21/09/2024
।।पितृपक्ष में कर्तव्य।।
अपि धन्यः कुले जायादस्माकं मतिमान्नरः ।
अकुर्वन्वित्तशाठ्यं यः पिण्डान्नो निर्वपिष्यति ।।
रत्नं वस्त्रं महायानं सर्वभोगादिकं वसु ।
विभवे सति विप्रेभ्यो योsस्मानुद्दिश्य दास्यति ।।
पितृगण कहते हैं --- क्या, हमारे कुल में कोई ऐसा मतिमान् पुरुष होगा जो लालच त्याग कर हमारे उद्देश्य से पिण्डदान करेगा तथा ब्राह्मणों को रत्न, वस्त्र, यान और सम्पूर्ण भोग-सामग्री देगा ।
अन्नेन वा यथाशक्त्या कालेsस्मिन्भक्तिनम्रधीः ।
भोजयिष्यति विप्राग्र्यांस्तन्मात्रविभवो नरः ।।
अथवा श्राद्धकाल में भक्ति-विनम्र चित्त से ब्राह्मणों को यथाशक्ति अन्न ही भोजन करायेगा।
असमर्थोsन्नदानस्य धान्यमामं स्वशक्तितः ।
प्रदास्यति द्विजाग्र्येभ्यः स्वल्पाल्पां वापि दक्षिणाम् ।।
तत्राप्यसामर्थ्ययुतः कराग्राग्रस्थितांस्तिलान ।
प्रणम्य द्विजमुख्याय कस्मैचिद्भूप दास्यति ।।
तिलैस्सप्ताष्टभिर्वापि समवेतं जलाञ्जलिम् ।
भक्तिनम्रस्समुद्दिश्य भुव्यस्माकं प्रदास्यति ।।
यतः कुतश्चित्सम्प्राप्य गोभ्यो वापि गवाह्निकम् ।
अभावे प्रीणयन्नस्माञ्छ्रद्धायुक्तः प्रदास्यति ।।
अन्नदान में असमर्थ होने पर थोड़ा सा कच्चा धान्य और दक्षिणा ही देगा ।
यह भी न होने पर एक मुट्ठी तिल ब्राह्मण को प्रणाम कर देगा ।
इतनी सामर्थ्य न होने पर केवल सात-आठ तिलों से युक्त जलाञ्जलि ही भूमि पर देगा ।
इसका भी अभाव होने पर कहीं से एक दिन का चारा लाकर प्रीति और श्रद्धा पूर्वक हमारे उद्देश्य से गाय को खिलायेगा ।।
सर्वाभावे वनं गत्वा कक्षमूलप्रदर्शकः ।
सूर्यादिलोकपालानामिदमुच्चैर्वदिष्यति ।।
न मेsस्ति वित्तं न धनं च नान्य-
च्छ्राद्धोपयोग्यं स्वपितृ्ऋन्नतोsस्मि ।
तृप्यन्तु भक्त्या पितरो मयैतौ
कृतौ भुजौ वर्त्मनि मारुतस्य ।।
कुछ न हो और शरीर भी असमर्थ हो तब वन में जाकर हवा में दोनों हाथ उठाकर सूर्यादि लोकपालों के समक्ष उच्चवाणी से कहेगा --
"मेरे पास श्राद्ध के योग्य न धन है न धान्य है और न शरीर स्वस्थ है, अत: मैं अपने पितरों के समक्ष हाथ वायुमार्ग में जोड़कर श्रद्धा पूर्वक प्रणाम निवेदन करता हूँ।
इसी से मेरे पित्रगण तृप्त हों ।।"