25/05/2024
*अब उन विघ्नों का वर्णन किया जा रहा है, जो योग पथ से विचलित करते हैं* -
व्याधिस्त्यानसंशयप्रमादालस्याविरतिभ्रान्तिदर्शनालब्धभूमिक- त्वानवस्थितत्वानि चित्तविक्षेपास्तेऽन्तरायाः ॥ ३० ॥
व्याख्या - योगपथ पर चल रहे साधक को जो विघ्न पथभ्रष्ट करते हैं, वे नौ प्रकार के हैं-
१. व्याधि - शरीर में किसी प्रकार का रोग, इन्द्रियों में कमजोरी आ जाना तथा चित्त में भ्रम, उद्विग्रता आदि आ जाना व्याधि कहलाती है ।
२. स्त्यान - कार्य करने में असमर्थ होने, अकर्मण्यता, कार्य में अनुत्साह अथवा सामर्थ्य की कमी को 'स्त्यान' कहते हैं ।
३. संशय - योग विद्या की वस्तुस्थिति पर विश्वास न होने तथा अपने प्रयत्न की सफलता पर आशंका करना संशय कहलाता है ।
४. प्रमाद - लापरवाही पूर्वक योग साधना करना, नियमित क्रम को अधूरा छोड़ देना और वह बिगड़ भी जाये, तो भी उसकी चिन्ता न करना प्रमाद कहलाता है ।
५. आलस्य- तमोगुण के रहने से शरीर का भारी रहना, कार्य में मन न लगना, सुस्ती बनी रहना, आलस्य कहलाता है।
६. अविरति - विषयासक्ति होने से मन का विषयों में ही लगे रहना तथा चित्त में वैराग्य का अभाव हो जाना अविरति कहलाता है।
७. भ्रान्ति दर्शन- किसी कारणवश अध्यात्म के दर्शन और साधनपथ का वास्तविक ज्ञान न हो पाना अथवा यह साधन उपयुक्त नहीं है, ऐसा भ्रामक ज्ञान ' भ्रान्तिदर्शन' नामक विघ्न कहलाता है।
८. अलब्ध भूमिकत्व - निरन्तर साधना करने पर भी साधक की स्थिति में न पहुँच पाना तथा मध्य में ही मन के वेग का अवरुद्ध हो जाना अलब्ध भूमिकत्व कहलाता है ।
९. अनवस्थितत्व- चित्त का एकाग्र अथवा स्थिर न रह पाना, जिससे भूमिका तक न पहुँच पाना और अस्थिरता के फलस्वरूप मनोभूमि का डाँवाँडोल बने रहना अनवस्थितत्व नामक विघ्न कहलाता है।
(३१) इन नौ विक्षेपों को योग मार्ग के अन्तराय (विघ्न) तथा योग प्रतिपक्षी भी कहा जाता है ॥ ३० ॥
इनके अतिरिक्त योग के और भी विघ्न होते हैं, जिनका वर्णन अगले सूत्र में किया जा रहा है-
दुःखदौर्मनस्याङ्गमेजयत्वश्वासप्रश्वासा विक्षेपसहभुवः ॥ ३१ ॥
व्याख्या - इससे पूर्व के सूत्र में योग मार्ग में आने वाले नौ विक्षेपों का वर्णन किया जा चुका है, उनके रहने पर पाँच विघ्न और भी उपस्थित हो जाते हैं । वे दुःख, दौर्मनस्य, अङ्गमेजयत्व, श्वास और प्रश्वास हैं ।
इनका क्रमशः वर्णन इस प्रकार है-
१. दुःख - दुःख अर्थात् कष्ट तीन प्रकार के होते हैं, आध्यात्मिक, आधिभौतिक, और आधिदैविक । राग-द्वेष, काम-क्रोध, भय - चिन्ता आदि होने से मन, इन्द्रियों और शरीर में जो विकलता एवं वेदना होती है, उसी का नाम आध्यात्मिक दुःख है। इसी प्रकार शत्रु, दस्यु, शेर, सर्प, मच्छर आदि द्वारा होने वाले कष्टों को आधिभौतिक दुःख कहते हैं तथा अतिवर्षा, आँधी-तूफान, भूकम्प, बिजली, सर्दी-गर्मी आदि दैवी कारणों से जो पीड़ा होती है, उसे आधिदैविक दुःख कहते हैं ।
२. दौर्मनस्य - मन की कोई इच्छा पूर्ण न होने से मन में जो क्षोभ उत्पन्न होता है, उसे दौर्मनस्य है |
३. अङ्गमेजयत्व - शरीर के अंग-अवयवों का कम्पित होना अङ्गमेजयत्व कहलाता है । ४. श्वास- श्वास प्रक्रिया पर नियन्त्रण न हो पाने के कारण बाहर की वायु का नासिका मार्ग से अन्दर प्रवेश कर जाना ( अर्थात् अन्तःकुम्भक में विघ्न हो जाना) 'श्वास' नामक विघ्र कहलाता है।
५. प्रश्वास- न चाहने पर भी ( यौगिक क्रियाओं के समय) अन्दर की वायु का बाहर निकल जाना (अर्थात् अन्तः कुम्भक में विघ्न हो जाना) प्रश्वास नामक विघ्न कहलाता है। इन पाँच विघ्नों को उप- विक्षेप भी कहते हैं; क्योंकि मुख्य विक्षेप नौ हैं। ये विक्षेप-उपविक्षेप एकाग्र चित्त वालों को नहीं चञ्चल चित्त वालों को ही होते हैं । अतः चित्त को स्थिर रखने के लिए इन विघ्न - विक्षेपों को दूर करने का प्रयत्न करना चाहिए ॥ ३१ ॥
( ३२ ) अब इन विघ्नों को दूर करने के उपायों का वर्णन किया जा रहा है-
तत्प्रतिषेधार्थमेकतत्त्वाभ्यासः ॥ ३२ ॥
उपर्युक्त विघ्नों के निवारणार्थ आवश्यक है कि 'एक तत्त्व' मात्र के ध्यान का ही अभ्यास करना चाहिए। कारण यह है कि चित्त में अनेक विषयों का चिन्तन होता रहता है; पर उसे विभिन्न विषयों से हटाकर यदि किसी एक ही विषय या तत्त्व में एकाग्र किया जाए, तो विघ्नों का निवारण हो सकता है। 'एक तत्त्व' से अभिप्राय किसी अन्य विषय से नहीं, वरन् ईश्वरीय विषय से है ।
अतः चित्त को ईश्वरप्रणिधान (ईश उपासना ) में लगायें। कई विद्वान् ऐसा भी मानते हैं कि किसी अन्य तत्त्व या लक्षण का तत्परतापूर्वक ध्यान करने से चित्त की एकाग्रता सध जाती है; किन्तु सूत्र का 'एक तत्त्व' पद ईश्वर (ब्रह्म) के लिए ही संकेत करता है । अस्तु,
उस ईश्वर का ध्यान ही (ईश्वर प्रणिधान द्वारा) करना उचित है। इससे ही योग में आने वाले विक्षेप और उपविक्षेप पूरी तरह दूर हो सकते हैं ॥ ३२ ॥