25/06/2023
हलाल रिश्ते के इंतेज़ार में बैठी बूढ़ी होती एक लड़की की फरियाद....
मेरी उमर इस वक़्त 35 साल हैं मेरी अभी तक शादी नहीं हुयी क्योंकि हमारे खानदान की रसम हैं वह छोटे खानदान में रिश्ता करना नींच हरकत समझते हैं.
खानदान के बड़े बूढ़े जब आपस में बैठते हैं तो बड़े फ़ख़्रिया अंदाज़ से कहतें हैं कि सात पुश्तों से अब तक हम नें कभी छोटे खानदानों में रिश्ता नहीं किया.
उम्र के पैंतीसवें साल में पहुंची हूं अब तक मेरे लिए ऊंचे ख़ानदान से कोई रिश्ता नहीं आया जब कि छोटे गरीब खानदानो से कई एक रिश्ते आये लेकिन मजाल हैं कि मेरे वालिदैन या भाइयों नें किसी से हाँ भी किया हो.
मेरे दिली जज़्बात कभी उस हद तक चले जाते हैं कि मैं रातों में चीख़ - चीख़ कर आसमान सर पर उठाऊँ और दहाड़े मार मार कर वालिदैन से कहूं कि मेरा गुजारा नहीं हो रहा ख़ुदारा मेरी शादी करा दें, अगरचा किसी काले कलूटे चोर से ही सही लेकिन हया और शर्म की वज़ह से चुप हो जाती हूं.
मैं अंदर से घुट -घुट कर ज़िंदा नआश (लाश) बन गयीं हूं. शादी ब्याह वो तक़रीबात में जब अपनी हमजोलियों को उन के शौहरों के साथ हँसते मुस्कुराते देखती हूं तो दिल से दर्दों की टीसें उठती हैं....... या ख़ुदा ऐसे पढ़ें लिखें ज़िद्दी माँ बाप भाई किसी को न देंना जो अपनी खानदान के रीत वो रस्म को निभाकर अपने बच्चों की ज़िन्दगियाँ बर्बाद कर दें.
कभी ख़्याल आता हैं कि घर से भाग कर किसी के साथ मुंह काला कर के वापस आकर वालिदैन के सामने ख़ड़ी हो जाऊँ कि लो अब अच्छी तरह निभाओ अपने सात पुश्तों की रस्म.
कभी ख़्याल आता हैं कि घर से भाग जाऊँ और
किसी से कहूं मुझे बीवी बना लो लेकिन फ़िर ख़्याल आता हैं कि अगर किसी बुरे इंसान के हत्थे चढ़ गयीं तो मेरा क्या बनेगा.
मेरे दर्द को मस्जिद का मौलवी साहब भी जुमे के खुतबे में बयान नहीं करता.....
ऐ मौलवी साहब ज़रा आप भी सुन लें... रात को जब सब अपने अपने हमसफ़र के साथ एक कमरे में सो रहें होते हैं, भाई अपने अपने कमरे में भाभियों के साथ आराम कर रहें होते हैं, तब मुझ पर क्या गुज़रती तब सिर्फ़ मैं अकेली ही जानती हूं.
ऐ हाकिम-ए-वक़्त! तू भी सुन ले फ़ारूक़-ए-आज़म के ज़माने में रात के वक़्त जब एक औरत नें दर्द के साथ ये अशआर पढ़ें, जिन का मफ़हूम ये था.....
(अगर ख़ुदा का डर और क़यामत में हिसाब देने का डर न होता तो आज रात इस चारपाई के कोनो में हलचल होती) मतलब मैं किसी के साथ कुछ कर रही होती. फ़ारूक़-ए-आज़म नें जब ये अशआर सुने तो तड़प उठे और हर शौहर के नाम ये हुक्म नामा ज़ारी किया कि कोई भी शौहर अपनी बीवी से तीन महीने से ज्यादा दूर न रहें.
ऐ हाकिम-ए-वक़्त.
ऐ मेरे अब्बा हुज़ूर.
ऐ मेरे मुल्क के मुफ़्ती-ए-आज़म.
ऐ मेरे मोहल्ले के मस्जिद के ईमाम साहब.
ऐ मेरे शहर के जिम्मेदार साहब.
मैं किस के हाथों अपना लहू तलाश करूँ.
कौन मेरे दर्द को समझेगा...?
मेरी 35 साल की उमर गुज़र गयीं, लेकिन मेरे अब्बा की अब भी वही रट हैं कि मैं अपने बच्ची की शादी खानदान से बाहर हरगिज़ नहीं करूँगा.
ऐ ख़ुदा तू गवाह रहना बे शक तूने मेरे लिए बहुत से अच्छे रिश्ते भेजें लेकिन मेरे घर वालों नें वह रिश्ते वह रिश्ते ख़ुद ही ठुकरा दिए अब कुछ साल बाद मेरा अब्बा तस्बीह पकड़ कर यही कहेगा कि बच्ची का नसीब ही ऐसा था.
ऐ लोगों मुझे बताओ कोई शख्स तैयार खाना न खाये और बोले तक़दीर में ऐसा था तो वह पागल हैं या अक़्लमंद.
अल्लाह पाक़ निवाले मुंह में डलवाये क्या.....??
यूँ इस मिसाल को सामने रख़ कर सोचें कि मेरे और मेरे जैसी कई औरों के लिए अल्लाह नें अच्छे रिश्ते भेजें लेकिन वालिदैन नें या बाज़ नें ख़ुद ही ठुकरा दिए, अब कहतें फ़िरते हैं नसीब ही में कुछ ऐसा था.
ये कोई मज़ाक़ वाली पोस्ट नहीं हैं... लाज़िमी सोचें एक - एक लफ़्ज़ हक़ीक़त पर मबनी हैं..इसलिए सख़्त अल्फाज़ जो इस्तेमाल किया हैं उसके लिए माज़रत चाहता हूँ
मो. हारुन आज़ाद क़ुरैशी राष्ट्रीय सचिव AIQF
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अल्लाह हम सब को सही वक़्त पर निकाह करने के अमल की तौफीक अता फ़रमाए आमीन देखते हैं कितने लोग आमीन बोलतें हैं इस पोस्ट पर