16/05/2025
*एक अचंभा हमने देखा बन्दर दूहे गाय।*
*दूध दूध तो सब पी लेवे घी वनारस जाय।।*
*कबीरदास जी के भक्तों ने कहा कि महाराज! कुछ समझ में नहीं आया। कबीरदास जी बोले -- हो गया सत्संग। बन्दर गाय दुह रहा है और दूध खुद पी लेता है, घी वनारस चला जाता है, सत्संग हो गया। अरे कहा महाराज! समझाओ तो।*
*तो हमें जो समझ आई बात सो कह रहे हैं। बन्दर है मन और गौ इन्द्रियां, गो गोचर, गो नाम इन्द्रियों का है। यह बन्दर रूपी मन ही इन इन्द्रियों का दोहन कर रहा है। इनकी शक्ति का पान स्वयं कर रहा है। आंख कहती है कि अब तो हमें नींद लग रही है, देखते-देखते थक गये। मन कहता है कि नहीं, थोड़ी देर और देखो। कान कहता है सुनते-सुनते थक गए, मन कहता है थोड़ा और। आंख कहती है बुढ़ापे में नहीं दिखता, मन कहता है चश्मा बनवा लो, पर देखो। कान में मशीन लगवा लो, पर सुनो। पांव नहीं चल पा रहे हैं, मन कहता है थोड़ी दूर और, थोड़ी दूर और घूम कर आते हैं, चलो। मन इन इन्द्रियों से दिन-रात काम ले रहा है।*
*अच्छा हम लोग क्या करते हैं? गाय को खिलाते हैं चारा और निकालते हैं दूध। इन्द्रियों को जो सुख सुविधा चाहिए वह मन देता नहीं है और काम दिन-रात लेता है। तो यही बन्दर का गाय दुहना है। एक अचंभा हमने देखा बन्दर दूहे गाय। अच्छा अब यह क्या है कि दूध दूध तो सब पी लेवे घी वनारस जाय? विना दूध का घी। दूध तो पी लिया, अब घी बचा। तो विना दूध का घी -- इसका अर्थ है विना शक्ति का जीवन। यौवन की शक्ति तो यह सब पी गया, अब बुढ़ापा आया। यह विना दूध का घी है। शक्ति नहीं है स्वांस है बस। बुढ़ापे में कहां चले? काशी। ••• क्यों? वहाँ मरने से मुक्ति मिलेगी।*
*तो यह मन ही बन्दर है। इसीलिए हम लोगों का मन भी कभी-कभी ऐसी बात करता है जैसे बड़े वैराग्य में डूबा हुआ हो। लेकिन थोड़ी देर में बदल जाता है। तो ऐसे में हंसी आती है ना।*
*तो भगवान को हंसी आ गई। इसलिए --*
*सुनि विराग संजुत कपि बानी।*
*लक्ष्मण जी ने कहा -- कितनी बढ़िया बात सुग्रीव जी कह रहे हैं? भगवान ने कहा -- थोड़ा रुक जाओ, थोड़ी देर में दूसरी बात करेंगे। यह बन्दर है अभी इस शाखा पर दिखाई दे रहा है, थोड़ी देर में दूसरी शाखा पर दिखाई देगा।*
*लक्ष्मण जी बोले -- एक बात है, इस बन्दर को अब कोई डर नहीं है। •••क्यों? बोले -- चाहे जितनी उछल-कूद करे, पर इसे मदारी मिल गया है।*
*नट मरकट इव सबहिं नचावत।*
*भगवान नचा रहे हैं बन्दर को। अच्छा मदारी तो बन्दर को नचाता ही है, तो राम जी भी नचाते हैं। लेकिन एक अंतर है। वे जो मदारी बंदर को नचाते हैं वे द्वार-द्वार नचाते हैं और राम जी ऐसे मदारी हैं कि जिसे अपना बना लेते हैं उसे द्वार-द्वार नहीं, अपने ही द्वार नचाते हैं।*
*प्रभु ने कहा -- ठीक है, ठीक है सोचेंगे। अभी तो जो व्यवहारिक समस्या है उसका समाधान करो, जाओ। भगवान ने भेजा सुग्रीव को। सुग्रीव जी ने जाकर ललकारा, क्योंकि सोच रहे थे कि अपने को तो ललकारना ही है केवल। बाण तो भगवान चला ही देंगे, वचनबद्ध हैं। अब जैसे ही सुग्रीव ने बालि को ललकारा--*
*सुनत बालि क्रोधातुर धावा।*
*गहि कर चरन नारि समुझावा।।*
*(क्रमशः)*
*श्री राम जय राम जय जय राम*