Vedic Life Yoga Center Agra

Vedic Life Yoga Center Agra Must give service opportunity once.

योगाचार्य पवन आर्य
01/03/2024

योगाचार्य पवन आर्य

वैदिक मान्यता में ईश्वर एक ही है।

प्रश्न :- क्या वेदों में ऐसी कोई मंत्र है जहां लिखा है कि ईश्वर एक ही है?
उत्तर:-
।। इन्द्रं मित्रं वरुणमग्निमाहुरथो दिव्य: स सुपर्णो गरुत्मान् ।।
।। एकं सद् विप्रा बहुधा वदंत्यग्नि यमं मातरिश्वानमाहु: ।। -ऋग्वेद (1-164-46)

भावार्थ :जिसे लोग इन्द्र, मित्र, वरुण आदि कहते हैं, वह सत्ता केवल एक ही है; ऋषि लोग उसे भिन्न-भिन्न नामों से पुकारते हैं।

ॐ।। यो भूतं च भव्‍य च सर्व यश्‍चाधि‍ति‍ष्‍ठति‍।।
स्‍वर्यस्‍य च केवलं तस्‍मै ज्‍येष्‍ठाय ब्रह्मणे नम:।। -(अथर्ववेद 10-8-1)

भावार्थ :जो भूत, भवि‍ष्‍य और सब में व्‍यापक है, जो दि‍व्‍यलोक का भी अधि‍ष्‍ठाता है, उस ब्रह्म (परमेश्वर) को प्रणाम है।

सुपर्णं विप्राः कवयो वचोभिरेकं सन्तं बहुधा कल्पयन्ति । छन्दांसि च दधतो अध्वरेषु ग्रहान्त्सोमस्य मिमते द्वादश ॥-ऋग्वेद (10-114-5)

भावार्थ : अपना विशेषरूप से पूरण करनेवाले क्रान्तदर्शी ज्ञानी लोग उस उत्तम पालनात्मक व पूरणात्मक कर्मोंवाले प्रभु को एक होते हुए को भी वेदवाणियों से अनेक प्रकार से कल्पितम करते है। सृष्टि के उत्पादक के रूप में वे उसे ’ब्रह्मा’ कहते हैं, तो धारण करनेवाले को ’विष्णु’ तथा प्रलयकर्ता के रूप में वे उसे ’रूद्र व शिव’ कहते हैं। और प्रभु स्मरण के साथ हिंसारहित यज्ञात्मक कर्मों में वेद-मन्त्रों को धारण करते हुए ये लोग मन्त्रोच्चारण पूर्वक यज्ञों को करते हुए, इन मन्त्रों को अपना पाप से बचानेवाला बनाते हुए दस इन्द्रियों, मन व बुद्धि’ इन बारह को सोम का, वीर्यशक्ति का ग्रहण करनेवाला बनाते हैं। सोमयज्ञों में बारह सोमपात्रों की तरह ये ’इन्द्रियों, मन व बुद्धि’ भी बारह सोमपात्र कहते हैं।

तदेवाग्निस्तदादित्यस्तद्वायुस्तदु चन्द्रमा:।
तदेव शुक्रं तद् ब्रह्म ताऽआप: स प्रजापति:||—यजुर्वेद(32/1)

भावार्थ : "वह अग्नि (उपासनीय) है,वह आदित्य (नाश-रहित) है, वह वायु (अनन्त बल युक्त) है वह चंद्रमा (हर्ष का देने वाला) है, वह शुक्र (उत्पादक) है, वह ब्रह्म (महान्) है, वह आप: (सर्वव्यापक) है, वह प्रजापति (सव प्राणियों का स्वामी) है।"

वेदाहमेतं पुरुषं महान्तमादित्यवर्णं तमस: परस्तात्।
तमेव विदित्वाति मृत्युमेति नान्य: पन्था विद्यतेऽयनाय॥— यजुर्वेद(31/18)

भावार्थ : "यदि मनुष्य इस लोक-परलोक के सुखों की इच्छा करें तो सबसे अति बड़े स्वयंप्रकाश और आनन्दस्वरूप अज्ञान के लेश से पृथक् वर्त्तमान परमात्मा को जान के ही मरणादि अथाह दुःखसागर से पृथक् हो सकते हैं, यही सुखदायी मार्ग है, इससे भिन्न कोई भी मनुष्यों की मुक्ति का मार्ग नहीं है।"

परीत्य भूतानि परीत्य लोकान् परीत्य सर्वा: प्रदिशो दिशश्च।
उपस्थाय प्रथमजामृतस्यात्मनाऽऽत्मानमभि सं विवेश।।—यजुर्वेद(32/11)

भावार्थ : "हे मनुष्यो! तुम लोग धर्म के आचरण, वेद और योग के अभ्यास तथा सत्सङ्ग आदि कर्मों से शरीर की पुष्टि और आत्मा तथा अन्तःकरण की शुद्धि को संपादन कर सर्वत्र अभिव्या परमात्मा को प्रा हो के सुखी होओ।"

हिरण्यगर्भ: समवर्त्तताग्रे भूतस्य जात: पतिरेकऽ आसीत्।
स दाधार पृथिवीं द्यामुतेमां कस्मै देवाय हविषा विधेम॥—यजुर्वेद(13/4)

भावार्थ : "हे मनुष्यो! तुम को योग्य है कि इस प्रसिद्ध सृष्टि के रचने से प्रथम परमेश्वर ही विद्यमान था, जीव गाढ़ निद्रा सुषुप्ति में लीन और जगत् का कारण अत्यन्त सूक्ष्मावस्था में आकाश के समान एकरस स्थिर था, जिसने सब जगत् को रच के धारण किया और जो अन्त्य समय में प्रलय करता है, उसी परमात्मा को उपासना के योग्य मानो।"

ओर भी बहुत सारी मंत्र हैं वेदों में जहां लिखा है कि ईश्वर एक ही है

01/03/2024

रामायण
वाल्मीकि रामायण। सरल हिन्दी अनुवाद सहित।
मूल्य ₹600 (डाक खर्च सहित)
मँगवाने के लिए 7015591564 पर वट्सएप करें।
-------------------
भरतजी धर्म और नीति के जानने वाले, सत्यप्रतिज्ञ, सदाचारी, विनय की मूर्ति, सद्गुणसम्पन्न और भक्ति-प्रधान कर्मयोगी थे। तितिक्षा, वात्सल्य, अमानिता, सौम्यता, सरलता, मधुरता, क्षमा, दया, वीरता, व्यवहार-कुशलता और सहृदयता आदि गुणों से वे लालित्य और जाज्वल्यमान थे। उनकी वेदों के अध्ययन के प्रति प्रगाढ़ रुचि को वाल्मीकिजी ने वर्णित किया है-
ते चापि मनुजव्याघ्रा वैदिकाध्य्यने रताः।
पितृशुश्रूषणरता धनुर्वेदे च निष्ठिताः।।
बालकाण्ड, सर्ग १८, श्लोक ३६-३७
अर्थात्- वे पुरुषसिंह राजकुमार प्रतिदिन वेदों के स्वाध्याय, पिता की सेवा तथा धनुर्वेद के अभ्यास में दत्तचित्त रहते थे।
भरतो वाक्यं धर्माभिजनवाञ्छुचिः। अयोध्या० ७२/१६
अर्थात् भरत धार्मिक कुल में उत्पन्न हुए थे और उनका हृदय शुद्ध था।
अरण्यकाण्ड में, जब लक्ष्मण श्रीराम के समक्ष हेमन्त ऋतु का वर्णन करते हैं और भरत की प्रशंसा करते हैं, वे भरत को धर्मात्मा कहकर सम्बोधित करते हैं-
अस्मिंस्तु पुरुषव्याघ्र काले दुःखसमन्वितः।
तपश्चरति धर्मात्मा त्वद्भक्त्या भरतः पुरे।।
अरण्य० १६/२७
अर्थात् पुरुषसिंह श्रीराम! इस समय धर्मात्मा भरत आपके लिए बहुत दुःखी हैं और आप में भक्ति रखते हुए नगर में ही तपस्या कर रहे हैं।

भरत की पितृ-भक्ति-
विवाह पश्चात् दशरथजी की आज्ञा पाकर जब भरत शत्रुघ्नसहित अपने मामा केकयनरेश युधाजित् के साथ ननिहाल चले गए थे तो एक दिन इनको एक अप्रिय स्वप्न आया, जिसके कारण ये मन-ही-मन बहुत संतप्त हुए थे। मित्रों की गोष्ठी में हास्यविनोद करने पर भी प्रसन्न नहीं हुए। हृदय से स्वप्न का भय दूर न होने के कारण इन्होंने पिताजी के पास जाने का निश्चय किया तथा मार्ग में सात रातें व्यतीत करके आठवें दिन अयोध्यापुरी पहुंचे। माता कैकेयी से पिताश्री दशरथ के स्वर्गवास का समाचार पाने पर शोक के कारण भरतजी की जो दशा हुई तथा पिता के लिए जिस प्रकार से इन्होंने विलाप किया है, उससे इनके श्रद्धा-समन्वित सच्चे पितृ-प्रेम का पता चलता है। माता ने धैर्य धारण करने के लिए कहा, तब उत्तर में कहते हैं-
अभिषेक्ष्यति रामं तु राजा यज्ञं नु यक्ष्यते।
इत्यहं कृतसंकल्पो हृष्टो यात्रामयासिषम्।।२७।।
तदिदं ह्यन्यथाभूतं व्यवदीर्ण मनो मम।
पितरं यो न पश्यामि नित्यं प्रियहिते रतम्।।२८।।
क स पाणिः सुखस्पर्शस्तातस्याक्लिष्टकर्मणः।
यो हि मां रजसा ध्वस्तमभीक्ष्णं परिमार्जति।।३१।।
अयोध्या०, सर्ग ७२
अर्थात् मैंने तो यह सोचा था कि महाराज श्रीराम का राज्याभिषेक करेंगे और स्वयं यज्ञ का अनुष्ठान करेंगे- यही सोचकर मैंने बड़े हर्ष के साथ वहां से यात्रा की थी।।२७।। किन्तु यहां आने पर सारी बातें मेरी आशा के विपरीत हो गयीं। मेरा हृदय फटा जा रहा है, क्योंकि सदा अपने प्रिय और हित में लगे रहने वाले पिताजी को मैं नहीं देख रहा हूं।।२८।। हाय! अनायास ही महान् कर्म करनेवाले मेरे पिता का वह कोमल हाथ कहां है, जिसका स्पर्श मेरे लिए बहुत ही सुखदायक था? वे उसी हाथ से मेरे द्दूलि द्दूसर शरीर को बार-बार पोंछा करते थे।।३१।।

भरत की मातृ-भक्ति-
दशरथ-पुत्रों में अपनी माताओं के लिए अनुरक्ति और ममत्व का भाव विद्यमान था। ननिहाल में उस दुःस्वप्न के कारण भरत मानसिक अशान्ति व अस्थिरता से इतना व्याकुल हो गए थे कि वे वसिष्ठ द्वारा उन्हें अयोध्या ले जाने वाले दूतों (सिद्धार्थ, विजय, जयन्त अशोक और नन्दन -अयोध्या० ६८/५) से पूछते हैं-
आर्या च धर्मनिरता धर्मज्ञा धर्मवादिनी।
अरोगा चापि कौसल्या माता रामस्य धीमतः।।८।।
कञ्चित् सुमित्रा धर्मज्ञा जननी लक्ष्मणस्य या।
शत्रुघ्नस्य च वीरस्य अरोगा चापि मध्यमा।।९।।
आत्मकामा सदा चण्डी क्रोधना प्राज्ञमानिनी।
अरोगा चापि मे माता कैकेयी किमुवाच ह।।१०।।
अयोध्या, सर्ग ७०
अर्थात् धर्म को जानने और धर्म ही की चर्चा करनेवाली बुद्धिमान् श्रीराम की माता धर्मपरायणा आर्या कौसल्या को तो कोई रोग या कष्ट नहीं है?।।८।। क्या वीर लक्ष्मण और शत्रुघ्न की जननी मेरी मझली माता धर्मज्ञा सुमित्रा स्वस्थ और सुखी हैं?।।९।। जो सदा अपना ही स्वार्थ सिद्ध करना चाहती और अपने को बड़ी बुद्धिमती समझती है, उस उग्र स्वभाववाली कोपशीला मेरी माता कैकेयी को तो कोई कष्ट नहीं है? उसने क्या कहा है?।।१०।।
कैकेयी की इच्छानुसार राजा दशरथ द्वारा श्रीराम को वनवास भेजने पर माता कौसल्या के दुःख की अनुभूति भरत भलीभांति कर सकते थे। वे माता कैकेयी से कहते हैं-
तथा ज्येष्ठा हि मे माता कौसल्या दीर्घदर्शिनी।
त्वयि धर्मे समास्थाय भगिन्यामिववर्तते।।
अयोध्या०, ७३/१०
अर्थात् मेरी बड़ी माता कौसल्या भी बड़ी दूरदर्शिनी हैं। वे धर्म का ही आश्रय लेकर तेरे साथ बहिन का-सा बर्ताव करती हैं।
भरत का भ्रातृ-स्नेह-
वेद के उद्घोष ‘मा भ्राता भ्रातरं द्विक्षन्’ (अथर्व० ३/३०/३) की सार्थकता अयोध्या राजकुमारों के जीवन-चरित्र में दृष्टिगोचर होती है। रामायण में इनके भ्रातृ-प्रेम के बहुशः वर्णन हैं, जो हृदय को आह्लादित कर देने के साथ व्यावहारिक शिक्षा को भी प्रकाशित कर देने वाले हैं-
पिता ही भवति ज्येष्ठो धर्ममार्यस्य जानतः। -अयोध्या० ७२/३३
अर्थात् धर्म के ज्ञाता श्रेष्ठ पुरुष के लिए बड़ा भाई पिता के समान होता है।
राघवः स हि मे भ्राता ज्येष्ठः पितृसमो मतः।। -अयोध्या० ८५/९
अर्थात् श्रीरघुनाथजी मेरे बड़े भाई हैं। मैं उन्हें पिता के समान मानता हूं।
भरत अपने सभी भाइयों से बहुत प्रेम करते थे, लेकिन श्रीराम से उनका विशेष लगाव था। भ्राता श्रीराम के वनवास का समाचार सुनकर भरत के मुख से जो गद्गद वाणी निकल पड़ती है, वह रामायणकालीन संस्कृति की प्रेरणाप्रद श्रेष्ठता को प्रकट करती है-
निवर्तयित्वा रामं च तस्याहं दीप्ततेजसः।
दासभूतो भविष्यामि सुस्थितेनान्तरात्मना।। -अयोध्या० ७३/२७
अर्थात्- श्रीराम को लौटा कर उद्दीप्त तेजवाले उन्हीं महापुरुष का दास बनकर स्वस्थचित्त से जीवन व्यतीत करूँगा।
रामः पूर्वो हि नो भ्राता भविष्यति महीपतिः।
अहं त्वरण्ये वत्स्यामि वर्षाणि नव पञ्च च।। -अयोध्या० ७९/८
अर्थात् श्रीरामचन्द्रजी हम लोगों के बड़े भाई हैं, अतः वे ही राजा होंगे। उनके बदले मैं ही चौदह वर्ष तक वनवास करूँगा।
यदि त्वार्ये न शक्ष्यामि विनिवर्तयितुं वनात्।
वने तत्रैव वत्स्यामि यथार्यो लक्ष्मणस्तथा।। -अयोध्या० ८२/१८
अर्थात् यदि मैं आर्य श्रीराम को वन से न लौटा सकूंगा तो स्वयं भी नरश्रेष्ठ लक्ष्मण की भांति वहीं निवास करूँगा।
देखिए, कितनी उच्च भावना और भक्ति है! कितना पवित्र भाव है! कितनी निरभिमानता और कितना त्याग है!

Join yoga classes
14/12/2023

Join yoga classes

05/10/2023

Vedic Life Yoga Center Agra

04/10/2023
 #शरीर_विज्ञान व  #अष्टचक्र : अष्टांग योग का चक्रों से संबंधआयुर्वेद में बताया गया है कि जीवन में सदाचार को प्राप्त करने...
02/07/2023

#शरीर_विज्ञान व #अष्टचक्र : अष्टांग योग का चक्रों से संबंध
आयुर्वेद में बताया गया है कि जीवन में सदाचार को प्राप्त करने का साधन योग मार्ग को छोड़कर दूसरा कोई नहीं है। नियमित अभ्यास और वैराग्य के द्वारा ही योग के संपूर्ण लाभ को प्राप्त किया जा सकता है। हमारे ऋषि मुनियों ने शरीर को ही ब्रम्हाण्ड का सूक्ष्म मॉडल माना है। इसकी व्यापकता को जानने के लिए शरीर के अंदर मौजूद शक्ति केन्द्रों को जानना ज़रूरी है। इन्हीं शक्ति केन्द्रों को ही ‘’चक्र कहा गया है।

#अष्टचक्र

आयुर्वेद के अनुसार शरीर में आठ चक्र होते हैं। ये हमारे शरीर से संबंधित तो हैं लेकिन आप इन्हें अपनी इन्द्रियों द्वारा महसूस नहीं कर सकते हैं। इन सारे चक्रों से निकलने वाली उर्जा ही शरीर को जीवन शक्ति देती है। आयुर्वेद में योग, प्राणायाम और साधना की मदद से इन चक्रों को जागृत या सक्रिय करने के तरीकों के ब्बारे में बताया गया है। आइये इनमें से प्रत्येक चक्र और शरीर में उसके स्थान के बारे में विस्तार से जानते हैं।

Contents

1 आठ चक्रों का वर्णन :
1.1 1- मूलाधर चक्र :
1.2 2- स्वाधिष्ठान चक्र :
1.3 3- मणिपूर चक्र :
1.4 4- अनाहत चक्र :
1.5 5- विशुद्धि चक्र :
1.6 6- आज्ञा चक्र :
1.7 7- मनश्चक्र- मनश्चक्र (बिन्दु या ललना चक्र) :
1.8 8 – सहस्रार चक्र :
2 योग और अष्टचक्र का संबंध :
3 योग क्या है :
4 महर्षि पतंजलि का अष्टांग योग :
4.1 1- यम :
4.1.1 अहिंसा :
4.1.2 सत्य :
4.1.3 अस्तेय :
4.1.4 ब्रम्हचर्य :
4.1.5 अपरिग्रह:
4.2 2- नियम :
4.3 3- आसन :
4.4 4- प्राणायाम :
4.5 5- प्रत्याहार :
4.6 6- धारणा :
4.7 7- ध्यान:
4.8 8- समाधि :
आठ चक्रों का वर्णन :
1- मूलाधर चक्र :
यह चक्र मलद्वार और जननेन्द्रिय के बीच रीढ़ की हड्डी के मूल में सबसे निचले हिस्से से सम्बन्धित है। यह मनुष्य के विचारों से सम्बन्धित है। नकारात्मक विचारों से ध्यान हटाकर सकारात्मक विचार लाने का काम यहीं से शुरु होता है।

2- स्वाधिष्ठान चक्र :
यह चक्र जननेद्रिय के ठीक पीछे रीढ़ में स्थित है। इसका संबंध मनुष्य के अचेतन मन से होता है।

3- मणिपूर चक्र :
इसका स्थान रीढ़ की हड्डी में नाभि के ठीक पीछे होता है। हमारे शरीर की पूरी पाचन क्रिया (जठराग्नि) इसी चक्र द्वारा नियंत्रित होती है। शरीर की अधिकांश आतंरिक गतिविधियां भी इसी चक्र द्वारा नियंत्रित होती है।

4- अनाहत चक्र :
यह चक्र रीढ़ की हड्डी में हृदय के दांयी ओर, सीने के बीच वाले हिस्से के ठीक पीछे मौजूद होता है। हमारे हृदय और फेफड़ों में रक्त का प्रवाह और उनकी सुरक्षा इसी चक्र द्वारा की जाती है। शरीर का पूरा नर्वस सिस्टम भी इसी अनाहत चक्र द्वारा ही नियत्रित होता है।

5- विशुद्धि चक्र :
गले के गड्ढ़े के ठीक पीछे थायरॉयड व पैराथायरॉयड के पीछे रीढ की हड्डी में स्थित है। विशुद्धि चक्र शारीरिक वृद्धि, भूख-प्यास व ताप आदि को नियंत्रित करता है।

6- आज्ञा चक्र :
इसका सम्बन्ध दोनों भौहों के बीच वाले हिस्से के ठीक पीछे रीढ़ की हड्डी के ऊपर स्थित पीनियल ग्रन्थि से है। यह चक्र हमारी इच्छाशक्ति व प्रवृत्ति को नियंत्रित करता है। हम जो कुछ भी जानते या सीखते हैं उस संपूर्ण ज्ञान का केंद्र यह आज्ञा चक्र ही है।

7- मनश्चक्र- मनश्चक्र (बिन्दु या ललना चक्र) :
यह चक्र हाइपोथेलेमस में स्थित है। इसका कार्य हृदय से सम्बन्ध स्थापित करके मन व भावनाओं के अनुरूप विचारों, संस्कारों व मस्तिष्क में होने वाले स्रावों का आदि का निर्माण करना है, इसे हम मन या भावनाओं का स्थान भी कह सकते हैं।

8 – सहस्रार चक्र :
यह चक्र सभी तरह की आध्यात्मिक शक्तियों का केंद्र है। इसका सम्बन्ध मस्तिष्क व ज्ञान से है। यह चक्र पीयूष ग्रन्थि (पिट्युटरी ग्लैण्ड) से सम्बन्धित है।

इन आठ चक्र (शक्तिकेन्द्रों) में स्थित शक्ति ही सम्पूर्ण शरीर को ऊर्जान्वित (एनर्जाइज), संतुलित (Balance) व क्रियाशील (Activate) करती है। इन्हीं से शारीरिक, मानसिक विकारों व रोगों को दूर कर अन्तःचेतना को जागृत करने के उपायों को ही योग कहा गया है।

अष्टचक्र व उनसे संबंधित स्थान एवं कार्य

क्र. सं.

संस्कृत नाम

अंग्रेजी नाम

शरीर में स्थान

संबंधित अवयव व क्रियाएं

चक्र की शक्ति निष्क्रिय रहने से उत्पन्न होने वाले रोग

अन्तःस्रावी ग्रन्थियों पर क्रियाएं

क्रिया शरीरगत तंत्र

1-

मूलाधार चक्र

Root cakra or pelvic plexus or coccyx center

रीढ़ की हड्डी

उत्सर्जन तत्र, प्रजनन तत्र, गुद, मूत्राशय

मूत्र विकार, वृक्क रोग, अश्मरी व रतिज रोग

अधिवृक्क ग्रन्थि

उत्सर्जन तंत्र मूत्र व प्रजनन तत्र

2-

स्वाधिष्ठान चक्र

Sacral or sexual center

नाभि के नीचे

प्रजनन तत्र

बन्ध्यत्व, ऊतक विकार, जननांग रोग

अधिवृक्क ग्रन्थि

प्रजनन तंत्र

3-

मणिपूर चक्र

Solar plexus or lumbar center or epigastric Sciar plexus

छाती के नीचे

आमाशय, आत्र, पाचन तंत्र, संग्रह व स्रावण

पाचन रोग, मधुमेह, रोग प्रतिरोधक क्षमता की कमी

लैगरहेन्स की द्वीपिकायें (अग्न्याशयिक ग्रन्थि)

पाचन तंत्र

4-

अनाहत चक्र

Heart chakra or cardiac plexus or dorsal center

छाती या सीने का का बीच वाला हिस्सा (वक्षीय कशेरुका)

हृदय, फेफड़े , मध्यस्तनिका, रक्त परिसंचरण, प्रतिरक्षण तत्र, नाड़ी तत्र

हृदय रोग, रक्तभाराधिक्य (रक्तचाप)

थायमस ग्रन्थि (बाल्य ग्रन्थि)

रक्त परिसंचरण तत्र, श्वसन तंत्र , स्वतः प्रतिरक्षण तंत्र

5-

विशुद्धि चक्र

Carotid plexus or throat or cervical center

थायराइड और पैराथायरइड ग्रन्थि

ग्रीवा, कण्ठ, स्वररज्जु, स्वरयत्र,
चयापचय, तापनियत्रण

श्वास, फेफड़ों से जुड़े रोग, अवटु ग्रन्थि, घेंघा

अवटु ग्रन्थि

श्वसन तंत्र

6-

आज्ञा चक्र

Third eye or medullary plexus

अग्रमस्तिष्क का केन्द्र

मस्तिष्क तथा उसके समस्त कार्य, एकाग्रता, इच्छा शक्ति

अपस्मार,
मूर्च्छा, पक्षाघात आदि अवसाद

पीनियल ग्रन्थि

तत्रिका तंत्र

7-

मनश्चक्र या
बिन्दुचक्र

Lower mind plexus or hypothalamus

(चेतक)
थेलेमस के नीचे

मस्तिष्क, हृदय, समस्त अन्तःस्रावी ग्रन्थियों का नियत्रण, निद्रा आवेग, मेधा, स्वसंचालित तत्रिका तत्र समस्थिति

मनःकायिक तथा तत्रिका तत्र

पीयूष ग्रन्थि

संवेदी तथा प्रेरक तंत्र

8-

सहस्रार चक्र

Crown chakra or cerebral gland

कपाल के नीचे

आत्मा, समस्त सूचनाओं का निर्माण, अन्य स्थानों का एकत्रीकरण

हार्मोन्स का असंतुलन, चयापचयी विकार आदि

पीयूष ग्रन्थि

केन्द्रीय तत्रिका तंत्र (अधश्चेतक के
द्वारा)

योग और अष्टचक्र का संबंध :
अष्ट चक्रों को जानने व उनके अन्दर स्थित शक्तियों को जागृत व उर्ध्वारोहण के लिए क्या योग है? इसको समझना बहुत आवश्यक है। हर एक योग किसी ना किसी चक्र को जागृत करता है.

यदि देश हित मरना पड़े, मुझको सहस्त्रों बार भी,तो भी न मैं इस कष्ट को, निज ध्यान में लाऊं कभी।है ईश! भारतवर्ष में शतबार मे...
15/08/2022

यदि देश हित मरना पड़े, मुझको सहस्त्रों बार भी,
तो भी न मैं इस कष्ट को, निज ध्यान में लाऊं कभी।
है ईश! भारतवर्ष में शतबार मेरा जन्म हो,
कारण सदा ही मृत्यु का, देशोपकार कर्म हो।।

*गाँव में अभ्यास करने का आनंद ही कुछ अलग है।🥰🧘🏻‍♂️*   with
13/08/2022

*गाँव में अभ्यास करने का आनंद ही कुछ अलग है।🥰🧘🏻‍♂️*
with

Address

E-311, Tanki Road, Near Jain Mandir, Kamla Nagar
Agra

Opening Hours

Monday 5am - 8pm
Tuesday 5am - 8pm
Wednesday 5am - 8pm
Thursday 5am - 8pm
Friday 5am - 8pm
Saturday 5am - 8pm

Telephone

+918923765866

Website

Alerts

Be the first to know and let us send you an email when Vedic Life Yoga Center Agra posts news and promotions. Your email address will not be used for any other purpose, and you can unsubscribe at any time.

Contact The Practice

Send a message to Vedic Life Yoga Center Agra:

Share

Share on Facebook Share on Twitter Share on LinkedIn
Share on Pinterest Share on Reddit Share via Email
Share on WhatsApp Share on Instagram Share on Telegram

Category