09/09/2023
जिन लोगों को हमेशा स्वस्थ्य रहते हुए शतायु यानि 100 वर्ष तक निरोगी रहते हुए जीने की कामना हो, वे इस आर्टिकल को बहुत ध्यानपूर्वक पढ़कर अमल करने की कोशिश भी करें और हमारे भारत के महान वेद्यो और मनीषियों को प्रणाम करें।
चरक संहिता अंतर्गत अथ सप्तमोऽध्यायः में भगवानात्रेय ने देह के वेग का उपदेश किया है। न वेगान्धारणीय मध्यायं व्याख्यास्यामः। इति ह स्माह भगवानात्रेयः।।
मल मूत्रादि के उपस्थित वेगों को रोकने का प्रतिषेध करने के लिये 'न वेगान् धारणीय' नामक अध्याय कहते हैं---
"न वेगान् धारयेद्धीमाजातान्मूत्रपुरीषयोः।
न रेतसो न वातस्य न वम्याः क्षवथोर्न च॥
नोद्गारस्य न ज़म्भाया न वेगान् क्षुत्पिपासयोः।
न बाष्पस्य न निद्राया निःश्वासस्य श्रमेण च॥
एतान् धारयतो जातान् वेगान् रोगा भवन्ति ये।
पृथक्पृथक् चिकित्सार्थं तन्मे निगदतः शृणु॥"
अर्थात बुद्धिमान् मनुष्य को चाहिये कि उपस्थित हुए मूत्र मल के वेगों को नहीं रोके। इसी प्रकार शुक्र, अपान आदि वायु, वमन, छींक, डकार, जम्भाई, भूख और प्यास, हर्ष या शोक के कारण उत्पन्न आंसू, नींद और श्रमजनित तीव्र प्रश्वास के वेगों को भी नहीं रोकना चाहिये।
शरीर के वेग कौन कौनसे होते हैं? इन्हे रोकने से क्या हानियां हो सकती है?
इन उपस्थित वेगों को रोकने से जो जो रोग होते हैं, उनकी चिकित्सा के लिये पृथक् पृथक् उपदेश करते हैं,
अ० ७।९] सूत्रस्थानम्
चस्ति मेहनयोः शूलं मूत्रकृच्छ शिरोरुजा।
विनामो वंक्षणानाहः स्याल्लिङ्गं मूत्रनिग्रहे॥
मूत्र के उपस्थित वेग यानि पेशाब को रोकने से 'वस्ति' (मूत्राशय Bladder) और लिंग में दर्द होती है। मूत्र त्याग में कष्ट होता है। मूत्र थोड़ा थोड़ा आता ह
शिर में दर्द, मूत्र वेग के कारण खींच होने से शरीर मुड़ झुक जाता है वंक्षण प्रदेश (पेडू) जकड़ा हुआ प्रतीत होता है, अथवा उस प्रदेश में फुलाव प्रतीत होता है ये लक्षण मूत्र के उपस्थित वेग को रोकने से होते हैं।
इस की चिकित्सा -
स्वेदावगाहनाभ्यङ्गान् सर्पिषञ्चावपीडकम्।
मूत्रे प्रतिहते कुर्यात् त्रिविधं बस्तिकर्म च।।
स्वेद यानि पसीना देना, (अवगाहन) गरम पानी को नांद में भरकर उस मैं बैठना, (अभ्यंग) तैल आदि मर्दन और घी का नस्य देना ये तीन प्रकार का बस्ति कर्म, निरूहण, अनुवासन और उत्तर बस्ति मूत्र के उपस्थित वेग रुकने के प्रतिकार यानि इलाज हैं।
पक्काशयशिरःशूलं वातवर्चोनिरोधनम्।
पिण्डिकोद्वेष्टनाध्मानं पुरीषे स्याद्विधारिते।।
मल के उपस्थित वेग को रोकने से पक्काशय अर्थात् नाभि के नीचे का था और शिर में वेदना होती है, अपान वायु, मल बन्द हो जाते हैं, डलियों में ऐंठन होने लगती है, पेट से अफरा चढ़ जाता है।
चरक चिकित्सा
स्वेदाभ्यङ्गावगाहाश्च वर्तयो बस्तिकर्म च।
हितं प्रतिहते वर्चस्यन्नपानं प्रमाथि च।।
चरकसंहिता अध्याय ७/ १४
स्वेद पसीना देना अभ्यंग मर्दन अवगाहन नांद या टब आदि में स्नान ( Tub-bath ), फलवर्त्ति, 'सपोज़ीटरी' एवं अन्न-पान ज्ञान-पान, विरेचन द्रव्यों का घी और तैल आदि द्वारा चूर्ण, क्वाथ, कल्कादि। के रूप में बनाकर देना और वात को अनुलोमन करने वाली औषध मल के रोकने में हितकारी है।
मेढे वृषणयोः शूलमङ्गमर्दो हृदि व्यथा।
भवेत्प्रतिहते शुक्रे विबद्धं मूत्रमेव च।।
वीर्य के उपस्थित वेग को रोकने से लिंग और अण्डकोषों में वेदना होती है, अंग टूटते हुए प्रतीत होते हैं चेतना के स्थान हृदय में वेदना अनुभव होती है और मूत्र भी बन्द हो जाता है।
वीर्य व्यवधान की चिकित्सा
तत्राभ्यङ्गावगाहाश्च मदिरा चरणायुधा।
शालिः पयो निरूहाच शस्तं मैथुनमेव च।।
तैलमर्दन, अवगाहन स्नान ( द्रोणीस्नान ), मद्य, कुक्कट जाति के मांस, हैमन्तिक धान्य, दूध, बस्तिकर्म और मैथुन कर्म ये शुक्र वेग के निरोध से उत्पन्न रोगों की चिकित्सा है।
वातमूत्रपुरीषाणां सङ्गो ध्मानं क्लमो रुजा।
जठरे वातजाश्चान्ये रोगाः स्युर्वातनिग्रहात्।।
अपान वायु के रोकने से, वात अपान वायु, मूत्र, और पुरीष रुक जाते हैं। अफारा हो जाता है थकान की अंगों में प्रतीति होना, पेट में पीड़ा और अन्य वात जन्य रोग भी हो जाते हैं।
चिकित्सा
स्नेहस्वेदविधिस्तत्र वर्तयो भोजनानि च।
पानानि वस्तयश्चैव शस्तं वातानुलोमनम्।।
अर्थात स्नेह (तैल या घृत) एवं स्वेद या पसीना देना चाहिये, फलवत्तियां, भोजन-पान निरूह या अनुवासन, वातनाशक खान पान और बस्तिकर्म उत्तम हैं ।
कण्डूकोठरुचिव्यङ्गशोथपाण्ड्वामयज्वराः ।
कुष्ठहृल्लासवी सर्पाश्छर्दिनिग्रह्जा गदाः।। सूत्रस्थानम्
अर्थात वमन यानि उल्टी रोकने से त्वचा विकार जैसे खाज, कोढ, उदर्द ( Urticaria ) भोजन में अनिच्छा, झांई, मुख पर काले २ दाग आना, सूजन, पांडू रोग, ज्वर, कोढ़, उत्केश, वमन की रुचि, जी चलाना, छाजन, सोरायसिस, वीसर्प (एक्ज़ीमा) ये रोग उत्पन्न होते हैं ।
चिकित्सा
भुक्त्वा प्रच्छर्दनं धूमो लङ्घनं रक्तमोक्षणम्।
रूक्षान्नपानं व्यायामो विरेकश्चात्र शस्यते।।
अर्थात भोजन खिलाकर वमन कराना चाहिये, धूम, धूम्रपान, उपवास शिराव्यधन करके रक्त का निकालना, रूखे अन्न और पान ( खान पान ), व्यायाम और विरेचन ये उपाय उत्तम हैं।
मन्यास्तम्भः शिरः शूलमर्दितार्धावभेदकौ।
इन्द्रियाणां च दौर्बल्यं तवथोः स्याद्विधारणात्॥
छींक के रोकने से ग्रीवा का जकड़ जाना, शिरोवेदना, चेहरे का लकवा, आधासीसी आंख आदि इन्द्रियों की निर्बलता आदि रोग हो जाते हैं।
तत्रोर्ध्वजत्रुकेऽभ्यङ्गः स्वेदो धूमः सनावनः।
हितं वातन्नमाद्यं च घृतं चोत्तरभक्तिकम्।।
चिकित्सा -
ग्रीवा यानि गले से ऊपर के भागों में मालिश, पसीना देना, धूम्रपान नस्य, वातनाशक भोजन और खाना खाने के पीछे घृत पान करना हितकारी है ।
हिक्का कासोऽरुचिः कम्पो विबन्धो हृदयोरसोः।
उद्गारनिग्रहात्तत्र हिक्कायास्तुल्य मौषधम्॥
डकार को रोकने पर हिचकी का आना, श्वास, दम चढ़ना, भोजन में अनिच्छा, सिर छाती का कांपना, छाती और हृदय का रुक जाना या अवरोध ये रोग हो जाते हैं।
चिकित्सा —
डकार के रोकने से उत्पन्न विकार की शान्ति के लिये हिचकी के समान औषध करनी चाहिये।
विनामाक्षेप संकोचा: सुप्तिः कम्पः प्रवेपनम् ।
जम्भाया निग्रहात्तत्र सर्व वातन्नमौषधम्।।
अर्थात जम्भाई के रोकने से चेहरे का विकृत होजाना, आक्षेप अर्थात् हाथ पांव का जोर से कम्पन, चालन, पर्वसन्धियों का आकुञ्चन, अंगों का सो जाना, स्पर्श ज्ञान का अभाव, कांपना-हिलना आदि होता है।
चिकित्सा के लिये वात नाशक उपचार करना चाहिये।
कार्यदौर्बल्यवैवर्ण्यमङ्गमर्दोऽरुचिर्भ्रमः।
क्षुद्वेगनिग्रहात्तत्र स्निग्धोष्णं लघु भोजनम्।।
अर्थात - भूख रोकने से कृशता, कमजोरी, हड्डियों में रस न बना, वीर्य का पतला होना,दुर्बलता, रंग का बदल जाना, अंग प्रत्यंगों में वेदना, उनका टूटते हुए प्रतीत होना, अनिच्छा, चक्कर आना, ये लक्षण होते हैं।
आयुर्वेदिक चिकित्सा –
स्निग्ध, चिकना, गरम और हल्का भोजन देना चाहिये।
कण्ठास्यशोषो बाधिर्य श्रमः श्वासो हृदि व्यथा।
पिपासानिग्रहात्तत्र शीतं तर्पणमिष्यते।।
अर्थात प्यास के रोकने से गले और मुख का खुश्क हो जाना, थकान, श्वास, दम का चढ़ना, आमाशय प्रदेश में दर्द, बहरापन आदि ये कष्ट होने लगते हैं।
आयुर्वेदिक चिकित्सा
गुलकंद amrutam Gulkand तथा शीतल, तृप्ति करने वाले खान पान देने चाहियें।
प्रतिश्यायोऽक्षिरोगश्च हृद्रोगश्चारुचिर्भ्रमः।
बाष्पनिग्रहणात्तत्र स्वप्नो मद्यं प्रियाः कथाः।।
अर्थात आंसुओं के शेकने से नाक से पानी झरना, कफ का स्राव होना, आंखों के रोग, हृदय रोग, अनिच्छा और भ्रम, सिर में चक्कर आदि कष्ट होते हैं।
अमृतम चिकित्सा - नींद, मदिरा का पान, आनन्ददायक प्रिय बातचीत करनी चाहिये।
जृम्भाऽङ्गमर्दस्तन्द्रा च शिरोरोगाक्षिगौरवम्।
निद्राविधारणात्तत्र स्वप्नः संवाहनानि च।।
नींद रोकने से जम्भाई, अंगों का टूटना ( शरीर में भारीपन), शिर की वेदना, और आंख या पलकें भारी हो जाती है।
आयुर्वेदिक- चिकित्सा – नींद लाना, अंगों का संवाहन अर्थात् हाथों से अंगों को मसलना कल्याणकारी रहता है।
गुल्महृद्रोगसंमोहाः श्रमनिश्वासधारणात् ।
जायन्ते तत्र विश्रामो वातनाश्च क्रिया हिताः॥
थकान से उत्पन्न निःश्वास को रोकने से गुल्मरोग, हृद्-रोग, संमोह यानि मूर्च्छा उत्पन्न होती है । इस के लिये विश्राम, आराम एवं वातनाशक उपचार करने चाहिये।
वेगनिग्रहजा रोगा य एते परिकीर्तिताः।
इच्छंस्तेषामनुत्पत्तिं वेगानेतान्न धारयेत्।।
उपस्थित वेगों को रोकने से उत्पन्न होने वाले रोग कह दिये। इन रोगों की उत्पत्ति को न चाहने वाले व्यक्ति को चाहिये कि वह इन वेगों को न रोका करे।
इमांस्तु धारयेद्वेगान् हितैषी प्रेत्य चेह च।
साहसानामशस्तानां मनोवाक्कायकर्मणाम्।।लोभशोकभयक्रोधमानवेगान् विधारयेत् । नैर्लन्ज्येर्ध्यातिरागाणामभिध्यायाश्च बुद्धिमान्।।
परुषस्यातिमात्रस्य सूचकस्यानृतस्य च।
वाक्यस्याकालयुक्तस्य धारयेद्वेगमुत्थितम्॥
देहप्रवृत्तिर्या काचिद्वर्तते परपीडया।
स्त्रीभोगस्तेय हिंसाद्या तस्या वेगान्विधारयेत्॥
पुण्यशब्दो विपापत्वान्मनोवाक्कायकर्मणाम्।
धर्मार्थकामान् पुरुषः सुखी भुङ्क्ते चिनोति च॥
इहलोक और परलोक का भला था सबकी हित कामना करने वाले मनुष्य को चाहिये कि इन आगे कहे वेगों को धारण करे जैसे- अयोग्य अनुचित साहस और मन वाणी और शरीर के निन्दित कर्मों के उपस्थित वेगों को रोके
मन के निन्दित कार्य जैसे- लोभ, अनुचित विषय में मन की प्रवृत्ति (शोक ) धन वान्धव आदि के कारण दुःख में मन की प्रवृत्ति, भय, क्रोध जिसके कारण मनुष्य अपने को जलता हुआ प्रतीत करता है, (द्वेष) वैर, दूसरे के अपकार करने में मन की प्रवृत्ति, (मान) महत्व, अभिमान में मन की प्रवृत्ति, ( जुगुप्सित ) दूसरे की निन्दा, ( निर्लज्जा ) लजा का अभाव। दूसरे के द्रव्य को लेने की लालसा, बुद्धि (ईर्ष्या) कुढ़ना, (अभिध्या ) इन मन के निन्दित कार्यों को रोकना चाहिये।
वाणी के निन्दित कर्म –
कर्कश, कठोर विशेषतः दूसरे की निन्दा या अनिष्ट करने की इच्छा से झूठी और अप्रसंगिक वाणी के वचन को रोकना चाहिये।
शरीर के निन्दित कर्म —
दूसरे को दुःख देने की जो कोई शरीर की चेष्टा हो उसे, स्त्री-भोग पर स्त्रीसम्भोग, स्तेय ( चोरी ), हिंसा (दुःख कष्ट देना, मारना) आदि शरीर कार्यों के उपस्थित वेगों को रोकना चाहिय।
अपनी आत्मा के प्रतिकूल जो कार्य हों वे कार्य दूसरे के लिये भी नहीं करने चाहिये। मनुष्य मन वचन और शरीर से पापरहित होकर ही 'पुण्य, शब्द का भागी होता है। उसमें 'पुण्य' शब्द तभी सार्थक होता है और तभी वह धर्म, अर्थ, और काम इनको प्राप्त करता है, और सुख का भी भोग कर सकता है।
व्यायाम
शरीरचेष्टा या चेष्टा स्थैर्यार्था बलवर्धिनी।
देहव्यायामसंख्याता मात्रया तां समाचरेत्।।
लाघवं कर्मसामर्थ्य स्थैर्य क्लेशसहिष्णुता।
दोषक्षयोऽग्निवृद्धिश्च व्यायामादुपजायते।।
अर्थात जो शारीरिक चेष्टायें शरीर की स्थिरता, दृढ़ता के लिये शरीर के बल को बढ़ाने की इच्छा से की जाती हैं, उनको 'व्यायाम' कहते हैं । इस व्यायाम को मात्रा में सेवन करना चाहिये।
व्यायाम के गुणव्यायाम करने से शरीर में हल्कापन काम करने की शक्ति शरीर एव यौवन का टिकाऊपन, दुःख को सहन करने की शक्ति, वात आदि दोषों का शमन जठराग्नि की प्रदीप्ति होती है। अधिक व्यायाम से हानियां -
श्रमः कुमः क्षयस्तृष्णा रक्तपित्तं प्रतामकः।
अतिव्यायामतः कासो ज्वरश्छर्दिश्च जायते॥
अर्थात शरीर का थकान, मन और इन्द्रियों का थकान धातुओं का क्षय, रक्तपित्त रोग, प्रतमक संज्ञक श्वास खांसी, और वमन अधिक व्यायाम से उत्पन्न होते हैं।
व्यायामहास्यभाष्याध्वग्राम्यधर्मप्रजागरान्।
नोचितानपि सेवेत बुद्धिमानतिमात्रया॥
एतानेवंविधांश्चान्यान् योऽतिमात्रं निषेवते।
गजः सिंहमिवाकर्षन् सहसा स विनश्यति।।
उचितादहिता द्धीमान् क्रमशो विरमेन्नरः।
अर्थात शरीर को परिश्रम, हंसना, ऊंचा या अधिक बोलना, ( मार्ग चलना सफ़र करना), ग्राम्य धर्म, मैथुन, प्रजागर ( रात को जागना), इन उचित कार्यों को भी बुद्धिमान् मनुष्य अधिक मात्रा में सेवन न करे।
इन ऊपर लिखे हुए या अन्य इसी प्रकार के कार्यों को जो मनुष्य अधिक परिमाण में सेवनकरता है, जिस प्रकार कि सिंह, हाथी को खींचता हुआ स्वयं मर जाता है, उसी प्रकार वह मनुष्य भी नष्ट हो जाता है । इसलिये बुद्धिमान् मनुष्य को चाहिये कि छोड़ने योग्य उन दुःखदायी कर्मों से क्रमशः हट जावे।
हितं क्रमेण सेवेत, क्रमश्चात्रोपदिश्यते॥
प्रक्षेपापचये ताभ्यां क्रमः पादांशिको भवेत्।
एकान्तरं ततो व्यान्तरं त्र्यन्तरं तथा॥
क्रमेणापचिता दोषाः क्रमेणोपचिता गुणाः।
सन्तो यान्त्यपुनर्भावमप्रकम्प्या भवन्ति च॥ चरकसंहिता अ७/४१
अर्थात हितकारी कार्यों को ( क्रमशः ) सेवन करना चाहिये । यहां अब क्रम का उपदेश करते हैं। छोड़ने लायक ( संचय करने योग्य ) कार्य को चौथाई २ भाग करके क्रम से सेवन करना चाहिये। फिर दो और फिर तीन भाग छोड़ कर ग्रहण करना चाहिये। अर्थात् छोड़ने योग्य एवं ग्रहण करने योग्य कार्य दोनों के चार चार भाग करने चाहिये।
छोड़ने योग्य कर्म का एक भाग छोड़कर ग्रहण करने योग्य कर्म का एक भाग उसके स्थान पर ग्रहण करना चाहिये। फिर दो भाग छोड़ कर दो भाग ग्रहण करने चाहिये और फिर तोन भाग छोड़कर तीन भाग ग्रहण करने चाहिये और पुनः सारा छोड़कर सारा ग्रहण करलेना चाहिये।
ग्रहण करते समय एक दो तीन चार दिन का अन्तर क्रम से देना चाहिये । ऊपर बताये हुए क्रम पूर्वक छोड़े हुए दोष फिर पैदा नहीं होते और क्रम से ग्रहण किये हुए गुण नष्ट नहीं होते, चिरकाल तक स्थिर रहते हैं। हितकारी पदार्थ भी सहसा उपयोग करने से अग्निनाश अरुचि आदि करते हैं, इसलिये इनको भी क्रम से ही ग्रहण करना चाहिये।
इन सब कार्यों में मनुष्य की प्रकृति का ज्ञान अपेक्षित है, क्योंकि कुछ कार्य ऐसे हैं जो कि एक के लिये अहितकारी हों, परन्तु दूसरे के लिये हितकारी।
समपित्तानिलकफाः केचिद्गर्भादिमानवाः।
दृश्यन्ते वातलाः केचित्पित्तलाः श्लेष्मलास्तथा॥
तेषामनातुराः पूर्वे, वातलाद्याः सदाऽऽतुराः।
दोषानुशयिता ह्यषां देहप्रकृतिरुच्यते।।
विपरीतगुणस्तेषां स्वस्थवृत्तेर्विधिहितः।
समसर्वरसं सात्म्यं समधातोः प्रशस्यते॥ सूत्रस्थानम्
अर्थात कुछ मनुष्य जन्म या गर्भकाल से ही पित्त, वायु, कफ की असमानावस्था वाले होते हैं और कुछ मनुष्य गर्भाधान काल से ही वात प्रकृति वाले, पित्त प्रकृति वाले और कफ प्रकृति वाले होते हैं। इन में पित्त वायु और कफ की साम्यावस्था वाले मनुष्य प्रायः नीरोग रहते हैं, और बात प्रकृति या पित्त प्रकृति अथवा कफ प्रकृति के मनुष्य सदा रोगी रहते हैं। इन में वातादि दोषों का साम्य अर्थात् अनुकूल हो जाना ही शरीर का 'प्रकृति' कही जाती है।
अर्थात् वात प्रकृति वाले मनुष्य में वात दोष उस के शरीर के अनुकूल हो जाता है । इसलिये वही उसकी प्रकृति है, प्रकृति होने से वात उस में दोष नहीं, परन्तु जब स्वस्थावस्था में वात बढ़ेगा तभी दोष होगा।
जिस प्रकार कि विषकीट अपने विष से नहीं मरता, उसी प्रकार प्रकृतिस्थ वात से भी वात प्रकृति का मनुष्य पीड़ित नहीं होता । इन वात आदि की अधिकता में वात आदि के विपरीत विरुद्ध गुणों का इनके कारणों के विपरीत गुण भी सेवन करना स्वास्थ्य के लिये कल्याणकारी उपाय है और पित्त, वायु और कफ की समानता वाली प्रकृति के मनुष्यों के लिये सब (मधुर अम्ल, लवण, तिक्त, कटु, और कषाय) रसों का समानावस्था में अभ्यास करना उत्तम है।
द्वे अधः सप्त शिरसि खानि स्वेदमुखानि च।
मलायनानि बाध्यन्ते दुष्ठैर्मात्राधिकैर्मलैः॥
मलवृद्धिं गुरुत्वेन लाघवान्मलसंक्षयम्।
मलायनानां बुद्धचेत सङ्गोत्सर्गादतीव च॥
तान्दोष लिङ्गैरादिश्य व्याधीन् साध्यानुपाचरेत् । व्याधिहेतुप्रतिद्वन्द्वैर्भात्राकालौ विचारयन्॥
विषमस्वस्थवृत्तानामेते रोगास्तथाऽपरे।
जायन्तेऽनातुरस्तस्मात्स्वस्थवृत्तपरो भवेत्।। चरक सूत्रसंहिता
अर्थात- जब मल परिमाण से अधिक हो जाते हैं, तब वे विकृत हो कर मल के स्थानों को पीड़ित करते हैं, मल के स्थान नीचे के दो गुदा और उपस्थ (स्त्रियों में योनि भी), शिर में सात – दो नाक, दो कान, दो आंखें और एक मुख, पसीना निकलने के सब छिद्र ये मल के स्थान हैं, मल इनको पीड़ित करते हैं । शरीर में भारीपन होने से मल की वृद्धि समझना चाहिये और शरीर में हल्कापन होने से मल का क्षय समझना चाहिये | और मल के स्थानों से मल का न निकलना अथवा मल स्थानों से मल का बार बार अधिक बाहर निकलना वृद्धि को बताता है।
मलों यानि देह में गंदगी, कब्ज आदि की वृद्धि और क्षय दूसरों के कारण हुए हैं, यह समझकर उनके चिन्हों से पहिचानकर उन से उत्पन्न साध्य रोगों को रोग, और व्याधि के हेतु इन दोनों के विपरीत गुण, वीर्य, विपाक और प्रभाव से विरुद्ध औषध, आहार और विहार द्वारा चिकित्सा करनी चाहिये।
चिकित्सा करते समय वैद्य मात्रा औषध, आहार और विहार का परिमाण काल, दोष, व्याधि के प्रकोप, ऋतु, रात, दिन आदि समयों का विचार करले। ये विषम धातु वाले रोगी, और निरोगी इन दोनों के लिये हितकारी हैं, धातु की विषमता से उत्पन्न होने वाले रोग और मानस या आगन्तुज रोग नहीं उत्पन्न होते।इसलिये मनुष्य रोगी नहीं होता, रोगी न हो अतः रोगी होने से पूर्व ही स्वस्थवृत्त का सेवन करना चाहिये।
कारण से उत्पन्न होने वाले रोगों से बचने के लिये उपाय -
माधवप्रथमे मासि नभस्यप्रथमे पुनः।
सहस्यप्रथमे चैव हारयेद्दोषसंचयम्।।
स्निग्धस्विन्नशरीराणामूर्ध्वं चाधञ्च बुद्धिमान्।
बस्तिकर्म ततः कुर्यान्नस्तःकर्म च बुद्धिमान्॥
यथाक्रमं यथायोगमत ऊर्ध्वं प्रयोजयेत्।
रसायनानि सिद्धानि वृष्ययोगांश्च कालवित्॥
रोगास्तथा न जायन्ते प्रकृतिस्थेषु धातुषु।
धातवश्वाभिवर्धन्ते जरामान्द्यमुपैति च॥
विधिरेष विकाराणामनुत्पत्तौ निदर्शितः।
निजानामितरेषां तु पृथगेवोपदिश्यते॥
अर्थात वैशाख और इस से पूर्व के मास अर्थात् चैत्र में, और भाद्रपद, इससे पूर्व के मास अर्थात् श्रावण में तथा पौष इससे मास पूर्व के मार्गशीर्ष में एकत्रित दोषों को वमन विरेचन आदि से निकाल देना चाहिये।
हेमन्त ऋतु में सञ्चित क को चैत्र मास में ग्रीष्म में संचित वायु को श्रावण मास में, वर्षा में संचित पित्त को मार्गशीर्ष में निकाल देना चाहिये।
इन मासों में दोषों के प्रकोप होने का भय रहता है, इसलिये प्रकोप होने से पूर्व ही दोषों को निकोल देना चाहिये । पहिले शरीर को स्निग्ध तैल आदि से चिकना करके पसीना देना चाहिये जिससे कि शरीर के स्रोत खुल जायें।
स्नेहन और स्वेदन के पीछे वमन कार्य और विरेचन कराना चाहिये । इन के पीछे वस्ति कर्म और अन्त में नस्य कर्म अर्थात् शिरोविरेचन देना चाहिये । स्निग्ध और स्विन्न शरीर वाले पुरुषों के लिये चमन कफ नाशक होने से चैत्र में, अनुवासन, बस्तिकर्म वात हर होने से श्रावण मास में एवं पित्तनाशक होने से विरेचन मार्गशीर्ष मास में लेना चाहिये
अथवा चैत्र मास में वमन के पीछे विरेचन, मार्गशीर्ष में विरेचन से पूर्व वमन, और फिर चैत्र और मार्गशीर्ष दोनों में बस्तिकर्म एवं नस्य कर्म करना चाहिये।
चैत्र में यदि वमनादि कार्य कर लिए हों तो श्रावण मास में अनुवासन और आस्थापन करना चाहिये और यदि चैत्र में वमनादि न किये हों तो वमन विरेचन करके फिर बस्तिकर्म और नस्य कर्म करना चाहिये।
स्नेह के पीछे स्वेद, स्वेद के पीछे वमन, वमन के पीछे विरेचन, विरेचन के पीछे बस्तिकर्म और बस्तिकर्म के पीछे नस्य देना चाहिये । प्रथम स्वेदन, वमन, विरेचन, बस्ति और नस्य कर्म ये क्रमशः तथा जिस पुरुष के लिये जो जो कर्म योग्य हो उन्हें करने के पीछे जरा और रोग को दूर करने वाली औषध का उपयोग करना चाहिये।
रस रक्तादि धातुओं के प्रकृतिस्थ होने से शरीर में दोषजन्य रोग नहीं होते।
वृष्य आदि क्रिया करने से रस रक्तादि बढ़ते हैं, और बुढ़ापे का अन्त हो जाता है, बुढ़ापा नहीं आता । यह उपरोक्त विधि शरीरदोषजन्य रोगों की अनुत्पत्ति के लिये कहा है । आगन्तुक रोगों के लिये भिन्न विधि कहते हैं।
ये भूतविषवाय्वग्निसंप्रहारादिसंभवाः ।
नृणामागन्तवो रोगा: प्रज्ञा तेष्वपराध्यति॥ ऋ० ७।५५चरकसंहिता
ईर्ष्याशोकभयक्रोधमानद्वेषादयश्च ये।
मनोविकारास्तेऽप्युक्ताः सर्वे प्रज्ञापराधजाः॥
अर्थात जो कि ( भूत ) नाना सूक्ष्म प्राणो ग्रह आदि, (विष ) स्थावर या जंगम विष, ( वायु ) झंझावात ( अग्नि ) ज्वालामुखी, दावानल आदि ( संप्रहार ) चोट आदि से मनुष्यों के 'आगन्तुज' अर्थात् बाहर से होने वाले रोग होते हैं, उन में बुद्धि का अपराध मिथ्या या अन्यथा रूप में प्रयोग हुआ होता है।
ईर्षा (मत्सर), शोक, भय, क्रोध, अभिमान, द्वेष आदि मन के विकार अर्थात् रोग हैं, ये वात आदि दोषजन्य नहीं प्रत्युत सब बुद्धि के दोष से ही उत्पन्न होते हैं।
ये आगन्तुज रोगों के प्रतिकार -
त्यागः प्रज्ञापराधानामिन्द्रियोपशमः स्मृतिः।
देशकालात्मविज्ञानं सद्वृत्तस्यानुवर्त्तनम्॥
आगन्तूनामनुत्पत्तावेष मार्गो निदर्शितः।
प्राज्ञः प्रागेव तत्कुर्याद्धितं विद्याद्यदात्मनः।।
आप्तोपदेशप्रज्ञानं प्रतिपत्तिश्च कारणम्। विकाराणामनुत्पत्तावुत्पन्नानां च शान्तये॥
अर्थात आगन्तुज एवं मानसिक रोग बुद्धि के दोष से उत्पन्न होते हैं, इस लिये इस प्रज्ञापराध को छोड़ना चाहिये।
इन्द्रियों को विषयों से रोकना बुद्धि, स्मृति, भगवान् का स्मरण, देश काल और आत्मा का चिन्तन, (सद्वृत्त) सच्चे, कल्याणकारी मार्ग का अनुसरण करना, यह विधि रोगों की उत्पत्ति से बचने का मार्ग है।
इस प्रकार वरतने से आगन्तुज रोग उत्पन्न नहीं होते।बुद्धिमान् व्यक्ति को चाहिये कि अपने लिये जो हितकारी काम हों उनको रोगोत्पत्ति से पूर्व ही करे।
(आप्तोपदेश) रजस् और तमस् से मुक्त निर्भ्रान्त विद्वानों के उपदेश और (प्रज्ञान ) बुद्धि से सिद्ध, प्रमाण द्वारा सिद्ध किये, बुद्धि से स्वीकर किये ये दोनों मानसिक विकारों की अनुत्पत्ति में तथा उत्पन्न विकारों की शान्ति में कारण हैं।
वर्जने योग्य मनुष्य-
पापवृत्तवचः सत्त्वाः सूचकाः कलहप्रियाः।
मर्मोपहासिनो लुब्धाः परवृद्धिद्विषः शठाः।।
परापवादरतयश्चपला रिपुसेविन।
निर्घृणास्त्यक्तधर्माणः परिवर्ज्या नराधमाः।।
अर्थात जिनकी वाणी और मन पापमय हों, चुगलखोर, झगड़ालू, कमजोरी या छिद्र को ढूंढकर उसपर हंसनेवाले, लालची, जो दूसरी की उन्नति में द्वेष भाव रखते हैं, दूसरों की निन्दा ही करना जिनका काम है, चंचल प्रकृति, अस्थिर मन, दुश्मन से मिले हुए, या काम क्रोधादि के वशीभूत, दयारहित, निर्दयी, धर्म से न डरने वाले, ऐसे नीच पुरुषों को छोड़ देना चाहिये।
सेवन करने योग्य मनुष्य
बुद्धिविद्यावयःशीलधैर्यस्मृतिसमाधिभिः।
वृद्धोपसेविनो वृद्धाः स्वभावज्ञा गतव्यथाः।।
सुमुखाः सर्वभूतानां प्रशान्ताः शंसितव्रताः।
सेव्याः सन्मार्गवक्तारः पुण्यश्रवणदर्शनाः॥
अर्थात जो बुद्धि, विद्या, आयु, शील, स्वभाव, धैर्य साहस, स्मरण शक्ति, ( समाधि ) मन का संयम आदि में अपने से बड़े हों, जो वृद्धों की सेवा करते हों, स्वभाव को जानने वाले, अनुभवी, गतव्यथ जिनको कि किसी प्रकार की चिन्ता नहीं, सुमुख सब प्राणियों के लिये प्रसन्नमुख, (प्रशान्त) इन्दियों के विषयों से निवृत्त, ब्रह्मचारी, सच्चे मार्ग का उपदेश करने वाले, पुण्य शब्दों को सुनाने वाले एवं पुण्य दर्शनशील, जिनका शब्द और दर्शन पवित्र करता है इस प्रकार के आप्त पुरुषों का सेवन करना चाहिये, उनको गुरु मानना चाहिये, ये ज्ञान, विज्ञान, धैर्य्य स्मृति आदि की शिक्षा देकर मानस रोगों को नष्ट कर सकते हैं।
आहाराचारचेष्टासु सुखार्थी प्रेत्य चेह च।
परं प्रयत्नमातिष्ठेद् बुद्धिमान् हितसेवने॥
न नक्तं दधि भुञ्जीत न चाप्यघृतशर्करम्।
नामुद्गसूपं नाचौद्रं नोष्णं नामलकैर्विना॥
(अलक्ष्मी दोषयुक्तत्वान्नक्तं तु दधि वर्जितम्श्ले।
ष्मलं स्यात्ससर्पिष्कं दधि मारुतसूदनम्॥
न च संधुतयेत्पित्तमाहारं च विपाचयेत्।
शर्करासंयुतं दद्यात्तृष्णादाहनिवारणम्।।
मुद्गसूपेन संयुक्तं दद्याद्र क्तानिलापहम्सु।
सुरसं चाल्पदोषं च चौद्रयुक्तं भवेद्दधि।
उष्णं पित्तास्रकृदोषान् धात्रीयुक्तं तु निर्हरेत्॥
ज्वरासृक्पित्तवी सर्पकुष्ठपाण्ड्वामयभ्रमान्।
प्राप्नुयात्कामलां चोग्रां विधिं हित्वा दधिप्रियः)॥
इहलोक और परलोक में सुख चाहने वाले बुद्धिमान् व्यक्ति को चाहिये हितकारी आहार, खान पान, आचार वर्त्तन और चेष्टा क्रियाओं इन में विशेष रूप से बलवान रहे।
भूलकर भी रात को दही न खाएं
रात्रि में दही नहीं खानी चाहिये, और रात के सिवाय अन्य समय में जब खानी हो तब भी घी या शक्कर के विना, मूंग की दाल के विना, शहद के विना, गरम किये विना, अथवा आंवले के विना नहीं खानी चाहिये । जब खानी हो तो घी, मूंग, शहद, आंवला, इन के साथ या गरम करके खानी चाहिये।
रात को तो किसी भी प्रकार से नहीं खानी चाहिये । रात्रि में दही खाने से शरीर की श्लेष्मा और स्वास्थ्य नष्ट हो जाते हैं और शरीर के दोष कुपित होते हैं। दही में घी मिलाने से दही कफ कारक हो जाती है, परन्तु वायु का नाश करती है। शर्करा युक्त दही 'पित्त' (जठराग्नि या पित्त को) नहीं बढ़ाती, परन्तु आहार भोजन को पचा देती है।
इसलिये तृष्णा, प्यास और कलेजे की जलन को मिटाती है। मूंग के साथ मिलाकर दही खाने से 'वातरक्त' रोग में लाभ होता है । शहद के मिलाने से दही सुस्वादु और थोड़े दोष वाली हो जाती है।
दही को गरम करके खाने से रक्तपित्त जन्य विकार नष्ट होते हैं, आंवले के साथ खाने से भी रक्त पित्त रोग शान्त होता है। बहुत दही खाने वाला मनुष्य जो इस उपरोक्त विधि को छोड़ कर दही खाता है, उसको ज्वर, रक्तपित्त, वीसर्प, कुष्ठ, पाण्डुरोग, भ्रम, और तीव्र कामला रोग हो जाते हैं।
तत्र श्लोकाः ।
वेगा वेगसमुत्थाच रोगास्तेषां च भेषजम्ये।
येषां वेगा विधार्याश्च यदर्थं यद्धिताहितम्॥
उचिते चाहिते वर्ज्य सेव्ये चानुचिते क्रमः।
यथाप्रकृति चाहारो मलायनगदौषधम्॥
भविष्यतामनुत्पत्तौ रोगाणामौषधं च यत्।
वर्ज्याः सेव्याश्च पुरुषा धीमताऽऽत्मसुखार्थिना॥
विधिना दधि सेव्यं च येन यस्मात्तदत्रिजः।
न वेगान्धारणेऽध्याये सर्वमेवावदन्मुनिः।।
अर्थात मनुष्यों में उत्पन्न होने वाले स्वाभाविक वेग, वेगों को रोकने से उत्पन्न होने वाले रोग, इन रोगों की औषध, जिन के उपस्थित वेग धारण करने चाहियें, जिस के लिये जो लाभकारी है।
उचित एवं अहितकारी, छोड़ने योग्य और सेवनीय क्रम, प्रकृति के अनुसार आहार, मलस्थान, मल की वृद्धि, क्षय, औषध, भविष्य में न होने वाले रोगों की औषध, सुख चाहने वाले बुद्धिमान् मनुष्य को जिन पुरुषों को छोड़ना या जिनका सेवन करना उचित है, और दही को सेवन करने की विधि यह सब आत्रेय मुनि ने न वेगांध धारणीय अध्याय में उपदेश दिया है।