगवान शिव की पूजा या शिवलिंग पर जलापर्ण करें तो आपकी हर मनोकामना पूर्ण होगी। सोमवार या श्रावण सोमवार के दिन ऐसा करना विशेष रूप से फलदायी माना जाता है।

त्रिदलं त्रिगुणाकारं त्रिनेत्रं च त्रियायुधम् ।

त्रिजन्म पापसंहारं एकबिल्वं शिवार्पणम् ॥१॥

त्रिशाखैः बिल्वपत्रैश्च अच्छिद्रैः कोमलैः शुभैः।

तव पूजां करिष्यामि एकबिल्वं शिवार्पणम् ॥२॥

सर्वत्रैलोक्यकर्तारं सर्वत्रैलोक्यपालनम् ।

सर्वत्रैलोक्यहर्तारं एकबिल्वं शिवार्पणम् ॥३॥

नागाधिराजवलयं नागहारेण भूषितम् ।

नागकुण्डलसंयुक्तं एकबिल्वं शिवार्पणम् ॥४॥

अक्षमालाधरं रुद्रं पार्वतीप्रियवल्लभम् ।

चन्द्रशेखरमीशानं एकबिल्वं शिवार्पणम् ॥५॥

त्रिलोचनं दशभुजं दुर्गादेहार्धधारिणम् ।

विभूत्यभ्यर्चितं देवं एकबिल्वं शिवार्पणम् ॥६॥

त्रिशूलधारिणं देवं नागाभरणसुन्दरम् ।

चन्द्रशेखरमीशानं एकबिल्वं शिवार्पणम् ॥७॥

गङ्गाधराम्बिकानाथं फणिकुण्डलमण्डितम् ।

कालकालं गिरीशं च एकबिल्वं शिवार्पणम् ॥८॥

शुद्धस्फटिक सङ्काशं शितिकण्ठं कृपानिधिम् ।

सर्वेश्वरं सदाशान्तं एकबिल्वं शिवार्पणम् ॥९॥

सच्चिदानन्दरूपं च परानन्दमयं शिवम् ।

वागीश्वरं चिदाकाशं एकबिल्वं शिवार्पणम् ॥१०॥

शिपिविष्टं सहस्राक्षं कैलासाचलवासिनम् ।

हिरण्यबाहुं सेनान्यं एकबिल्वं शिवार्पणम् ॥११॥

अरुणं वामनं तारं वास्तव्यं चैव वास्तवम् ।

ज्येष्टं कनिष्ठं गौरीशं एकबिल्वं शिवार्पणम् ॥१२॥

हरिकेशं सनन्दीशं उच्चैर्घोषं सनातनम् ।

अघोररूपकं कुम्भं एकबिल्वं शिवार्पणम् ॥१३॥

पूर्वजावरजं याम्यं सूक्ष्मं तस्करनायकम् ।

नीलकण्ठं जघन्यं च एकबिल्वं शिवार्पणम् ॥१४॥

सुराश्रयं विषहरं वर्मिणं च वरूधिनम् ी

महासेनं महावीरं एकबिल्वं शिवार्पणम् ॥१५॥

कुमारं कुशलं कूप्यं वदान्यञ्च महारथम् ।

तौर्यातौर्यं च देव्यं च एकबिल्वं शिवार्पणम् ॥१६॥

दशकर्णं ललाटाक्षं पञ्चवक्त्रं सदाशिवम् ।

अशेषपापसंहारं एकबिल्वं शिवार्पणम् ॥१७॥

नीलकण्ठं जगद्वन्द्यं दीननाथं महेश्वरम् ।

महापापसंहारं एकबिल्वं शिवार्पणम् ॥१८॥

चूडामणीकृतविभुं वलयीकृतवासुकिम् ।

कैलासवासिनं भीमं एकबिल्वं शिवार्पणम् ॥१९॥

कर्पूरकुन्दधवलं नरकार्णवतारकम् ।

करुणामृतसिन्धुं च एकबिल्वं शिवार्पणम् ॥२०॥

महादेवं महात्मानं भुजङ्गाधिपकङ्कणम् ।

महापापहरं देवं एकबिल्वं शिवार्पणम् ॥२१॥

भूतेशं खण्डपरशुं वामदेवं पिनाकिनम् ।

वामे शक्तिधरं श्रेष्ठं एकबिल्वं शिवार्पणम् ॥२२॥

फालेक्षणं विरूपाक्षं श्रीकण्ठं भक्तवत्सलम् ।

नीललोहितखट्वाङ्गं एकबिल्वं शिवार्पणम् ॥२३॥

कैलासवासिनं भीमं कठोरं त्रिपुरान्तकम् ।

वृषाङ्कं वृषभारूढं एकबिल्वं शिवार्पणम् ॥२४॥

सामप्रियं सर्वमयं भस्मोद्धूलितविग्रहम् ।

मृत्युञ्जयं लोकनाथं एकबिल्वं शिवार्पणम् ॥२५॥

दारिद्र्यदुःखहरणं रविचन्द्रानलेक्षणम् ।

मृगपाणिं चन्द्रमौळिं एकबिल्वं शिवार्पणम् ॥२६॥

सर्वलोकभयाकारं सर्वलोकैकसाक्षिणम् ।

निर्मलं निर्गुणाकारं एकबिल्वं शिवार्पणम् ॥२७॥

सर्वतत्त्वात्मकं साम्बं सर्वतत्त्वविदूरकम् ।

सर्वतत्त्वस्वरूपं च एकबिल्वं शिवार्पणम् ॥२८॥

सर्वलोकगुरुं स्थाणुं सर्वलोकवरप्रदम् ।

सर्वलोकैकनेत्रं च एकबिल्वं शिवार्पणम् ॥ ी२९॥

मन्मथोद्धरणं शैवं भवभर्गं परात्मकम् ।

कमलाप्रियपूज्यं च एकबिल्वं शिवार्पणम् ॥३०॥

तेजोमयं महाभीमं उमेशं भस्मलेपनम् ।

भवरोगविनाशं च एकबिल्वं शिवार्पणम् ॥३१॥

स्वर्गापवर्गफलदं रघुनाथवरप्रदम् ।

नगराजसुताकान्तं एकबिल्वं शिवार्पणम् ॥३२॥

मञ्जीरपादयुगलं शुभलक्षणलक्षितम् ।

फणिराजविराजं च एकबिल्वं शिवार्पणम् ॥३३॥

निरामयं निराधारं निस्सङ्गं निष्प्रपञ्चकम् ।

तेजोरूपं महारौद्रं एकबिल्वं शिवार्पणम् ॥३४॥

सर्वलोकैकपितरं सर्वलोकैकमातरम् ।

सर्वलोकैकनाथं च एकबिल्वं शिवार्पणम् ॥३५॥

चित्राम्बरं निराभासं वृषभेश्वरवाहनम् ।

नीलग्रीवं चतुर्वक्त्रं एकबिल्वं शिवार्पणम् ॥३६॥

रत्नकञ्चुकरत्नेशं रत्नकुण्डलमण्डितम् ।

नवरत्नकिरीटं च एकबिल्वं शिवार्पणम् ॥३७॥

दिव्यरत्नाङ्गुलीस्वर्णं कण्ठाभरणभूषितम् ।

नानारत्नमणिमयं एकबिल्वं शिवार्पणम् ॥३८॥

रत्नाङ्गुलीयविलसत्करशाखानखप्रभम् ।

भक्तमानसगेहं च एकबिल्वं शिवार्पणम् ॥३९॥

वामाङ्गभागविलसदम्बिकावीक्षणप्रियम् ।

पुण्डरीकनिभाक्षं च एकबिल्वं शिवार्पणम् ॥४०॥

सम्पूर्णकामदं सौख्यं भक्तेष्टफलकारणम् ।

सौभाग्यदं हितकरं एकबिल्वं शिवार्पणम् ॥४१॥

नानाशास्त्रगुणोपेतं स्फुरन्मङ्गल विग्रहम् ।

विद्याविभेदरहितं एकबिल्वं शिवार्पणम् ॥४२॥

अप्रमेयगुणाधारं वेदकृद्रूपविग्रहम् ।

धर्माधर्मप्रवृत्तं च एकबिल्वं शिवार्पणम् ॥४३॥

गौरीविलाससदनं जीवजीवपितामहम् ।

कल्पान्तभैरवं शुभ्रं एकबिल्वं शिवार्पणम् ॥४४॥

सुखदं सुखनाशं च दुःखदं दुःखनाशनम् ।

दुःखावतारं भद्रं च एकबिल्वं शिवार्पणम् ॥४५॥

सुखरूपं रूपनाशं सर्वधर्मफलप्रदम् ।

अतीन्द्रियं महामायं एकबिल्वं शिवार्पणम् ॥४६॥

सर्वपक्षिमृगाकारं सर्वपक्षिमृगाधिपम् ।

सर्वपक्षिमृगाधारं एकबिल्वं शिवार्पणम् ॥४७॥

जीवाध्यक्षं जीववन्द्यं जीवजीवनरक्षकम् ।

जीवकृज्जीवहरणं एकबिल्वं शिवार्पणम् ॥४८॥

विश्वात्मानं विश्ववन्द्यं वज्रात्मावज्रहस्तकम् ।

वज्रेशं वज्रभूषं च एकबिल्वं शिवार्पणम् ॥४९॥

गणाधिपं गणाध्यक्षं प्रलयानलनाशकम् ।

जितेन्द्रियं वीरभद्रं एकबिल्वं शिवार्पणम् ॥५०॥

त्र्यम्बकं मृडं शूरं अरिषड्वर्गनाशनम् ।

दिगम्बरं क्षोभनाशं एकबिल्वं शिवार्पणम् ॥५१॥

कुन्देन्दुशङ्खधवलं भगनेत्रभिदुज्ज्वलम् ।

कालाग्निरुद्रं सर्वज्ञं एकबिल्वं शिवार्पणम् ॥५२॥

कम्बुग्रीवं कम्बुकण्ठं धैर्यदं धैर्यवर्धकम् ।

शार्दूलचर्मवसनं एकबिल्वं शिवार्पणम् ॥५३॥

जगदुत्पत्तिहेतुं च जगत्प्रलयकारणम् ।

पूर्णानन्दस्वरूपं च एकबिल्वं शिवार्पणम् ॥५४॥

सर्गकेशं महत्तेजं पुण्यश्रवणकीर्तनम् ।

ब्रह्माण्डनायकं तारं एकबिल्वं शिवार्पणम् ॥५५॥

मन्दारमूलनिलयं मन्दारकुसुमप्रियम् ।

बृन्दारकप्रियतरं एकबिल्वं शिवार्पणम् ॥५६॥

महेन्द्रियं महाबाहुं विश्वासपरिपूरकम् ।

सुलभासुलभं लभ्यं एकबिल्वं शिवार्पणम् ॥ ५७॥

बीजाधारं बीजरूपं निर्बीजं बीजवृद्धिदम् ।

परेशं बीजनाशं च एकबिल्वं शिवार्पणम् ॥५८॥

युगाकारं युगाधीशं युगकृद्युगनाशनम् ।

परेशं बीजनाशं च एकबिल्वं शिवार्पणम् ॥५९॥

धूर्जटिं पिङ्गलजटं जटामण्डलमण्डितम् ।

कर्पूरगौरं गौरीशं एकबिल्वं शिवार्पणम् ॥६०॥

सुरावासं जनावासं योगीशं योगिपुङ्गवम् ।

योगदं योगिनां सिंहं एकबिल्वं शिवार्पणम् ॥६१॥

उत्तमानुत्तमं तत्त्वं अन्धकासुरसूदनम् ।

भक्तकल्पद्रुमस्तोमं एकबिल्वं शिवार्पणम् ॥६२॥

विचित्रमाल्यवसनं दिव्यचन्दनचर्चितम् ।

विष्णुब्रह्मादि वन्द्यं च एकबिल्वं शिवार्पणम् ॥६३॥

कुमारं पितरं देवं श्रितचन्द्रकलानिधिम् ।

ब्रह्मशत्रुं जगन्मित्रं एकबिल्वं शिवार्पणम् ॥६४॥

लावण्यमधुराकारं करुणारसवारधिम् ।

भ्रुवोर्मध्ये सहस्रार्चिं एकबिल्वं शिवार्पणम् ॥६५॥

जटाधरं पावकाक्षं वृक्षेशं भूमिनायकम् ।

कामदं सर्वदागम्यं एकबिल्वं शिवार्पणम् ॥६६॥

शिवं शान्तं उमानाथं महाध्यानपरायणम् ।

ज्ञानप्रदं कृत्तिवासं एकबिल्वं शिवार्पणम् ॥६७॥

वासुक्युरगहारं च लोकानुग्रहकारणम् ।

ज्ञानप्रदं कृत्तिवासं एकबिल्वं शिवार्पणम् ॥६८॥

शशाङ्कधारिणं भर्गं सर्वलोकैकशङ्करम् ी

शुद्धं च शाश्वतं नित्यं एकबिल्वं शिवार्पणम् ॥६९॥

शरणागतदीनार्तपरित्राणपरायणम् ।

गम्भीरं च वषट्कारं एकबिल्वं शिवार्पणम् ॥७०॥

भोक्तारं भोजनं भोज्यं जेतारं जितमानसम् ी

करणं कारणं जिष्णुं एकबिल्वं शिवार्पणम् ॥७१॥

क्षेत्रज्ञं क्षेत्रपालञ्च परार्धैकप्रयोजनम् ।

व्योमकेशं भीमवेषं एकबिल्वं शिवार्पणम् ॥७२॥

भवज्ञं तरुणोपेतं चोरिष्टं यमनाशनम् ।

हिरण्यगर्भं हेमाङ्गं एकबिल्वं शिवार्पणम् ॥७३॥

दक्षं चामुण्डजनकं मोक्षदं मोक्षनायकम् ।

हिरण्यदं हेमरूपं एकबिल्वं शिवार्पणम् ॥७४॥

महाश्मशाननिलयं प्रच्छन्नस्फटिकप्रभम् ।

वेदास्यं वेदरूपं च एकबिल्वं शिवार्पणम् ॥७५॥

स्थिरं धर्मं उमानाथं ब्रह्मण्यं चाश्रयं विभुम् ी

जगन्निवासं प्रथममेकबिल्वं शिवार्पणम् ॥७६॥

रुद्राक्षमालाभरणं रुद्राक्षप्रियवत्सलम् ।

रुद्राक्षभक्तसंस्तोममेकबिल्वं शिवार्पणम् ॥७७॥

फणीन्द्रविलसत्कण्ठं भुजङ्गाभरणप्रियम् ी

दक्षाध्वरविनाशं च एकबिल्वं शिवार्पणम् ॥७८॥

नागेन्द्रविलसत्कर्णं महीन्द्रवलयावृतम् ।

मुनिवन्द्यं मुनिश्रेष्ठमेकबिल्वं शिवार्पणम् ॥७९॥

मृगेन्द्रचर्मवसनं मुनीनामेकजीवनम् ।

सर्वदेवादिपूज्यं च एकबिल्वं शिवार्पणम् ॥८०॥

निधनेशं धनाधीशं अपमृत्युविनाशनम् ।

लिङ्गमूर्तिमलिङ्गात्मं एकबिल्वं शिवार्पणम् ॥८१॥

भक्तकल्याणदं व्यस्तं वेदवेदान्तसंस्तुतम् ।

कल्पकृत्कल्पनाशं च एकबिल्वं शिवार्पणम् ॥८२॥

घोरपातकदावाग्निं जन्मकर्मविवर्जितम् ।

कपालमालाभरणं एकबिल्वं शिवार्पणम् ॥८३॥

मातङ्गचर्मवसनं विराड्रूपविदारकम् ।

विष्णुक्रान्तमनन्तं च एकबिल्वं शिवार्पणम् ॥८४॥

यज्ञकर्मफलाध्यक्षं यज्ञविघ्नविनाशकम् ।

यज्ञेशं यज्ञभोक्तारं एकबिल्वं शिवार्पणम् ॥८५॥

कालाधीशं त्रिकालज्ञं दुष्टनिग्रहकारकम् ।

योगिमानसपूज्यं च एकबिल्वं शिवार्पणम् ॥८६॥

महोन्नतमहाकायं महोदरमहाभुजम् ।

महावक्त्रं महावृद्धं एकबिल्वं शिवार्पणम् ॥८७॥

सुनेत्रं सुललाटं च सर्वभीमपराक्रमम् ।

महेश्वरं शिवतरं एकबिल्वं शिवार्पणम् ।।८८॥

समस्तजगदाधारं समस्तगुणसागरम् ।

सत्यं सत्यगुणोपेतं एकबिल्वं शिवार्पणम् ॥ ८९॥

माघकृष्णचतुर्दश्यां पूजार्थं च जगद्गुरोः ।

दुर्लभं सर्वदेवानां एकबिल्वं शिवार्पणम् ॥९०॥

तत्रापि दुर्लभं मन्येत् नभोमासेन्दुवासरे ।

प्रदोषकाले पूजायां एकबिल्वं शिवार्पणम् ॥९१॥

तटाकं धननिक्षेपं ब्रह्मस्थाप्यं शिवालयम्

कोटिकन्यामहादानं एकबिल्वं शिवार्पणम् ॥९२॥

दर्शनं बिल्ववृक्षस्य स्पर्शनं पापनाशनम् ।

अघोरपापसंहारं एकबिल्वं शिवार्पणम् ।।९३॥

तुलसीबिल्वनिर्गुण्डी जम्बीरामलकं तथा ।

पञ्चबिल्वमिति ख्यातं एकबिल्वं शिवार्पणम् ॥९४॥

अखण्डबिल्वपत्रैश्च पूजयेन्नन्दिकेश्वरम् ।

मुच्यते सर्वपापेभ्यः एकबिल्वं शिवार्पणम् ॥९५॥

सालङ्कृता शतावृत्ता कन्याकोटिसहस्रकम् ।

साम्राज्यपृथ्वीदानं च एकबिल्वं शिवार्पणम् ॥९६॥

दन्त्यश्वकोटिदानानि अश्वमेधसहस्रकम् ।

सवत्सधेनुदानानि एकबिल्वं शिवार्पणम् ।।९७॥

चतुर्वेदसहस्राणि भारतादिपुराणकम् ।

साम्राज्यपृथ्वीदानं च एकबिल्वं शिवार्पणम् ॥९८॥

सर्वरत्नमयं मेरुं काञ्चनं दिव्यवस्त्रकम् ।

तुलाभागं शतावर्तं एकबिल्वं शिवार्पणम् ॥९९॥

अष्टोत्तरश्शतं बिल्वं योऽर्चयेल्लिङ्गमस्तके ।

अधर्वोक्तं अधेभ्यस्तु एकबिल्वं शिवार्पणम् ॥१००॥

काशीक्षेत्रनिवासं च कालभैरवदर्शनम् ।

अघोरपापसंहारं एकबिल्वं शिवार्पणम् ।।१०१॥

अष्टोत्तरशतश्लोकैः स्तोत्राद्यैः पूजयेद्यथा ।

त्रिसन्ध्यं मोक्षमाप्नोति एकबिल्वं शिवार्पणम् ॥१०२॥

दन्तिकोटिसहस्राणां भूः हिरण्यसहस्रकम्

सर्वक्रतुमयं पुण्यं एकबिल्वं शिवार्पणम् ।।१०३॥

पुत्रपौत्रादिकं भोगं भुक्त्वा चात्र यथेप्सितम् ।

अन्ते च शिवसायुज्यं एकबिल्वं शिवार्पणम् ॥१०४॥

विप्रकोटिसहस्राणां वित्तदानाच्च यत्फलम् ।

तत्फलं प्राप्नुयात्सत्यं एकबिल्वं शिवार्पणम् ॥१०५॥

त्वन्नामकीर्तनं तत्त्वं तवपादाम्बु यः पिबेत्

जीवन्मुक्तोभवेन्नित्यं एकबिल्वं शिवार्पणम् ॥१०६॥

अनेकदानफलदं अनन्तसुकृतादिकम् ।

तीर्थयात्राखिलं पुण्यं एकबिल्वं शिवार्पणम् ॥१०७॥

त्वं मां पालय सर्वत्र पदध्यानकृतं तव ।

भवनं शाङ्करं नित्यं एकबिल्वं शिवार्पणम् ॥१०८॥
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