Homoeo Clinic

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27/10/2025

विवेकानंद कहा करते थे, एक सिंहनी गर्भवती थी। वह छलांग लगाती थी एक टीले पर से। छलांग के झटके में उसका बच्चा गर्भ से गिर गया, गर्भपात हो गया।

वह तो छलांग लगा कर चली भी गई,
लेकिन नीचे से भेड़ों का एक
झुंड निकलता था,
वह बच्चा भेड़ों में गिर गया।
वह बच्चा बच गया।
वह भेड़ों में बड़ा हुआ।
वह भेड़ों जैसा ही रिरियाता,
मिमियाता। वह भेड़ों के
बीच ही सरक—सरक कर,
घिसट—घिसट कर चलता।
उसने भेड़—चाल सीख ली।

और कोई उपाय भी न था,
क्योंकि बच्चे तो अनुकरण से सीखते हैं।
जिनको उसने अपने आस—पास देखा,
उन्हीं से उसने अपने जीवन
का अर्थ भी समझा,
यही मैं हूं। और तो और,
आदमी भी कुछ नहीं करता,

वह तो सिंह—शावक था,
वह तो क्या करता?
उसने यही जाना कि मैं भेड़ हूं।
अपने को तो सीधा देखने
का कोई उपाय नहीं था;
दूसरों को देखता था अपने
चारों तरफ वैसी ही उसकी
मान्यता बन गई,
कि मैं भेड़ हूं।
वह भेड़ों जैसा डरता।
और भेड़ें भी उससे राजी हो गईं;
उन्हीं में बड़ा हुआ,
तो भेड़ों ने कभी उसकी
चिंता नहीं ली।
भेड़ें भी उसे भेड़ ही मानतीं।

ऐसे वर्षों बीत गये।
वह सिंह बहुत बड़ा हो गया,
वह भेड़ों से बहुत ऊपर उठ गया।
उसका बड़ा विराट शरीर,
लेकिन फिर भी वह
चलता भेड़ों के झुंड में।
और जरा—सी घबड़ाहट की हालत होती,
तो भेड़ें भागती, वह भी भागता।
उसने कभी जाना ही नहीं कि वह सिंह है।
था तो सिंह, लेकिन भूल गया।
सिंह से ‘न होने’ का तो
कोई उपाय न था,
लेकिन विस्मृति हो गई।

फिर एक दिन ऐसा हुआ कि
एक बूढ़े सिंह ने हमला किया
भेड़ों के उस झुंड पर।
वह बूढ़ा सिंह तो चौंक गया,
वह तो विश्वास ही न कर सका
कि एक जवान सिंह, सुंदर,
बलशाली, भेड़ों के बीच
घसर—पसर भागा जा रहा है,

और भेड़ें उससे घबड़ा नहीं रहीं।
और इस के सिंह को देखकर सब भागे,
बेतहाशा भागे, रोते—चिल्लाते भागे।
इस बूढ़े सिंह को भूख लगी थी,
लेकिन भूख भूल गई।

इसे तो यह चमत्कार समझ
में न आया कि यह हो क्या रहा है?
ऐसा तो कभी न सुना,
न आंखों देखा।
न कानों सुना,
न आंखों देखा;
यह हुआ क्या?

वह भागा।
उसने भेड़ों की तो
फिक्र छोड़ दी,
वह सिंह को पकड़ने भागा।
बामुश्किल पकड़ पाया :
क्योंकि था तो वह भी सिंह;
भागता तो सिंह की चाल से था,
समझा अपने को भेड़ था।
और यह बूढ़ा सिंह था,
वह जवान सिंह था।
बामुश्किल से पकड़ पाया।

जब पकड़ लिया,
तो वह रिरियाने लगा,
मिमियाने लगा।
सिंह ने कहा, अबे चुप!
एक सीमा होती है
किसी बात की।
यह तू कर क्या रहा है?
यह तू धोखा किसको दे रहा है?

वह तो घिसट
कर भागने लगा।
वह तो कहने लगा,
क्षमा करो महाराज,
मुझे जाने दो!

लेकिन वह बूढ़ा सिंह माना नहीं,
उसे घसीट कर ले गया नदी के किनारे।
नदी के शांत जल में, उसने
कहा जरा झांक कर देख।

दोनों ने झांका। उस युवा
सिंह ने देखा कि मेरा चेहरा
और इस बूढ़े सिंह का चेहरा
तो बिलकुल एक जैसा है।

बस एक क्षण में क्रांति घट गई।
‘कोई औषधि नहीं!’
हुंकार निकाल गया
गर्जना निकल गई,

पहाड़ कंप गये आसपास के!
कुछ कहने की जरूरत न रही।
कुछ उसे बूढ़े सिंह ने कहा भी
नहीं—सदगुरु रहा होगा!
दिखा दिया, दर्शन करा दिया।
जैसे ही पानी में झलक देखी
हम तो दोनों एक जैसे हैं.

बात भूल गई। वह जो वर्षों
तक भेड़ की धारणा थी,
वह एक क्षण में टूट गई।
उदघोषणा करनी न पड़ी,
उदघोषणा हो गई।
हुंकार निकल गया।
क्रांति घट गई।...

सदगुरु के सत्संग का इतना
ही अर्थ होता है कि वह तुम्हें
घसीट कर वहां ले जाये,

जहा तुम उसके चेहरे और अपने
चेहरे को मिला कर देख पाओ,
जहां तुम उसके भीतर के अंतरतम को,
अपने अंतरतम के साथ मिला कर देख पाओ।
गर्जना हो जाती है,
एक क्षण में हो जाती है।

सत्संग का अर्थ ही यही है कि
किसी ऐसे व्यक्ति के
पास बैठना, उठना,

जिसे अपने स्वरूप का बोध हो गया है;
शायद उसके पास बैठते—बैठते
संक्रामक हो जाये बात;

शायद उसकी मौजूदगी में उसकी आंखों में,
उसके इशारों में तुम्हारे
भीतर सोया हुआ सिंह जाग जाये।

ओशो
अष्टावक्र महागीता
*****DSB*****

15/10/2025

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*********सुविचार*************कठिनाईयों के बाबजूद ईमानदार रहना,**धन के बाबजूद सरल रहना,**क्रोध के बाबजूद शांत रहना,**अधिक...
04/10/2025

*********सुविचार************

*कठिनाईयों के बाबजूद ईमानदार रहना,*
*धन के बाबजूद सरल रहना,*
*क्रोध के बाबजूद शांत रहना,*
*अधिकार के बाबजूद विनम्र रहना।*
*इसे ही जीवन "प्रबंधन" कहते हैं..*

🌹*जय महाकाल*🌹
Dr.Dinesh Chawla

02/10/2025

सत्य से किसी ने सवाल पूछा कि तुम चुप क्यों हो?
सत्य ने जवाब दिया, यहां मुझे सुनता कौन है।।

नास्तिक वे नहीं, जो ईश्वर को नहीं मानते हैं, बल्कि वे हैं, जो उसे बिना जाने, मान लेते हैं।।
जो उसे जान लेते है, उसे मानने या न मानने की जरूरत ही नहीं पड़ती है।।।।

असत्य पर सत्य की विजय का प्रतीक दशहरा पर्व की सभी फेसबुक मित्रों को हार्दिक बधाई एवं ढेर सारी शुभकामनाए 🙏

29/09/2025

जीवन-आनन्द की कुंजी है - परमार्थ और परोपकार। अन्य के प्रति उदार-संवेदनशील रहें। अतः उदारता ही सर्वथा श्रेयस्कर एवं कल्याणकारक है। क्रोध, लोभ और मोह जैसे अवगुण बिना किसी पाठशाला, शिक्षा संस्थान, महाविद्यालय में गए स्वत: ही आ जाते हैं, लेकिन धर्म और अध्यात्म की शिक्षा के लिए सत्संग रूपी ज्ञान केंद्र में जाना आवश्यक होता है। मनुष्य हर पल किसी न किसी से प्रेरणा लेता है, लेकिन हम उन संकेतों को समझ नहीं पाते। सत्संग और कथाएं सजगता के संकेत देते हैं।मनुष्य जीवन की धन्यता परोपकार और परमार्थ के सद्कर्मों में होती है। परोपकार और परमार्थ के व्यवहारिक अर्थ यही है कि हम अन्यों के अधिकारों के प्रति सचेत रहकर उनके स्वाभिमान-सम्मान और स्वायत्तता की रक्षा करें।

विश्व के सभी धर्मों और विद्वानों ने एक स्वर में परोपकार की महत्ता स्वीकार की है। “परोपकार के लिए हम जितना अपने को जुटाते हैं, उतना ही हमारा हृदय भरता जाता है।” परोपकार-पुण्य से मनुष्य की चेतना न केवल विकसित होती है बल्कि ऊर्ध्वमुखी भी होती है। उसका हृदय विकसित, विशाल और महान हो जाता है। उसे अपने में एक पूर्णता का अनुभव होने लगता है। किसी का संकट घटा देने, आवश्यकता के समय सहायता करने, रोगी के सेवा-सुश्रूषा करने अथवा क्षुधित को भोजन करा देने से जो उस व्यक्ति की आत्मा को शाँति और सन्तोष प्राप्त होता है, उसी का प्रतिफल परोपकारी के अन्तःकरण को प्रभावित कर उसकी आत्मा को भी प्रभावित कर असीम तृप्ति का समावेश कर सकता है।

संसार की सभी साधनाओं का फल दूरगत होता है। किन्तु परोपकार की साधना ही ऐसी साधना है - सुख-शाँति और सन्तोष के रूप में, जिसका फल तत्काल ही मिल जाता है। परोपकार से उत्पन्न सन्तोष की तुलना स्वार्थजन्य सुख से कदापि नहीं की जा सकती। जहाँ पहला सुख मिथ्या और प्रपंचनापूर्ण होता है; वहाँ दूसरा सत्य और कल्याणकारी होता है। जीवन में सत्य और उच्चकोटि के सुख को पाने के लिए परोपकार धर्म का पालन करना निताँत आवश्यक है। मनुष्य मात्र अपनी ही सुख-सुविधा और वृद्धि-समृद्धि की ही बात न सोचता रहे, वरन् उसे दूसरों को भी सुखी तथा संकटरहित बनाने का प्रयत्न करते रहना चाहिये। ऐसा किये बिना न तो लोक में सुख-शाँति मिलती है और न ही पारलौकिक कल्याण का निश्चय होता है। परोपकार को परम धर्म ही नहीं, अपितु परम पुण्य भी समझना चाहिए।

परोपकार एवं परमार्थ से न केवल व्यक्ति का ही मंगल होता है, बल्कि उससे समाज, राष्ट्र और सम्पूर्ण विश्व का भी कल्याण होता है। सहायता, सौहार्द एवं सहानुभूति के आधार पर जिन व्यक्तियों का कष्ट दूर किया जायेगा, संकट में जिनका हाथ बटाया जायेगा, उनमें भावनापूर्ण मानवता की चेतना विकसित होगी। वे स्वयं भी दूसरों की सहायता और सहयोग के महत्व को समझने लगेंगे। उनकी आत्मा का विकास होगा, अन्तःकरण में दैवीय भावना का जागरण होगा जिससे वे स्वयं भी तन-मन-धन से अथवा किसी भी रूप से, यथासम्भव परोपकार तथा परहित में प्रवृत्त होने लगेंगे। इस प्रकार अच्छे, सदाशयी नागरिकों, गम्भीर भद्र पुरुषों की संख्या में वृद्धि होगी, जो समाज तथा संसार के लिए एक कल्याणकारी बात ही मानी जायेगी।

यदि मानव-समाज को जीवित रखना है तो उसके सदस्यों के बीच परस्पर सेवा, सहयोग, दया, सहानुभूति आदि की परोपकारी प्रवृत्तियाँ चलती ही रहनी चाहिये। हमें परोपकार को जीवन का एक अनिवार्य व्रत समझ ग्रहण कर लेना चाहिये और यह भ्रम हृदय से निकाल देना चाहिये कि परोपकार का आधार धन है अथवा समाज के लिए कोई बहुत बड़ा त्याग करना है। परोपकार वास्तव में एक आध्यात्मिक भावना है, जिसे कभी भी, किसी भी परिस्थिति में अथवा किसी भी यथासाध्य सत्कर्म द्वारा मूर्तिमान किया जा सकता है। अतः इसे सब कर सकते हैं और सबको करना ही चाहिये...।

🌺🌺🌺 ॐ तत् सत् 🙇🙇🙇

16/09/2025

मैंने सुना है, एक पुरानी तिब्बती कथा है कि दो उल्लू एक वृक्ष पर आ कर बैठे। एक ने साँप अपने मुँह में पकड़ रखा था। भोजन था उनका, सुबह के नाश्ते की तैयारी थी। दूसरा एक चूहा पकड़ लाया था।

दोनों जैसे ही बैठे वृक्ष पर पास-पास आ कर- एक के मुँह में साँप, एक के मुँह में चूहा। साँप ने चूहे को देखा तो वह यह भूल ही गया कि वह उल्लू के मुँह में है और मौत के करीब है।

चूहे को देख कर उसके मुँह में रसधार बहने लगी। वह भूल ही गया कि मौत के मुँह में है। उसको अपनी जीवेषणा ने पकड़ लिया। और चूहे ने जैसे ही देखा साँप को, वह भयभीत हो गया, वह कँपने लगा। ऐसे मौत के मुँह में बैठा है, मगर साँप को देख कर कँपने लगा।

वे दोनों उल्लू बड़े हैरान हुए। एक उल्लू ने दूसरे उल्लू से पूछा कि भाई, इसका कुछ राज समझे? दूसरे ने कहा, बिलकुल समझ में आया। जीभ की, रस की, स्वाद की इच्छा इतनी प्रबल है कि सामने मृत्यु खड़ी हो तो भी दिखाई नहीं पड़ती।

और यह भी समझ में आया कि भय मौत से भी बड़ा भय है। मौत सामने खड़ी है, उससे यह भयभीत नहीं है चूहा; लेकिन भय से भयभीत है कि कहीं साँप हमला न कर दे।

मौत से हम भयभीत नहीं हैं, हम भय से ज्यादा भयभीत हैं। और लोभ स्वाद का, इंद्रियों का, जीवेषणा का इतना प्रगाढ़ है कि मौत चौबीस घंटे खड़ी है, तो भी हमें दिखाई नहीं पड़ती। हम अंधे हैं।
ओशो

*****DSB*****

13/09/2025

एक संन्यासी सारी दुनिया की यात्रा करके भारत वापस लौटा था | एक छोटी सी रियासत में मेहमान हुआ |

उस रियासत के राजा ने जाकर संन्यासी को कहा :
स्वामी , एक प्रश्न बीस वर्षो से निरंतर पूछ रहा हूं | कोई उत्तर नहीं मिलता |
क्या आप मुझे उत्तर देंगे ?
स्वामी ने कहा : निश्चित दूंगा |
उस संन्यासी ने उस राजा से कहा : नहीं , आज तुम खाली नहीं लौटोगे | पूछो |
उस राजा ने कहा : मैं ईश्वर से मिलना चाहता हूं | ईश्वर को समझाने की कोशिश मत करना | मैं सीधा मिलना चाहता हूं |
उस संन्यासी ने कहा : अभी मिलना चाहते हैं कि थोड़ी देर ठहर कर ?
राजा ने कहा : माफ़ करिए , शायद आप समझे नहीं | मैं परम पिता परमात्मा की बात कर रहा हूं , आप यह तो नहीं समझे कि किसी ईश्वर नाम वाले आदमी की बात कर रहा हूं ; जो आप कहते हैं कि अभी मिलना है कि थोड़ी देर रुक सकते हो ?

उस संन्यासी ने कहा : महानुभाव , भूलने की कोई गुंजाइश नहीं है | मैं तो चौबीस घंटे परमात्मा से मिलाने का धंधा ही करता हूं | अभी मिलना है कि थोड़ी देर रुक सकते हैं , सीधा जवाब दें |
बीस साल से मिलने को उत्सुक हो और आज वक्त आ गया तो मिल लो |
राजा ने हिम्मत की , उसने कहा : अच्छा मैं अभी मिलना चाहता हूं मिला दीजिए |
संन्यासी ने कहा : कृपा करो , इस छोटे से कागज पर अपना नाम पता लिख दो ताकि मैं भगवान के पास पहुंचा दूं कि आप कौन हैं |
राजा ने लिखा ---- अपना नाम , अपना महल , अपना परिचय , अपनी उपाधियां और उसे दीं |
वह संन्यासी बोला कि महाशय , ये सब बाते मुझे झूठ और असत्य मालूम होती हैं जो आपने कागज पर लिखीं |
उस संन्यासी ने कहा : मित्र , अगर तुम्हारा नाम बदल दें तो क्या तुम बदल जाओगे ?
तुम्हारी चेतना , तुम्हारी सत्ता , तुम्हारा व्यक्तित्व दूसरा हो जाएगा ?
उस राजा ने कहा : नहीं, नाम के बदलने से मैं क्यों बदलूंगा ? नाम नाम है , मैं मैं हूं |
तो संन्यासी ने कहा : एक बात तय हो गई कि नाम तुम्हारा परिचय नहीं है , क्योंकि तुम उसके बदलने से बदलते नहीं | आज तुम राजा हो , कल गांव के भिखारी हो जाओ तो बदल जाओगे ?
उस राजा ने कहा : नहीं , राज्य चला जाएगा , भिखारी हो जाऊंगा , लेकिन मैं क्यों बदल जाऊंगा ?
मैं तो जो हूं हूं | राजा होकर जो हूं , भिखारी होकर भी वही होऊंगा |
न होगा मकान , न होगा राज्य , न होगी धन- संपति , लेकिन मैं ? मैं तो वही रहूंगा जो मैं हूं |

तो संन्यासी ने कहा : तय हो गई दूसरी बात कि राज्य तुम्हारा परिचय नहीं है , क्योंकि राज्य छिन जाए तो भी तुम बदलते नहीं | तुम्हारी उम्र कितनी है ?
उसने कहा : चालीस वर्ष |
संन्यासी ने कहा : तो पचास वर्ष के होकर तुम दुसरे हो जाओगे ? बीस वर्ष या जब बच्चे थे तब दुसरे थे ?
उस राजा ने कहा : नही | उम्र बदलती है , शरीर बदलता है लेकिन मैं ? मैं तो जो बचपन में था , जो मेरे भीतर था , वह आज भी है |
उस संन्यासी ने कहा : फिर उम्र भी तुम्हारा परिचय न रहा , शरीर भी तुम्हारा परिचय न रहा |

फिर तुम कौन हो ? उसे लिख दो तो पहुंचा दूं भगवान के पास , नहीं तो मैं भी झूठा बनूंगा तुम्हारे साथ |
यह कोई भी परिचय तुम्हारा नहीं है|
राजा बोला : तब तो बड़ी कठिनाई हो गई | उसे तो मैं भी नहीं जानता फिर ! जो मैं हूं , उसे तो मैं नहीं जानता ! इन्हीं को मैं जानता हूं मेरा होना |
उस संन्यासी ने कहा : फिर बड़ी कठिनाई हो गई , क्योंकि जिसका मैं परिचय भी न दे सकूं , बता भी न सकूं कि कौन मिलना चाहता है , तो भगवान भी क्या कहेंगे कि किसको मिलना चाहता है ?

तो जाओ पहले इसको खोज लो कि तुम कौन हो | और मैं तुमसे कहे देता हूं कि जिस दिन तुम यह जान लोगे कि तुम कौन हो ,
उस दिन तुम आओगे नहीं भगवान को खोजने |
क्योंकि खुद को जानने में वह भी जान लिया जाता है जो परमात्मा है |ll
ओशो

जय गुरुदेव!!🙏❤️😇दो प्रकार का ज्ञान----------------------------            ज्ञान दो प्रकार का होता है।एक शुद्ध ज्ञान और द...
13/09/2025

जय गुरुदेव!!
🙏❤️😇
दो प्रकार का ज्ञान
----------------------------
ज्ञान दो प्रकार का होता है।एक शुद्ध ज्ञान और दूसरा व्यवहारिक ज्ञान। व्यवहारिक ज्ञान से तत्काल ही तुम्हें प्रत्यक्ष
लाभ मिल सकता है पर शुद्ध ज्ञान दीर्घकाल तक तुम्हें अप्रत्यक्ष लाभ प्रदान करता है।
यदि तुमने कुछ चीजें ऐसी पढी हों या समझी हों जिनका तुम अभ्यास नहीं कर पाते। तुम उससे हताश मत हो।दु:साध्य समझ कर यदि तुमने उस ज्ञान को नहीं छोड़ा है तो भविष्य में वह तुम्हारे काम आयेगा।
शुद्ध ज्ञान का तुरन्त उपयोग ना कर पाने के कारण प्रायः लोग उसे छोड़ देते हैं। वास्तव में ये दोनों तरह के ज्ञान एक दूसरे के पूरक हैं।शुद्ध ज्ञान के बिना व्यवहारिक ज्ञान में कोई दम नहीं है और शुद्ध ज्ञान यदि व्यवहार में ना लाया जा सके तो वह पूर्ण नहीं है।
ज्ञान को असाध्य समझकर उसका त्याग मत करो और ना ही उसे अव्यवहारिक होने का लेबल लगाओ।यदि तुम अपने दैनिक जीवन में ज्ञान को लागू नहीं कर पा रहे हो तो अपने को कमजोर या अयोग्य मत समझो।
किसी समय जब तुम प्रकृति के साथ अकेले बैठे होंगे, मौन में होंगे, टहल रहे होंगे, समुद्र के किनारे की रेत को देख रहे होंगे या किसी पक्षी को देख रहे होंगे या जब ध्यान कर रहे होंगे तब ज्ञान अचानक प्रकट होगा और तुम देखोगे कि तुम्हारे जीवन में ज्ञान का आविर्भाव हो रहा है।
परम पूज्य गुरुदेव श्री श्री रविशंकर जी।
जय गुरुदेव।।

10/09/2025

🔹 Why Fever is Not Always the Enemy 🔥 Why do we rush to suppress every fever? For many parents and patients, the first instinct is: “Fever is dangerous — bring it down immediately.” But the truth is, fever is one of the body’s most ancient defense mechanisms. It activates the immune sy...

10/09/2025
02/09/2025

हरेक चेहरे को ज़ख़्मों का आइना न कहो,
ये ज़िंदगी तो है रहमत इसे सज़ा न कहो.!!
न जाने कौन सी मजबूरियों का क़ैदी हो,
वो साथ छोड़ गया है तो बेवफ़ा न कहो.!

ये और बात के दुशमन हुआ है आज मगर,
वो मेरा दोस्त था कल तक उसे बुरा न कहो.!!
हमारे ऐब हमें ऊँगलियों पे गिनवाओ,
हमारी पीठ के पीछे हमें बुरा न कहो.!!

~राहत इंदौरी

02/09/2025

🙌
*गुरुवाणी*

गहन विश्राम परमानंद है और परमानंद यह समझ है कि केवल ईश्वर का ही अस्तित्व है। यह जानने से गहन विश्राम संभव होता है।

"केवल ईश्वर का ही अस्तित्व है" यह पूर्ण विश्वास और अनुभव होना समाधि है। समाधि सभी प्रतिभाओं, सामर्थ्यो और सद्गुणों की जननी है। अत्यधिक सांसारिक व्यक्ति के लिए भी समाधि आवश्यक है क्योंकि एक सांसारिक व्यक्ति सामर्थ्य और सद्गुणों को प्राप्त करना चाहता है। समाधि में रहने के लिए तुम्हें किसी प्रयास, प्रतिभा, सामर्थ्य और सद्गुणों की आवश्यकता नहीं है।

*श्री श्री रविशंकर जी*

🙂

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