20/05/2023
पहाड़ पर उससे बातें करना अच्छा लगता है-उसकीखुशी भी और वेदना भी । प्रस्तुत है पहाड से कुछ वेदना के स्वर
पहाड़
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डा संजीव कुमार
नंगा पहाड़ विस्मित है -
नहीं दिखते उसे चारों ओर
हरियाली भरे वन. उपवन
बाग-बगीचे
वृक्ष और लतायें
वनस्पतियाँ और औषधियाँ
हरे भरे खेत. खलिहान
जो थे कभी
सबके जीवन के आधारों
जिनसे होती थी बरसात
जिनसे विकसता था पर्यावरण जिनसे नियंत्रित होती थी जलवायु
और जिनसे चलते थे
बाज़ार और व्यापार
जिसका थे वह
साधन और स्रोत
जिस पर होता था
वहाँ के निवासियों का
कामकाज और अर्थोपार्जन
और बनती थी
समाज की अर्थव्यवस्था
सदियों से।
नहीं दिखते उसे
उत्पात मचाते बंदर
फुदकती गिलहरियाँ
कुलाँचे भरते हिरन
इधर उधर ताकती लोमड़ियाँ
हुआ हुआ करते सियार
चुपचाप चरती भेंडें
घोंसले बनाते पक्षीm
मस्त गाती कोयलें
व्याकुल उड़ती टिटिहरी
और प्रकाशित नहीं महसूस होते
उसके वक्ष पर रेंगते हुए
सरीसृप और जीत जन्तु।
नहीं दिखतीं उसे
बर्फ से ढकी ऊँची चोटियाँ
कल-कल बहती नदियाँ
टकराती और चूमती
उसके कूल-किनारे
बहते हुए झरने
सुनाते हुए मृदु संगीत
और कलसों में भरती पानी
यौवनायें और सुन्दरियाँ।
आज वहि खोजता है
अपना हरियाली भरा अतीत
बादलों भरा आसमान
बारिश की झूमती हवायें
लहराते पेड़ पौधे
खेती करते किसान
फसल काटती औरतें
बागों में फल तोड़ते बच्चे
और नाचते मन-मयूर।
आज वह खोजता है
अपनी घाटी में बसे गाँव
गोबर और गेरू से लिपे घर
कोलाहल भरी गलियाँ
खेलते और झगड़ते बच्चे
हुक्का गुड़गुड़ाते बुजुर्ग
चूल्हा फूँकती औरतें
और पशुओं का चारा
बनाते नौजवान।
पर ऐसा लगता है
कि विकास की गंगा में
बह गया सब कुछ
और बच गया केवल सन्नाटा
उसके आसपास दूर तक।