10/07/2025
शिवोડहम् आत्मण ---
गुरु पूर्णिमा महत्व जानिए :-
गुरु के प्रति नतमस्तक होकर कृतज्ञता व्यक्त करने का दिन है गुरुपूर्णिमा. गुरु के लिए पूर्णिमा से बढ़कर और कोई तिथि नहीं हो सकती. जो स्वयं में पूर्ण है, वही तो पूर्णत्व की प्राप्ति दूसरों को करा सकता है. पूर्णिमा के चंद्रमा की भांति जिसके जीवन में केवल प्रकाश है, वही तो अपने शिष्यों के अंत:करण में ज्ञान रूपी चंद्र की किरणें बिखेर सकता है. इस दिन हमें अपने गुरुजनों के चरणों में अपनी समस्त श्रद्धा अर्पित कर अपनी कृतज्ञता ज्ञापित करनी चाहिए. यह पूर्णिमा व्यास पूर्णिमा भी कहलाती है. गुरु कृपा असंभव को संभव बनाती है. गुरु कृपा शिष्य के हृदय में अगाध ज्ञान का संचार करती है.भारत भर में गुरु पूर्णिमा पर्व बड़ी श्रद्धा व धूमधाम से मनाया जाता है। श्री दक्षिणामूर्ति शिव भगवान शिव का सबसे तेजस्वी स्वरूप है । यह उनका विश्व आदि गुरु स्वरूप है । इस रूप की साधना सभी सात्विक वाले मुमुक्ष वाले तथा ज्ञानाकांक्षी तथा गुरु शिष्य परंपरा साधकों को करनी चाहिये । कारण शिव ही इस जगत का अध्य गुरु है .
गुरु महिमा वर्णित गुरु गीता प्रसिद्द है जो स्वयं शिव पार्वती को सुनाये है।
सर्वात्मत्वमिति स्फुटिकृतमिदं
यस्मादमुष्मिन् स्तवे
तेनास्य श्रवणात्तदर्थमन-
नाद्धयानाच्च संकीर्तनात्।
सर्वात्मत्वमहाविभूतिसहितं स्यादीश्वरत्वं स्वतः
सिद्ध्येत्तत्पुनरष्टधा परिणतम्
चैश्वर्यमव्याहतम्॥१०॥
सबके आत्मा आप ही हैं, जिनकी स्तुति से यह ज्ञान हो जाता है, जिनके बारे में सुनने से, उनके अर्थ पर विचार करने से, ध्यान और भजन करने से सबके आत्मारूप आप समस्त विभूतियों सहित ईश्वर स्वयं प्रकट हो जाते हैं और अपने अप्रतिहत (जिसको रोका न जा सके) ऐश्वर्य से जो पुनः आठ रूपों में प्रकट हो जाते हैं, उन श्रीगुरु रूपी, श्री दक्षिणामूर्ति को नमस्कार है ॥१०॥
शैवागम -शास्त्र में श्रीगुरु को अन्यतम स्थान प्राप्त है। कहा गया है :
"मंत्र-मूलं गुरार्वाक्यं, पूजा-मूलं गुरु-पदम् ।
ध्यान मूलं गुरुमूर्ति मोक्ष मूलं गुरुकृपा ।।
इस दृष्टि से श्रीगुरु ही शक्ति-साधना के प्रथम और अंतिम स्वरूप हैं। गुरु का कार्य क्या है? गुरु शिष्य को मंत्र की दीक्षा देता है। उस मंत्र की साधना से शिष्य की उन्नति होती है। श्रीगुरु साधना की पद्धति भी बताते हैं।
गुरु का शरीर ध्यान का मूल है। वही अनंत ऊर्जा और सारे आध्यात्म का सार है।
भगवान शिव आदि व अनंत हैं अर्थात न तो कोई उनकी उत्पत्ति के बारे में जानता है और न कोई अंत के बारे में। यानी शिव ही परमपिता परमेश्वर हैं। भगवान शिव ने भी गुरु बनकर अपने शिष्यों को परम ज्ञान प्रदान किया है। अगर कहा जाए कि भगवान शिव सृष्टि के प्रथम गुरु हैं तो अतिशयोक्ति नहीं होगी।
भगवान शिव ने शिवाद्वैत सिद्धांत प्रचारार्थ अपने वाहन नंदी , रेणुक , लकुलीश , , घंटाकर्ण , गोरक्षनाथ , और दुर्वास शिष्यों को आदेश दिया। मेरे पंचमुख द्वारा उत्पन्न शैवागम की अद्वैत व्याख्या देखकर शिवाद्वैत प्रतिपादन करो।
तन्त्रं तू षड्विधं प्रोक्तं षडदर्शनविभेदतः ।
वीरशैवम् पाशुपताम् च सोम लकुलं कालमुखम्।।
शैवमिति विज्ञेयं दर्शन षड्वे ही ।
तत्त त्तंत्रोंंक्तमार्गेण तत्तत्कर्म समाचरेत ।।
शिवगाम शत्र में छे भेद बताये गये है। शिव , भैरव , रूद्र , शक्त , भद्र और वीर य आप छे गण वीरशैव , लाकुल शैव , सोम शैव (कश्मीरी ) , पाशुपत शैव ( नाथ , कपालिख , अघोरी , नाग ) कालमुख और शैव सिद्धांत ( तमिल ) विभन शैव अपने तंत्र के अनुसार आचरण करे और शिवाद्वैत प्रतिपद करे ऐसे शिव जी अपने ६ शिष्यों को कहा और इन छ ( ६) शैवाचार्यों द्वारा अलग अलग स्थल और समय में उनके प्रादुर्भाव हुआ नंदी शैव सिद्धांत , रेणुक वीरशैव सिद्धांत , लकुलीश लाकुल शैव , दुर्वास सोम (प्रतिभिज्ञा) दर्शन और घंटाकर्ण द्वार पाशुपत ( नाथ , कालमुख, अघोरी और दिगंबर ) दर्शन स्थपित्या हुआ है। इन शैवाचारों को शैव मत में परमाचार्य मन जाता है। इस गुरु पूर्णिमा के अवसर पर अपने मतधि आचार्यों के स्मरण करे और कृतज्ञानता समर्पित करे।
यह लेख गुरुपूर्णिमा के शुभ अवसर पर गुरु चरणो में नमन वचन ........✍️
अथ: शिवसंकल्पमस्तु 🙏