19/09/2025
“हमारी बेहोशी ही दूसरों का कारोबार है”
हम इंसान पैदा होते ही आज़ाद होते हैं, लेकिन धीरे-धीरे समाज हमें ढालता है।
धर्म, परंपरा, रिवाज़, डर और लालच — सब हमें यह सिखाते हैं कि जैसे हो, वैसे मत रहो; जैसे बताए गए हो, वैसे बनो।
और यहीं से शुरू होता है कारोबार।
धर्म हमें कहता है कि पाप-पुण्य का खाता हर समय लिखा जा रहा है। नरक का डर और स्वर्ग का लालच — यही मंदिरों, अनुष्ठानों और दान-पुण्य की उद्योगशाला का ईंधन है।
समाज की मान्यताएँ और रीतिरिवाज़ हमें समझाते हैं कि अगर तुमने ये रस्में नहीं निभाईं तो अपमान होगा, बुरा होगा। चाहे शादी-ब्याह हो, मृत्यु के संस्कार हों या त्योहार — सबमें दिखावा और प्रतिस्पर्धा छुपा है।
सोशल मीडिया रोज़ यह कहता है: “तुम अभी अधूरे हो, तुम्हें और चाहिए।” हमारी असुरक्षा और हीनभावना उनकी सबसे बड़ी कमाई है।
मार्केटिंग हमें रोज़ याद दिलाती है कि खुशी चीज़ों में है। अंदर का खालीपन हम नए सामान से भरते जाते हैं।
और पुनर्जन्म, कर्मफल जैसी मान्यताएँ हमें यह भरोसा दिलाती हैं कि “अभी सह लो, अगले जन्म में फल मिलेगा।” इस बीच हमारी आज की स्वतंत्रता और वर्तमान का आनंद छिन जाता है।
असलियत
भय, परंपरा और मोह — ये सबसे बड़ा धंधा है।
जब तक हम बेहोशी में हैं, दूसरों का कारोबार चलता रहेगा।
👉 धर्म के नाम पर डर,
👉 समाज के नाम पर दिखावा,
👉 मार्केटिंग के नाम पर लालच —
ये सब हमें हमारी ही चेतना से दूर करते हैं।
जागृति ही मुक्ति है
अगर हम सच में देखें कि स्वर्ग-नरक यहीं हैं — हमारी चेतना में, हमारे कर्मों में — तो कोई हमें नियंत्रित नहीं कर सकता।
अगर हम समझें कि रीति-रिवाज़ का उद्देश्य जीवन को सरल बनाना था, पर अब वो बोझ बन चुके हैं, तो हम उन्हें बदलने की ताक़त पा सकते हैं।
अगर हम सजग हो जाएँ कि जीवन की सुंदरता अभी, इसी क्षण है — तो हमें न किसी दिखावे की ज़रूरत होगी, न किसी झूठे वादे की।
निचोड़:
हमारी बेहोशी ही उनकी ताक़त है।
हमारी सजगता ही हमारी आज़ादी। 🌿
❓तो सोचिए…
क्या आप अपनी ज़िंदगी खुद की चेतना से जी रहे हैं, या अब भी समाज, धर्म और बाज़ार की बनाई बेहोशी में बह रहे हैं?