09/02/2025
कबीर का बड़ा प्रसिद्ध वचन है--
"दो पाटन के बीच में साबित बचा न कोय।'
कबीर ने एक चक्की चलते देखी। कोई चक्की चला रही है औरत सुबह-सुबह, कबीर लौटते होंगे सुबह कहीं भ्रमण के बाद, देखा सब पिसा जा रहा है। लौटकर घर उन्होंने यह पद रचा। उनका बेटा कमाल बैठा सुन रहा था। उसने कहा कि रुको, ठीक कहते हो कि पाट के बीच कोई भी साबित नहीं बचा, लेकिन बीच में एक कील है, कभी उसका खयाल किया? उसके सहारे जो गेहूं के दाने लग जाते हैं, वे नहीं पिसते।
चक्की चलायी तुमने कभी? अब चक्की खो गयी है, इसलिए शायद तुम्हें खयाल भी न हो, लेकिन बीच की कील के सहारे जो दाने लग जाते हैं, वे फिर पिस नहीं पाते। उनको फिर दुबारा डालना पड़ता है। जिसने कील का सहारा लिया, वह बच गया।
संसार दो पाटों की तरह पीस रहा है। लेकिन इसमें मेरु की कील भी है। शरीर और मन के दो पाट तुम्हें पीस रहे हैं, पर इसके बीच में आत्मा की कील भी है। उसे पकड़ो। उसे गहो। उसका साथ लो। उसके सहारे हो जाओ। फिर तुम्हें कोई भी पीस न पायेगा। जन्म आये, जन्म; मौत आये, मौत; दुख, सुख, जो आये, आये; तुम अछूते, पार, दूर बने रहोगे। तुम्हें कुछ भी छू न पायेगा।
उस अतिक्रमण करनेवाली कील को पकड़ना। साधु की सारी चेष्टा यही है। ध्यान में, समाधि में यही तो चेष्टा है कि किसी तरह अपनी कील को पकड़ ले।