
08/07/2024
परमार्थ सत्य में दिशा नहीं, देश नहीं, गुण नहीं, गति नहीं और परमार्थ सत्य का कोई फल भी नहीं। (दिग्देशगुणगतिफलभेदशून्यं हि परमार्थसत्.. छन्दोग्य-भाष्य)
मतलब परमार्थ सत्य को जानने से कोई फल-विशेष की प्राप्ति हो जाए, ऐसा नहीं।
परंतु, परमार्थ में यह नहीं यह नहीं, यह भी नहीं, वह हमारे जैसे मंदबुद्धि पुरुषों को असत् जैसा प्रतीत होता । लगता है की परमार्थ सत् मतलब कुछ नहीं ।
श्रुति भगवती को हमारी यह मानसिक विकलांगता मालूम है । श्रुति का मत यह है की पहले यह सन्मार्ग पर स्थित हो जाएँ तब धीरे-धीरे परमार्थ सत् भी ग्रहण करवा दूँगी । (......शनैः परमार्थ-सत्-अपि ग्राहयिष्यामि....छन्दोग्य भाष्य..)
एक आख्यायिका है।
पूर्व में देवता और असुर, ने कहीं से सुन और समझ रखा था की आत्मा को जान लेने के बाद जीव 1. सम्पूर्ण लोकों और 2. सम्पूर्ण भोगों को प्राप्त कर लेता है । ये बड़े प्रतापी जीव थे । ये ऊंचे जीव थे ।
हमारे लिए अच्छे से अच्छे फ्लैट, बंगला और फार्महाउस का , अथवा अमरीका का ग्रीन कार्ड का जो महत्व है इनके लिए वही महत्व लोकों का है। लोक मतलब अलग अलग आयाम (dimension) मे विद्यमान जगह ।
उसी तरह जो महत्व हमारे लिए तरह तरह के खान-पान-संगीत-इत्र और उससे उत्पन्न सुख का है, उससे कहीं ज्यादा उत्तम सुख , जो इन पदार्थों के साथ या इनके बिना, ऊर्जा तरंग आदि के रूप में भोग्य हैं, उसको प्राप्त करना चाहते थे।
एक तरह से देखा जाए तो ये देवता और दानव , दोनों हीं आजकल की भाषा में, लोक और सुख के लिए हीं आत्मा को जानना चाहते थे। सामान्य रूप से देखा जाए तो लगेगा, ये कैसी बात है? भला लोक और भोग के लिए आत्मा को जानने की इच्छा करना ?
हरिशंकर परसाई तो ऐसे आत्मा को जिज्ञासुओं पर व्यंग्य लिखे हैं, पर वे व्यंग्यकार अच्छे थे, औपनिषदिक सिद्धांत और जीव के मनोविज्ञान का क्या सम्बद्ध है यह उन्हे थोड़े मालूम था ।
कोई दूसरा होता तो भगा देता- चाहते तो हो “लोक और भोग”- अरे उसका उपाय आत्मा को जानना थोड़े हीं है।
पर श्रुति-भगवती दयालु हैं। वेद -सिद्धांत जीव के मन को समझतें है। वेद-भगवान जो हैं – जीव के कल्याण करने वाला साक्षात ज्ञान राशि ।
वेद भगवान ने कहा- आप ठीक हो । देवता और दानव अपने जगह पर सही भी थे । भले हीं वे “लोक और भोग” को चाहते थे , पर चरम लोक और चरम सुख को- नौकरी से, नेतागिरी से , धन से, कुछ लिख-पढ़ कर, आदि आदि से प्राप्त करने की न सोचा । सीधे सीधे “आत्मा के ज्ञान ” के द्वारा हीं “लोक और भोग” को प्राप्त करने की सोचा। यह बड़ी बात है ।
यह जो आत्मा है, यह जो चैतन्य है, उसमें अनंत शक्ति है। यद्यपि परमार्थ रूप से वह शांत और निरीह है, पर सभी ज्ञान, शक्ति, सौन्दर्य, का अधिष्ठान भी वही है। जो इसको जानने की इच्छा को लेकर सभी “लोक और भोग की कामना” छोड़ देता है वह तो उच्च है । परंतु जो “लोक और भोग की प्राप्ति के लोभ से” भी, आत्मा को हीं जानना चाहता है, वह भी उच्च हीं है, क्योंकि भोग की प्राप्ति के लिए भी वह किसी अन्य उपाय की शरण में नहीं गया। आत्मा की हीं शरण में गया। धीरे धीरे उसको भी लोकों और भोगों को प्राप्त होते हुए परमार्थ सत् का ज्ञान हो हीं जाएगा । (......शनैः परमार्थ-सत्-अपि ग्राहयिष्यामि....छन्दोग्य भाष्य..)
हम इस चैतन्य की शक्ति की, Power Of Consciousness की चर्चा करना चाहते हैं। Power of Consciousness के सामने , Power of Unconscious या Power Of Now आदि सभी बौने हैं । उस आत्मा की, चैतन्य की शक्ति और सामर्थ्य अप्रतिहत है। उसको प्रणाम है ।