13/01/2024
ब्राहमण भाग - २
ईसापूर्व ३३०० और ३००० के आसपास अरबी समुद्र,भूमध्य समूद्र एवम कैस्पियन सागर,नील, युक्रेतिस, ताइग्रीस, सिंधू आदि नदियां समेत सम उष्णतावाले इलाकों जहा शिकार एवम घांस चारे की प्रचुर उपलब्धता थी,ऐसे प्रदेशों में पुरे विश्व के कबीले आ आ कर बसने लगे। इसबात की पूरी सम्भावना थी की हर कबीले के किसी एक या अधिक नीडर एवम दीर्घद्रष्टा लड़ाके जो उस दल या समूह के या तो सरदार होते थे, या उपेक्षित युवा रहे होंगे जो घुमक्कड़ प्रकृति के होने के कारण सूर्य,चंद्र,अग्नि, वरूण,पृथ्वी,आकाश, ज्वालामुखी आदी कुदरती शक्तियों से भली भांति परिचित हो गए थे तथा पृथ्वी के भिन्न भिन्न क्षेत्रों की जलवायु को समझने लगे थे। भिन्न भिन्न ऋतुओंके कारण पृथ्वी पर होनेवाले भौतिक बदलावों से अपने कबीलों की सुरक्षा करना सीख गए थे। इसके लिए उन्हें लंबे लंबे खोज अभियानों में जाना पड़ता था। जिस कारण ज्यादातर वे सामुहिक शिकार अभियानों में हिस्सा नही ले पाते थे।
उनके उपकारी कार्यों से सरदार समेत कबीले के सभी सदस्य प्रभावित होने के कारण शिकार अभियानों में उनकी अनुपस्थिति सभी को स्वीकार्य थी। धीरे धीरे शिकार, खेत उत्पाद एवम मवेशियों में उनका हिस्सा अलग से लगाया जानें लगा। इस प्रकार कबीले,गांवों एवम समाजो में सरदार के बाद इनका महत्व बढ़ता चला गया। इस वर्ग में आनेवाले विशेष मनुष्य पांच तत्वों से निर्मित इस ब्रह्माण्ड का संचालन करनेवाली कुदरती शक्तियों को, उनके भौतिक स्वरूप तथा उनकी कार्य प्रणाली को समझने लगे थे। इसलिए श्रुतियों में उन्हे " ब्रह्म " को जानने वाले यानी " ब्राहमण" कहकर पुकारा गया। इस तरह वेद कालीन भारतीय समाज में ब्राह्मणों को विशेष स्थान दिया जानें लगा। पर एकबात निश्चित रूप से तय है, की ब्राह्मण मूलरूप से "क्षत्रिय" थे।
जैसे जैसे मानव सभ्यता का विकास होता गया, वैसे वैसे मानव समाज में ओझा, पुजारी एवम पुरोहित आदि पद प्रचलित हुवे। जिनका काम भिन्न भिन्न अवसरों पर भिन्न भिन्न सरल या जटिल पुजा एवम साधना की विधियों का संचालन करना एवम अपने परिवार,समुह,गांव के लोगों को मार्गदर्शन देना था।
धीरे धीरे बदलाव आए। इन विशेष पदों के लिए निर्धारित योग्यता का होना जरूरी समझा जानें लगा। उनके लिए विशेष शिक्षा दीक्षा का विधान था। ऋग्वेद काल तक समाज के किसी भी वर्ग एवम स्तर का व्यक्ति अपनी विद्वता एवम अनुभव के आधार पर " ब्रह्मणतव" धारण कर पुजारी, पुरोहित, आचार्य, ऋषि बन सकता था। पर उन्हें
धन संपत्ति धारण करने का विधान नही था। वह जीवन पर्यंत ज्ञान की उपासना एवम समाज कल्याण के लिए प्रयत्नरत रहते थे।
समाज को ही ऊसके लिए घर, स्त्री और जीवनयापन के लिए जरूरी साधन सामग्री की व्यवथा करनी होती थी। उसकी संताने अपने कर्म के हिसाब से तत्कालिन वर्ग या स्तर में सामिल हो सकती थी। इस समाज में वंश परम्परागत वर्ण, जाति या वर्ग का अस्तित्व अभी प्रचलन में नही था।
ईशा पूर्व २९०० के आसपास सप्तसिंधु संस्कृति एवम उत्तर भारत के क्षेत्रों की बस्तियों को प्रलय ने नेस्त नाबुद कर दिया। यहां बसने वाले रुद्र, इंद्र के उपासक एवम नागवंशी मिश्र जातियां सब से ज्यादा प्रभावित हुई। सिंधु संस्कृति के हड़प्पा तथा मोहेंजो दरों, कालीबंगा जैसे व्यापारिक नगर भूतल में विलीन हो गए। मेशोपोटेमिया के कुशल नाविकों ने गंगा किनारे बसे लोहे के हथियार धारण करने वाले नागवंशी मिश्र जाति के लोगों को बचाया । प्रलय में बचे मवेशी, अन्न, फल, सब्जी के बीज के साथ उन्हें आज के अजरबैजान क्षेत्र में पहुंचाया। लोहे के हथियार धारण करने वाले भारत के मूल निवासीयो को स्थानिक लोगों ने " आर्यन" नाम दिया। यही बाद में विष्व इतिहास कोश में " आर्य" जाति के नाम से प्रसिद्ध हुए।
क्रमश:
आचार्य अशोक "दीनबंधु"
दि.१३-०१-२०२४ ( १९.२९)