24/08/2025
What is Consciousness(चेतना)?
Let us see what does Science and Philosophy has to offer to the above query !
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हम सब अपने अनुभव से जानते हैं कि “मैं हूँ”। यह सबसे बुनियादी सच्चाई है। परंतु यही सबसे बड़ी पहेली भी है — चेतना (consciousness)। विज्ञान ने मस्तिष्क (brain) की अद्भुत खोजें की हैं, और दर्शन ने अनगिनत दृष्टिकोण। दोनों मिलकर भी आज तक चेतना की पहेली को पूरी तरह नहीं सुलझा पाए।
आइए इसे छह अलग-अलग दृष्टियों से देखें।
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1. Consciousness does not exist—it’s an illusion
Neuroscientist Daniel Dennett calls consciousness a “user-illusion”. According to this, the brain just interprets neural firings and creates a false sense of “self.”
उदाहरण के लिए — split-brain patients पर experiments यह दिखाते हैं कि दिमाग को दो हिस्सों में बाँट दिया जाए तो एक ही व्यक्ति में दो चेतनाएँ-सी दिखाई देती हैं। यानि जो हम “मैं” कहते हैं, वह बस neural processing का illusion है।
परंतु, हिंदी में कहें तो — यह विचार उस साधु जैसा है जो कहे कि “तुम्हारी आत्मा नहीं है, यह सब दिमाग का खेल है।” यह सुनने में तो तर्कसंगत है, पर भीतर कहीं हमें अधूरा लगता है।
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2. Consciousness exists, but is purely a product of the brain
This is the mainstream neuroscientific view.
• Global Neuronal Workspace Theory (Stanislas Dehaene) → Consciousness emerges when information is shared across brain networks.
• Integrated Information Theory (Giulio Tononi) → Consciousness is the integration of information beyond a complexity threshold.
MRI studies prove that damage to hippocampus erases memory; stimulation of fusiform gyrus triggers face recognition.
पर यही विचार वेदांत के वाक्य “मन एव मनुष्याणां कारणं बन्धमोक्षयोः” जैसा भी लगता है। यानी मुक्ति हो या बंधन — सब मस्तिष्क की प्रक्रियाओं पर निर्भर।
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3. Science is not enough—philosophy must join hands
This is the position of David Chalmers who coined the “hard problem of consciousness.”
We know which brain areas light up during pain, but we still cannot explain why pain feels like pain.
यहाँ विज्ञान ठहर जाता है और दर्शन की ओर हाथ बढ़ाता है। यह वैसा ही है जैसे एक डॉक्टर रोग का diagnosis तो कर ले, पर रोगी के दुख अथवा आँसू को मापने का कोई यंत्र न हो।
How to quantify agony or sorrow?
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4. Consciousness is universal—brain is just a receiver
This is panpsychism. Here, the brain is a receiver or filter of a larger, omnipresent consciousness. Thinkers like Anil Seth and Christof Koch have flirted with the notion that the brain doesn’t produce consciousness; it merely “tunes in.”
An analogy: TV does not create the broadcast; it only receives it. Similarly, brain might be an antenna of a cosmic field of awareness.
यह विचार भारतीय दर्शन के सबसे निकट है। उपनिषद बार-बार कहते हैं — “सर्वं खल्विदं ब्रह्म” (सब कुछ ब्रह्म ही है)। आधुनिक भाषा में कहें तो — हम सब एक cosmic Wi-Fi से जुड़े हैं, और दिमाग बस उसका डिवाइस है।
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5. Consciousness arises but has no causal power (Epiphenomenalism)
This view says: Brain produces consciousness, but consciousness is powerless—like steam rising from boiling water.
Libet’s experiments (1980s) showed that neuronal activity precedes conscious decision-making by milliseconds. In other words, the brain decides before “we” decide.
सोचिए, अगर यह सच है तो “स्वतंत्र इच्छा” (free will) बस भ्रम है। हम सोचते हैं कि हमने रास्ता चुना, पर रास्ता तो पहले ही चुना जा चुका था। यह विचार बहुत असहज कर देता है, जैसे कठपुतली को एहसास हो जाए कि डोरियाँ उसके हाथ में नहीं हैं।
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6. Consciousness alone is real—world is an illusion
This is the most radical stance. In Advaita Vedanta, Brahman (pure consciousness) is the only truth; world is Maya.
Modern parallel: Simulation Hypothesis (Nick Bostrom, Elon Musk). Perhaps the physical universe itself is a creation of some higher layer of consciousness, much like VR games where code generates entire worlds.
कबीर का यह दोहा यहाँ याद आता है —
“माया महाठगिनी हम जानी, देखत रहत जगत को लूटे”
आज की भाषा में कहें तो: हम शायद एक cosmic simulation के अवतार हों।
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Take away!!
इन छहों दृष्टिकोणों में हर एक में सत्य की झलक है। पहला (illusion) स्वीकारना कठिन है, क्योंकि अनुभव स्वयं को झुठलाता नहीं। आख़िरी (consciousness alone) (extreme notion ) चरम है, पर simulation theory ने इसे फिर से आधुनिक बहस बना दिया है।
बाकी चार विचार विज्ञान और दर्शन के बीच झूलते हैं। शायद चेतना को समझना किसी एक चश्मे से नहीं होगा — यह एक kaleidoscope है, जहाँ हर theory एक अलग पैटर्न दिखाती है।
अंततः, चेतना वही है जो हमें यह प्रश्न पूछने पर मजबूर करती है:
••••“मैं कौन हूँ?”•••
••• ——!!!!!——••••
बुल्ला की जाना मैं कौन
ना मैं मोमन विच मसीतां न मैं विच कुफर दीयां रीतां
न मैं पाक विच पलीतां, न मैं मूसा न फरओन
बुल्ला की जाना मैं कौन
न मैं अंदर वेद किताबां, न विच भंगा न शराबां
न रिंदा विच मस्त खराबां, न जागन न विच सौण
बुल्ला की जाना मैं कौन
न मैं शादी न गमनाकी, न मैं विच पलीती पाकी
न मैं आबी न मैं खाकी, न मैं आतिश न मैं पौण
बुल्ला की जाना मैं कौन
न मैं अरबी न लाहौरी, न मैं हिंदी शहर नगौरी
न हिंदू न तुर्क पिशौरी, न मैं रहंदा विच नदौन
बुल्ला की जाना मैं कौन
न मैं भेत मजहब दा पाया, न मैं आदम हव्वा जाया
न मैं अपना नाम धराएया, न विच बैठण न विच भौण
बुल्ला की जाना मैं कौन
अव्वल आखर आप नू जाणां, न कोई दूजा होर पछाणां
मैंथों होर न कोई स्याना, बुल्ला शौह खड़ा है कौन
बुल्ला की जाना मैं कौन
जब हम चेतना की चर्चा करते हैं — वैज्ञानिक दृष्टि से तो वह न्यूरॉन्स, सिनैप्स, और इन्फॉर्मेशन प्रोसेसिंग की उपज लगती है। परंतु जब आत्मा स्वयं पूछ बैठती है—“मैं कौन हूँ?”—तो विज्ञान मौन हो जाता है और सूफी कवि बुल्ले शाह बोल उठते हैं।
वह कहते हैं:
• मैं न किसी मस्जिद में हूँ, न किसी मंदिर में;
• न मैं पवित्र हूँ, न अपवित्र;
• न मैं हिंदू, न मुसलमान; न मैं वेदों में, न कुरान में।
बुल्ला की जाना मैं कौन…
यानी सत्ता को किसी लेबल, पहचान, धर्म, भाषा या देह से बाँधा नहीं जा सकता।
यह आत्मा न “मस्तिष्क का बायोकेमिकल डेटा” है, न “सामाजिक-धार्मिक पहचान का लेबल।”
यह तो वह अनिर्वचनीय अनुभव है, जो हर सीमाओं से परे है।
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आधुनिक उपमा :—जैसे आज हम एक वर्चुअल रियलिटी गेम खेलते हैं—अवतार बदलते हैं, नाम बदलते हैं, पर असली खिलाड़ी स्क्रीन के पीछे बैठा रहता है।
ठीक उसी तरह हम भी शरीर, धर्म, जाति, रिश्तों और पेशों के अवतार में खेलते रहते हैं।
पर असली “मैं” तो पीछे बैठा साक्षी है।
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विज्ञान और बुल्ले शाह का संगम
• Science कहता है: Consciousness may emerge from the brain, but we still cannot pin it down.
• बुल्ले शाह कहते हैं: Consciousness cannot be confined to any category—it just is.
विज्ञान “कैसे” को खोजता है, और बुल्ले शाह “कौन” की सीमाओं को तोड़ते हैं।
दोनों मिलकर यही कहते हैं:
सचेतन सत्ता (Self) वह है जिसे परिभाषित नहीं किया जा सकता, केवल अनुभव किया जा सकता है।
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अंतिम उत्तर
तो जब प्रश्न उठता है—“मैं कौन हूँ?”
उत्तर केवल इतना है—
मैं न यह हूँ, न वह हूँ।
मैं वही हूँ जो सदा है—
शुद्ध चेतना।
शब्दों से परे, पर अनुभव से निकट।
स्वस्थ रहिये मस्त रहिये