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Maximum immunity
15/02/2024

Maximum immunity

*कुष्ठध्न महाकषाय*            आचार्य चरक द्वारा वर्णित कुष्ठध्न महाकषाय अतिमहत्वपूर्ण महाकषायों में से एक है इस महाकषाय ...
14/02/2024

*कुष्ठध्न महाकषाय*
आचार्य चरक द्वारा वर्णित कुष्ठध्न महाकषाय अतिमहत्वपूर्ण महाकषायों में से एक है इस महाकषाय को समझने से पहले कुष्ठ क्या है यह समझना आवश्यक है भगवान आत्रेय ने कहा “ कुष्णाति वपु: इति कुष्ठम्।“ अर्थात देह को कुत्सित ( विकृत) करने वाले रोग को कुष्ठ कहा जाता है। इसमें त्वचा से लेकर गंभीर धातुओं तक में विकृति होती है इसी संदर्भ में आचार्य वाग्भट ने कहा है *“त्वच: कुर्वंति वैवर्ण्य दुष्टा: कुष्ठमुशन्ति तत्। कालेनोपक्षेतं यस्मात्सर्व्ण कुष्णाति तद्वपु:।।* अर्थात जिसमें त्वचा का वैवर्ण्य हो जाता है दोष दूषित हो जाते हैं और समय के साथ गंभीर धातुओं तक को विकृत कर देते हैं।
आयुर्वेद में आचार्यों ने 18 प्रकार के कुष्ठों का उल्लेख किया है आधुनिक चिकित्सा विज्ञान में दद्रु ,पामा आदि विकारों को स्किन डीजीज कहते हैं और उदुम्बर कपाल मंडल कुष्ठ आदि को कुष्ठ या लेप्रोसी कहते हैं।
*“ हेतु द्रव्यं लिंग कुष्ठानामाश्रय प्रशमन च।*
*श्रृण्वग्निवेश: सम्यग्विशेषत: स्पर्शनघ्रानाम।।*
आचार्य पुनर्वसु ने कहा है कि हे अग्निवेश स्पर्शेंद्रिय त्वचा को नष्ट करने वाले कुष्ठों के नाना प्रकार के हेतुओं, लक्षणों, आश्रयों,प्रशमनों को विशेष रूप से वर्णित कर रहा हूं या कह रहा हूं।
कुष्ठ की संप्राप्ति देखें तो कुपित वात पित्त कफ त्वचा, रक्त, मांस, अंम्बू या लसीका को दूषित कर देते हैं इस प्रकार कुष्ठ की उत्पत्ति में संक्षेप में ये 7 द्रव्य कारण होते हैं इन 7 द्रव्यों के दूषित होने के बाद 18 प्रकार के कुष्ठ होते हैं कोई भी कुष्ठ एकदोषज नहीं है सभी त्रिदोषज होते हैं।
इसमें *7 महाकुष्ठ* कपाल उदुम्बर, मण्डल, ऋष्यजिव्हक, पुण्डरीक, सिध्म,काकणक, और एक कुष्ठ चर्माख्य किटिभ ,विपादिका, अलसक,दद्रु, चर्मदल, पामा, विस्फोट,शतारु, विच्रचिका सम्मिलित हैं।
इसमें निदान स्थान में 7 महाकुष्ठों का ही वर्णन है बाकी अन्य को त्वचा रोगों में वर्णित किया गया है।
अब अगर हम दिनचर्या पर विचार करें तो दंतधावन, अभ्यंग, स्नान आदि भी त्वचा से संबंधित कर्म ही है दंतधावन में एक श्रेष्ठ द्रव्य का वर्णन है जिसका नाम है खदिर और इसी को श्रेष्ठ कुष्ठध्न द्रव्य भी माना है अग्रयप्रकरण में में भी खदिर के बारे में खदिर: कुष्ठध्वनाम कहा है।
कुष्ठध्न महाकषाय के द्रव्यों का उपयोग हम बाह्य और अभ्यांतर दोनों प्रकार से ही कर सकते हैं कुष्ठध्न द्रव्यों का प्रयोग सभी त्वचा रोगों, रक्तज विकारों में कर सकते हैं।
कुष्ठध्न महाकषाय का चिकित्सकीय उपयोग जंहा जंहा नैक्रोसिस है यानी जंहा भी फोड़ा फुंसियां है वंहा इसका प्रयोग सिद्ध तैल, घी चूर्ण या काढ़ा बनाकर काम में ले सकते हैं।
*कुष्ठध्न महाकषाय रसायन भी है* सत्य भी है अगर रसायन के गुणों और कुष्ठध्न महाकषाय के गुणों पर विचार करें तो काफी मिलते हैं
रसायन के गुणों में “ दीर्घमायु: स्मृतिं मेधामारोग्यं तरुणं वय:। प्रभावर्णस्वरौदार्य देहेन्द्रियबलं परम्।।
वाक्सिद्धिं प्रणतिं कांति लभते ना रसायनात्। लाभोपादो हि शस्तानां रसादीनां रसायनम्।।“
अर्थात जिस औषधि का सेवन करने से मनुष्य दीर्घायु, स्मृतिवान, मेधस्वी,, निरोगी, तरुणावस्था ,प्रभा ( शारीरिक कांति जिससे शरीर का वर्ण प्रकाशित होता है) वर्ण यानि प्राकृत वर्ण गौर हो या कृष्ण हो या कोई और, अंत में कहा है कांति अर्थात शरीर की सुंदरता देने वाला, अतः रसादि धातुओं को प्राप्त करने का एक उत्तम उपाय रसायन है और कुष्ठध्न महाकषाय के सभी द्रव्य यह कार्य करते हैं।
कुष्ठध्न महाकषाय का मन पर भी प्रभाव होता है जाहिर सी बात है त्वचा और मन एक दूसरे के आश्रित ही तो होते हैं अगर एक दूषित तो दूसरा दूषित और एक ठीक होते ही दूसरा भी ओटोमेटिकली ठीक हो जाता है, और हम भी प्रतिदिन अपने वर्ण या त्वचा की सुंदरता को निहारते हैं अगर चमक अच्छी लगी तो मन उल्लासित होता है और कहीं कुछ गडबड होती है तो मन भी गडबड होता है अतः इस परिप्रेक्ष्य में भी कुष्ठध्न महाकषाय अतिमहत्वपूर्ण है।
आचार्य चरक ने कुष्ठध्न महाकषाय में खदिर , हरीतकी, आमलकी, हरिद्रा, भल्लातक, सप्तपर्ण, आरग्वध, करवीर, विडंग, जातीपत्र का उल्लेख किया है।
इसमें सभी रसों के द्रव्य सम्मिलित हैं जैसे आरग्वध मधुर रस, करवीर, और विडंग कटु तिक्त , खदिर, सप्तपर्ण, और जातिपत्र तिक्त कषाय रस प्रधान, भल्लातक कटु तिक्त कषाय रस प्रधान, आमलकी और हरीतकी पंचरस प्रधान जिसमें आमलकी अम्लरस और हरीतकी कषाय रस की प्रधानता रखती है। इसी तरह वीर्य में शीत उष्ण दोनों के द्रव्य सम्मिलित, मधुर कटु विपाकी और कफपित्त , कफवात और त्रिदोषशामक होते हैं इससे यह स्पष्ट भी होता है कि आचार्य चरक ने जो महाकषाय बताए हैं वो कर्म आधारित हैं इनके रसगुण वीर्य विपाकादि पर ज्यादा विचार ना करते हुए बस चिकित्सा में उपयोग करें 🙏
संक्षेप में कुष्ठध्न महाकषाय का सभी प्रकार के त्वचा रोगों में बिना ज्यादा विचार किए चिकित्सा में उपयोग करना चाहिए।
जय आयुर्वेद 🌿
अधिक जानकारी हेतु संपर्क करें
डॉ ललित व्यास
9610824340

*कुष्ठध्न महाकषाय*            आचार्य चरक द्वारा वर्णित कुष्ठध्न महाकषाय अतिमहत्वपूर्ण महाकषायों में से एक है इस महाकषाय ...
14/02/2024

*कुष्ठध्न महाकषाय*
आचार्य चरक द्वारा वर्णित कुष्ठध्न महाकषाय अतिमहत्वपूर्ण महाकषायों में से एक है इस महाकषाय को समझने से पहले कुष्ठ क्या है यह समझना आवश्यक है भगवान आत्रेय ने कहा “ कुष्णाति वपु: इति कुष्ठम्।“ अर्थात देह को कुत्सित ( विकृत) करने वाले रोग को कुष्ठ कहा जाता है। इसमें त्वचा से लेकर गंभीर धातुओं तक में विकृति होती है इसी संदर्भ में आचार्य वाग्भट ने कहा है *“त्वच: कुर्वंति वैवर्ण्य दुष्टा: कुष्ठमुशन्ति तत्। कालेनोपक्षेतं यस्मात्सर्व्ण कुष्णाति तद्वपु:।।* अर्थात जिसमें त्वचा का वैवर्ण्य हो जाता है दोष दूषित हो जाते हैं और समय के साथ गंभीर धातुओं तक को विकृत कर देते हैं।
आयुर्वेद में आचार्यों ने 18 प्रकार के कुष्ठों का उल्लेख किया है आधुनिक चिकित्सा विज्ञान में दद्रु ,पामा आदि विकारों को स्किन डीजीज कहते हैं और उदुम्बर कपाल मंडल कुष्ठ आदि को कुष्ठ या लेप्रोसी कहते हैं।
*“ हेतु द्रव्यं लिंग कुष्ठानामाश्रय प्रशमन च।*
*श्रृण्वग्निवेश: सम्यग्विशेषत: स्पर्शनघ्रानाम।।*
आचार्य पुनर्वसु ने कहा है कि हे अग्निवेश स्पर्शेंद्रिय त्वचा को नष्ट करने वाले कुष्ठों के नाना प्रकार के हेतुओं, लक्षणों, आश्रयों,प्रशमनों को विशेष रूप से वर्णित कर रहा हूं या कह रहा हूं।
कुष्ठ की संप्राप्ति देखें तो कुपित वात पित्त कफ त्वचा, रक्त, मांस, अंम्बू या लसीका को दूषित कर देते हैं इस प्रकार कुष्ठ की उत्पत्ति में संक्षेप में ये 7 द्रव्य कारण होते हैं इन 7 द्रव्यों के दूषित होने के बाद 18 प्रकार के कुष्ठ होते हैं कोई भी कुष्ठ एकदोषज नहीं है सभी त्रिदोषज होते हैं।
इसमें *7 महाकुष्ठ* कपाल उदुम्बर, मण्डल, ऋष्यजिव्हक, पुण्डरीक, सिध्म,काकणक, और एक कुष्ठ चर्माख्य किटिभ ,विपादिका, अलसक,दद्रु, चर्मदल, पामा, विस्फोट,शतारु, विच्रचिका सम्मिलित हैं।
इसमें निदान स्थान में 7 महाकुष्ठों का ही वर्णन है बाकी अन्य को त्वचा रोगों में वर्णित किया गया है।
अब अगर हम दिनचर्या पर विचार करें तो दंतधावन, अभ्यंग, स्नान आदि भी त्वचा से संबंधित कर्म ही है दंतधावन में एक श्रेष्ठ द्रव्य का वर्णन है जिसका नाम है खदिर और इसी को श्रेष्ठ कुष्ठध्न द्रव्य भी माना है अग्रयप्रकरण में में भी खदिर के बारे में खदिर: कुष्ठध्वनाम कहा है।
कुष्ठध्न महाकषाय के द्रव्यों का उपयोग हम बाह्य और अभ्यांतर दोनों प्रकार से ही कर सकते हैं कुष्ठध्न द्रव्यों का प्रयोग सभी त्वचा रोगों, रक्तज विकारों में कर सकते हैं।
कुष्ठध्न महाकषाय का चिकित्सकीय उपयोग जंहा जंहा नैक्रोसिस है यानी जंहा भी फोड़ा फुंसियां है वंहा इसका प्रयोग सिद्ध तैल, घी चूर्ण या काढ़ा बनाकर काम में ले सकते हैं।
*कुष्ठध्न महाकषाय रसायन भी है* सत्य भी है अगर रसायन के गुणों और कुष्ठध्न महाकषाय के गुणों पर विचार करें तो काफी मिलते हैं
रसायन के गुणों में “ दीर्घमायु: स्मृतिं मेधामारोग्यं तरुणं वय:। प्रभावर्णस्वरौदार्य देहेन्द्रियबलं परम्।।
वाक्सिद्धिं प्रणतिं कांति लभते ना रसायनात्। लाभोपादो हि शस्तानां रसादीनां रसायनम्।।“
अर्थात जिस औषधि का सेवन करने से मनुष्य दीर्घायु, स्मृतिवान, मेधस्वी,, निरोगी, तरुणावस्था ,प्रभा ( शारीरिक कांति जिससे शरीर का वर्ण प्रकाशित होता है) वर्ण यानि प्राकृत वर्ण गौर हो या कृष्ण हो या कोई और, अंत में कहा है कांति अर्थात शरीर की सुंदरता देने वाला, अतः रसादि धातुओं को प्राप्त करने का एक उत्तम उपाय रसायन है और कुष्ठध्न महाकषाय के सभी द्रव्य यह कार्य करते हैं।
कुष्ठध्न महाकषाय का मन पर भी प्रभाव होता है जाहिर सी बात है त्वचा और मन एक दूसरे के आश्रित ही तो होते हैं अगर एक दूषित तो दूसरा दूषित और एक ठीक होते ही दूसरा भी ओटोमेटिकली ठीक हो जाता है, और हम भी प्रतिदिन अपने वर्ण या त्वचा की सुंदरता को निहारते हैं अगर चमक अच्छी लगी तो मन उल्लासित होता है और कहीं कुछ गडबड होती है तो मन भी गडबड होता है अतः इस परिप्रेक्ष्य में भी कुष्ठध्न महाकषाय अतिमहत्वपूर्ण है।
आचार्य चरक ने कुष्ठध्न महाकषाय में खदिर , हरीतकी, आमलकी, हरिद्रा, भल्लातक, सप्तपर्ण, आरग्वध, करवीर, विडंग, जातीपत्र का उल्लेख किया है।
इसमें सभी रसों के द्रव्य सम्मिलित हैं जैसे आरग्वध मधुर रस, करवीर, और विडंग कटु तिक्त , खदिर, सप्तपर्ण, और जातिपत्र तिक्त कषाय रस प्रधान, भल्लातक कटु तिक्त कषाय रस प्रधान, आमलकी और हरीतकी पंचरस प्रधान जिसमें आमलकी अम्लरस और हरीतकी कषाय रस की प्रधानता रखती है। इसी तरह वीर्य में शीत उष्ण दोनों के द्रव्य सम्मिलित, मधुर कटु विपाकी और कफपित्त , कफवात और त्रिदोषशामक होते हैं इससे यह स्पष्ट भी होता है कि आचार्य चरक ने जो महाकषाय बताए हैं वो कर्म आधारित हैं इनके रसगुण वीर्य विपाकादि पर ज्यादा विचार ना करते हुए बस चिकित्सा में उपयोग करें 🙏
संक्षेप में कुष्ठध्न महाकषाय का सभी प्रकार के त्वचा रोगों में बिना ज्यादा विचार किए चिकित्सा में उपयोग करना चाहिए।
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