स्वस्थ भारत अभियान

स्वस्थ भारत अभियान Swasth Bharat Abhiyan is an initiative of स्वस्थ भारत ट्रस्ट. This campaign started in June 2012. Under this campaign we cunducted स्वस्थ भारत यात्रा 1/2

This National health campaign is brain child of health activist and journalist Ashutosh Kumar Singh. स्वस्थ्य भारत अभियान व मीडिया

आशुतोष कुमार सिंह



हिन्दुस्तान के नीति निर्धारण में मीडिया की भूमिका बढ़ती जा रही है। यहां पर मीडिया में बने रहने के लिए नीतियां बनती हैं और बदलती भी हैं। मीडिया को अपनी बात बता कर सरकार अपने कर्तव्यों की इतिश्री समझ लेती है। मीडिया भी ‘प्रेस रिलीज रिपोर्टिंग’ कर इस खुशफहमी में है कि जन की सबसे बड़ी सेवक वही है। ‘मीडिया-सरकार’ अथवा ‘सरकारी-मीडिया’ के इस खेल के बीच में कभी-कभी कुछ आंदोलन उग आते हैं। बिना खाद-पानी दिए उग आए इन आंदोलनों को मीडिया कई बार लपक कर आसमान में पहुंचा देती है तो कई बार पाताल लोक की सैर भी कराती है। कुछ आंदोलनों को चलाने के लिए मीडिया को मैनेज करना पड़ता है तो कुछ आंदोलनों को खुद मीडिया मैनेज करती है। मैनेज-मैनेज के इस खेल में कई बार मीडिया एक उत्तम गुणयुक्त मैनेजर की भूमिका निभा रही होती है।

मीडिया और आंदोलन, अभियान अथवा कैंपेन के संबंध को नजदीक से देखने-समझने का सौभाग्य मुझे भी प्राप्त हुआ है। इस अवसर को प्राप्त हुए अभी ज्यादा दिन नहीं हुए हैं। मुश्किल से दो वर्ष भी नहीं गुजरे हैं। ऐसे में मेरी समझ एक बाल-गोपाल की तरह है। फिर भी जो समझ बन पड़ी है उसे साझा करने में कोई हर्ज भी तो नहीं है!

सरकार की सबसे बड़ी दुश्मन ‘फेसबुक’ के माध्यम से 22 जून,2012 से दवाइयों में व्याप्त भ्रष्टाचार के खिलाफ हमने एक कैंपेन शुरू किया है जिसका नाम दिया गया है ‘कंट्रोल मेडिसिन मैक्सिमम रिटेल प्राइस’। दवाइयों में मची लूट के बारे में शुरू के एक महीनों तक लगातार लिखने-पढ़ने, सुनने-सुनाने के बाद देश की मुख्यधारा की मीडिया की नज़र इस मसले पर पड़ी थी। इस अभियान को जब हमलोगों ने शुरू किया था तब ऐसा लगा था कि पता नहीं कब तक इस जटिल मसले को समझाने में हम सफल हो पायेंगे। लेकिन यहां पर हम सौभाग्यशाली रहे कि मीडिया मित्रों ने कैंपेन को आगे बढ़ाने में मदद की। नई मीडिया तो शुरू के दिनों से ही साथ थी लेकिन कथित रूप से मेन स्ट्रीम मीडिया में इस मसले को आने में तकरीबन महीने लग गए। रायपुर से प्रकाशित सांध्य दैनिक ‘जनदखल’ ने सर्वप्रथम इस मसले पर जोरदार दख़ल दिया। तब उस अखबार के संपादक देशपाल सिंह पंवार थे और उन्होंने ही कहा कि आशुतोष, यह बहुत ही सेंसेटिव मसला है, इसके बारे में जितनी जानकारी है उसे स्टोरी फॉर्म में विकसित करो, मैं प्रकाशित करूंगा। एक बार बस शुरू होने की देरी थी। उसके बाद तो प्रत्येक दिन देश के किसी न किसी कोने से इस तरह की खबरे आने लगी। इस मुहिम में नई मीडिया ने बहुत जबरदस्त भूमिका अदा की है। ‘बियोंड हेडलाइंस’ ने इस मुहिम से जुड़े सभी तथ्यों को जनता के सामने लाने में अहम योगदान दिया है। साथ ही साथ प्रवक्ता डॉट कॉम, जनोक्ति डॉट कॉम, इनसाइड स्टोरी डॉट कॉम, आर्यावर्त लाइव, लखनऊ सत्ता डॉट कॉम, हिन्दी मीडिया डॉट इन एवं भडास फॉर मीडिया ने इस मसले को प्रमुखता से उठाया है। नई मीडिया के सहयोग से यह मसला राष्ट्रीय हो गया और देश के बड़े अखबारों में शुमार होने वाला दैनिक हिन्दुस्तान ने ‘10 की दवा 100 में’ शीर्षक से दिल्ली सहित लगभग अपने सभी संस्करणों में फ्रंट पेज पर खबर प्रकाशित किया। यहां ध्यान देने वाली बात यह रही की एक बार इसी खबर (जिसमें कॉरपोरेट मंत्रालय ने दवा कंपनियों द्वारा 1136 प्रतिशत तक मुनाफा कमाने की बात स्वीकारी थी) को अंदर के पन्नों में दो कॉलम की छोटी सी खबर के रूप में पहले ही प्रकाशित कर चुका था। लेकिन कैंपेन का दबाव कहे अथवा हिन्दुस्तान के संपादक की जनसरोकारिता जो भी हो दैनिक हिन्दुस्तान की एक सराहनीय पहल रही। फेसबुक पर चल रहे कंट्रोल एम.एम.आर.पी कैंपेन पर आई नेक्स्ट, रांची की नज़र पड़ी और 24.07.2012 से उन्होने अपने यहां दवाइयों से संबंधित स्टोरी छापनी शुरू की। आई नेक्स्ट के पत्रकार मित्र मयंक राजपूत ने लगातार 6 दिनों तक दवा व्यवसाय में व्याप्त भ्रष्टाचार पर अपनी कलम चलाई। अंत में उनकी बात झारखंड के हेल्थ मिनिस्टर से हुई और स्टोरी चलानी उन्होंने बंद कर दी। झारखंड के स्वास्थ्य मंत्री से आई नेक्स्ट की क्या बातचीत हुई इसकी जानकारी मुझे नहीं मिल पायी। खैर, इस कैंपेन को आगे बढाने में आई नेक्स्ट, के योगदान को कम नहीं आंका जा सकता है। आई नेक्स्ट के बाद सबसे बेहतरीन काम किया प्रभात खबर ने। 28 अक्टूबर, 2012 को डाक्टर कथा नामक सीरिज शुरू किया और लगातार 12 दिनों तक प्रथम पृष्ठ पर विजय पाठक जी डाक्टरी पेशे से जुड़े तमाम पेचिदगियों को सामने लाते रहे। बीच में दीपावली का त्योहार आने के कारण विजय पाठक जी ने अपनी स्टोरी लिखनी बंद कर दी। उनसे मेरी कई बार बात हुई उन्होंने आश्वासन दिया की आगे भी स्टोरी करनी है। नई दिल्ली से प्रकाशित होने वाली पत्रिका सोपान स्टेप ने इस मुद्दे पर कवर स्टोरी प्रकाशित किया तो डायलॉग इंडिया मासिक पत्रिका ने इस मुद्दे पर लगातार तीन महीनों तक चार-चार पेज दिए। इस बीच नई दवा नीति को लेकर ‘सरकारी प्रेस रिलीज’ देश के सभी अखबारों में प्रमुखता से छपते रहे। बिजनेस स्टैंडर्ड (हिन्दी) ने हिम्मत जुटाते हुए नई दवा नीति-2012 पर अपनी व्यापार गोष्ठी में लोगों के मत आमंत्रित किए तो मुम्बई से प्रकाशित डीएनए न्यूज पेपर के पत्रकार मित्र संदीप पई ने तीन दिनों तक लगातार फार्मा कंपनियों की धांधली पर अपनी कलम चलाई। संदीप पई से मेरी एक बार मुलाकात हुई और वे आगे भी स्टोरी करने को राजी हुए। लेकिन अभी तक स्टोरी लिखने में वे सफल नहीं हो पाए हैं। वहीं नवभारत टाइम्स, मुम्बई के पत्रकार मित्र मनीष झा पिछले दो वर्ष से मुझसे मिलना चाह रहे हैं। लेकिन मिलने का संयोग नही हो पा रहा है। इसी बीच युवा पत्रकार अफरोज आलम साहिल ने इस मसले पर चौथी दुनिया में एक पेज की स्टोरी लिखी व उर्दू अखबार इन्कलाब में भी लगातार कॉलम लिखे। जनसत्ता के संपादक ओम थानवी जी, प्रभात खबर के संपादक हरिवंश जी, कैन्विज टाइम्स के संपादक प्रभात रंजन दीन, जनदखल के संपादक देशपाल सिंह पंवार (अब जनसंदेश से जुड़े हैं), पंकज चतुर्वेदी, शिवानंद द्विवेदी सहर, शशांक द्विवेदी, अनिता गौतम, स्वतंत्र मिश्र सहित कई पत्रकार-मित्रों ने स्वास्थ्य को ध्यान में रखते हुए लेख लिखे।

16 दिसम्बर-2012 को ‘हाऊ टू कंट्रोल मेडिसिन मैक्सिमम रिटेल प्राइस’ परिचर्चा हेतु जब दिल्ली गया तो वहां पर एन.डी.टी.वी से जुड़े रवीश कुमार से मुलाकात हुई। उन्होंने तकरीबन आधे घंटे तक का समय दिया। इस मसले को लेकर गंभीर भी दिखे लेकिन साथ ही साथ यह कहने से नहीं चूके कि इस मसले पर दवा कंपनी की ओर से कोई बोलने के लिए तैयार नहीं होगा!

इस पूरे कैंपेन के दौरान एक और घटना चौंकाने वाली घटी। 24 सितम्बर, 2012 को मैंने फेसबुक पर एक पोस्ट डाला, ‘देश की जानी-मानी पत्रिका इंडिया टुडे ने अपने 19 सितम्बर, 2012 वाले अंक में पृष्ट 23 पर अलकेम नामक एक दवा कंपनी का फूल पेज विज्ञापन प्रकाशित किया है। जब पूरे देश में दवा कंपनियों की लूट की पोल खुल रही है और सरकार पर दवा कंपनियों द्वारा मनमाने तरीके से एम.आर.पी तय करने को लेकर कार्रवाई करने का दबाव बन रहा हो...ऐसे में देश की इस प्रतिष्ठित पत्रिका में इस तरह के विज्ञापन कई तरह की शंकाएं उत्पन्न कर रही हैं...कहीं मीडिया भी दवा कंपनियों के चंगुल में न फंस जाए...इस का डर है मुझे...इंडिया टुडे समूह से देश जानना चाहेगा कि आखिर किस मजबूरी में उसे एक दवा कंपनी का विज्ञापन प्रकाशित करना पड़ा...जबकि दवा कंपनियों की लूट की एक भी खबर इंडिया टुडे ने प्रकाशित करने की जहमत नहीं उठायी...इंडिया टुडे के संपादक जी अपनी बात रखें तो लोगों को बहुत सुकून मिलेगा।’ इस पोस्ट की प्रतिक्रिया में इंडिया टुडे पत्रिका के संपादक सदस्य दिलीप मंडल जी ने मुझे अपनी फेसबुक मित्रमंडली से बाहर कर दिया। दिलीप जी का यह व्यवहार पत्रकारिता की कौन-सी कहानी बयां कर रहा है मेरे लिए कहना मुश्किल है।

उपरोक्त विवरणों में कई ऐसे छोटे-छोटे विवरण छूट गए हैं,जिससे कंट्रोल एम.एम.आर.पी कैंपेन को मजबूती मिली और दूसरी तरफ कमजोर करने की कोशिश भी की गयी।

राष्ट्र के स्वास्थ्य जैसे मसले पर जितनी चर्चा 28 महीनों में हुई है, उतनी चर्चा पिछले साठ सालों में नहीं हुई होगी बावजूद इसके यह चर्चा अभी भी ऊंट के मुंह में जीरा के फोरन के समान ही है। अभी भी मेन स्ट्रीम मीडिया के पास हेल्थ रिपोर्टिंग नामक कोई व्यवस्थित तंत्र विकसित नहीं हो पाया है। किसी भी अखबार के पास शायद ही हेल्थ के नाम पर एक दैनिक पृष्ठ सुरक्षित हो। हेल्थ जैसे मसले पर जिसका सीधा संबंध ‘राइट टू लाइफ’ से है, यदि हमारी मुख्य धारा की मीडिया का ध्यान नहीं है तो हमें नहीं लगता है कि उसे खुद को चौथा स्तम्भ कहने का कोई नैतिक हक बनता है !

राष्ट्र बीमार होता जा रहा है, इतना ही नहीं बीमार बनाया जा रहा है! बीमारियों की ब्रान्डिंग हो रही है। दवा कंपनियों की लूट चरम पर है। डाक्टर मनमाने हो गए हैं। दवा दुकानदार पर किसी का अंकुश नहीं है। मरीज घर-जोरू-जमीन बेचकर जीने की जद्दोजहत में है, ऐसे में हमारी मीडिया के पास इसे छापने के लिए स्पेस नहीं है। मीडिया की नजरों में शायद ये वे लोग हैं जिनके पास मीडिया में स्पेस खरीदने की ताकत नहीं है। जिसकी है, वह छप रहा है, उसकी प्रेस रिलीज देश के लिए फ्रंट पेज की स्टोरी बन रही है। लेकिन न जाने क्यों मुद्दों पर आधारित रिपोर्टिंग करने में हमारी मीडिया पीछे हट जाती है! हद तो यह है कि आज खबर छपवाने के लिए रिपोर्टरों को ढूंढ़ना पड़ता है, शायद पहले के जमाने में (जिसे हमने नहीं देखा, सुना है) खबर तक रिपोर्टर खुद पहुंचते थे।

मीडिया जिसका एक हिस्सा मैं भी हूं, को देखकर दुःखद आश्चर्य होता है! जन की आवाज को सरकार तक पहुंचाने वाली मीडिया सरकारी भोंपू की तरह काम करने लगी है। सरकार बदलते ही उसका सुर भी बदलने लगता है। कई बार तो ऐसा लगता है कि हमारी मीडिया खुद को राष्ट्र से भी ऊपर मान बैठी है। राष्ट्र जिसमें उसका अस्तित्व है को विखंडित करने में भी उसे आनंद की अनुभूति हो रही है।

आंदोलन और मीडिया के संबंध को दो वर्षों का अपरिपक्व बालक जितना समझ पाया है उतनी बात आप तक पहुंचा रहा हूं। जाते-जाते एक अनुभव और सुना देता हूं। मीडिया बेशक भटकाव के दौर में है बावजूद इसके यदि मेरी-आपकी बात कही सुनी जा रही है तो वह भी मीडिया का ही रूप है।



(लेखक स्वस्थ भारत अभियान के राष्ट्रीय समन्वयक हैं)

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