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 #आयुर्वेद केवल एक चिकित्सा पद्धति नहीं, बल्कि जीवन जीने की एक सजीव और सूक्ष्म विज्ञान है। यह शरीर, मन और आत्मा के संतुल...
27/07/2025

#आयुर्वेद केवल एक चिकित्सा पद्धति नहीं, बल्कि जीवन जीने की एक सजीव और सूक्ष्म विज्ञान है। यह शरीर, मन और आत्मा के संतुलन को समझता है और उसके आधार पर स्वास्थ्य का मार्ग प्रशस्त करता है। आयुर्वेद का मूल सिद्धांत है — स्वस्थस्य स्वास्थ्य रक्षणं, आतुरस्य विकार प्रशमनं, अर्थात् स्वस्थ व्यक्ति के स्वास्थ्य की रक्षा करना और रोगी का #रोग दूर करना। इस लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए आयुर्वेद शरीर की प्रकृति और तासीर (constitution) को समझने पर विशेष बल देता है।

#तासीर, जिसे आयुर्वेद में #प्रकृति कहा जाता है, व्यक्ति के #जन्म से ही उसमें विद्यमान होती है। यह उसकी शारीरिक बनावट, मानसिक प्रवृत्ति, #पाचन क्षमता, रोग प्रतिरोधक शक्ति और जीवनशैली को प्रभावित करती है। किसी भी व्यक्ति की तासीर को समझे बिना यदि औषधि या आहार दिया जाए, तो वह #लाभ के बजाय हानि भी पहुँचा सकता है। इसीलिए आयुर्वेद में रोग की नहीं, रोगी की चिकित्सा की जाती है।

तासीर क्या होती है?

तासीर का अर्थ होता है — #शरीर का वह स्वाभाविक ताप, स्वभाव और प्रवृत्ति, जो उसे विशेष बनाती है। आयुर्वेद के अनुसार हमारे शरीर में तीन प्रकार के दोष होते हैं — वात, पित्त और कफ। इन्हीं तीनों के विभिन्न अनुपात के आधार पर शरीर की तासीर तय होती है। जब कोई एक दोष अधिक प्रबल होता है, तो व्यक्ति की प्रकृति उसी दोष के अनुसार होती है।

उदाहरण के लिए:

वात प्रकृति वालों की तासीर शुष्क, हल्की और #ठंडी होती है।

पित्त प्रकृति वालों की तासीर #गर्म, तीव्र और उष्ण होती है।

कफ प्रकृति वालों की तासीर #भारी, ठंडी और स्थिर होती है।

कुछ व्यक्तियों में दो दोष प्रधान होते हैं (उदाहरण: वात-पित्त), और कुछ में तीनों संतुलित होते हैं, जिसे सम प्रकृति कहते हैं।

तासीर जानने के संकेत

अब प्रश्न उठता है कि हम अपनी या किसी और की तासीर कैसे पहचानें? इसके लिए आयुर्वेद शरीर, मन और व्यवहार के अनेक लक्षणों का अवलोकन करता है। यहाँ पर उन संकेतों का विस्तृत वर्णन किया गया है जो किसी व्यक्ति की तासीर को प्रकट करते हैं।

शरीर की बनावट और तापमान

तासीर का सबसे पहला प्रभाव शरीर के ताप और त्वचा पर दिखाई देता है। पित्त तासीर वाले व्यक्ति को अक्सर अधिक गर्मी लगती है, जबकि कफ तासीर वाला ठंडी जलवायु में भी सहज रहता है। वात प्रकृति के लोग ठंडी हवा या मौसम में जल्दी ठिठुरते हैं और उनकी त्वचा शुष्क होती है।

पाचन और #भूख की स्थिति

व्यक्ति का पाचन तंत्र उसकी तासीर का सबसे बड़ा दर्पण है। पित्त प्रकृति वालों की जठराग्नि तेज होती है; उन्हें जल्दी भूख लगती है और वे भोजन न मिलने पर चिड़चिड़े हो जाते हैं। कफ तासीर वाले धीरे-धीरे और कम मात्रा में भोजन करते हैं और देर तक भूख न लगना आम बात है। वात तासीर वाले का पाचन अक्सर अस्थिर होता है; कभी तेज, कभी मंद।

मानसिक प्रवृत्ति

मन भी तासीर से प्रभावित होता है। वात प्रकृति के लोग अत्यधिक सोचने वाले, कल्पनाशील और चंचल होते हैं। पित्त वाले तेज बुद्धि और स्पष्ट वक्ता होते हैं, परंतु जल्दी क्रोधित भी हो सकते हैं। कफ तासीर के लोग शांत, सहनशील और स्थिर होते हैं, परंतु आलस्य की प्रवृत्ति उनमें अधिक होती है।

नींद और ऊर्जा स्तर

वात तासीर वालों की नींद कम और बाधित होती है। वे जल्दी जागते हैं और अक्सर अनिद्रा से पीड़ित रहते हैं। पित्त तासीर वालों की नींद मध्यम होती है, परंतु गर्मी के कारण बेचैनी हो सकती है। कफ तासीर वाले गहरी नींद लेते हैं और अधिक देर तक सोते हैं।

भावनात्मक प्रतिक्रिया

वात प्रकृति वाले भावुक होते हैं और जल्दी घबरा जाते हैं। पित्त वाले शीघ्र क्रोध करते हैं और निर्णय लेने में तेज होते हैं। कफ वाले भावनात्मक रूप से स्थिर होते हैं, परंतु परिवर्तन से बचते हैं और चीज़ों को पकड़कर रखने की प्रवृत्ति रखते हैं।

रोगों की प्रवृत्ति

प्रकृति यह भी निर्धारित करती है कि व्यक्ति किस प्रकार के रोगों के प्रति अधिक संवेदनशील है। पित्त तासीर वालों को त्वचा रोग, जलन, एसिडिटी, लीवर संबंधी विकार होते हैं। वात प्रकृति वाले गठिया, जोड़ों के दर्द, गैस और अनिद्रा से पीड़ित होते हैं। कफ तासीर वालों को मोटापा, श्वास रोग, मधुमेह और कफ जन्य रोग होते हैं।

तासीर को कैसे संतुलित रखें?

हालाँकि तासीर जन्मजात होती है, लेकिन आयुर्वेद यह भी कहता है कि यदि जीवनशैली, आहार और दिनचर्या को संतुलित रखा जाए, तो प्रकृति के दुष्प्रभावों को नियंत्रित किया जा सकता है। यदि किसी की तासीर पित्त है, तो उसे उष्ण पदार्थों से परहेज़ करना चाहिए, ठंडी चीज़ें अधिक लेनी चाहिए, जैसे – खीरा, नारियल पानी, गुलकंद। वात तासीर वालों को गर्माहट देने वाले आहार और तेल मालिश की आवश्यकता होती है। कफ तासीर वालों को हल्का और गरम भोजन लेना चाहिए, साथ ही व्यायाम अनिवार्य है।

क्या तासीर समय के साथ बदलती है?

तासीर मूलतः स्थायी होती है, लेकिन विकृति यानी असंतुलन समय, ऋतु, आयु और आचरण के अनुसार उत्पन्न हो सकती है। जैसे बचपन में कफ अधिक होता है, युवावस्था में पित्त और वृद्धावस्था में वात का प्रभाव बढ़ जाता है। ऋतु परिवर्तन से भी शरीर की प्रकृति पर असर पड़ता है। अतः ऋतुचर्या, दिनचर्या और आहार संयम से अपने मूल स्वभाव को संतुलन में रखा जा सकता है।

आयुर्वेद के अनुसार तासीर को जानना, स्वयं को जानने के बराबर है। जब हम अपनी तासीर को समझते हैं, तो हमें यह स्पष्ट हो जाता है कि हमें क्या खाना चाहिए, कैसी जीवनशैली अपनानी चाहिए, किस प्रकार की औषधि या चिकित्सा हमारे लिए अनुकूल है। इससे हम अनेक रोगों से पहले ही बच सकते हैं। तासीर को जानना आत्म-ज्ञान की दिशा में पहला कदम है, जो हमें आयुर्वेद और प्राकृतिक जीवन की ओर ले जाता है।

तासीर को समझकर हम अपनी जीवनशैली को प्रकृति के अनुरूप ढाल सकते हैं और दीर्घकालीन स्वास्थ्य, मानसिक शांति तथा आत्मिक संतुलन प्राप्त कर सकते हैं। यही आयुर्वेद का उद्देश्य है — स्वस्थ और संतुलित जीवन की प्राप्ति, जो केवल रोगों से मुक्त रहने का नहीं, बल्कि सच्चे अर्थों में ‘स्वस्थ’ होने का अनुभव कराता है।

Every sunday morning 10 to 2 pm At Ajay Vihar shop no 47 Near Kissan Chonk Sirsa Book appointment at 9464407653
21/07/2025

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बुढ़ापे की लाठी (वृद्धदारूक) विधारा,,विधारा,llllllllविधारा को कई नामों से जाना जाता है, जैसे कि घावपत्ता, अधोगुडा, समुद्...
21/07/2025

बुढ़ापे की लाठी (वृद्धदारूक) विधारा,,

विधारा,llllllll

विधारा को कई नामों से जाना जाता है, जैसे कि घावपत्ता, अधोगुडा, समुद्रशोख, हाथीलता, वृद्धदारुक,, अर्गेरिया, एलीफ़ेंट क्रीपर, ऊनी मॉर्निंग ग्लोरी, हवाईयन बेबी वुडरोज़, सिल्की हाथी ग्लोरी, समुद्रबेल, गुगुलिक, और चंद्रपदा. विधारा एक सदाबहार लता है. यह भारतीय उपमहाद्वीप की देशज है ,विधारा के पत्तों की आकृति पान के पत्तों जैसी होती है,विधारा के फूल बैंगनी रंग के होते हैं,विधारा के फूल, पत्ते, और शाखाओं में कई तरह के स्वास्थ्यवर्धक गुण होते हैं।

विधारा की जड़ से लेकर तना और पत्तियों तक का इस्तेमाल कई बीमारियों को दूर करने में किया जाता है।
विधारा में एंटीऑक्सीडेंट्स, एंटी-इंफ़्लेमेटरी, एनालजेसिक, हेपाटोप्रोटेक्टिव और एफ़्रोडिसिएक गुण पाए जाते हैं।

विधारा नसों के पोर-पोर को खोलने में टॉनिक का काम करता है।विधारा पुरुषों में स्टेमिना को बढ़ाता है।

विधारा महिलाओं के लिए भी फ़ायदेमंद है, विधारा का इस्तेमाल जोड़ों का दर्द, गठिया, बवासीर, सूजन, डायबिटीज, खाँसी, पेट के कीड़े, सिफलिश, एनीमिया, मिरगी, मैनिया, दर्द और दस्त में किया जाता है। विधारा की जड़ पेशाब के रोगों तथा त्वचा संबंधी रोगों और बुखार दूर करने में उपयोगी होती है।
जड़ का एथेनॉलिक सार सूजन दूर करने के साथ-साथ घाव को भरता है। इसकी जड़ के चूर्ण का मेथेनॉल सर दर्द और सूजन को समाप्त करता है। इसके फूलों का ऐथेनॉल सार उपयुक्त मात्रा में लिए जाने पर घावों को भरता है।

विधारा स्वाद में कड़वा, तीखा, कसैला तथा गर्म प्रकृति का होता है। यह जल्द पचता है और भोजन को भी पचाता है। विधारा के प्रयोग से कफ तथा वात शान्त होता है। यह औषधि पुरुषों में शुक्राणुओं को बढ़ाती है और वीर्य को गाढ़ा करती है। इसके सेवन से हड्डियां मजबूत होती हैं, सातों धातु पुष्ट होते हैं और मनुष्य बलवान तथा तेजस्वी होकर लम्बी आयु तक जवान बना रहता है। सिर में दर्द में विधारा की जड़ को चावल के पानी के साथ पीसकर माथे में यानी ललाट पर लगाने से सिर दर्द ठीक हो जाता है।

कई बार पेट में फोड़ा हो जाता है जिसमें बहुत सारे छेद होते हैं। इन्हें दबाने से इनमें से पस भी निकलता है। ऐसे फोड़े को विद्रधि यानी बहुछिद्रिल फोड़ा या कार्बंकल कहते हैं। ऐसे फोड़े पर विधारा की जड़ को पीसकर लगाने से फोड़ा ठीक हो जाता है।

विधारा, भल्लातक तथा सोंठ, तीनों द्रव्यों को बराबर मात्रा में लेकर चूर्ण बना लें। इस 2-4 ग्राम चूर्ण का सेवन गुड़ के साथ करने से बवासीर रोग में लाभ होता है मधुमेह यानी डायबीटिजके मरीज आज लगभग हर किसी के घर में है विधारा डायबीटिज में तो लाभ पहुँचाता ही है, साथ ही यह धातुओं को पुष्ट करके इसे होने से भी रोकता है। विधारा का सेवन करने से मधुमेह होने की संभावना घट जाएगी और शरीर की रोगप्रतिरोधक क्षमता भी बढ़ेगी। इसके लिए एक से दो ग्राम विधारा चूर्ण में शहद मिलाकर सेवन करना चाहिए। इससे पूयमेह यानी गोनोरिया में भी लाभ होता है।मूत्रकृच्छ्र रोग में पेशाब में जलन और दर्द होता है। पेशाब की मात्रा भी कम होती है।

विधारा पेशाब को बढ़ाता है और जलन तथा दर्द में आराम दिलाता है। दो भाग विधारा की जड़ के चूर्ण में एक भाग गाय का दूध मिलाकर सेवन करें। अवश्य लाभ होगा यदि गर्भधारण करने में सफलता नहीं मिल रही हो तो विधारा का सेवन करें। विधारा तथा प्लक्ष की जड़ के काढ़े को एक वर्ष तक प्रतिदिन सुबह सेवन करें। इससे स्त्री के गर्भवती होने की सम्भावना बढ़ जाती है ।पेट में दर्द मुख्यतः अपच, कब्ज और गैस के कारण ही होता है। विधारा भोजन को भी पचाता है, कब्ज को भी दूर करता है। विधारा वात यानी गैस को भी नष्ट करता है। पेट दर्द को ठीक करना हो तो विधारा के पत्तों के 5-10 मिली रस में शहद मिलाकर सेवन करें।
निश्चित लाभ होगा।सफेद प्रदर यानी ल्यूकोरिया स्त्रियों में संक्रमण के कारण योनी से सफेद पानी जाने की एक बीमारी है। समय पर चिकित्सा न किए जाने पर स्त्रियों में काफी कमजोरी आ जाती है।

विधारा चूर्ण को ठंडे या सामान्य जल के साथ सेवन करने से सफेद प्रदर में लाभ होता है ,पक्षाघात यानी लकवा का एक प्रकार है। अर्धांग पक्षाघात में शरीर का बाँया या दाँया भाग लकवे का शिकार हो जाता है। विधारा की जड़ एवं कई अन्य घटक द्रव्यों के द्वारा बनाए अजमोदादि चूर्ण का सेवन करने से अर्धांग पक्षाघात में लाभ होता है।विधारा मूल में बराबर भाग शतावर मूल मिलाकर काढ़ा बना लें। इस काढ़े को 15-30 मिली मात्रा में पीने से गठिया में लाभ होता है।
विधारा की जड़ का काढ़ा बना लें। इसे 15-30 मिली मात्रा में पीने से अथवा 1-2 ग्राम विधारा की जड़ के चूर्ण का सेवन करने से जोड़ों के दर्द, आमवात यानी रयूमैटिस अर्थराइटिस तथा सभी प्रकार की सूजन में लाभ होता है।

विधारा के पत्तों की सब्जी बनाकर खाने से वात के कारण होने वाले जोड़ों के दर्द आदि विकार ठीक होते है।..
सामान्य जानकारी के लिए दिया गया है l

पोई साग और आयुर्वेदपोई का साग, जिसे मालाबार पालक भी कहते हैं, आयुर्वेद में एक महत्वपूर्ण औषधि और पौष्टिक भोजन माना गया ह...
14/07/2025

पोई साग और आयुर्वेद

पोई का साग, जिसे मालाबार पालक भी कहते हैं, आयुर्वेद में एक महत्वपूर्ण औषधि और पौष्टिक भोजन माना गया है. आयुर्वेद के अनुसार, पोई साग शीतल, स्निग्ध, वात-पित्त नाशक, निद्राजनक, वीर्यवर्धक, रक्तपित्त नाशक, बलवर्धक, रुचिकारक, पथ्य, पौष्टिक और तृप्तिजनक होता है. यह पित्त, कुष्ठ, अतिसार, फोड़े-फुन्सी और कफ को दूर करने में भी सहायक है.

पोई साग के प्रमुख आयुर्वेदिक गुण और उपयोग

वात-पित्त संतुलन: पोई साग की शीतल और स्निग्ध प्रकृति वात और पित्त दोष को शांत करने में मदद करती है.

हीमोग्लोबिन और आयरन: यह आयरन से भरपूर होता है, जिससे शरीर में हीमोग्लोबिन का स्तर बना रहता है और एनीमिया की रोकथाम में मदद मिलती है.

हड्डियों की मजबूती: पोई का साग कैल्शियम और मैग्नीशियम से भरपूर होता है, जो हड्डियों को मजबूत बनाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं. यह गठिया जैसी समस्याओं में भी लाभकारी हो सकता है.

पाचन तंत्र: इसमें मौजूद फाइबर पाचन तंत्र को दुरुस्त रखता है, कब्ज दूर करता है और मेटाबॉलिज्म को बेहतर बनाता है.

इम्यूनिटी बूस्टर: विटामिन सी से भरपूर होने के कारण यह इम्यूनिटी को मजबूत करता है और मौसमी बीमारियों से बचाव में मदद करता है.

कोलेस्ट्रॉल और हृदय स्वास्थ्य: पोई साग बैड कोलेस्ट्रॉल को कम करने और दिल की सेहत को बेहतर बनाने में सहायक है.

ब्लड प्रेशर नियंत्रण: पोटैशियम से भरपूर होने के कारण यह ब्लड प्रेशर को नियंत्रित करने में मदद कर सकता है.

अनिद्रा: मैग्नीशियम और जिंक की अच्छी मात्रा होने के कारण यह अनिद्रा की समस्या को दूर करने में भी सहायक है.

त्वचा और आंखों का स्वास्थ्य: विटामिन सी त्वचा को पोषण देता है और कोलेजन के उत्पादन को बढ़ाता है, जिससे त्वचा संबंधी विकारों में कमी आती है. यह आंखों की रोशनी बढ़ाने में भी मददगार है.

उपयोग के तरीके

पोई साग को विभिन्न तरीकों से इस्तेमाल किया जा सकता है, जैसे साग बनाकर, जूस के रूप में या दाल में डालकर. आयुर्वेदिक विशेषज्ञ शरीर में आयरन की कमी होने पर पोई साग या उसका जूस लेने की सलाह देते हैं. गर्म पानी में पोई साग उबालकर पीने से गले की खराश दूर हो सकती है.

सिंहपर्णी, जिसे अंग्रेजी में डेंडेलियन (Dandelion) कहा जाता है, आयुर्वेद में एक महत्वपूर्ण पौधा है। इसे "सिंहपर्णी" या "...
13/07/2025

सिंहपर्णी, जिसे अंग्रेजी में डेंडेलियन (Dandelion) कहा जाता है, आयुर्वेद में एक महत्वपूर्ण पौधा है। इसे "सिंहपर्णी" या "दुधली" के नाम से भी जाना जाता है। यह लिवर, किडनी और पाचन स्वास्थ्य के लिए बहुत फायदेमंद माना जाता है। इसके पत्तों, जड़ों और फूलों का उपयोग विभिन्न स्वास्थ्य समस्याओं के लिए किया जाता है।

सिंहपर्णी के फायदे (Singhparni Ke Fayde):

लिवर स्वास्थ्य:

सिंहपर्णी लिवर को डिटॉक्सीफाई करने और लिवर की कार्यक्षमता में सुधार करने में मदद करती है। यह पित्त के उत्पादन को बढ़ावा देने और लिवर को नुकसान से बचाने में भी सहायक है।

किडनी स्वास्थ्य:

सिंहपर्णी किडनी से अतिरिक्त पानी और विषाक्त पदार्थों को बाहर निकालने में मदद करती है, जिससे किडनी पर दबाव कम होता है। यह यूटीआई संक्रमण को रोकने और किडनी स्टोन के खतरे को कम करने में भी मदद कर सकती है।

पाचन स्वास्थ्य:

सिंहपर्णी पाचन क्रिया को बेहतर बनाने, भूख बढ़ाने और कब्ज से राहत दिलाने में मदद करती है।

मधुमेह:

सिंहपर्णी में ऐसे गुण होते हैं जो रक्त शर्करा के स्तर को नियंत्रित करने में मदद करते हैं। यह अग्न्याशय को उत्तेजित करके इंसुलिन के उत्पादन को भी बढ़ावा दे सकती है।

सूजन कम करना:

सिंहपर्णी में एंटी-इंफ्लेमेटरी गुण होते हैं जो शरीर में सूजन को कम करने में मदद कर सकते हैं।

एंटीऑक्सीडेंट से भरपूर:

सिंहपर्णी एंटीऑक्सिडेंट से भरपूर होती है, जो शरीर को फ्री रेडिकल्स से होने वाले नुकसान से बचाने में मदद करते हैं।

अन्य फायदे:

सिंहपर्णी हड्डियों को मजबूत बनाने, त्वचा के स्वास्थ्य में सुधार करने और वजन घटाने में भी मदद कर सकती है।

उपयोग:

सिंहपर्णी का उपयोग विभिन्न तरीकों से किया जा सकता है, जैसे:

चाय:

सिंहपर्णी की पत्तियों या जड़ों से चाय बनाकर पी जा सकती है।

सूप:

सिंहपर्णी को सूप में डालकर भी सेवन किया जा सकता है।

सलाद:

सिंहपर्णी की पत्तियों को सलाद में डालकर खाया जा सकता है।

पाउडर:

सिंहपर्णी की जड़ों को सुखाकर पाउडर बनाकर भी इस्तेमाल किया जा सकता है।

सावधानियां:

सिंहपर्णी का सेवन अधिक मात्रा में नहीं करना चाहिए, क्योंकि इससे एलर्जी हो सकती है।

यदि आप किसी स्वास्थ्य समस्या से पीड़ित हैं या कोई दवा ले रहे हैं, तो सिंहपर्णी का उपयोग करने से पहले डॉक्टर से सलाह लें।

गर्भावस्था और स्तनपान के दौरान सिंहपर्णी का उपयोग करने से पहले डॉक्टर से सलाह लें।

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28/11/2024

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आप जो शिलाजीत खा रहे हैं वह शुद्ध है(1)  आधा सेर त्रिफला को कूटकर ३२ सेर पानी में औटावें और चौथाई जल रहने पर उतार कर छान...
20/11/2024

आप जो शिलाजीत खा रहे हैं वह शुद्ध है

(1) आधा सेर त्रिफला को कूटकर ३२ सेर पानी में औटावें और चौथाई जल रहने पर उतार कर छान लें। इस छने हुए जल में तीन पाव शिलाजीत डाल देवें, और २४ घण्टे भीगने दें। फिर पानी को उबाल ऊपर- ऊपर से शिलाजीत युक्त साफ जल को नितार लें। जल कड़ाही में औटाने से रबड़ी जैसा गाढ़ा हो जाय, तब कड़ाई को चूल्हे पर से नीचे उतार लें। अगर शिलाजीत पत्थरों के साथ रह गई हो तो पुनः उपरोक्त विधि से जल में मिला उबालकर निकाल लें। हरिद्वार से बदरीनाथपुरी के रास्ते में शुद्ध शिलाजीत बेचने वाले व्यापारियों की सैकड़ों दुकानें देखने में आती हैं। उनमें से २-४ व्यापारी कदाचित् शास्त्रोक्त विधि से कुछ सूर्यतापी शिलाजीत तैयार करते होंगे। शेष सब मन घड़न्त रीति से तैयार की हुई अग्नितापी को ही सूर्यतापी के स्थान में देकर ठगते हैं। कितने ही स्वार्थी लोग शिलाजीत में गोमूत्र मिलाकर उबाल लेते हैं। कोई गोमूत्र में बाँझ वृक्ष का गोंद और गुड़ मिलाकर कृत्रिम शिलाजीत तैयार करते हैं। सूक्ष्म रीति से जाँच कराने पर गुड़ आदि की मिलावट ज्ञात हो जाती है। शास्त्रोक्त विधि से तैयार की हुई शिलाजीत बहुत थोड़ी निर्माणशालाओं में मिलती होगी। ऋषिकेश से बदरीनाथ के रारते में बहुत थोड़े दिन धूप में तेजी रहती है। ठण्ड और वर्षा वाले दिन विशेष रहते हैं। इस हेतु से वे सूर्यतापी शिलाजीत बहुत थोड़ी तैयार करा सकते हैं। २-४ बड़े-बड़े व्यापारी यात्रा के दिनों में सूर्यतापी शिलाजीत तैयार कराने के लिये मई और जून में (१-१ ॥ मास मात्र) सूर्य के ताप में यात्रियों की श्रद्धा को दृढ़ कराने के लिये यन्त्र को रखवाते हैं। जो व्यापारी प्रतिवर्ष मनों के हिसाब से शिलाजीत बिक्री करते हैं। वे कदाचित् २-४ सेर भी सूर्यतापी शिलाजीत तैय्यार कर लें तो क्या?

(2) पहले शिलाजीत को प्रथम विधि में लिखे अनुसार त्रिफला के १६ गुना गरम जल में मिलाकर २४ घण्टे भिगो देवें। बाद में कड़ाई को चूल्हे पर चढ़ाकर २-३ उफान आने तक उबालें, तत्पश्चात् नीचे उतार लेवें। शीतल होने पर जब जल नितर जाय तब ऊपर से साफ नितरे हुए जल को एक कलई किये हुए भगोने में छानकर भर लेवें उसे सूर्य की धूप में रखने से रोज शाम को या दूसरे दिन सुबह, ऊपर के भाग में दूध की मलाई के समान शिलाजीत की मलाई आ जाती है। उस मलाई को खुरपे या कलछी से अलग बरतन में निकालकर सुखा लेने से शिलाजीत शुद्ध बन जाती है। शिलाजीत का भगोना, जिसमें रोज मलाई उतारी जाती है उसमें यदि मलाई आती हो और तेज धूप के कारण से जल सूख जाय या कम हो जाय, तो पहले समान जितने त्रिफला के क्वाथ की आवश्यकता हो, उतना मिला लें। जब शिलाजीत जल के ऊपर न आवे, तब शेष कचरे को फेंक दें।

(3) शिलाजीत शोधनार्थ कुछ चिकित्सक शार्ङ्गधर संहिता के पाठ के अनुसार त्रिफला-क्वाथ के स्थान पर केवल गरम जल ही लेते हैं। शिलाजीत के पत्थरों को जल में एक पहर रख देते हैं। फिर पत्थरों को फेंक देते हैं और जल को छानकर रूई या कपड़े की बत्ती द्वारा दूसरे पात्र में नितार लेते हैं। एक-एक बूंद करके जल टपकता रहता है। उसमें शिलाजीत शुद्ध निकल जाता है और धूल, पत्थर आदि कचरा तलस्थ रह जाता है। फिर नितरे हुए जल को सूर्य के ताप में सुखा लेने पर शिलाजीत शुद्ध हो जाती है। इस तरह तैयार की हुई शिलाजीत त्रिफला-क्वाथ से शोधन की हुई शिलाजीत की अपेक्षा लाभदायक है, क्योंकि त्रिफला से शोधन की हुई शिलाजीत में त्रिफला का अंश मिल जाने से बहुत वजन बढ़ जाता है। परन्तु जल से शुद्ध की हुई शिलाजीत में किसी का भी मिश्रण नहीं रहता।

भगवान् आत्रेय के मतानुसार शिलाजीत खट्टी नहीं है कसैली तथा विपाक में चरपरी है, अति उष्ण या अति शीतल नहीं है। यह रसायन, वृष्य और सम्पूर्ण रोगों की नाशक है। रोग शमनार्थ आवश्यकतानुसार वातघ्न, पित्तघ्न, कफघ्न, द्विदोषघ्न या त्रिदोषघ्न औषधियों के क्वाथ की भावना देने से परम वीर्योत्कर्ष को पाती है। महर्षि आत्रेय कहते हैं कि -
न सोऽस्ति रोगों भुवि साध्यरूपः शिलाह्वयं यन्न जयेत् प्रसह्य।

अर्थात् संसार में रसादि धातु की विकृति जनित ऐसा एक भी रोग नहीं है, जो शिलाजीत के विधिपूर्वक सेवन से नष्ट न हो सके।" भगवान् धन्वन्तरिजी कहते हैं, कि सब प्रकार की शिलाजीत कड़वी, चरपरी, कुछ कषाय रसयुक्त, सर (वात और मल-प्रवर्तक या सर्वत्र पहुँच जाने वाली), विपाक में चरपरी, उष्णवीर्य, कफ और मेद का शोषण करने और मल का छेदन करने वाली है। शिलाजीत के सेवन से प्रमेह, कुष्ठ, अपस्मार, उन्माद, श्लीपद, कृत्रिम विष, शोष (क्षय), शोथ, अर्श, गुल्म, पाण्डु और विषमज्वर आदि रोग थोड़े ही समय में दूर हो जाते हैं। ऐसा कोई रोग नहीं है, जिसे शिलाजीत हनन न कर सके। बहुतकाल से मूत्र में आने वाली शर्करा (कंकड़ी) और पथरी का भेदन करके उसे बाहर निकाल देती है।

रसरत्न समुच्चयकार ने लिखा है कि, शुद्ध शिलाजीत के सेवन से ज्वर, पाण्डु, शोथ, मधुमेह, सब प्रकार के प्रमेह, अग्निमान्द्य, मेदवृद्धि , राजयक्ष्मा, अर्श रोग, गुल्म, प्लीहावृद्धि, सब प्रकार के उदररोग, हृदयशूल और सब प्रकार के त्वचा के रोग, ये सब निश्चयपूर्वक जड़मूल से नष्ट हो जाते हैं। अधिक कहां तक कहें, देह को नीरोग और सुदृढ़ बनाने के लिये शिलाजीत सर्वोत्तम रसायन है। अभ्रकादि महारस, गन्धक आदि उपरस, सूतेन्द्र (पारद), माणिक्य आदि रत्न और सुवर्ण आदि धातुओं में जरा, मृत्यु रोग समुदाय को जीतने के गुण हैं, वे सब गुण शिलाजीत में भी होने का निम्न श्लोक में कहा है-

रसोपरस-सूतेन्द्र रत्न-लोहेषु ये गुणाः। वसन्ति ते शिलाधातौ जरा-मृत्यु-जिगीषया ॥

सब प्रकार के जीर्ण दुःखदायी रोग, मेदोवृद्धि और मधुमेह के लिये शिलाजीत को अति हितकर माना है। इनके अतिरिक्त चोट लगने पर शिलाजीत का लेप भी किया जाता है। शिलाजीत के सेवन से अकाल मृत्यु का भय दूर होता है और आयु की वृद्धि होती है। यह बालक,युवा, वृद्ध, स्त्री, पुरुष, सगर्भा, प्रसूता सबके लिये लाभदायक है। आधुनिक विज्ञान के विचार से शिलाजतु पेराफीन जातीय द्रव्य है जिससे पेट्रोल भी निकलता है।

विविध भावना-शिलाजीत को जिन द्रव्यों की भावनायें दी जायें, उनके अनुसार गुण की वृद्धि होती है, अतः शास्त्र में औषधियों के क्वाथ या स्वरस की भावना देने का निम्नानुसार विधान किया है-

वातरोग शमनार्थ-रास्ना, दशमूल, खरैटी, पुनर्नवा, एरण्ड, सोंठ और मुलहठी आदि औषधियों के क्वाथ की भावना दें। पित्तरोग शमनार्थ-मुनक्का, शतावरी या मल्लिका पुष्प, परवल, त्रायमाणा, गिलोय और जीवनीयगण की औषधियों की भावना दें। कफरोग नाशार्थ-त्रिफला, बच, वायबिडंग, करंज, नागरमोथा और बृहत् पंचमूल आदि औषधियों की भावना दें।

वातपित्त शमनार्थ-लघुपंचमूल, सोंठ, द्राक्षा, गम्भारी और अश्वगन्धाकी भावना देनी चाहिये। इस तरह गिलोय और खरैंटी के स्वरस भावना दी जाती है। की

वातकफ शमनार्थ-नागरमोथा, कूठ, बच, त्रिफला, देवदारू, बायविडंग, पंचकोल, हल्दी, कालीमिर्च पित्तकफ शमनार्थ-पाठा, और अतीस की भावना दें।

परवल, निम्ब, त्रिफला, नागरमोथा, कूठ, सप्तपर्ण, त्रायमाण, गिलोय, अतीस आदि औषधियों की भावना दें।

इस तरह भिन्न-भिन्न रोग शमनार्थ रोगनाशक औषधियों की भावना दी जाती है या रोगनाशक अनुपान के साथ शिलाजीत सेवन करायी जाती है।

मात्रा १ रत्ती से १ माशा तक, दिन में १ अथवा २ बार, रोगानुसार अनपान के साथ

मधुमेह पर-शिलाजीत को सालसारादिगण के क्वाथ की ७ भावनायें देवें। फिर इसे अग्नि बल के अनुसार सालसारादिगण के क्वाथ के साथ या गोमूत्र के साथ देवें।

प्रमेह पर-शिलाजीत और बंगभस्म समभाग मिला दूध के साथ सेवन करावें।

शुक्रमेह पर शिलाजीत २ तोले, बंगभस्म २ तोले, लोहभस्म १ तोला और अभ्रक भस्म ६ माशे मिलाकर २-२ रत्ती की गोलियाँ बना लें। एक-एक गोली प्रातः सायं दूध या प्रकृति के अनुकूल अनुपान के साथ देते रहने से शुक्रमेह और स्वप्न दोष दूर होते हैं।

शिलाजीत २॥ तोले, लोहभस्म १ तोला, केशर ६ माशे, कस्तूरी ३ माशे और अम्बर ३ माशे मिलाकर २-२ रत्ती की गोलियाँ बना लें। सुबह शाम दूध या चन्दन के शर्बत के साथ सेवन करने से शुक्रमेह और स्वप्न दोष दूर होते हैं तथा पाचनशक्ति, स्फूर्ति और स्मरणशक्ति की वृद्धि होती है।

बहुमूत्रपर-शिलाजीत, बंगभस्म, छोटी इलायची के दाने और वंशलोचन, इन चार को समभाग मिलाकर शहद के साथ खरलकर २- २ रत्ती की गोलियाँ बना लें। प्रातः सायं २-२ गोली धारोष्ण दूध या शीतल मिर्च और बड़े गोखरू के क्वाथ के साथ सेवन कराने से* बहुमूत्र,मूत्रकृच्छ, शर्करा, प्रमेह और धातुविकार दूर होकर, रोगी पुष्ट और तेजस्वी बन जाता हैं।

मूत्रजठरपर-शुद्ध शिलाजीत, मिश्री और कपूर के साथ देने से मूत्राघात (मूत्र जठर और मूत्रातीत) रोग दूर होता है। क्षयपर-(अ) त्रिफला, गिलोय, दशमूल, स्थिरादि कषाय (वयः स्थापन कषाय) और काकोल्यादिगण के क्वाथों की भावना वाली

शिलाजीत २ से ४ रत्ती बकरी के दूध में दिन में दो बार दें।

त्रिदोषज शोथपर-शिलाजीत आधा से १ माशा तक त्रिफला क्वाथ के साथ देवें।शिलाजीत, सुवर्णमाक्षिक भस्म, लोहभस्म, त्रिकटु और शहद को मिलाकर चटायें।

रक्त दबाव वृद्धि पर रक्तदबाव अति बढ़ जाने पर शिलाजीत का उपयोग होता है। २-२ रत्ती शिलाजीत को काली सारिवा ६ माशे और मुलहठी १ तोले के क्वाथ के साथ दिन में २ बार देवें तथा रात्रि को स्वादिष्ट विरेचन या पंचसकार अथवा अन्य सामान्य रेचक-चूर्ण ४- माशे जल के साथ देते रहने से रक्त दबाव एक सप्ताह में कम हो जाता है।

शिरदर्द पर-बृहदन्त्र, कमर, नितम्ब आदि के वात प्रकोप से ज्वर सहित शिरदर्द उत्पन्न हो जाता हो और उसका बार-बार दौरा होता हो, तो शिलाजीत १/२ रत्ती, अमृतासत्व १ रत्ती, मजीठ २ रत्ती मिलाकर, दिन में ४ बार आम के मुरब्बे के साथ देते रहें।

शिलाजीत के सेवनकाल में स्त्री प्रसंग, लालमिर्च, विदाही तथा भारी भोजन, तैल, खटाई, गुड़, कुलथी, मलावरोध करने वाले पदार्थ, अधिक नमक, सूर्य के ताप का अधिक सेवन, रात्रि में जागरण, दिन में शयन, मल-मूत्रादि के वेग को रोकना, मांस, मछली, शराब, व्यायाम, तेज वायु का सेवन मानसिक संताप और प्रकृति के प्रतिकुल या रोग में हानिकर पदार्थों का सेवन न करें। इसमें कुलथी, मकोय और कपोत के मांस का सेवन सदा के लिये त्याग देना चाहिये।

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