Naturecure Panchkarma and Yoga Treatment Center

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16/06/2021
नेचर क्योर आयुर्वेद क्लीनिक द्वारा 26 जनवरी 2018 को निशुल्क आयुर्वेद पंचकर्म योग चिकित्सा परामर्श शिविर का आयोजन किया गय...
28/01/2018

नेचर क्योर आयुर्वेद क्लीनिक द्वारा 26 जनवरी 2018 को निशुल्क आयुर्वेद पंचकर्म योग चिकित्सा परामर्श शिविर का आयोजन किया गया जिसमें भानियावाला 18 वाला रानीपोखरी माजरी आसपास क्षेत्रों के लोगों ने शिविर का लाभ लिया 60 से अधिक रोगियों का परीक्षण कैंप के माध्यम से कराया गया कैंप में संस्थान के प्रमुख आचार्य भूपेंद्र नाथ वैद्य पंकज जी आयुर्वेदाचार्य MD , वैद्य स्वाति वैद्य धर्मेश आयुर्वेदाचार्य की उपस्थिति में संपन्न हुआ

28/01/2018

26 जनवरी के दिन नेचर क्योर आयुर्वेद क्लीनिक द्वारा निशुल्क चिकित्सा शिविर आयोजित किया गया शिविर में आसपास क्षेत्रों से आए 60 से अधिक रोगियों का निशुल्क परामर्श किया गया वह निशुल्क औषधियां भी प्रदान की गई संस्थान के प्रमुख योगाचार्य भूपेंद्र नाथ व डॉ- पंकज राजवंशी एवं डॉ- स्वाति द्वारा आयुर्वेद पंचकर्म चिकित्सा योग चिकित्सा की जानकारी दी गई ,

*जानें कैसे होती है रक्तमोक्षण चिकित्सा*आपने अक्सर असहनीय पीड़ा से जूझते हुए रोगियों को कई बार देखा होगा।ऐसी ही एक वेदना ...
10/07/2017

*जानें कैसे होती है रक्तमोक्षण चिकित्सा*
आपने अक्सर असहनीय पीड़ा से जूझते हुए रोगियों को कई बार देखा होगा।ऐसी ही एक वेदना सियाटिका नामक रोग में भी उत्पन्न होती है जिसका नाम ही गृधसी है अर्थात वेदना के कारण व्यक्ति की चाल वल्चर यानि गिद्ध के सामान हो जाय।मूलतया यह पीड़ा पैरो में होती है लेकिन इसके पीछे का मूल कारण कमर से निकलनेवाली सियाटिक नर्व में उत्पन्न सूजन है।यह दर्द कुछ इस प्रकार का होता है कि व्यक्ति चलने फिरने उठने एवं बैठने में भी असमर्थ होता है।दर्द के साथ पैरों में सुन्नता उत्पन्न होना इसका एक विशेष लक्षण है।यह दर्द सामान्यतया कमर से होता हुआ पैरों के पिछले हिस्से से होते हुए अंगूठे तक जाता है।यह दर्द दोनों पैरों में भी हो सकता है लेकिन प्रायः रोगी एक पाँव में वेदना बताते हैं।रोगी दर्द से बैचेन हो कभी बैठता है अथवा कभी उठ खड़ा होता है।न चलने से उसे राहत मिलते है और न ही बैठने से।इन सब कारणों से वह यहां वहाँ चिकित्सकों के चक्कर काटता है फिर भी वी वो परेशान ही रहता है जिस कारण वह एक प्रकार की मानसिक तनाव से अकारण ही दो-चार होता रहता है।अब आईये एक दूसरी अवस्था की चर्चा करते हैं जिसका नाम’जोड़ों का दर्द ‘है यह दर्द भी संधिवात एवं आमवात के रूप में रोगियों को कष्ट देता है।हम इन रोगों की विशेष चर्चा न करते हुए यहां सिर्फ और सिर्फ इनके सरल इलाज की चर्चा करेंगे जो बड़ी ही सरलता से चिकित्सक अपनी क्लीनिक पर प्रयोग कर लाभ देख सकते हैं।उस चिकित्साविधि का नाम है अलाबू प्रयोग।अब आप सोच रहे होंगे कि ये तो बड़ी जटिल प्रक्रिया होगी और इसमें बड़ा ही खर्च आता होगा।जी नहीं,यह अत्यंत सरल एवं प्रभावी चिकित्सा है जिसे हम आपको और भी अधिक सरलता से समझाते हैं।
क्या है ये अलाबू?
कैसे प्रयोग करें?:-आपको बस दो कांच के गिलास अथवा कांच की बर्नी लेने हैं,दो आर्टरी फॉरसेप लेना है साथ ही स्प्रिट,कॉटन,माचिस,शहद,हल्दी एवं बेलाडोना प्लास्टर।
आईये अब प्रयोग विधि को जानें:
1.अलाबू प्रयोग हेतु चयनित स्थान पर या जोड़ों पर जहां आपने प्रयोग करना है वहाँ स्प्रिट स्वेब से स्टेरलाईजेशन हेतु अच्छी तरह से सफाई कर दें।
2.एक आर्टरी फॉरसेप डी नेचर्ड स्प्रिट में भिंगोया हुआ,रूई का फोहा लेकर इसे कांच के ग्लास या बर्नी के अंदर अच्छी तरह से फेर दें।
3.स्प्रिट के इस फोहे को माचिस से जला लें।
4.पीड़ा वाली संधि के स्थल पर आप सीधे स्प्रिट फेरा हुआ ग्लास रखें और जलते हुए रूई के फोहे को जल्दी से जल्दी ग्लास के अंदर ले जाकर बाहर खींच लें और ग्लास को सीधे उसी स्थल पर दबा दें।
5.इस प्रकार थोड़े समय में ही ग्लास के अंदर लगा स्प्रिट तीव्रता से प्रज्वलित होता है और ग्लास के अंदर की वायु बाहर निकलकर एक वायुरहित अवकाश क्षेत्र यानि वेक्यूम उत्पन्न कर देती है।अब आप जैसे ही ग्लास को पीड़ायुक्त स्थान में लगाते हैं वैसे ही निगेटिव प्रेशर के कारण ग्लास वहीँ चिपक जाता है।
6.ग्लास को 20 से 25 मिनट तक लगे रहने दें।
7.जब ग्लास को निकालना हो तो उसके मुहं के पास क एक सिरे पर अंगूठे से त्वचा को दबा दें जिससे बाहर की वायु अंदर आ जाय और ग्लास अपनी पकड़ छोड़ देता है।
अब आईये दूसरी विधि की चर्चा करते हैं:-
इसे जलौकावचारण भी कहते है:-
हालांकि आजकल जलौका की उपलब्धता ही कठिन है।लेकिन जलौका का भी एक विकल्प ढूंढ निकाला गया है।
आईये जानते हैं क्या है यह विकल्प:-
1.दो तीन सिरिंज 5 से 10 मिली की लें
2.एक नीडल नंबर 22-23
3.हैंडल सहित सर्जीकल ब्लेड
4.हैंड ग्लब्स एक जोड़ी।
प्रयोग विधि:
1.सिरिंज की बैरल को उसके अगले नोजल वाले सिरे पर लगभग आधा सेंटीमीटर की दूरी से पूरा काट दें।
2.पिस्टन को निकालकर उसके पिछले हिस्से से लगभग 1-2 सेंटीमीटर पर एक दो आरपार छिद्र कर दें।
3.पिस्टन को बैरल के काटे गए सिरे की ओर से प्रविष्ट कराएं।
4.पीड़ा वाले स्थान को चिन्हित कर आवश्यक रूप से प्रच्छान आदि लगाकर सिरिंज को उसी स्थान पर दबाकर रखते हुए पिस्टन को खींचते हैं ताकि नकारात्मक दवाब बने इससे सिरिंज चिपक जायेगी।इसी अवस्था में कुछ देर रखने के लिए पिस्टन में किये गए छेद में पिन अथवा सूई लगा दें जिससे वह वहीँ लॉक हो जाय।
5.अब जब सिरिंज को हटाना ही तो लगाए गए सूई को पिस्टन से निकाल दें जिससे पिस्टन धीरे-धीरे नीचे आता है और सिरिज अपनी पकड़ छोड़ देती है।
अब रोगियों का चयन कैसे करें?:-
रक्तमोक्षण के योग्य एवं अयोग्य रोगियों का वर्णन विभिन्न आयुर्वेदिक ग्रंथों में किया गया है।आप अपने विवेक अनुसार रोगियों की असाधारण स्थितियों को छोड़कर इस विधि का प्रयोग निःसंकोच शूल वाली संधिस्थल पर करें।
प्रयोग पूर्व रोगियों की सामान्य क्लीनिकल जाचें एवं प्रयोगशालीय परीक्षण अवश्य ही करवाएं:-
मधुमेह जैसेरोग से पीडित रोगियों को छोड़ दें।प्रयोगशालीयपरीक्षण मेंHb,BT,CT,BSR,HBsAg ,HIV1&2 अवश्य कराएं।
ताकि हेमोफीलिया जैसी स्थितियों से बचा जा सके।
उपरोक्त अनुभूत प्रयोग संधिशूल,सीयाटिका जैसे रोगियों में कराया गया है Sciatica,Backache,Cervical pain,Hip Joints pain,Knee joints pain,Heal Pain आदि से पीड़ित रोगियों में इस विधि का प्रयोग कराया है।

पूर्वकर्म हेतु
1.पीड़ायुक्त संधि स्थल पर पूर्व कर्म अनुसार सिरिंज अथवा अलाबू का चयन किया।
2.जिन रोगियों में संभव हो सका उनमें चयनित संधि स्थल पर सामान्य रूप से स्नेहन एवं नाड़ी स्वेदन का प्रयोग किया।
3.स्प्रिट स्वेब से उपरोक्त स्थल को पौंछते हुए स्नेहरहित शुष्क कर लिया एवं रक्तावसेचन हेतु स्थसल चिन्हित किया।
प्रधान कर्म: चिन्हित स्थल पर निडिल अथवा सर्जीकल ब्लेड से प्रच्छान लगाकर बताई गयी विधि से सिरिंज अथवा अलाबू का प्रयोग लगभग 20-25 मिनट तक किया।
पश्चात कर्म:
1.लगाई गयी सिरिंज अथवा अलाबू को बताई गयी विधि से प्रेशर रिलीज कर हटा दिया गया।
2.अवसेचित रक्त को स्वच्छ रूई से पौंछकर साफ़ कर दिया।
3.प्रच्छान वाले स्थान पर शहद एवं हल्दी लगाई गयी।
4.पूरे क्षेत्र पर बेलाडोना प्लास्टर चिपका दिया गया।
बिना आयुर्वेदिक चिकित्सक के निर्देशन के इसका प्रयोग करने पर खतरनाक दुष्परिणाम उत्पन्न हो सकता है।

(आईये जानें क्या है शिरोवस्ति)शिर पर तेल धारण निम्न 4 विधियों के प्रयोग से कराया जाता है:-1.शिरोभ्यंग यानि सामान्य शिर प...
10/07/2017

(आईये जानें क्या है शिरोवस्ति)

शिर पर तेल धारण निम्न 4 विधियों के प्रयोग से कराया जाता है:-
1.शिरोभ्यंग यानि सामान्य शिर पर कराई गयी तेल की मालिश
2.शिरः सेक यानि शिरोधारा जिसे आप पूर्व की सीरीज में जान चुके हैं।
3.शिरोपिचु धारण:-तेल से पूर्ण (Cotton dipped in oil) रूई को Anterior frontinale पर धारण कराना
4.शिरो बस्ति:
बस्ति शब्द आने से प्रायः चिकित्सक सोचने लग जाते होंगे कि कहीं ये बस्ति का ही कोई प्रकार तो नहीं है।जी नही,बस्ति शब्द का अर्थ धारण करने से है और चूँकि शिर पर तैल का धारण कराया जाता है अतः इस विधि को शिरो बस्ति नाम दिया गया है।
कैसे करें शिरो बस्ति
शिर के circumference के अनुसार 6 इंच मोटे चमड़े की एक टोपी जैसी बना लें।इसे शिर के आकार की तुलना में 12 अंगुल ऊँचा रखें,टोपी का ऊपरी तथा निचला हिस्सा खुला हो।
शिरोबस्ति की विधि
जिस रोगी की शिरो बस्ति करनी हो उसका स्नेहन स्वेदन अवश्य करें।रोगी को वमन के लिये प्रयुक्त होने वाली ऊंचाई की कुर्सी पर बिठा दें अब उस चमड़े की टोपी को उसके शिर के along the circumference फिट कर दें।इसे फिट करने हेतु आप बेंड़ेज से बांधें।बंधन अच्छा होना चाहिये ताकि उपरोक्त चमड़े की टोपी से बनाया गया शिरोबस्ति यंत्र शिर पर ठीक से फिट हो।बेंड़ेज इतना लंबा लें कि वह कान के किनारे से शिर पर घुमते हुए 7-8 बार लेयर बनाये तथा गाँठ temporal region में आये।अब शिरो बस्ति यंत्र के अंदर के हिस्से में उड़द के आंटे को पानी में गूँथकर gap को भर दें।ठीक ऐसा ही कर आप बाहर gap को fill कर दें।इस प्रकार अब कोई gap नही रहेगा और अंदर डाला तेल बाहर नही रिसेगा।
अब रोग के अनुसार हल्का गुनगुना तेल लगभग डे ढ अंगुल प्रमाण तक भर दें।ध्यान रहे रोगी शिर को न हिलाये।
बीच बीच में तेल को चम्मच से थोडा थोडा कर निकालते रहें और सुखोष्ण कर फिर शिरोबस्ति यंत्र में डालते रहें।
कब तक करायें शिरोबस्ति
शिरोबस्ति को
वातज रोगों में 53 मिनट
पित्तज रोगों में 43 मिनट
कफज रोगों में 33 मिनट
स्वस्थ व्यक्तियों में 5 से 6 मिनट
तक तैल धारण कर कराना चाहिये।
जब भी रोगी को नाक या मुहं से स्राव निकलने लगे शिरोबस्ति की प्रक्रिया बंद कर दें।
शिरो बस्ति के लाभ:-
अर्दित(facial paralysis),अनिद्रा(insomnia),अर्धावभेदक (Hemicrania),नेत्र रोगों में शिरो बस्ति लाभप्रद है।

अश्वगंधा है नींद लाने की प्राकृतिक औषधि :एक नया शोधआयुर्वेद के मनीषी अश्वगंधा का प्रयोग मष्तिष्क एवं शरीर को ऊर्जा प्रदा...
10/07/2017

अश्वगंधा है नींद लाने की प्राकृतिक औषधि :एक नया शोध

आयुर्वेद के मनीषी अश्वगंधा का प्रयोग मष्तिष्क एवं शरीर को ऊर्जा प्रदान करनेवाली वनस्पति के रूप में सदियों से जानते रहे हैं अब यही तथ्य जापान के यूनिवरसिटी आफ तोसुकाबा के भारतीय मूल के वैज्ञानिक डॉ महेश कौशिक का शोध इन्हीं बातों की पुष्टि कर रहा है Iइस शोध के अनुसार अश्वगंधा की पत्तियों के काढ़े में ट्राईएथीलीन ग्लाइकोल पाया जाता है जो नान रेपिड आई मूवमेंट (NREM) को बढ़ा देता है जबकि रेपिड आई मूवमेंट (REM)पर इसका असर कम देखा गया है।अश्वगंधा में पाये जानेवाले ट्राईईथेलीन ग्लाइकोल (TEG) द्वारा आयी नींद सामान्य नींद के जैसी ही होती है।बाजार में व्यवसायिक रुप से उपलब्ध ट्राईएथीलीन ग्लाइकोल नान रेपिड आई मूवमेंट को बढ़ाता है।यह बात शोधकर्ताओं ने भी सिद्ध कर दी है कि ट्राईएथेलीन ग्लाइकोल अश्वगंधा में मिलनेवाले तत्व है जो आपको एक अच्छी नींद लेने में मददगार सिद्ध होता है।यह शोध इनसोमनीया से जूझ रहे सैकड़ों मरीजों के लिए ट्रेंक्वालाइजर्स या अन्य सेडेटिव मेडिसिन्स का एक प्राकृतिक विकल्प साबित होगा।ध्यान रहे कि यह गुण अश्वगंधा के एल्कोहलिक एक्सट्रेक्ट में नही पाये गए हैं इनमे पायजानेवाला वीथनोलाइड्स नींद पर कोई प्रभाव नही दर्शाता है।

(  आईये जानें क्या है शिरोधारा   )शिर पर किसी भी प्रकार की औषधियुक्त काढ़े,घी,तैल इत्यादि को विशेष प्रकार से गिराना शिरोध...
10/07/2017

( आईये जानें क्या है शिरोधारा )

शिर पर किसी भी प्रकार की औषधियुक्त काढ़े,घी,तैल इत्यादि को विशेष प्रकार से गिराना शिरोधारा कहलाता है इसे शिरः सेक भी कहते हैं।
चरक एवं सुश्रुत संहिता में विभिन्न रोगों में शिरः सेक करना निर्देशित किया है।
लेकिन मूल रूप से विधि का विशिष्ट वर्णन *धारा कल्प* नामक ग्रंथ में मिलता है।
कैसे करें शिरोधारा
शिरोधारा करने के लिये एक विशिष्ट प्रकार के पात्र जिसे धारा पात्र कहते हैं को लेना आवश्यक है।
यह धारा पात्र चौड़े मुहं वाला 5 से 6 इंच गहराई लिये हुए होना चाहिये जिसमे लगभग 2 लीटर तक द्रव भरा जा सके ।यह किसी काठ से बना पात्र या धातु से बना पात्र हो सकता है।धारा कल्प में सोने,लोहे और मिट्टी को मिलाकर पात्र बनाये जाने का निर्देश है।इसके तलहटी पर कनिष्टिका अंगुली के प्रमाण का एक छिद्र बना दें जिसमे तेल को बराबर मात्रा में गिराने के उद्देश्य से एक वर्ति लगा दें।
अब जिस रोगी की शिरोधारा करनी हो उसे धारा टेबल या द्रोणी में लिटाये जिसमे उसका सिर उस ऒर हो जहाँ विशेष रूप से एक काष्ठ की पट्टी लगाई गयी हो जिसके ऊपर तकिया रखकर शिर को हल्का ऊपर (elevate) कर रखा जा सके जिससे गिरती हुई धारा का द्रव नीचे इकट्ठा हो और पुनः उपयोग में लाया जा सके।
अब शिरोधारा किये जानेवाले रोगी का सर्वांग अभ्यंग करें , रोगी के सिर के ठीक ऊपर धारा पात्र को एडजस्ट कर दें,रोगी की आँखों के ऊपर कॉटन का पैड रख दें ताकि तेल या द्रव आँखों में प्रविष्ट न होंने पाये।
अब धारापात्र में उपयुक्त द्रव को भर दें,
इस विधि के लिये दो पंचकर्म सहायक आवश्यक होने चाहिये।एक सहायक रोगीके शिर की ऒर ठीक बीच में खड़ा हो जो धारा पात्र को हाथ से पकड़ uniformly oscillate करे जिससे वर्ति से होकर धारा शिर के बीच से दोनों ओर बराबर गिरती रहे तथा नीचे बने छिद्र के माध्यम से पुनः पात्र में इकट्ठी होती रहे।
इस नीचे इकट्ठे हुये तेल को एक दूसरा सहायक पुनः धारपात्र में डालता रहे।
कौन से तेल का इस्तेमाल किया जाना चाहिये
वात दोष की अवस्था में:तिल तैल
पित्त दोष की अवस्था में:घृत
कफ दोष की अवस्था में:तिल तैल
वात एवं रक्त संसृस्ट /वात पित्त रक्त संसृस्ट होने पर तेल और घी समान मात्रा में एवं केवल कफ संसृस्ट होने पर तेल और आधा भाग घी मिला धारा करना चाहिये।
-सन्दर्भ:धारा कल्प
धारा पात्र में स्थित वर्ति से कितनी ऊंचाई से धारा गिराई जानी चाहिये
-यह चार अंगुल की ऊंचाई से गिराई जानी चाहिये
-सन्दर्भ:धारा कल्प
शिरोधारा का योग्य समय
प्रातः काल है मध्याह्न एवं रात्रि में शिरोधारा नही करनी चाहिये।
अत्यधिक मंद/अत्यधिक तीव्र/अत्यधिक उष्ण/अत्यधिक शीतल धारा गिराने से भी रोग वृद्धि हो सकती है।
शिरोधारा विधि में भी परिहार काल पीड़िछिल धारा के अनुसार ही होना चाहिये।
आजकल आधुनिक शिरोधारा यंत्र उपलब्ध हैं लेकिन पारंपरिक विधि को ही बेहतर माना गया है।
शिरोधारा हेतु वात शामक द्रव्यों का क्वाथ,दुग्ध,घी,तेल,कांजी,तक्र आदि लिया जा सकता है।

*    पंचकर्म     *रोगों की उत्पत्ति की मुख्य वजह पर यदि गौर किया जाय तो आचार्य चरक ने बड़ा ही अच्छा सन्दर्भ प्रस्तुत किया...
08/07/2017

* पंचकर्म *
रोगों की उत्पत्ति की मुख्य वजह पर यदि गौर किया जाय तो आचार्य चरक ने बड़ा ही अच्छा सन्दर्भ प्रस्तुत किया है:

सर्व शरीरचरास्तु वात पित्त श्लेष्मणा सर्वस्मिञ्छ शरीरे कुपिताकुपिता:शुभाशुभानि कुर्वन्ति-प्रकृतिभूता:शुभान्युपचयबलवर्ण प्रसादानि, अशुभानि पुनर्विकृतिमापन्ना विकारसंज्ञकानि*
-चरक संहिता:20/9

सम्पूर्ण शरीर में गमन करने वाला वात-पित्त -कफ सम्पूर्ण शरीर में कुपित और अकुपित होकर शुभ और अशुभ कार्यों को करते हैं।यदि ये स्वयं के स्वाभाविक अवस्था में रहते हैं तो शरीर में उपचय यानि मेटाबोलिक एक्टिविटीज को करते हैं जिनसे बल वर्ण एवं प्रसन्नता प्राप्त होती है और जब ये विकृत अवस्था में होते है तो रोगस्वरूप अशुभ कार्यों को करते हैं।
अर्थात स्वस्थ रहने के लिये तीनों दोषों की स्वाभाविक अवस्था परमावश्यक है।
पंचकर्म चिकित्सा करने से पूर्व चिकित्सक को इस तथ्य से भलीभांति परिचित होना आवश्यक है।

पुनः आचार्य चरक अनुसार:-
संशोधन संशमनं निदानस्य च वर्जनम्! एतावद् भिषजा कार्ये रोगे रोगे यथा विधि! !
चरक विमान स्थान 7/30
अर्थात संशोधन संशमन एवं निदानों का परित्याग ही प्रमुख उपक्रम हैं।
संशोधन प्रकुपित दोषों को शरीर से बाहर निकाल देना।
सामन्यतया पंचकर्म की समस्त विधियां शोधन का ही कार्य करती है अतः शोधन के अंतर्गत ही पंचकर्म चिकित्सा का भी समावेश किया गया है।
लेकिन विस्तार रूप से देखा जाय तो पंचकर्म एक पूर्ण चिकित्सा है जिसमे उरूस्तम्भ को छोड़कर सभी रोगों की चिकित्सा की जा सकती है।
यानि पंचकर्म चिकित्सा से महज शरीर के शोधन का कार्य ही नही होता अपितु शमन-पाचन एवं वृहण का कार्य भी होता है।
शोधन चिकित्सा का मूल (Root ) आचार्य वाग्भट्ट द्वारा वर्णित द्विधोपक्रम में है-
उपक्रमस्य द्वितवाधि द्विधोपक्रमः मतः!
एक संतरपनस्तत्र द्वितीयश्चाप तर्पण:!!
यानि उपक्रम भेद से चिकित्सा के दो प्रकार होते हैं।
संतर्पण चिकित्सा
अपतर्पण चिकित्सा

अधिकाँश चिकित्सकों से ये पूछा जाता है कि पंचकर्म चिकित्सा का मूल स्रोत क्या है? तो चिकित्सक यह उत्तर देते हैं कि पंचकर्म चिकित्सा का मूल स्रोत शोधन चिकित्सा है जबकि शोधन मूल रूप से लंघन के दो भेदों में (शोधन एवं शमन) में से एक है और लंघन आचार्य चरक द्वारा बताये गए 6 उपक्रमों में से एक है ।

लंघन वृहणं काले रुक्षणम् स्नेहनं तथा!
स्वेदनं स्तम्भनं चैव जानीत यः स वै भिषक्*!!
-चरक सूत्र स्थान 22/4
अर्थात लंघन,वृहण ,रुक्षण ,स्नेहनं,स्वेदन एवं स्तंभन ‘षड् -विधोपक्रम’ को ठीक ढंग से समझना चिकित्सक के लिए आवश्यक है।
और चिकित्सा का विस्तृत स्वरुप होते हुए भी मूल रूप से सारी चिकित्सा इन्ही 6 उपक्रमों में समाविष्ट हो जाती है ।

पंचकर्म चिकित्सा को हम सामान्य रूप से शोधन चिकित्सा कह सकते हैं लेकिन इसका मूल स्रोत आचार्य चरक द्वारा वर्णित *षड् -विधोपक्रम’ में है।

पंचकर्म चिकित्सा के सन्दर्भ:-
-तान्युपस्थित दोषाणाम् स्नेहस्वेदोपपादानैः!
पंचकर्माणि कुर्वीत मात्राकालौ विचारयन्।
-चरक सूत्र स्थान 2/15
अर्थ:दोषों के उतक्लिष्ट होने पर स्नेहनं एवं स्वेदन का प्रयोग कराकर मात्रा और काल को ध्यान में रखते हुए पंचकर्म कराना चाहिए।
-का कल्पना पंचसुकर्म सुक्ता,क्रमश्च कः किं च कृताकृतेषु।
-चरक सिद्धि स्थान 1/3
-इति पंचविध विस्तरेण निदर्शितम्।।
-चरक सिद्धि स्थान 2/24

आचार्य चरक ने सिद्धि स्थान में अग्निवेश द्वारा गुरु आचार्य पुनर्वसु से पूछे गए 12 प्रश्नों में से पहला प्रश्न इस रूप में किया है कि….
पाँचों कर्मों की कल्पना कैसे की जा सकती है?
आगे सिद्धि स्थान अध्याय 2 में …इस प्रकार पंचकर्म का विस्तार से वर्णन इस अध्याय में किया गया उद्धृत किया है।
पुनः चरक सिद्धि स्थान के ही 12 वें अध्याय के 33 वें सूत्र में सिद्धि स्थान की निरुक्ति को स्पष्ट करते हुए कहा है…
कर्मणां वमनदीनाम्सम्यक्करणपदाम्!
यत्रोक्त साधनं स्थाने सिद्धिस्थानं तदुच्यते!!
अर्थ:वमन ,विरेचन आदि कर्मों का समुचित रूप से न करने पर उत्पन्न हुए रोगों का वर्णन और उसकी चिकित्सा का समुचित निर्देश करने के कारण ही इस सिद्धि स्थान नाम दिया गया है।

चरकोक्त उपरोक्त सभी सन्दर्भ इस बात को स्पष्ट करते हैं कि पंचकर्म चिकित्सा में वमन विरेचन अनुवासन वस्ति,निरुह वस्ति एवं नस्य कर्म आते हैं!

*   अक्षि तर्पण    *नेत्र यानि आँखें हमारी सुंदरता के साथ प्रकृति प्रदत्त ज्ञानेंद्रिय भी है जिसका स्वस्थ रहना नितांत आव...
08/07/2017

* अक्षि तर्पण *
नेत्र यानि आँखें हमारी सुंदरता के साथ प्रकृति प्रदत्त ज्ञानेंद्रिय भी है जिसका स्वस्थ रहना नितांत आवश्यक है|आज हम आपको नेत्र के स्वास्थ्य सहित रोगों से रक्षण करने वाली विधि जिसे अक्षितर्पण के नाम से जाना जाता है कि जानकारी देने जा रहे हैं।
यदि आप निम्न नेत्र की परेशानियों से जूझ रहे हों जैसे:-
‪आँखों‬ के सामने अँधेरा छाना (Blurring of vision)
टेढ़ी‬ आँख (Obliquation)
‪अभिष्यंद‬ (Conjunctivitis)
‪पलकें‬ ठीक से न खुलना (Ptosis)
‪वात‬ पर्याय (Inflammation of the eyes)
‪‎दृष्टि‬ दोष(Myopia or Hypermetropia)
‪अर्जुन‬ (Subconjuctival hemorrhage/Mole/Melanoma)
‪कृच्छउन्मीलन‬(Belepherospasm)
‪अधिमंथ‬ (Glaucoma) आदि
तो इन सभी स्थितियों में अक्षितर्पण आपके लिये श्रेष्ठतम विकल्प है ।
जानें कैसे करें अक्षितर्पण:-
नेत्र तर्पण की प्रक्रिया से पूर्व आप नेत्र रोगी का शोधन (वमन,विरेचन,नस्य) अवश्य करें।
इसके बाद रोगी को द्रोणी या टेबल जो भी उपलब्ध हो उसपर पीठ के बल लिटा दें।
अब जौ और उड़द के पीसे हुये पाउडर को गूंथ कर उसकी आँखों के चारों ओर एक मेड़ या पाली (Covering wall) तैयार कर लें।इसकी ऊंचाई लगभग 2 अंगुल होनी चाहिये।बस ध्यान रहे कि यह टूटे नही ।अब इसमें औषध सिद्ध घृत को सुखोष्ण कर रोगी को आँखें बंद करने का निर्देश देते हुये भर दें।
अब रोगी को बार-बार आँखें खोलने और बंद करने को कहें ।
अब रोग अनुसार निश्चित समयोपरांत अपांग ( Canthus) से छेद कर इस औषधि सिद्धित घृत को बाहर निकाल दें।

कब तक करायें अक्षितर्पण:-
‪‎वर्त्म‬ Disease associated with Eye lids में -लगभग 30 से 32 सेकेण्ड
‪नेत्र‬ संधि(Junction of the anatomical part of eyes) के रोगों में-लगभग डेढ़ मिनट
दृष्टि रोगों में (Visionary impairment)-लगभग साढ़े 4 मिनट
अधिमंथ(Glaucoma) में-लगभग 5 मिनट 4 सेकेण्ड
‪वातज‬ व्याधियों में-लगभग 30 सेकेण्ड
‪पित्तज‬ व्याधियों में-लगभग 3 मिनट
‪‎कफज‬ एवं स्वस्थ व्यक्ति में-लगभग 3 मिनट तक नेत्र तर्पण कराना चाहिये।
वातिक रोगियों में प्रतिदिन नेत्र तर्पण कराना चाहिये।
पैत्तिक रोगियों में एक दिन छोड़कर नेत्र तर्पण कराना चाहिये।
कफज एवं स्वस्थ व्यक्तियों में दो-दो दिन छोड़कर नेत्र तर्पण कराना चाहिये।
कब समझें कि नेत्रतर्पण ठीक हुआ है :-
जब आँखों में प्रकाश को सहने की क्षमता तथा हल्कापन प्रतीत हो रहा हो तो समझें की तर्पण ठीक हुआ है और इसके ठीक विपरीत लक्षण उत्पन्न होने पर इसे ठीक न होंने का indication मानें।
तर्पण में प्रयुक्त औषधियां:-
‪त्रिफला‬ घृत
कब नेत्र तर्पण न करायें:_
अत्यधिक गर्मी,अत्यधिक ठण्ड,रोगी तनाव में हो,बादल लगे हों तो अक्षि तर्पण न करायें ।
अक्षि तर्पण के उपरान्त रोगी के चेहरे को साफ़ कर गुनगुने जल से कुल्ला करवा कर हल्का भोजन देना चाहिये।

04/03/2017

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Dehra Dun
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