23/05/2025
"संभव का आगमन हो चुका है... अब शांभवी की प्रतीक्षा है..."
आज हमारी शादी को एक और साल पूरा हुआ। यह सिर्फ एक तारीख नहीं है, यह एक संघर्ष से तपकर खड़ा हुआ सपना है। यह फोटो बस एक तस्वीर नहीं, यह हमारी पूरी यात्रा की झलक है।
बाईं ओर मेरी जीवनसंगिनी — मेरी पत्नी, मेरी शक्ति। दाईं ओर मेरी मां — जिनका आशीर्वाद ही मेरी जड़ों की मजबूती है। और गोद में — मेरा बेटा शाश्वत, जिसे हम संभव कहते हैं।
संभव इसलिए क्योंकि... जो असंभव लगता था, वह मां और पत्नी के आशीर्वाद से संभव हुआ।
आज जब हरे कृष्णा सेवार्थ हॉस्पिटल की इमारत खड़ी है, उसमें नींव मेरी पत्नी की तपस्या की है।
अगर उस दिन वो मुझे न रोकती, न संभालती, न हिम्मत देती, तो आज अस्पताल के दरवाज़े पर “Free Cancer Treatment for All” का सपना शायद सपना ही रह जाता।
रामायण में लिखा है:
"पत्नी वह होती है, जो वनवास में भी तुम्हारे साथ चले, और राजमहल में भी तुम्हारा अभिमान न बने।"
मेरी पत्नी उसी सीता जैसी हैं — जो न केवल साथ चलीं, बल्कि हर दुख-सुख में मेरी संकल्प-शक्ति बनकर खड़ी रहीं।
हमारा सपना है:
एक ऐसा अनाथ आश्रम जहाँ बच्चे हों, बुज़ुर्ग हों, बेसहारा हों... और सबको लगे — यह घर है!
एक ऐसा कॉलेज, जहाँ शिक्षा में संस्कार हो।
एक ऐसा हॉस्पिटल, जहाँ गरीब से गरीब को भी कैंसर जैसी बीमारी से लड़ने का हक़ मिले — बिना एक भी रुपये के।
मदन मोहन मालवीय जी से प्रेरित होकर यह प्रण है, पर उस प्रण को मेरी पत्नी ने दिशा दी है।
इसलिए आज — मैं सिर झुकाकर कहता हूं:
"जो कुछ भी हूं, पत्नी की वजह से हूं। और जो भी बनूंगा, उनकी छाया में ही बनूंगा।"
हे परमपिता परमेश्वर —
जैसे आपने मुझे संभव दिया, अब शांभवी की प्रतीक्षा है —
एक बेटी, जो हर घर में लक्ष्मी बनकर आए।
हर पिता को ऐसा बेटा मिले।
हर बेटा ऐसी मां पाए।
और हर पुरुष को ऐसी पत्नी — जो केवल जीवनसाथी नहीं, जीवन की संकल्पशक्ति हो।
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