
27/07/2025
#आयुर्वेद केवल एक चिकित्सा पद्धति नहीं, बल्कि जीवन जीने की एक सजीव और सूक्ष्म विज्ञान है। यह शरीर, मन और आत्मा के संतुलन को समझता है और उसके आधार पर स्वास्थ्य का मार्ग प्रशस्त करता है। आयुर्वेद का मूल सिद्धांत है — स्वस्थस्य स्वास्थ्य रक्षणं, आतुरस्य विकार प्रशमनं, अर्थात् स्वस्थ व्यक्ति के स्वास्थ्य की रक्षा करना और रोगी का #रोग दूर करना। इस लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए आयुर्वेद शरीर की प्रकृति और तासीर (constitution) को समझने पर विशेष बल देता है।
#तासीर, जिसे आयुर्वेद में #प्रकृति कहा जाता है, व्यक्ति के #जन्म से ही उसमें विद्यमान होती है। यह उसकी शारीरिक बनावट, मानसिक प्रवृत्ति, #पाचन क्षमता, रोग प्रतिरोधक शक्ति और जीवनशैली को प्रभावित करती है। किसी भी व्यक्ति की तासीर को समझे बिना यदि औषधि या आहार दिया जाए, तो वह #लाभ के बजाय हानि भी पहुँचा सकता है। इसीलिए आयुर्वेद में रोग की नहीं, रोगी की चिकित्सा की जाती है।
तासीर क्या होती है?
तासीर का अर्थ होता है — #शरीर का वह स्वाभाविक ताप, स्वभाव और प्रवृत्ति, जो उसे विशेष बनाती है। आयुर्वेद के अनुसार हमारे शरीर में तीन प्रकार के दोष होते हैं — वात, पित्त और कफ। इन्हीं तीनों के विभिन्न अनुपात के आधार पर शरीर की तासीर तय होती है। जब कोई एक दोष अधिक प्रबल होता है, तो व्यक्ति की प्रकृति उसी दोष के अनुसार होती है।
उदाहरण के लिए:
वात प्रकृति वालों की तासीर शुष्क, हल्की और #ठंडी होती है।
पित्त प्रकृति वालों की तासीर #गर्म, तीव्र और उष्ण होती है।
कफ प्रकृति वालों की तासीर #भारी, ठंडी और स्थिर होती है।
कुछ व्यक्तियों में दो दोष प्रधान होते हैं (उदाहरण: वात-पित्त), और कुछ में तीनों संतुलित होते हैं, जिसे सम प्रकृति कहते हैं।
तासीर जानने के संकेत
अब प्रश्न उठता है कि हम अपनी या किसी और की तासीर कैसे पहचानें? इसके लिए आयुर्वेद शरीर, मन और व्यवहार के अनेक लक्षणों का अवलोकन करता है। यहाँ पर उन संकेतों का विस्तृत वर्णन किया गया है जो किसी व्यक्ति की तासीर को प्रकट करते हैं।
शरीर की बनावट और तापमान
तासीर का सबसे पहला प्रभाव शरीर के ताप और त्वचा पर दिखाई देता है। पित्त तासीर वाले व्यक्ति को अक्सर अधिक गर्मी लगती है, जबकि कफ तासीर वाला ठंडी जलवायु में भी सहज रहता है। वात प्रकृति के लोग ठंडी हवा या मौसम में जल्दी ठिठुरते हैं और उनकी त्वचा शुष्क होती है।
पाचन और #भूख की स्थिति
व्यक्ति का पाचन तंत्र उसकी तासीर का सबसे बड़ा दर्पण है। पित्त प्रकृति वालों की जठराग्नि तेज होती है; उन्हें जल्दी भूख लगती है और वे भोजन न मिलने पर चिड़चिड़े हो जाते हैं। कफ तासीर वाले धीरे-धीरे और कम मात्रा में भोजन करते हैं और देर तक भूख न लगना आम बात है। वात तासीर वाले का पाचन अक्सर अस्थिर होता है; कभी तेज, कभी मंद।
मानसिक प्रवृत्ति
मन भी तासीर से प्रभावित होता है। वात प्रकृति के लोग अत्यधिक सोचने वाले, कल्पनाशील और चंचल होते हैं। पित्त वाले तेज बुद्धि और स्पष्ट वक्ता होते हैं, परंतु जल्दी क्रोधित भी हो सकते हैं। कफ तासीर के लोग शांत, सहनशील और स्थिर होते हैं, परंतु आलस्य की प्रवृत्ति उनमें अधिक होती है।
नींद और ऊर्जा स्तर
वात तासीर वालों की नींद कम और बाधित होती है। वे जल्दी जागते हैं और अक्सर अनिद्रा से पीड़ित रहते हैं। पित्त तासीर वालों की नींद मध्यम होती है, परंतु गर्मी के कारण बेचैनी हो सकती है। कफ तासीर वाले गहरी नींद लेते हैं और अधिक देर तक सोते हैं।
भावनात्मक प्रतिक्रिया
वात प्रकृति वाले भावुक होते हैं और जल्दी घबरा जाते हैं। पित्त वाले शीघ्र क्रोध करते हैं और निर्णय लेने में तेज होते हैं। कफ वाले भावनात्मक रूप से स्थिर होते हैं, परंतु परिवर्तन से बचते हैं और चीज़ों को पकड़कर रखने की प्रवृत्ति रखते हैं।
रोगों की प्रवृत्ति
प्रकृति यह भी निर्धारित करती है कि व्यक्ति किस प्रकार के रोगों के प्रति अधिक संवेदनशील है। पित्त तासीर वालों को त्वचा रोग, जलन, एसिडिटी, लीवर संबंधी विकार होते हैं। वात प्रकृति वाले गठिया, जोड़ों के दर्द, गैस और अनिद्रा से पीड़ित होते हैं। कफ तासीर वालों को मोटापा, श्वास रोग, मधुमेह और कफ जन्य रोग होते हैं।
तासीर को कैसे संतुलित रखें?
हालाँकि तासीर जन्मजात होती है, लेकिन आयुर्वेद यह भी कहता है कि यदि जीवनशैली, आहार और दिनचर्या को संतुलित रखा जाए, तो प्रकृति के दुष्प्रभावों को नियंत्रित किया जा सकता है। यदि किसी की तासीर पित्त है, तो उसे उष्ण पदार्थों से परहेज़ करना चाहिए, ठंडी चीज़ें अधिक लेनी चाहिए, जैसे – खीरा, नारियल पानी, गुलकंद। वात तासीर वालों को गर्माहट देने वाले आहार और तेल मालिश की आवश्यकता होती है। कफ तासीर वालों को हल्का और गरम भोजन लेना चाहिए, साथ ही व्यायाम अनिवार्य है।
क्या तासीर समय के साथ बदलती है?
तासीर मूलतः स्थायी होती है, लेकिन विकृति यानी असंतुलन समय, ऋतु, आयु और आचरण के अनुसार उत्पन्न हो सकती है। जैसे बचपन में कफ अधिक होता है, युवावस्था में पित्त और वृद्धावस्था में वात का प्रभाव बढ़ जाता है। ऋतु परिवर्तन से भी शरीर की प्रकृति पर असर पड़ता है। अतः ऋतुचर्या, दिनचर्या और आहार संयम से अपने मूल स्वभाव को संतुलन में रखा जा सकता है।
आयुर्वेद के अनुसार तासीर को जानना, स्वयं को जानने के बराबर है। जब हम अपनी तासीर को समझते हैं, तो हमें यह स्पष्ट हो जाता है कि हमें क्या खाना चाहिए, कैसी जीवनशैली अपनानी चाहिए, किस प्रकार की औषधि या चिकित्सा हमारे लिए अनुकूल है। इससे हम अनेक रोगों से पहले ही बच सकते हैं। तासीर को जानना आत्म-ज्ञान की दिशा में पहला कदम है, जो हमें आयुर्वेद और प्राकृतिक जीवन की ओर ले जाता है।
तासीर को समझकर हम अपनी जीवनशैली को प्रकृति के अनुरूप ढाल सकते हैं और दीर्घकालीन स्वास्थ्य, मानसिक शांति तथा आत्मिक संतुलन प्राप्त कर सकते हैं। यही आयुर्वेद का उद्देश्य है — स्वस्थ और संतुलित जीवन की प्राप्ति, जो केवल रोगों से मुक्त रहने का नहीं, बल्कि सच्चे अर्थों में ‘स्वस्थ’ होने का अनुभव कराता है।