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10/08/2025

सुंदरकांड पाठ

09/08/2025

नौली क्रिया

24/02/2025
09/02/2025

कविवर जयदेव अष्टपदी

27/12/2024

Sundarkand path

17/07/2024

ॐ पर ध्यान

जो इस नश्वर जीवन के असीम सागर में गिरे हुए हैं, उनके लिए ॐ एक नाव के समान है। इस नाव की सहायता से अनेकों ने इस संसार सागर को पार किया है। यदि आप भाव तथा अर्थ सहित ॐ पर ध्यान करें, तो आप भी ऐसा कर सकते हैं और आत्म-साक्षात्कार कर सकते हैं।

ॐ अमर सर्वव्यापक आत्मा अथवा आत्मा का एकमात्र प्रतीक है। हर चीज़ को बाहर निकाल कर एकमात्र ॐ का ही विचार करें। सभी नाशवान् विचारों को बन्द कर दें। वे बार-बार प्रकट होंगे। शुद्ध आत्मा के विचारों को बार-बार उत्पन्न कीजिए । शुद्धता, पूर्णता, मुक्ति, ज्ञान, अमरता अनन्तता, नित्यता आदि के विचारों को संयुक्त कीजिए। ॐ का मानसिक जप कीजिए ।

ॐ ही प्रत्येक वस्तु है। ॐ ही ईश्वर का, ब्रह्म का प्रतीक है। ॐ आपका वास्तविक नाम है। ॐ मनुष्य के तीनों प्रकार के सभी अनुभवों को आच्छादित करता है। ॐ इस सम्पूर्ण दृश्यमान जगत् का प्रतीक है। ॐ से ही यह विषय - जगत् निकला है। यह विश्व ॐ में ही अस्तित्वमान है और ॐ में ही विलीन हो जाता है। 'अ' इस भौतिक धरातल को अभिव्यक्त करता है, 'उ' मानसिक तथा सूक्ष्म जगत्, आत्माओं के जगत् तथा स्वर्ग लोकों को, 'म' गहन निद्रावस्था तथा वह सब जो आपकी जाग्रत अवस्था में भी अज्ञात है, वह सब जो बुद्धि से परे है, को अभिव्यक्त करता है । ॐ सबको अभिव्यक्त करता है। ॐ आपके जीवन, विचारों तथा बुद्धि का आधार है।

सभी शब्द जो विषयों को निर्दिष्ट करते हैं, वे सभी ॐ में केन्द्रित हैं। इस कारण यह संसार ॐ से आया है, ॐ में स्थित रहता है और ॐ में विलीन हो जाता है।

ॐ ब्रह्म अथवा परमात्मा का प्रतीक है। ॐ पर ध्यान करें। जब आप ॐ पर ध्यान करें अथवा ॐ के बारे में विचार करें, तो आपको उस ब्रह्म के बारे में (जो कि इस प्रतीक द्वारा अभिव्यक्त होता है) विचार करना है।

ॐ के साथ संयोग इसके अर्थ के साथ एक बन जाता है। “तज्जपस्तदर्थभावनम्।” जब आप ॐ के बारे में विचार करें अथवा ॐ का ध्यान करें अथवा ॐ का उच्चारण करें, तो स्वयं को सर्व आनन्दमयी आत्मा के साथ एक करने का प्रयत्न करें तथा पंचकोशों को माया के द्वारा निर्मित भ्रामक संयोग की भाँति नकारें। आपको ॐ के प्रतीक को सत् चिद् आनन्द ब्रह्म अथवा आत्मा की भाँति लेना चाहिए। यह अर्थ है। ध्यान के समय आपको अनुभव करना चाहिए कि आप सर्व शुद्धता, सर्व प्रकाश, सर्वव्यापक अस्तित्व आदि हैं। आत्मा पर नित्य ध्यान करें। विचार करें कि आप मन और शरीर से भिन्न हैं। अनुभव करें: “मैं सत्-चित्-आनन्द आत्मा हूँ — मैं सर्वव्यापक आत्मा हूँ।” यह वेदान्तिक ध्यान है।

ॐ पर तब तक ध्यान करें, जब तक आप समाधि न प्राप्त कर लें। यदि आपका मन रजस् तथा तमस् से विचलित हो, तो धारणा और ध्यान का बार-बार अभ्यास करते रहें।

"व्यक्ति के शरीर को अथवा निम्न आत्मा को अरणी के नीचे का भाग बना कर तथा प्रणव को अरणी का ऊपरी भाग बना कर ध्यान के अभ्यास द्वारा व्यक्ति को अपने भीतर स्थित ईश्वर का दर्शन करना चाहिए।” (श्वेताश्वतर उपनिषद्)

हे राम! अब आप हिमालय में निवास कर रहे हैं। प्रकृति भगवान् के साथ हिल-मिल कर रहें। ऊँचे शिखर आपसे अनन्त जीवन के रहस्यों को फुसफुसा कर बता रहे हैं। आपके चारों ओर बहती नदी आपको ओंकार का गीत सुनायेगी। अपने मन को प्रणव की ध्वनि पर केन्द्रित करें और उत्कृष्ट मिलन में सरलता से प्रविष्ट हो जायें । प्रकृति अपने रहस्यों को प्रकट करेगी। उससे उपदेश ग्रहण करें। बर्फ से ढँके पहाड़ों, ग्लेशियरों तथा ताजगी से पूर्ण हिमालय की वायु, सूर्य की किरणों, नीले आकाश, टिमटिमाते सितारों के साथ एकता का अनुभव करें।

आप अद्वैत ब्रह्म में विश्राम करें और अमरता के मधु का पान करें! आप जाग्रत, स्वप्न तथा गहन निद्रावस्था का अन्वेषण करके तुरीयावस्था के आनन्द की चतुर्थ अवस्था तक पहुँचें! आप सभी के पास ओंकार अथवा प्रणव की ग्राह्य बुद्धि हो! आप सभी अम ध्वनियों को पार करके ध्वनि रहित ॐ में प्रविष्ट हो जायें! आप सभी ॐ का ध्यान करें तथा जीवन के लक्ष्य उस अन्तिम सत्य सत्-चित्-आनन्द ब्रह्म को प्राप्त करें! यह ॐ आपका निर्देशन करे, यह ॐ आपका निर्देश, आदर्श एवं लक्ष्य बने ! माण्डूक्य उपनिषद् के रहस्य एवं सत्यों की आप पर वृष्टि हो ! ॐ ॐ ॐ !!

- स्वामी शिवानंद सरस्वती जी

25/05/2024

*अब उन विघ्नों का वर्णन किया जा रहा है, जो योग पथ से विचलित करते हैं* -
व्याधिस्त्यानसंशयप्रमादालस्याविरतिभ्रान्तिदर्शनालब्धभूमिक- त्वानवस्थितत्वानि चित्तविक्षेपास्तेऽन्तरायाः ॥ ३० ॥

व्याख्या - योगपथ पर चल रहे साधक को जो विघ्न पथभ्रष्ट करते हैं, वे नौ प्रकार के हैं-

१. व्याधि - शरीर में किसी प्रकार का रोग, इन्द्रियों में कमजोरी आ जाना तथा चित्त में भ्रम, उद्विग्रता आदि आ जाना व्याधि कहलाती है ।

२. स्त्यान - कार्य करने में असमर्थ होने, अकर्मण्यता, कार्य में अनुत्साह अथवा सामर्थ्य की कमी को 'स्त्यान' कहते हैं ।

३. संशय - योग विद्या की वस्तुस्थिति पर विश्वास न होने तथा अपने प्रयत्न की सफलता पर आशंका करना संशय कहलाता है ।

४. प्रमाद - लापरवाही पूर्वक योग साधना करना, नियमित क्रम को अधूरा छोड़ देना और वह बिगड़ भी जाये, तो भी उसकी चिन्ता न करना प्रमाद कहलाता है ।

५. आलस्य- तमोगुण के रहने से शरीर का भारी रहना, कार्य में मन न लगना, सुस्ती बनी रहना, आलस्य कहलाता है।

६. अविरति - विषयासक्ति होने से मन का विषयों में ही लगे रहना तथा चित्त में वैराग्य का अभाव हो जाना अविरति कहलाता है।

७. भ्रान्ति दर्शन- किसी कारणवश अध्यात्म के दर्शन और साधनपथ का वास्तविक ज्ञान न हो पाना अथवा यह साधन उपयुक्त नहीं है, ऐसा भ्रामक ज्ञान ' भ्रान्तिदर्शन' नामक विघ्न कहलाता है।

८. अलब्ध भूमिकत्व - निरन्तर साधना करने पर भी साधक की स्थिति में न पहुँच पाना तथा मध्य में ही मन के वेग का अवरुद्ध हो जाना अलब्ध भूमिकत्व कहलाता है ।

९. अनवस्थितत्व- चित्त का एकाग्र अथवा स्थिर न रह पाना, जिससे भूमिका तक न पहुँच पाना और अस्थिरता के फलस्वरूप मनोभूमि का डाँवाँडोल बने रहना अनवस्थितत्व नामक विघ्न कहलाता है।

(३१) इन नौ विक्षेपों को योग मार्ग के अन्तराय (विघ्न) तथा योग प्रतिपक्षी भी कहा जाता है ॥ ३० ॥

इनके अतिरिक्त योग के और भी विघ्न होते हैं, जिनका वर्णन अगले सूत्र में किया जा रहा है-
दुःखदौर्मनस्याङ्गमेजयत्वश्वासप्रश्वासा विक्षेपसहभुवः ॥ ३१ ॥

व्याख्या - इससे पूर्व के सूत्र में योग मार्ग में आने वाले नौ विक्षेपों का वर्णन किया जा चुका है, उनके रहने पर पाँच विघ्न और भी उपस्थित हो जाते हैं । वे दुःख, दौर्मनस्य, अङ्गमेजयत्व, श्वास और प्रश्वास हैं ।

इनका क्रमशः वर्णन इस प्रकार है-

१. दुःख - दुःख अर्थात् कष्ट तीन प्रकार के होते हैं, आध्यात्मिक, आधिभौतिक, और आधिदैविक । राग-द्वेष, काम-क्रोध, भय - चिन्ता आदि होने से मन, इन्द्रियों और शरीर में जो विकलता एवं वेदना होती है, उसी का नाम आध्यात्मिक दुःख है। इसी प्रकार शत्रु, दस्यु, शेर, सर्प, मच्छर आदि द्वारा होने वाले कष्टों को आधिभौतिक दुःख कहते हैं तथा अतिवर्षा, आँधी-तूफान, भूकम्प, बिजली, सर्दी-गर्मी आदि दैवी कारणों से जो पीड़ा होती है, उसे आधिदैविक दुःख कहते हैं ।

२. दौर्मनस्य - मन की कोई इच्छा पूर्ण न होने से मन में जो क्षोभ उत्पन्न होता है, उसे दौर्मनस्य है |

३. अङ्गमेजयत्व - शरीर के अंग-अवयवों का कम्पित होना अङ्गमेजयत्व कहलाता है । ४. श्वास- श्वास प्रक्रिया पर नियन्त्रण न हो पाने के कारण बाहर की वायु का नासिका मार्ग से अन्दर प्रवेश कर जाना ( अर्थात् अन्तःकुम्भक में विघ्न हो जाना) 'श्वास' नामक विघ्र कहलाता है।

५. प्रश्वास- न चाहने पर भी ( यौगिक क्रियाओं के समय) अन्दर की वायु का बाहर निकल जाना (अर्थात् अन्तः कुम्भक में विघ्न हो जाना) प्रश्वास नामक विघ्न कहलाता है। इन पाँच विघ्नों को उप- विक्षेप भी कहते हैं; क्योंकि मुख्य विक्षेप नौ हैं। ये विक्षेप-उपविक्षेप एकाग्र चित्त वालों को नहीं चञ्चल चित्त वालों को ही होते हैं । अतः चित्त को स्थिर रखने के लिए इन विघ्न - विक्षेपों को दूर करने का प्रयत्न करना चाहिए ॥ ३१ ॥

( ३२ ) अब इन विघ्नों को दूर करने के उपायों का वर्णन किया जा रहा है-

तत्प्रतिषेधार्थमेकतत्त्वाभ्यासः ॥ ३२ ॥

उपर्युक्त विघ्नों के निवारणार्थ आवश्यक है कि 'एक तत्त्व' मात्र के ध्यान का ही अभ्यास करना चाहिए। कारण यह है कि चित्त में अनेक विषयों का चिन्तन होता रहता है; पर उसे विभिन्न विषयों से हटाकर यदि किसी एक ही विषय या तत्त्व में एकाग्र किया जाए, तो विघ्नों का निवारण हो सकता है। 'एक तत्त्व' से अभिप्राय किसी अन्य विषय से नहीं, वरन् ईश्वरीय विषय से है ।

अतः चित्त को ईश्वरप्रणिधान (ईश उपासना ) में लगायें। कई विद्वान् ऐसा भी मानते हैं कि किसी अन्य तत्त्व या लक्षण का तत्परतापूर्वक ध्यान करने से चित्त की एकाग्रता सध जाती है; किन्तु सूत्र का 'एक तत्त्व' पद ईश्वर (ब्रह्म) के लिए ही संकेत करता है । अस्तु,

उस ईश्वर का ध्यान ही (ईश्वर प्रणिधान द्वारा) करना उचित है। इससे ही योग में आने वाले विक्षेप और उपविक्षेप पूरी तरह दूर हो सकते हैं ॥ ३२ ॥

वह ब्रह्मा, विष्णु, महेश आदि देवों को भी ज्ञान-प्रदान करता है। अस्तु, वह इनका भी गुरु है अर्थात् उपदेष्टा है। ईश्वर गुरु...
14/05/2024

वह ब्रह्मा, विष्णु, महेश आदि देवों को भी ज्ञान-प्रदान करता है। अस्तु, वह इनका भी गुरु है अर्थात् उपदेष्टा है। ईश्वर गुरुओं (लौकिक गुरुओं) का भी गुरु है || २६ ॥

[ उपर्युक्त सूत्र में गुरु ईश्वर को बताया गया है; किन्तु उस ईश्वर तक ( समाधि अवस्था तक ) पहुँचने के लिए लौकिक गुरु की आवश्यकता तो पड़ती ही है। अतः मुमुक्षु के लिए उचित है कि समाधि के निमित्त वह ऐसे गुरु से उपदेश प्राप्त करे, जो धन, सम्पदा, प्रतिष्ठा आदि से विरक्त हो तथा जन्म-जाति-पाँति और मत-मतान्तरों की संकीर्णता से युक्त न हो। वह शिष्य के गुण, कर्म, स्वभाव और संस्कारों को ऊँचा उठाकर उसे अन्तिम लक्ष्य ( समाधि की स्थिति ) तक पहुँचा सके । ]

(२७) तस्य वाचकः प्रणवः ।। २७ ।।

व्याख्या - नामी का नाम से अनादि और बहुत गहरा सम्बन्ध है । इसीलिए शास्त्रों में नाम जप बहुत महिमा वर्णित की गई है।

गीता में जप यज्ञ को सर्वश्रेष्ठ बताया गया है । विभिन्न भाषाओं और देशों में परमात्मा-ईश्वर के विभिन्न नाम हैं; किन्तु उनमें सर्वाधिक श्रेष्ठ और मान्य नाम वेदोक्त होने से ' ॐ (प्रणव) माना गया है।

गीता १७.२७, कठ० १.२.१५,१७ में इसी का वर्णन किया गया है।

इस नाम का आधार यह है कि मूल प्रकृति और ईश्वर का जिस स्थान पर सम्बन्ध है, वहाँ से निरन्तर एक ॐकार ध्वनि गुञ्जरित होती रहती है, वही ध्वनि शक्ति स्वरूपा होकर संसार के विभिन्न कार्यों को पूर्ण करती है ।

यह ध्वनि स्वयं निःसृत होती रहती है, जिसका रसास्वादन योगीजन ध्यान की स्थति में (श्रवण करके) करते हुए ब्रह्मानंद में रमण करते हैं। इस 'ॐ' ध्वनि को ईश्वर का स्वघोषित नाम माना जाता है। इस ॐ' के अनेक पर्यायवाची नाम हैं, जिनसे ईश्वर के अनेक गुणों को ग्रहण किया जाता है ।

अ, उ और म् इन तीनों अक्षरों को मिलाकर 'ॐ' बनता है। अकार विराट् स्वरूप अग्नि, विष्णु आदि का बोध कराने वाला है, 'उ' कार से हिरण्यगर्भ, शंकर, तैजस नामों का अर्थ प्रकट होता है, 'म' कार से ईश्वर प्राप्ति प्रकृति आदि नाम बनते हैं ।

ओंकार नाम का मानसिक जप जब परिपक्व स्थिति में पहुँच जाता है, तब मात्र ध्यान स्वरूप ध्वन्यात्मक प्रणव (ॐ) की भूमिका प्रारम्भ होती है । इसीलिए योगीजन 'ॐ' की ही उपासना करते हैं । समस्त वेद-शास्त्र इसी की व्याख्या स्वरूप रचे गये हैं ॥ २७ ॥

अब ॐकार नाम वाले ईश्वर की उपासना विधि का वर्णन किया जा रहा है-

तज्जपस्तदर्थभावनम्॥ २८ ॥

व्याख्या ॐ कार के जप और इसके चिन्तन को योग का सर्व प्रमुख और सर्वश्रेष्ठ साधन कहा गया है। इसके (प्रणव के) जप और चिन्तन से चित्त की चञ्चलता दूर हो जाती है। जप से योग और योग से जप करने से एक विशिष्ट शक्ति का प्रादुर्भाव होता है। दोनों की शक्ति से परमात्मा का ज्ञान प्राप्त होता है। इसी का नाम ईश्वर प्रणिधान या ईश्वर की शरणागति है । इसी को अनन्य भाव में लीन होना कहते हैं । चित्त को चारों तरफ से हटाकर परमात्मा में लगा देने को ही भावना कहते हैं । इसी भावना से अविद्या आदि क्लेश, काम्य कर्म, कर्मफल, वासनाओं के संस्कार (जो जन्म - मृत्यु आदि बन्धन के कारण रूप हैं।) चित्त से धुलकर साफ हो जाते हैं और सात्त्विक ज्ञान के संस्कार उदित होते हैं, तब मात्र ईश्वर ही ध्येय रह जाता है ।

निरन्तर अभ्यास से यह भावना इतनी सुदृढ़ हो जाती है कि ॐ कार के उच्चारण मात्र से ईश्वर का स्मरण हो जाता है। जिस प्रकार गाय का नाम लेने मात्र से उसके स्वरूप की स्मृति हो जाती है, उसी प्रकार 'ॐ' उच्चारण करते ही ईश्वर की स्मृति हो जाती है। यह सब सम्प्रज्ञात समाधि की स्थिति में होता है ।

सम्प्रज्ञात समाधि की स्थिति में सतोगुण, रजोगुण के ऊपर प्रभावी हो जाता है, उस समय स्थूल शरीर स्थूल दशा में व्युत्थान बन्धन का कार्य स्थगित कर देता है । सूक्ष्म शरीर सतोगुणी प्रकाश पाकर सूक्ष्म- जगत् में क्रियाशील रहता है। इस प्रकार क्रमश: निर्बीज समाधि की प्राप्ति होती है ॥ २८ ॥

अब ईश्वर के नाम और स्वरूप के चिन्तन का प्रतिफल वर्णित किया जा रहा है-

ततः प्रत्यक्चेतनाधिगमोऽप्यन्तरायाभावश्च ॥ २९ ॥

व्याख्या- साधक के साधना पथ में अनेक विघ्न-बाधाएँ भी आती हैं; किन्तु पूर्व सूत्र में वर्णित ॐ कार के जप तथा ईश्वर प्रणिधान ( ध्यान -उपासना) से इन विघ्नों का शमन होता रहता है, साथ ही ईश-साक्षात्कार का पथ भी सुगम हो जाता है। परमात्मा के जिन गुणों का ध्यान करते हुए साधक उपासना करता है, उन गुणों का साधक में भी समावेश होता जाता है । जैसे-परमात्मा नित्य, चैतन्य, कूटस्थ और क्लेश आदि से रहित है, इस ध्यान से (ईश्वर प्रणिधान प्रक्रिया से ) साधक को अपने निर्लिप्त निर्विकार और क्लेशादि से रहित शुद्ध स्वरूप का प्रत्यक्ष ज्ञान प्राप्त हो जाता है ॥ २९ ॥

क्रमशः योगदर्शन

13/05/2024

क्लेशकर्मविपाकाशयैरपरामृष्टः पुरुषविशेष ईश्वरः ॥ २४ ॥ =

व्याख्या - जो क्लेश, कर्म, विपाक और आशय इन चारों से अछूता और परम आत्मा है, वह ईश्वर है । पाँच प्रकार के क्लेश जो द्वितीय पाद के तीसरे सूत्र में वर्णित हैं, वे - अविद्या, अस्मिता, राग, द्वेष और अभिनिवेश हैं । इसी प्रकार कर्मों के भी चार प्रकार हैं-
१. पापकर्म,
२. पुण्य कर्म
३. पुण्य और पाप मिश्रित तथा
४. पाप-पुण्य रहित ।

'विपाक' का अर्थ है- कर्मफल परिपक्व हो जाने पर सकाम कर्मों के फल सुख, दुःख, जाति, आयु, भोग आदि के रूप में प्राप्त होना ।

'आशय' का अभिप्राय चित्त में प्रसुप्त पड़ी उन वासनाओं से है, जो अभी संस्कार स्वरूप ही विद्यमान हैं, जिनके परिणाम स्वरूप जाति, आयु, भोग आदि अभी तैयार नहीं हो पाये हैं।

ईश्वर इन चारों दोषों से रहित, सामान्य आत्माओं जैसे दोषों से पूरी तरह शून्य एवम् श्रेष्ठताओं से पूरित है, वह विश्वव्यापी है और परम आत्मा है । सूत्रकार ने पुरुष विशेष कहा है, इसका अभिप्राय है कि ऊपर वर्णित, क्लेश कर्म, विपाक और आशय इन चारों से सामान्य आत्माएँ सम्पृक्त रहती हैं; क्योंकि अनादिकाल से इनका इनसे सम्बन्ध रहता है ।

यद्यपि मुक्त पुरुषों का भी इनसे सम्बन्ध नहीं रहता है; किन्तु पूर्व में रहा होता है; लेकिन ईश्वर का तो इनसे कभी सम्बन्ध न था, न होगा । अस्तु, ईश्वर विशेष है और उन (मुक्त पुरुषों) से भी परे है ॥ २४ ॥

अब ईश्वर की विशेषता बताई जा रही है-

(२५) तत्र निरतिशयं सर्वज्ञबीजम् ॥ २५ ॥

व्याख्या— जिससे बढ़कर कोई दूसरा हो, वह सातिशय कहलाता है; किन्तु जिससे बढ़कर कोई दूसरा न हो, वह निरतिशय कहलाता है। ईश्वर का ज्ञान सर्वोच्च है। वह सर्वज्ञ है, इसीलिए उसके ज्ञान से अधिक किसी का ज्ञान नहीं है । अतः वह निरतिशय कहा जाता है । इसी प्रकार धर्म, वैराग्य, ऐश्वर्य, श्री, विभूति, सम्पत्ति आदि इन सभी की एक पराकाष्ठा है। संसार में जो भी ज्ञान - विज्ञान और ऐश्वर्य आदि है, इन सभी की सीमा ईश्वर है । आत्मा में ये सभी वस्तुएँ सीमित हैं; पर परमात्मा में असीमित हैं ॥ २५ ॥

अब शिव, ब्रह्मा, विष्णु आदि देवताओं को प्रेरणा एवं प्रकाश देने वाला भी उस ईश्वर को ही बताया जा रहा है- (२६)

पूर्वेषामपि गुरुः कालेनानवच्छेदात् ॥ २६ ॥

व्याख्या - सृष्टि के आरम्भ में उत्पन्न होने एवं वेदों द्वारा सम्पूर्ण ज्ञान-विज्ञान का उपदेश करने के कारण ब्रह्माजी को सबका गुरु माना जाता है; परन्तु ब्रह्मा जी का सृष्टि के पूर्व उद्भव और महाप्रलय के पश्चात् अवसान होता है। अतः वे काल परिच्छिन्न हैं अर्थात् काल द्वारा सीमित हैं; परन्तु ईश्वर काल से बँधा नहीं है, वह सृष्टि के पूर्व और महाप्रलय के पश्चात् तथा हर स्थिति में विद्यमान रहता है ।

- योग दर्शन

11/05/2024

धारणा का अभ्यास

आपके भीतर धारणा के प्रति अच्छी रुचि होनी चाहिए। मात्र तभी आपका सम्पूर्ण अवधान उस विषय की ओर निर्दिष्ट होगा, जिस पर आप धारणा करना चाहते हैं। जब तक अभ्यासी द्वारा प्रशंसनीय स्तर की रुचि तथा अवधान नहीं प्रदर्शित किया जायेगा, तब तक किसी प्रकार की सच्ची धारणा नहीं हो सकती। इसलिए इन दोनों शब्दों का क्या अर्थ है, आपको यह जानना आवश्यक है।

अवधान मन को स्थिर करने का प्रयास है। यह चुने हुए विषय पर चेतना को केन्द्रित करना है। अवधान के द्वारा आप अपनी मानसिक क्षमताओं तथा योग्यताओं का विकास कर सकते हैं। जहाँ अवधान होगा, वहाँ धारणा भी होगी। अवधान का अर्जन धीरे-धीरे करना चाहिए। यह कोई विशेष विधि नहीं है। यह इसके एक पहलू में सम्पूर्ण मानसिक क्रिया-विधि है।

देखने में सदैव अवधान सम्मिलित है। देखना अर्थात् अवधान करना। अवधान के द्वारा आपको विषयों का स्पष्ट ज्ञान प्राप्त होता है। जिस विषय की ओर अवधान निर्दिष्ट होता है, उसी के ऊपर सम्पूर्ण ऊर्जा केन्द्रित होती है और आपको उसकी पूर्ण और सम्पूर्ण सूचना प्राप्त होती है। अवधान में मन की बिखरी हुई समस्त किरणें एकत्रित होती हैं। अवधान में प्रयास अथवा संघर्ष होता है। अवधान के द्वारा किसी भी वस्तु का गहन प्रभाव पड़ता है। यदि आपका अवधान अच्छा है, तो आप हाथ में लिये गये कार्य को बहुत अच्छी तरह से कर सकेंगे। एक अवधान सम्पन्न व्यक्ति की स्मरण शक्ति बहुत अच्छी होती है। वह बहुत ही जागरूक और सावधान होता है। वह नम्र और सतर्क होता है।

अवधान धारणा में बहुत बड़ी भूमिका निभाता है। यह संकल्प का आधार है।

जब अन्तरावलोकन के उद्देश्य से इसे अन्तर जगत् की ओर उचित प्रकार से निर्देशित किया जाता है, तो यह मन को विश्लेषित करता है और आपके लिए अनेक चौकाने वाले तथ्यों को प्रकाशित करता है।

अवधान चेतना का केन्द्रीकरण है। अवधान धारणा में एक सजग भूमिका निभाता है। यह प्रशिक्षित संकल्प का एक प्रतीक है। यह दृढ़ मानसिकता के व्यक्तियों में पाया जाता है। यह एक दुर्लभ योग्यता है। ब्रह्मचर्य इस शक्ति का अद्भुत ढंग से विकास करता है। वह योगी जिसके पास यह गुण होता है, वह अपने मन को किसी भी अरुचिकर विषय पर भी बहुत देर तक एकाग्र कर सकता है। मन जिस विषय को पसन्द करता हो, उस पर इसे एकाग्र करना सरल है । दृढ़ अभ्यास के द्वारा अवधान का अर्जन और विकास सम्भव है। सभी महान् व्यक्ति अवधान के द्वारा ही ऊपर उठे ।

आप जिस समय जो कार्य कर रहे हों, अपना पूरा अवधान उसी कार्य में लगायें। उन अरुचिकर कार्यों में अपना अवधान लगायें, जिनको करने में आपको उनकी अप्रियता के कारण संकोच होता था। अरुचिकर विषयों तथा विचारों में रुचि लें। उन्हें अपने मन के सामने रखें। धीरे-धीरे रुचि प्रकट होगी। अनेक मानसिक दुर्बलताएँ नष्ट हो जायेंगी। मन दृढ़ और दृढ़तर होता जायेगा ।

वह बल जिसके द्वारा कोई भी वस्तु मन पर आघात करती है, उस स्तर पर निर्भर करता है जिस स्तर का अवधान उस पर डाला जा रहा है। स्मरण की महान् कला अवधान है। अकर्मण्य व्यक्तियों की स्मरण शक्ति दुर्बल होती है।

मानव-मन के पास एक समय में एक ही विषय पर ध्यान देने की शक्ति है, हालाँकि यह अत्यन्त शीघ्रता से इतनी अद्भुत गति से एक विषय से दूसरे विषय पर जा सकता है कि वास्तव में कुछ ने देखा कि यह एक समय में कई बातों को ग्रहण कर सकता हैं। लेकिन पश्चिम तथा पूर्व के कुछ श्रेष्ठ दार्शनिकों और मनीषियों ने पाया कि एक विचार वाला सिद्धान्त अधिक सही है। यह व्यक्तियों के अनुभव से भी सहमत है।

यदि आप मानसिक कार्यों अथवा गतिविधियों का सावधानीपूर्वक अन्वेषण करें, किसी एक विधि को अवधान नहीं कहा जा सकता है। अवधान को एक अलग कार्य की भाँति अलग करना सम्भव है। आप किसी बात को ग्रहण करते हैं, इसलिए उसके प्रति चैतन्य रहते हैं।

चेतना की प्रत्येक स्थिति से अवधान संयुक्त है और यह चेतना के प्रत्येक क्षेत्र में उपस्थित है।

- स्वामी शिवानंद सरस्वती जी

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Ahmedabad

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