26/12/2023
कर्मों का प्रबंधन और दिशान्तरण
स्वामी सत्यानन्द: अपने कर्म को कोई क्यों बदले? कर्म न तो भारी होता है, न ही कष्टदायी । सब तुम्हारे दृष्टिकोण पर निर्भर करता है । एक सन्त थे जो बहुत कामुक थे, औरतों के प्रति उनकी गहरी आसक्ति थी । वे काम-भावना से मुक्त होना चाहते थे, तो उन्होंनेक्या किया? अपनी आँखों फोड़ डाली! इससे उनकी समस्या का निदान नहीं हुआ । मैं एक कर्म, काम की बात कर रहा हूँ, पर ऐसे अनेक कर्म होते हैं जैसे क्रोध, लोभ आदि । काम-वासना शायद सबसे दुष्कर कर्म है । बहुत कम लोग काम पर विजय प्राप्त कर पाते हैं । वे अन्धे हो गये, लेकिन उनके मन से काम नहीं निकला ।
एक दिन एक महान् सन्त उनकी गली से गुजरे । वे एक बड़े सम्प्रदाय के संस्थापक थे । भगवान उनके लिए कोई अमूर्त सिद्धांत नहीं, बल्कि जीवन्त सत्य था । उनका भगवान मनुष्य की तरह रहता था, सोता था, खाता-पिता था, हँसता-बोलता था और बीमार भी पड़ता था । उनका नाम था वल्लभाचार्य । जगन्नाथपुरी का मन्दिर उसी सम्प्रदाय का था । जगन्नाथपुरी में बलराम, सुभद्रा और कृष्ण हर साल पिकनिक पर जाते हैं, जैसे हमलोग दार्जिलिंग जाते हैं । हर बारह सालों में उनका कलेवर बदलता है । प्रतिदिन उन्हें भोग चढ़ाया जाते है । मंदिर के वैद्य उनके स्वास्थ्य की देखभाल करते हैं, भगवान जगन्नाथ जी को कहीं छींक आ जाये तो! जैसे तुम्हें अपने बच्चे के प्रति अनुराग होता है, जैसे अपने माँ-बाप या पति-पत्नी की चिंता होती है वैसी भावना उनकी थी । बिल्कुल यथार्थ भावना, अमूर्त या निराकार नहीं ।
वल्लभाचार्य उस सन्त के जीवन में आए और महान परिवर्तन घटित हो गया । सन्त के कर्म बदल गये । उस दिन से उन्हें अनुभव होने लगे । उनकी अन्दर की आँखें खुल गयीं । जीवनभर वे अन्धे रहे, लेकिन भीतर की आँखें से वे टी. वी. देखने लगे जहाँ उन्हें भगवान कृष्ण कभी शिशु रुप में, कभी माखन-चोर के रूप में कभी गोपियों के साथ छेडख़ानी करनेवाले रुप में दिखते थे । उनकी लीलाओं को देखकर वे भाव -विह्वल होकर गाने लगते थे । भारत में हर कोई उस महान सन्त को जानता हैं । वे वल्लभाचार्य के शिष्य हो गये और उसके बाद वे भगवान कृष्ण की सारी नटखट लीला को स्पष्ट देखा करते थे जैसा कोई भौतिक नेत्रों से देख सकता है ।
एक दिन यशोदा मैया कृष्ण पर बहुत नाराज हो गई क्योंकि गाँव की सभी ग्वालिनें ने आकर शिकायत कर दी । कहा, 'तुम्हारा छोरा कृष्ण इतना शरारती है कि अपने सभी ग्वाल-सखाओं के साथ हमारे धरों में धुसकर सारा माखन खा जाता है ।' तब यशोदा ने उन्हें बुलाकर ताड़ना शुरू किया और वे जान बचाने के लिये इधर-उधर भागने लगे ।अंत में कहने लगे, 'माँ, मैंने माखन नहीं खाया, ये गोपियाँ झूठ बोल रही हैं । मैं तो सबेरे बिस्तरसे उठते ही अपनी कन्धे पर कम्बल डालकर और हाथ में डन्डा लेकर अपनी गायों को चराने निकल जाता हूँ । मेरा साथ के ग्वाल-बाल मुझे पकडकर जबरन मेरे मुँह में मक्खन ठूँसकर खिला देते हैं तो मैं क्या करुँ । मैं तुम्हारा अपना बेटा नहीं हूँ न, इसलिए तुम मुझसे प्रेम नहीं करती और सभी झूठी शिकायतें सुन लेती हो ।' इस प्रसंग को सूरदास ने अपने एक पद में चित्रवत् प्रस्तुत किया है -
मैया मोरी मैं नहीं माखन खायो ।
भोर भई गईयन के पीछे , मधुबन मोहि पठायो ।
ग्वाल-बाल सब बैर पड़े हैं, बरबस मुख लपटायो ।
हिन्दुस्तान में हर कोई इस पद को जानता है । केवल यह एक प्रसंग नहीं, कृष्ण की सम्पूर्ण बाल-लीला, सम्पूर्ण जीवन सुरदास की चेतना में बिल्कुल स्पष्ट दिखने लगा । उनके कर्मों का परिष्कार हो गया । उनके कर्म मिट गये । जब कर्म मिट जाते हैं तो अन्धेरा भी मिट जाता है । कर्म चेतना पर उसी तरह छाये रहते हैं जैसे दर्पण पर धूल या लालटेन के काँच पर कालिख । ज्योति लालटेन के अन्दर है, पर बाहर नहीं दिखती । जब कालिख मिट जाती है तो प्रकाश साफ दिखलाई देता है ।
सूरदास के कर्म का क्या हुआ? किसी सुन्दर स्त्री के पीछे भागने के बजाय सूरदास का मन कृष्ण-लीला से जुड़ गया । वे सब कुछ देखने लगे, गाने लगे । उन्होंने अपने मन को नष्ट नहीं किया , वह तो हमेशा वासनायुक्त ही रहा । पर पहले वासना स्त्रियों के लिये थी, अब देवता के लिए हो गई । उन्होंने कृष्ण और गोपियों के दिव्य प्रेम का कितना सुंदर वर्णन किया है!
वृन्दावन छोड़ने के बाद श्रीकृष्ण ने एकबार उद्धव को वहाँ भेजा, राधा और अन्य गोपियों को सान्त्वना देने के लिये । वहाँ जाकर उद्धव ने उन्हें योग, ध्यान और समाधि के बारे में समझाया । गोपियों ने उद्धव से कहा, तुम यह सब क्या कह रहे हो? हमारा एक ही मन, एक ही दिल है और वह हमने श्रीकृष्ण को दे दिया है ।दो होते तब न एक योग को दे देते ।
उधो मन नहीं दस-बीस,
एक हूँ तो गयो श्याम संग, कौन अराधे ईस ।
इस तरह के मर्मस्पर्शी गीत लिखे हैं सूरदास ने । सूरदास ने अपने कर्म को खत्म नहीं किया, बल्कि उसका दिशान्तरण कर दिया । इसलिए मैं कहता हूँ कि न कोई कर्म भारी होता है, न कोई हल्का । यही मेरे जीवन का अनुभव रहा है । मुझे अपने जीवन में कभी कोई कर्म भारी नहीं लगा । हमेशा यही लगा कि ये कर्म सीढी के सोपान हैं । मुझे अपनी जीवनशैली के बारे में भी कोई कुण्ठा नहीं रही । मैंने पाँच-सितारा जीवन बिताया है । कभी सेकण्ड क्लास में सफर नहीं किया । जब मैं स्विट्जरलैंड के जिनाल नगर में योग सम्मेलन में भाग ले रहा था तो मेरा भोजन स्पेन से हवाई जहाज से आता था, क्योंकि मुझे वहाँ का भोजन पसंद नहीं था । मैंने हमेशा यही सोचा कि जब भगवान ने मुझे इस तरह के पाँच-सितारे जीवन का अवसर दिया है तो मैं उससे घृणा क्यों करूँ, उसे पसंद क्यों ना करूँ?
कठिनाहयाँ तो हर जगह आती हैं, आध्यात्मिक जीवन में भी ओर भोतिक जीवन में भी । तुम यह अपेक्षा नहीं रख सकते कि हर चीज सरल ओर आसान होगा। जिन्दगी संधर्षों की कड़ी है, यह कभी समतल नहीं होती । अगर तुम सोचो कोई मुझे धोखा न दे, सभी मेरी तारीफ करें , सब गलत है, बकवास है । अगर मैं चाहूँ कि सब कुछ साफ-सुथरा रहे तो सम्भव नहीं । यही जीवन का रहस्य है जिसके साथ हर एक को समझौता करना पड़ता है ।
जीवन में सबसे बड़ी चीज है कि मनुष्य को अपनी ही इच्छा मुताबिक जीवन को देखने की तमन्ना नहीं होना चाहिए । कर्म के मुताबिक तुम्हें जो भी जिन्दगी मिली है, उसी का मजा लो । नहीं तो जीवन वहुत कठिन हो जाता है । तुम नहीं चाहते फिर भी वह हो जाता है । परिवारिक समस्या, आर्थिक समस्या, मानसिक समस्या, सब होने लगती है । इसलिए सबसे अच्छा यही है कि भगवान से कुछ मत माँगो । वे सब जानते हैं, या यूँ कहें उन्होंने ही पूरी स्क्रिप्ट पहले से लिख दी है, अब तुम्हें केवल अभिनय करना है । हम सब फिल्मी अभिनेताओं की तरह हैं । सब कुछ तैयार है, केवल अभिनय करना है ।