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एक त्वरित सृजित व्यंग्य रचना..प्रेरणा मिली आज जब अखवार हमारे द्वार आया **दिवाली का सांता क्लॉज**  क्रिसमस पर जैसे लोग सा...
31/10/2024

एक त्वरित सृजित व्यंग्य रचना..
प्रेरणा मिली आज जब अखवार हमारे द्वार आया

**दिवाली का सांता क्लॉज**

क्रिसमस पर जैसे लोग सांता क्लॉज का इंतजार करते हैं, वैसे ही दीवाली पर हम अखबार का इंतजार करते हैं। हमारे लिए तो चलता-फिरता सांता क्लॉज ही है अखबार... सिर्फ दिवाली ही क्यों, हर रोज! अब देखो न, क्रिसमस का सांता क्लॉज तो साल में एक बार आता है, वो भी सिर्फ बच्चों के लिए। बड़ों के लिए कुछ नहीं! अब भई, अगर बड़े लोग बड़े काम न करें तो बच्चे कहाँ से आएंगे... खैर छोड़ो जी, बड़ों के लिए तो अखबार ही सांता क्लॉज है, जो रोज-रोज उपहार लेकर आता है। ढेरों उपहार, इश्तिहारों से भरा अखवार ,उपहारों से भरा अखबार - ऑफर, डिस्काउंट, सेल, एक के साथ एक फ्री का उपहार... उपहारों से लदे-फदे विज्ञापन, जैसे चुनाव के मौसम में नेता के चारों ओर छुटभैयों की भीड़ होती है, वैसे ही त्योहारों के मौसम में अखबार के पन्नों पर विज्ञापन और गोद में इश्तिहार चिपके होते हैं, बिल्कुल वैसे ही जैसे मोहल्ले की कुतिया फिर ब्याही हो और अपने पिल्लों को लेकर आ धमकी हो आपके दरवाजे पर।

आजकल तो उपहारों के कारण अखबार इतना भारी हो चुका होता है कि मेरा स्टाफ त्योहारों के समय उसे उठाने से कतराता है। मेरे दो स्टाफ के कर्मचारियों की कमर में चक चल गई...कमर बोल गई इस चक्कर में! अब ये मेडिकल भाषा है जी, आप नहीं समझेंगे... आप इसे देसी भाषा में 'स्लिप डिस्क' कह सकते हैं या 'कमर दर्द', आपकी मर्जी। मैंने अपने परिसर में लिफ्ट का प्रोविजन भी इस समस्या से निपटने के लिए किया है ।

अखबार, विज्ञापन और उपहार... तीन तिगाड़ा, जैसे इन्हीं में जिंदगी उलझ गई हो। वैसे भी गिफ्ट चीज ही ऐसी है, यह भी एक प्रकार का निवेश है, खरीदारी की राह को चिकना करने के लिए ताकि ग्राहक आसानी से फिसल सके। कंपनियां भी अब समझदार हो गई हैं, जैसे पति का मन जीतने का रास्ता उसके पेट से होकर जाता है, वैसे ही कंपनियों की बिक्री की भी कमान श्रीमती जी के हाथों में होती है। स्टाफ को निर्देश दे दिए गए हैं कि जो भी गिफ्ट कंपनी से आए, सीधे ऊपर पहुँचना चाहिए।गिफ्ट की नाप ,तोल,कीमत के हिसाब से गिफ्ट प्रदाता कंपनी की मार्केटिंग समझ का विश्लेषण होता है ।

दीवाली और नववर्ष, दो ऐसे मौके हैं, जहाँ श्रीमती जी की सख्त हिदायत है कि अखबार अपने मूल रूप में ही ऊपर आना चाहिए। दीवाली पर लक्ष्मी जी का पन्ना और नए साल पर कैलेंडर आएगा, इसी उम्मीद में अखबार बेडरूम तक आता है... वरना बाकी दिन तो स्टाफ ऐसे उठाता है कि दस बारह पम्पलेट उसमें से बेतरतीब गिर पड़ते हैं, जैसे धूल भरे कंबल में लट्ठ मारने पर धूल उड़ती है। पीछे से स्वीपर झाड़ू लिए तैयार रहता है धूल साफ करने के लिए... अखबार की तीन बार डिलीवरी होती है, एक बार हॉकर से, दूसरी बार हमारे पड़ोसी शर्मा जी से और तीसरी बार स्टाफ से। हॉकर से सामान्य डिलीवरी होती है, लेकिन हमारे पड़ोसी शर्मा जी और उनका कुत्ता टोमी तो पूरी सिजेरियन जैसी काट-छांट वाली डिलीवरी करते हैं अखबार की।

“सुनो, शर्मा जी को कह देना कि कम से कम दीवाली पर अखबार का बोझ हमें ही उठा लेने दें। पिछली बार लक्ष्मी जी का पन्ना निकाल लिया था। “ बताओ, अखबार लगाया ही इसीलिए कि दीवाली पर लक्ष्मी का पन्ना मिल जाए और नए साल का कैलेंडर। बाकी थोड़ी बहुत कीमत रद्दी वाले से मिल जाती है। श्रीमती जी का आमद-खर्च का लेखा-जोखा... कमाल है!

मैंने कहा, "भाग्यवान, एक लक्ष्मी के पन्ने के लिए इतनी मारामारी... बाज़ार से खरीद लेंगे, ज्यादा से ज्यादा एक रुपए का आएगा।"

श्रीमती जी, "नहीं... लक्ष्मी अगर घर में आएगी तो अखबार वाले लक्ष्मी के पन्ने से ही।"

अखबार साक्षात सांता क्लॉज सा लग रहा था मुझे, ऐसा लगा लक्ष्मी जी ने अपना वाहन बदल लिया है। उल्लू की जगह अब अखबार में सवार होकर आ रही हैं। पूरा अखबार रंगीन विज्ञापनों, सेल, डिस्काउंट, ऑफर्स और शुभकामनाओं से अटा पड़ा था। हर कंपनी ने अपने विज्ञापन में लक्ष्मी माता को भी बिठा रखा था, ऐसा लग रहा था जैसे लक्ष्मी माता ही ब्रांड एम्बेसडर बनकर बाजार को घर-घर पहुंचा रही हैं।

अभी विज्ञापनों के अम्बार में हाथ डालकर लक्ष्मी जी के पन्ने को टटोल ही रहा था कि वह कहीं नजर नहीं आया... लक्ष्मी का पन्ना गायब...

अखबार के पन्ने पलटते हुए ऐसा लग रहा था जैसे हर विज्ञापन गलत इशारा कर के हमें बुला रहा हो, "कहाँ जाते हो? छलिये, इधर तो आइए... कभी तो आइए हमारी हवेली पर।" मैं सबसे नजरें बचाता हुआ, खासकर श्रीमती जी की नजर से भी, किसी प्रकार आखिरी पन्ने तक पहुंचा... लेकिन लक्ष्मी का पन्ना नदारद...

श्रीमती जी गश खाकर गिरने ही वाली थीं कि मैंने उन्हें संभाला। इस बेवफाई पर श्रीमती जी अखबार वाले को कोसने लगीं, "अच्छा सिला दिया तूने...!"

इतने में ही अखबार वाला हॉकर हाथ में लक्ष्मी जी का पन्ना लिए आता दिखाई दिया। "नमस्ते साहब, नमस्ते भाभी जी, दीवाली की शुभकामनाएं!" वो खीसें निपोरता हुआ बोला, "वो साहब, मैंने सोचा अपने हाथों से लक्ष्मी का पन्ना दं आपको... वो क्या है, आप तो जानते ही हैं, आपके पड़ोसी शर्मा जी खुद तो अखबार लगवाते नहीं, आपके अखबार से काम चला रहे हैं। उनका भरोसा नहीं, कहीं आपका लक्ष्मी का पन्ना न निकाल लें।"

वो लक्ष्मी का पन्ना देकर वहीं खड़ा रहा, इशारा साफ था... लक्ष्मी जी को हमारे घर तक लाया, बदले में उसे बख्शीश चाहिए थी।

श्रीमती जी, "रुको भाई, वो आपकी मिठाई लाती हूँ।"

आधा किलो मिठाई के बदले लक्ष्मी मइया आपके द्वार आ रही हैं... कोई बुरी डील तो नहीं। फिर अंत में एक रुपया भी बच गया और बाजार की दौड़ भी!
रचनाकार -डॉ मुकेश असीमित
Mail ID -drmukeshaseemit@gmail.com

31/10/2024

असतो मा सद्गमय।
तमसो मा ज्योतिर्गमय।
मृत्योर्मा अमृतं गमय॥
आपके जीवन में सुख, समृद्धि और उज्जवल भविष्य की कामना करता हूँ। आइए, दीपों की रौशनी से अंधकार को दूर करें और प्रेम तथा भाईचारे के दीप जलाएं।
दीपावली के शुभ अवसर पर हार्दिक शुभकामनाएँ!
शुभाकांक्षी
डॉ मुकेश गर्ग (असीमित )
निदेशक -गर्ग हॉस्पिटल
गंगापुर सिटी राजस्थान

आज इंदौर समाचार में भी प्रकाशित हुआ है व्यंग्य लेख-'दिवाली का दिवालियापन '
31/10/2024

आज इंदौर समाचार में भी प्रकाशित हुआ है व्यंग्य लेख-'दिवाली का दिवालियापन '

धनतेरस पर एक त्वरित व्यंग्य लेख --अच्छा लगे तो कृपया अपनी प्रतिक्रिया अवश्य दें ..**जा तू धन को तरसे...**धनतेरस का त्योह...
29/10/2024

धनतेरस पर एक त्वरित व्यंग्य लेख --अच्छा लगे तो कृपया अपनी प्रतिक्रिया अवश्य दें ..

**जा तू धन को तरसे...**

धनतेरस का त्योहार है। मैं अपने वॉलेट को देख रहा हूँ... खाली है। उसका पेट भी खाली है, फिर भी आज कुछ ज्यादा हंसी आ रही है उसे देखकर। कह रहा है जैसे… "मुझे साल भर तो भूखा-प्यासा रखा और आज एक दिन के लिए खिलाएगा!" ऐसा लग रहा है जैसे वह बददुआएँ दे रहा हो। ‘इस धनतेरस पर भी मेरे मालिक… "जा तू धन को तरसे।" श्रीमती जी की हिदायत है कि धनतेरस पर कुछ न कुछ खरीदना शुभ माना जाता है। हमें भी बहाना आता है… "भाग्यवान, दिवाली पर जेब से धन जाने नहीं देना चाहिए।" अगर हम धनतेरस के नाम पर बाजार में खरीदारी करने जाएंगे, तो यह त्योहार बाजार के लिए ही शुभ हो जाएगा ना! मुझे नहीं पता कि श्रीमती जी को मैं कन्विंस कर पाया या नहीं, लेकिन इस बार अगर बाजार जाना ही पड़ा, तो हमारी लिस्ट तैयार है, कसम से! लोग सोने के पीछे भाग रहे हैं… सोना तो पहले ही इतना महंगा हो चुका है कि 'सोना हराम' कर रखा है। हमारी लिस्ट में इस बार है आधा किलो टमाटर, चार प्याज, दो चम्मच स्टील के, और वो भी छोटे साइज के।

माया चंचल स्वरूपा है, छल-छद्म भेषी है। इस विमुद्रीकरण के दौर में, माया अब नोटों में नहीं, बल्कि टमाटर और प्याज में बसी है। जिसकी रसोई में टमाटर और प्याज मिल जाए, समझो वह गरीब रेखा से ऊपर है। सरकार भी शायद बीपीएल की नई गाइडलाइन्स में यही क्लॉज डाल दे!

किसी और दिन नहीं, लेकिन धनतेरस पर हम धन के लिए तरसते हैं। मरीज़ भी धनतेरस मनाते हैं और इस बात का ख्याल रखते हैं कि परामर्श या तो बिना धन के ले जाएं या फिर दिवाली के बाद चुकाएं। अब डॉक्टर लोगों का धन से क्या वास्ता...

धन का असमान वितरण हुआ है, और इसमें भी उल्लू की चाल है। उल्लू ने लक्ष्मी जी को भी उल्लू बनाया है। लक्ष्मी जी तो बस अपने वाहन पर सवार हो जाती हैं, बिना कोई सवाल-जवाब, तहकीकात किए...निर्लिप्त भाव से, अपने धन की परात हाथ में लिए। लाभार्थियों की लिस्ट उल्लू ने ही बनाई है। जैसे ‘अंधा बाँटे रेवड़ी और फिर-फिर कर अपने लोगों को ही देता है, उसी प्रकार उल्लू भी इस प्रथा का निर्वहन कर रहा है... अपने जाति भाइयों के यहाँ ही रुकता है। लक्ष्मी जी को कहता है, "मैं यही पार्किंग में खड़ा हूँ... आप बाँट आइए।" जैसे बड़े-बड़े होटल भी ड्राइवर का पूरा ख्याल रखते हैं, क्योंकि वही उन्हें ग्राहक लाता है, इसीलिए ड्राइवर के खाने-पीने, ठहरने का पूरा इंतजाम रखा जाता है। यहाँ बड़े लोगों के आलिशान महलों में भी उल्लू के लिए पार्किंग में विशेष डालियों का प्रबंध है। बस, उल्लू लटके रहते हैं मस्त डालियों पर, आँखें बंद किए... लक्ष्मी जी लगी रहती हैं धन बरसाने में।

जैसे न्याय की देवी को आँखों पर पट्टी बाँध कर हम आश्वस्त हो जाते हैं कि वह अमीर-गरीब, राजा-रंक में भेदभाव नहीं करेंगी, उसी तरह लक्ष्मी जी ने उल्लू को अपना वाहन बनाया कि वह उल्लू है… बिना दिमाग का। दिन में वैसे भी उल्लू को दिखता नहीं है, तो वह वहीं बैठता है जहाँ उजड़ा चमन हो। लक्ष्मी जी यही तो चाहती थीं कि धन का वितरण वहीं हो जहाँ उसकी जरूरत हो...

लेकिन उल्लू राजा चालाक निकले। उल्लू ने रात का समय चुना और लक्ष्मी जी से कहा कि "दिन में तुम आराम करो।" दिन में पिद्दी से दिहाड़ी मजदूर हैं, मेहनती गरीब लोग हैं, जो दिन भर मेहनत करते हैं। दिन में अगर उल्लू जी ले जाएँगे तो लक्ष्मी जी शायद उन्हें देख लें और उनके घर आ जाएँ। उल्लू जी को अंधेरे से प्यार है। अंधेरे में रहकर या लोगों को अंधेरे में रखकर जो धन कमाते हैं, उनके यहाँ धन की बरसात होनी है। उल्लू को रात में सब साफ दिखता है, वे सभी रईस, भ्रष्टाचारी, अनाचारी जिनका धंधा ही अंधेरे की बदौलत है साफ़ नजर आते हैं...कमसिन इशारों से बुलाते हैं उल्लू जी को । बस वही पार्क होता है लक्ष्मी जी का वाहन।

दीए की टिमटिमाती रोशनी में उल्लू को उतना साफ नहीं दिखता जितना ऊंचे कंगूरों पर चमकती LED बल्बों की रोशनी में। क्या करें उल्लू बेचारा... उसकी मजबूरी है। कहीं अंधेरे में टकरा न जाए, वरना लक्ष्मी जी की धन की परात छलक जायेगी । ख्वामखाह धन की बंदरबांट की ऑडिट हो जायेगी..अब गरीबों को कहा आता है आंकड़ों में हेरा फेरी करना..बनता १०० रु और दस्तखत करवाए १००० पर... । बड़े रईस लोगों को आता है हिसाब-किताब संभालना... गरीब को तो गिनती भी नहीं आती। अगर 99 दे भी दिए तो वह 99 के फेर में ही उलझा रहेगा, सब कुछ भूल जाएगा।

बड़ा मिलियन डॉलर का सवाल है जो आजकल हर कोई पूछ रहा है... "क्या कारण है कि अमीर और अमीर होते जा रहे हैं और गरीब और गरीब?" वो कहते हैं ना, "लक्ष्मी देती है तो छप्पर फाड़ कर देती है।" लक्ष्मी जी ने उल्लू जी को समझाया कि, "देना तो उन्हें है जिनके छप्पर तने हों।" लेकिन उल्लू जी को आरसीसी छतें ज्यादा पसंद हैं। उन्हें छप्पर फाड़ने में मजा नहीं आता। धमाकेदार आवाज में फटती पक्की छतें, अमीरों के घरों में धन बरसता है, फुलझड़ियों से स्वागत होता है। गरीब के यहाँ धन बरसाने पर स्वागत तो दूर, बेचारा गरीब तो सहम जाएगा… पसीने-पसीने हो जाएगा, रिश्तेदार पीछे पड़ जाएँगे, इनकम टैक्स वाले, डोनेशन वाले, चैरिटी वाले सब। बेचारा जीना भूल जाएगा, चोरों से हिफाजत भी नहीं कर पाएगा। नींद उड़ जाएगी रात की… ऐसी तिजोरियाँ गरीबों के घर में हैं ही नहीं जो उसके माल की सुरक्षा कर सकें। तिजोरी की चिंता में गरीब की जान पर और आँच आ जाएगी।

कुल मिलाकर धनतेरस, धनवानों को ही मुबारक!

रचनाकार -डॉ मुकेश असीमित
Mail ID drmukeshaseemit@gmail.com

अंतर्राष्ट्रीय ख्याति प्राप्त पत्रिका 'इंदु संचेतना' के अक्टूबर अंक में   मेरा व्यंग्य आलेख "दिव्यांग आम '
29/10/2024

अंतर्राष्ट्रीय ख्याति प्राप्त पत्रिका 'इंदु संचेतना' के अक्टूबर अंक में मेरा व्यंग्य आलेख "दिव्यांग आम '

29/10/2024

"धनतेरस की मंगल बेला में समृद्धि, स्वास्थ्य और सौभाग्य की अमिट वर्षा आपके जीवन में हो। माँ लक्ष्मी की कृपा से आपके घर-आँगन में उन्नति और शांति का वास हो। शुभ धनतेरस!"
शुभाकांक्षी
डॉ मुकेश असीमित

व्यंग्य आलेख "रंग दे चुनरिया " अगर आपको पसंद आये तो अपनी प्रतिक्रियाओं से मेरा उत्साहवर्धन करना नहीं भूलें..**रंग दे चुन...
28/10/2024

व्यंग्य आलेख "रंग दे चुनरिया "
अगर आपको पसंद आये तो अपनी प्रतिक्रियाओं से मेरा उत्साहवर्धन करना नहीं भूलें..

**रंग दे चुनरिया**

वो रंगबाज़ हैं, रंग जमाने में माहिर, रंग फेंकने में माहिर, रंग बदलने में भी माहिर। रंग बदलने में तो इतने माहिर कि एक बार तो गिरगिट भी शर्माकर उनके द्वार पर पानी भरने लगे। उनके इस कौशल को वो अपने तक सीमित नहीं रखते; वक्त-ज़रूरत दूसरों पर भी रंग चढ़ाने में सक्षम हैं, लेकिन उनके चढ़ाए रंग पक्के नहीं होते...चाइनीज़ रंग हैं, कोई गारंटी नहीं...कब उतर जाएँ, कह नहीं सकते। भरी महफ़िल में रंग लगाना उन्हें बखूबी आता है। अपने खुद के रंग भी उतार देते हैं...एक रंग के ऊपर दूसरा रंग। जैसे सर्कस में घोड़े पर बैठा विदूषक अपने कपड़े उतारता है... रंगों से खेलना उनका शौक है, बड़े रंगीन मिजाज के हैं। कई बार तो लोग उन्हें ठरकी कह देते हैं, पर उन्हें पता है कि ये वही लोग हैं जो उनके रंगबाज़ी से जलते हैं।

अगर महफ़िल में महिलाओं की तादाद हो तो इनके रंग फड़फड़ाने लगते हैं...रंग फेंकने के चक्कर में कई बार भूल जाते हैं कि इनकी चुनरिया उड़ गई है...महफ़िल में नंग-धड़ंग खड़े हैं...महिलाएँ मारे शर्म के लाल हुई जा रही हैं। ये समझते हैं कि उनका दिया हुआ रंग चढ़ रहा है महिलाओं पर। पुरुष मित्रों को रंग लगाने के ऐसे-ऐसे किस्से बखानते हैं कि पुरुष मित्र इन्हें सुनकर अपनी ज़िंदगी को निरर्थक समझने लगते हैं... “धिक्कार है अपनी ज़िंदगी को...रंगबाज़ हो तो इनके जैसा...वरना नहीं।” उधर इन्हीं पुरुषों की पत्नियाँ, जो शहर की संभ्रांत महिलाओं में शामिल हैं, शर्म के मारे दोहरी हुई जाती हैं और ऐसे रंगबाज़ को महफ़िल में न घुसने देने की हिदायतें देने लगती हैं। सुनने में आया है कि पहले कभी गब्बर के नाम से बच्चों को डराया जाता था, अब इस रंगबाज़ के नाम से डराया जाता है... "नहीं बचो, उस महफ़िल में मत जाना, वहाँ वो रंगबाज़ आएगा।"

सखी, सतर्क रहना, वो कभी भी आ धमक सकता है... रंग डाल सकता है। रंग फेंकने में माहिर, सिर्फ हाथ से ही नहीं, मुँह से भी ऐसी रंगीन पिचकारियाँ छोड़ता है कि महिलाएँ शर्म से ज़मीन में गड़ जाएँ। कई तो उन्हें जूते-चप्पलों से रंगना चाहती हैं, पर लोक-लाज के कारण ऐसा नहीं कर पातीं।

कई दिनों से मुझे रंग लगाने के मूड में थे... जब भी उन्हें रास्ते में मिलता, मैं कन्नी काट लेता, रास्ता बदल लेता। मैं उनके रंग पहचानता हूँ... उनके रंगों से बदबू आती है... पूरे शरीर में खुजली चलने लगती है। लोग भी पहचान जाते हैं... "क्या डॉक्टर साहब, आप भी उस रंग में रंग गए?" मेरे चरित्र के सर्टिफिकेट पर जैसे धब्बा लग गया हो।

लेकिन वो आ धमके हैं, बिन बुलाए मेहमान की तरह... पूरी तरह रंगने के मूड में, जेबें भरी हुई हैं रंगों से। मैंने कहा, "अभी आपको रास्ते में देखा था...मेरे शत्रु के साथ...तब तो लाल रंग में थे, अब इतना जल्दी रंग बदल लिया आपने?" वो मुस्कुराए, "आपने कब देखा?" कोशिश तो उन्होंने पूरी की थी कि रंग बदलें और मुझे मालूम न चले, लेकिन उनके रंग बदलने की फितरत सभी जानते हैं। दिन में हज़ार रंग बदल लेते हैं, हर किसी को वो वही रंग दिखाते हैं जो सामने वाले को पसंद आए।

"मुझे तो कोई रंग नहीं जमता," मैंने कहा, "मैं रंगहीन ही ठीक हूँ...ओढ़ ली है सफेद चुनरिया। रंगहीन ही सही, कम से कम साफ तो है, धुली हुई। था एक समय, जब कोई भी रंग लगाता था तो मैं रंगवा लेता था... मैं भूल जाता था कि मेरा भी कोई रंग हो सकता है...मेरी भी कोई पहचान हो सकती है।" लेकिन उन्हें मेरी ये सफेद चुनरिया खटक रही है, बिल्कुल वैसे जैसे होली के त्योहार में कोई कोरे कपड़े पहनने जा रहा हो..अब भला कोई कैसे बिना रंग डाले छोड़ दे ।

मैंने कहा, "आप रंग डाल देंगे, लेकिन जिस शत्रु के पास से आ रहे हैं, अगर उसे पता चल गया कि आपने मुझे भी रंगा है, तो वो नाराज़ हो जाएगा।" मुझे रंग बदलना नहीं आता आपकी तरह। आपका लगाया रंग उतरता ही नहीं, खाल उतर जाती है रगड़ते-रगड़ते। ऐसे पक्के रंग होते हैं, जो लोगों की आत्मा तक रंग देते हैं। नहीं, मुझे बिना रंग के ही रहने दो।

उन्होंने फिर पैंतरा बदला...अब जेब से अलग-अलग रंग के चश्मे निकालकर दिखाने लगे। बोले, "अगर खुद को नहीं रंगवाना चाहते, तो कम से कम अपने पसंद के रंग में दुनिया को तो देख सकते हैं ना। मेरे पास सभी तरह के चश्मे हैं - केसरिया रंग के, हरे रंग के, लाल रंग के।" मैंने कहा, "इतने रंग के चश्मों की क्या जरूरत है, एक ही रंग का पहन लो।" वो बोले, "नहीं...हर पार्टी में अपनी पहचान है। ये चश्मे मेरे थोड़े ही हैं...कबाड़े से जुटाए हुए हैं। कोई हरे रंग का पकड़ा रहा था, तो कोई केसरिया रंग का। हमने दोनों ही तरह के रख लिए, जैसा पहनना हो, तुरंत पहन लेते हैं।"

मैंने कहा, "रहने दो, मेरा देखना दुर्लभ हो जाएगा। मेरी नज़र कमजोर नहीं है, मुझे ये चश्मे नहीं चाहिए। मुझे मेरे हाल पर छोड़ दो। मैं नहीं देखना पसंद करूँगा।" कोई मेरी कलम का रंग बदलना चाहता है, अपने रंग की कलम मुझे पकड़ाना चाहता है, पर मैंने उसे भी मना कर दिया। रंगी हुई कलम हाथ में ली, तो वो हाथ में भी रंग छोड़ेगी। मैं नहीं चाहता अपने हाथों को रंगना।

आम आदमी के पास तो कोई चॉइस नहीं है, बस उसे कहा जा रहा है, "तुमसे होली खेलने आया है, होली खेलो...कौनसा रंग डाल रहा है, किस रंग से भिगो रहा है, इस पर मत सोचो।" रंग गहरे हो गए हैं...पक्के रंग। कहीं कीचड़ के रंग से होली खेली जा रही है, कहीं खून के रंग से। कहीं आम आदमी का पसीना मिलाकर रंग गाढ़ा कर दिया गया है। कोई रंगों से रंग-महल सजा रहा है। हर जगह बस रंगों का खेल चल रहा है।
एक शेर खाकसार का अर्ज किया है

हर किसी को यहाँ बस रंग बदलते देखा,
हर मोड़ पर है इक नई शक्ल, इक नई दुनिया।

रचनाकार –डॉ मुकेश असीमित
Mail ID –drmukeshaseemit@gmail.com

इंदौर समाचार के आज के अंक में प्रकाशित मेरा व्यंग्य लेख -भ्रष्ट नेता पुष्ट वर्धक च्यवनप्राश आप सभी की समालोचनात्मक प्रति...
26/10/2024

इंदौर समाचार के आज के अंक में प्रकाशित मेरा व्यंग्य लेख -भ्रष्ट नेता पुष्ट वर्धक च्यवनप्राश
आप सभी की समालोचनात्मक प्रतिक्रया के लिए मूल पाठ यहाँ साझा कर रहा हूँ

**"भ्रष्ट नेता पुष्ट वर्धक च्यवनप्राश"**
आइए, आज मैं आपको एक ऐसी रेसिपी बताने जा रहा हूँ, जो एक सीक्रेट फॉर्मूला है, बिल्कुल कोला कंपनी के सीक्रेट फॉर्मूला की तरह। मजाल है कि पेपर लीक की तरह यह लीक हो जाए। इसका नाम है "भ्रष्ट नेता पुष्ट वर्धक च्यवनप्राश"। यह एक ऐसा च्यवनप्राश है जिसे आप किसी भी उम्र के पड़ाव में इस्तेमाल कर सकते हैं, जब आपको नेता बनने का कीड़ा कुलबुलाने लगे। लेकिन अगर आप देखते हैं कि आपके पूत के पांव पालने में ही नेताओं की दुम की तरह हिलते हैं, बच्चे के चेहरे पर भ्रष्ट नेता की तरह कुटिल मुस्कान है, और बच्चा हर सेकंड में मगरमच्छी आँसू बहाता है, तो समझ जाइए कि यह बच्चा आपके सात पीढ़ियों का नाम डुबोने के लिए भ्रष्ट नेता बनने के लिए अवतरित हुआ है। यदि आप बचपन से ही ऐसे बच्चे को यह च्यवनप्राश चटाएंगे, तो निश्चित ही वह बड़ा होकर महा भ्रष्टाचारी नेता बनेगा!

नेतागिरी के पायदान पर आगे बढ़ने के लिए एक आम नेता तो हर कोई बन सकता है, लेकिन अगर आपको शिखर तक पहुँचना है, तो भ्रष्ट नेता बनना पड़ेगा। यह एक अग्नि परीक्षा है, जिसे हर कोई पार नहीं कर सकता। 99 प्रतिशत नेता तो चुनावी कार्यक्रमों में दरी बिछाने और रैलियों में नारे लगाने तक ही सीमित रह गए, क्योंकि उन्होंने भ्रष्ट नेता बनने के गुणों को संपूर्णता में नहीं सीखा। बस कुछ गुण ग्रहण कर, अपने अधकचरे ज्ञान को पेलने में लगे रहे।

इस गुप्त नुस्खे की हर उस नेता को जरूरत है, जो अखबारों और TV न्यूज़ में अपने आकाओं के हवाले, घोटालों, कांडों के अखंड गुणगान से अपने आपको तुच्छ और अदना सा प्राणी समझने लगा है। अभी तक जिसका उपयोग उसके आकाओं ने झूठी गवाही देने, आका के काले धन को अपने घर के अंदर सुरक्षित रखने का ही किया है, कभी खुद अपने बलबूते पर कोई बड़ा कांड नहीं किया है। अखबार में अपना नाम अंतिम पंक्ति में ही कभी-कभार देखा है, रैलियों में खुद को पार्टी के कार्यकर्ताओं की भीड़ में ही देखा है!

इस रेसिपी को बनाने का तरीका बहुत ही सरल है। अगर खाने वाला और बनाने वाला निर्लज्ज, बेईमान और ढीठ जैसे प्रारंभिक गुणों से लबरेज हो, तो रेसिपी जल्दी असर दिखाना शुरू करेगी!
रेसिपी को बनाने के लिए पहले आपको कुछ सामग्री एकत्रित करनी होगी। आपको चाहिए:
1. एक फर्जी बी पि एल कार्ड से उठाया हुआ केरोसिन का कनस्तर या गैस सिलेंडर।
2. इसे चूल्हे में पकाने के लिए उन कंडों का इस्तेमाल करें, जो उस अवशिष्ट से बने हैं, जो पहले नेताओं ने चारा घोटाले में पशुओं का चारा खाकर स्वच्छता अभियान को धता बताते हुए खुले में छोड़ दिए थे ।

इस रेसिपी की फाउंडेशन जितनी मजबूत होगी, रेसिपी उतनी ही असरदार होगी। थोड़ी सी चापलूसी से आप इसे पा सकते हैं। चूल्हे में कंडों को जलाने के लिए खाली पीली फेंकने वाले फूंकनी से फूंक मारें। अफवाहों की गर्म हवा मारेंगे, तो कंडे जल्दी प्रज्वलित हो जाएंगे।

आग लगाने के बाद, सबसे पहले अपने हाथ सेंकें, क्योंकि एक अच्छे भ्रष्टाचारी होने के नाते आपको यह आदत डालनी ही होगी। इस प्रकार से आप कहीं भी आग लगी हो, स्वप्रेरणा से वहां हाथ सेंकने पहुँच जाएंगे, चाहे किसी गरीब के मकान में आग लगी हो या किसी की चिता की। आपको हर जगह समान भाव और स्वार्थभाव से अपनी रोटी सेंकने का हुनर आ जाएगा!

जब हाथ गर्म हो जाएं, तो हाथ में खुजली शुरू हो जाएगी, जो आपको आगे बड़े-बड़े स्वांग और प्रकांड कांड करने के लिए उत्प्रेरित करेगी। अब मिश्रण तैयार करना है। सबसे पहले किसी कुख्यात भ्रष्ट नेता के भाषण या रैली के दौरान फेंके गए टमाटर-अंडे एकत्रित करके उसमें डालें। इस मिश्रण में थोड़ी सी दूसरों की छाती पर दली हुई मूँग डालें और नेताजी के वो आलू, जिनसे सोना बनेगा, भी डालें।

अब इस मिश्रण में चुल्लू भर पानी डालें। यह चुल्लू भर पानी आपके पास हमेशा रहना चाहिए। यह आपको समय-समय पर जनता से मिलता रहेगा।

अंत में, इसमें कुछ मगरमच्छ के आँसू डालिए, जो नेता लोग चुनावी रैली में बहाते रहते हैं। ये सारी सामग्री एक गहरी और चिकनी हांडी में मिलानी होगी, जिस पर निंदा, आरोप-प्रत्यारोप के बौछारों का कोई असर न हो।

जब यह मिश्रण पकने लगे, तो उसे उस चमचे से हिलाएं, जो चमचागिरी में इस्तेमाल होता है। धीरे-धीरे इसे हिलाते रहिए। जब मिश्रण पूरी तरह पक जाए, तो इसे सूंघते रहिए। इससे आपकी नाक स्टील जैसी मजबूत हो जाएगी, जो किसी भी कटाक्ष या आलोचना से प्रभावित नहीं होगी।

अब जब मिश्रण तैयार हो गया है, तो देर किस बात की? इसे धीरे-धीरे चाटिए और भ्रष्ट नेता का रक्षा कवच - चाटन संस्कार - अपनाइए। आपकी जीभ इतनी लंबी और निर्लज्ज हो जाएगी कि आप किसी से भी काम निकलवाने के लिए उसके जूते चाट सकेंगे।

इस मिश्रण को अगर गैंडे जैसी खाल वाले कपड़े से ढककर रखेंगे, तो एक और गुण में वृद्धि होगी। आप किसी भी स्थिति में अपने भ्रष्ट कामों से विचलित नहीं होंगे।

तो देर किस बात की? आज ही इस रेसिपी को आजमाएं और देखिए, कैसे आप हष्ट-पुष्ट भ्रष्ट शिरोमणि नेता बन जाएंगे!

**रचनाकार:**
डॉ. मुकेश असीमित
मेल आईडी: drmukeshaseemit@gmail.com

**गली में आज चाँद निकला..** (लघु अंश ) ये हैं हमारे शहर के चिरंजीवी नेता श्री चांदमल जी। चिरकाल से जीवित हैं तो सिर्फ चु...
25/10/2024

**गली में आज चाँद निकला..** (लघु अंश )

ये हैं हमारे शहर के चिरंजीवी नेता श्री चांदमल जी। चिरकाल से जीवित हैं तो सिर्फ चुनाव लड़ने के लिए। चांदनी रात में छत पर टहलते हुए, वो बेचैनी से चांद को निहार रहे थे। शहर अंधेरे में डूबा हुआ था, और ऊपर चांद जैसे मुस्कुरा रहा था। आज उन्होंने चांद को देखा, जो कभी बादलों में छिप जाता, कभी बाहर निकल कर चांदनी बिखेरने लगता , लेकिन दिल में छाया हुआ घटाटोप अंधेरा चांद के आसपास के अंधेरे से भी ज्यादा गहरा था। सच तो यह है कि उनका दिल धीरे-धीरे डूबता जा रहा था।

कल टिकट फाइनल होने वाला था। अंदेशा ये था कि उनके शहर में चांद खिलने का मौका , इस बार नए चांद को देने का विचार था, यह खबर भी आलाकमान के किसी नजदीकी सूत्र ने उन्हें दे दी थी । यूं तो उन्होंने खूब तैयारी की थी, पिछले दो महीने से लगातार दिल्ली के सौरमंडल के चक्कर काट रहे थे। कुछ अफवाहें भी थीं कि उनके धुर विरोधी छेदीलाल भी टिकट की दौड़ में शामिल हो गए थे। एक ही पार्टी के होते हुए भी उनकी दुश्मनी ऐसी थी, जैसे वे विरोधी पार्टी के सदस्य हों। चांद का खिलना तय है, किसके भाग्य में होगा, यह निर्णय बस बाकी है। अभी तो सभी चाँद आलाकमान की चौखट पर उनके घर को रोशन कर रहे हैं। आलाकमान के माथे पर धारण होकर ये चंद्रमा अलौकिक नजर आ रहे हैं।
अगर कल चांद न उगा, तो फिर पाँच साल की लंबी अमावस की रात कैसे कटेगी, इसकी चिंता उन्हें सता रही थी।

मन ही मन गरिया रहे थे आलाकमान को, खुलकर गरिया रहे थे अपने विरोधी छेदीलाल को, जिसने ऐन-वक्त पर सब गुड़-गोबर कर दिया था। अपनी दावेदारी के लिए कितनों से फोन कराया, पार्टी फंड के लिए अपनी तिजोरियों की चाबी तक सौंप दी थी। आलाकमान कहते हैं, "चांदमल पुराना चाँद है, दाग कुछ ज्यादा दिखने लगे हैं, और रोशनी फीकी पड़ गई है।" उन्होंने कहा, "यह भी क्या बात हुई? रोशनी तो कम होनी ही थी। अपने हिस्से की चांदनी बांटने में जिन्दगी लगा दी चांदमल ने, अपने समर्थकों को, जान-पहचान वालों को। अपने लिए क्या रखा? कुछ नहीं।"
रचनाकार -डॉ मुकेश असीमित
Mail ID drmukeshaseemit@gmail.com

एक व्यंग्य लेख साझा कर रहा हूँ..अच्छा लगे तो कृपया अपनी प्रतिक्रियाओं से मुझे लाभान्वित करें..**वो देखने के लिए आ रहे है...
24/10/2024

एक व्यंग्य लेख साझा कर रहा हूँ..अच्छा लगे तो कृपया अपनी प्रतिक्रियाओं से मुझे लाभान्वित करें..

**वो देखने के लिए आ रहे हैं..**

“सुनो, आज वो दूसरी पार्टी आ रही है देखने के लिए।”
“कितने बजे का समय दिया है?”
“शाम को 4 बजे का बोला है।”

सुनो..! मुझे तो घबराहट सी हो रही है..! कहीं ये भी पहली पार्टियों की तरह...! आप वहीं ऑफिस से किसी को भेज दो न, वो उन्हें पिकअप कर ले... वहाँ उन्हें शायद लोकेशन ढूँढने में दिक्कत हो। मुझे डर है कि वहाँ पहुँचकर कहीं आसपास पड़ोस से पूछताछ न कर लें, पहले की तरह... उन्हें बहका न दे... पड़ोसी बदनाम करने में सबसे आगे रहते हैं... पहले भी न जाने कितनी पार्टियों को बहकाया है।”

सही बात तो है...अच्छी-खासी बात फाइनल हो रही होती है, बीच में ऐसी भांजी मारते हैं कि सब गुड़-गोबर हो जाता है। अब बार-बार के रिजेक्शन से बदनामी तो होती ही है यार... पड़ोसी वास्तव में बहुत जलते हैं।
पहले भी कई बार पार्टियाँ आई थीं, देखी गईं, बातचीत हुई और चली गईं। बिना कुछ कहे... चाय-नाश्ता करवाया... कह रहे थे... फाइनल हम मीडिएटर को बता देंगे... मीडिएटर भी तसल्ली दे गया था कि चिंता न करो... जवाब बस हाँ ही समझो। हमने भी काफी कोशिश की उनके हाव-भाव से जानने की... पसंद तो है ना? चाय-नाश्ते में भी कोई ना-नुकर नहीं की... बात भी बड़े हँस-हँसकर कर रहे थे... लेकिन चार दिन हो गए थे... कोई जवाब नहीं आया। कम से कम मीडिएटर को ही बता देते... भाई, पसंद है या नहीं? अब हम दूसरी जगह बात चलाएँ या आपके जवाब का इंतज़ार करें? दो जगह पसंद भी आया, तो पैसों के मामले में बात नहीं बनी। अब डिमांड जो बाज़ार भाव है, वही लगाएंगे ना? ये तो नहीं है कि हम बाज़ार को नहीं समझते। पहले भी तो हुए हैं हमारे पड़ोस में ही... देखो ना, चुपचाप कर लिया, पता ही नहीं चला। हमने तो जब जाना, जब पड़ोस की शर्मा आंटी सुबह-सुबह मिठाई का डिब्बा लेकर आईं।

अब हमने तो नहीं छुपाया... भाई कोई पाप कर रहे हैं क्या? जुआ थोड़े ही खेल रहे हैं... खरा सोना है हमारा तो। लेकिन बहकाने वालों का क्या, इनका तो काम ही यही है, बस ताक में रहते हैं... बाज़ की सी निगाह... कौन आ रहा है, देखें... किसकी नज़र है। अब जो दूर से आया है, उसके कान तो वैसे भी कच्चे होते हैं। इतने से पाँव होते हैं, बस... जरा सा कोई उल्टा-सीधा बोल दे, तो तुरंत उल्टे पाँव हो लेते हैं। ऐसे भागते हैं जैसे न जाने साँप दिख गया हो।

अच्छा, आप क्या समझ रहे हैं? यहाँ लड़की दिखाई की बात चल रही है? नहीं जी नहीं, आजकल लड़कियाँ कौन दिखाता है? लड़की दिखाई होती तो कोई परेशानी थोड़ी ही थी... आजकल लड़की वाला होना तो समाज में यूँ समझो कि ठाठ हैं आपके।
तो क्या समझे? लड़के दिखाई की बात है? नहीं जी, यहाँ भी गच्चा खा गए आप...

ये तो बात चल रही है प्लॉट दिखाई की। जी हाँ, एक प्लॉट है जो बिकाऊ है। बस उसी को देखने आ रही है आज भी एक पार्टी। जी, आजकल प्लॉट दिखाई ने बीते जमाने की लड़की दिखाई और आज के ज़माने की लड़का दिखाई जैसा ही माहौल बना रखा है। पहले प्लॉट के विभिन्न कोणों से खींचे गए फोटो... पोर्ट्रेट, लैंडस्केप... फिर कागजात और डॉक्यूमेंट्स भेजे जाते हैं, एक तरह से प्लॉट का बायोडाटा... शादी के ब्यूरो की तरह प्लॉट खरीद-फरोख्त के भी ब्यूरो खुले ही हैं। ब्रोकर आपके प्लॉट का बायोडाटा लेकर पार्टी तलाशता है... कमीशन फिक्स रहता है। प्लॉट की डिग्री की जाँच होती है, सोसाइटी का पट्टा या JDA का पट्टा, लड़की ग्रेजुएट है या पोस्ट ग्रेजुएट जैसी बात। इसी के हिसाब से वैल्यू तय होती है। सोसाइटी का पट्टा... यानी कि प्लॉट का चक्कर हो सकता है कि दो-चार जगह चल रहा हो... कोई भी रजिस्ट्री करा ले, ऐसा धोखा... कोई भी कब्ज़ा कर ले, ये अंदेशा... प्लॉट का रहवास कहाँ का है? प्लॉट की पिछली सात पीढ़ियों के कागजात ढूँढे जाते हैं। अगर प्लॉट को पहले दस-बीस लोगों ने देख लिया और रिजेक्ट कर दिया, तो एकदम बदनाम हो जाएगा... लड़की की तरह फिर खरीदने वाले ऐसे ही बिचकेंगे, जैसे लड़की देखने वाले। आस-पड़ोस के लोगों के ख़्यालात-विचार, प्लॉट का चाल-चलन मालूम करना होता है... कहीं पड़ोसी ने कब्ज़ा तो नहीं कर रखा... नाली निकाली हुई हो... किसी और से चक्कर तो नहीं चल रहा... कहीं पहले ही बेच तो नहीं दिया हो... दस तरह के मुंह जी दस तरह की बातें..चाहे प्लॉट हो या लड़का-लड़की, दोनों की कुंडली पंडित जी से पहले पड़ोसियों से मिलवाई जाती है। बस इसी समय आपके पड़ोसियों से आपके पिछले सात पीढ़ियों में किए गए आचार-व्यवहार, लेन-देन, नोंकझोंक सब फ्लैशबैक की तरह पड़ोसियों के सामने आ जाते हैं, और फिर पड़ोसी इसका बदला लेते हैं। क्या करें, उनके खुद के लड़के-लड़की या इसी के समानांतर बिन ब्याहे प्लॉट पड़े हुए हैं, जिन्हें उन्हें निकलवाना है। उम्र हो रही है। या उनके रिश्तेदार ने कह रखा है, भाई, कोई ग्राहक आए तो हमारा भी निकालवाना, हमारी तरफ डायरेक्ट कर देना। कई बार आप रह रहे हैं दूर, प्लॉट आपका कहीं और, लेकिन वहाँ भी वो प्लॉट के पड़ोसी, जिनसे आपकी दूर-दूर तक कोई खानदानी दुश्मनी नहीं, वो अड़चन लगाएंगे। कारण है कि खाली प्लॉट उनके लिए बड़ा सुभीता होता है, अपने घरों की नालियाँ निकालने के लिए, कूड़ा-कचरा डालने के लिए, शादी-ब्याह में टेंट लगाकर बारात जिमाने , सत्संग-भजन करने के लिए, और नहीं तो पार्किंग के काम तो आता ही है। बस चले तो कॉलोनी वाले सामुदायिक भवन तान दें। अब आते हैं शादी के दलाल... ऐसे ही प्लॉट के दलाल। आपके प्लॉट के कागजातों को ऐसे वायरल कर देंगे, लड़का-लड़की या प्लॉट... सारी निजता को बाजारू चीज बना देते हैं। दलाल अपने दलाली के लिए टोकरी में रख, लड़का-लड़की हो या प्लॉट, ऐसे ही बेचते हैं... प्लॉट ले लो, प्लॉट...! प्लॉट भी जैसे कह रहा हो, ‘थोड़े जवान क्या हुए मालिक, आपके तो सर पर बोझ लगने लगे ना।’ भाई, ऐसे सर पर रखकर नहीं बेचना है, लेकिन नहीं, अब गेंद आपके पाले से निकल चुके हैं। अब तो वो प्लॉट की सगाई करके ही मानेंगे।
कह रहे हैं, ‘इसे ही क्यों बेचना चाहते हो? आपके दो प्लॉट और हैं ना, उन्हें भी निकाल दें?’ मैंने कहा, ‘नहीं, यही बेचना है। ये बड़ा बेटा है, पहले इसकी शादी करेंगे, छोटे की बाद में करेंगे ना।’
अरे साहब, छोटे की डिमांड ज्यादा है, वो ज्यादा पढ़ा-लिखा है। खरा सोना है, वो रात के 12 बजे भी बेच सकता हूँ।’ मैंने कहा, ‘जी, अपने बेटे दुनिया के लिए खोटे सिक्के हो सकते हैं, माँ-बाप के लिए नहीं।’

**रचनाकार:**
**डॉ. मुकेश असीमित**
**Email ID:** drmukeshaseemit@gmail.com

अपनी पहचान भुलाए बैठे हैं,चहरे पर चेहरा लागाये बैठे हैं।दिखा न दे आइना कहीं सच्ची तश्वीर ,आईने को झूठ से सजाए बैठे हैं।म...
23/10/2024

अपनी पहचान भुलाए बैठे हैं,
चहरे पर चेहरा लागाये बैठे हैं।
दिखा न दे आइना कहीं सच्ची तश्वीर ,
आईने को झूठ से सजाए बैठे हैं।
मिलेगी चाँद से रोशनी ,सूरज से तपन ,
ख्वाबों को अपने यूँ सजाये बैठे हैं।
इश्क का नाम लेकर किया कत्ल दिलों का ,
वो कातिल भी बेगुनाही दिखाए बैठे हैं।
हर शख़्स के मुखौटे में फ़रेब असीमित ,
सच को नए- नए रंग चढ़ाए बैठे हैं।
~डॉ मुकेश असीमित

शुभ प्रभात मित्रो एक व्यंग्य लेख साझा कर रहा हूँ,आपकी समालोचनात्मक प[रतिक्रियाओं का इंतज़ार **लूटपाट का जेबी संस्करण**जेब...
23/10/2024

शुभ प्रभात मित्रो
एक व्यंग्य लेख साझा कर रहा हूँ,आपकी समालोचनात्मक प[रतिक्रियाओं का इंतज़ार
**लूटपाट का जेबी संस्करण**

जेबों का कमाल देखने लायक होता है... बचपन की याद है... मेरी सबसे छोटी बहन कभी फ्रॉक नहीं पहनती थी, हमेशा लड़कों वाली शर्ट ही पहनती थी। कारण यह था कि फ्रॉक में जेब नहीं होती थी और शर्ट में जेब होने से उसे बहुत सुभीता थी। नक़ल की पर्चियाँ रखने से लेकर, चॉकलेट, मिठाई, पेन और पेंसिल तक सब कुछ उसमें रख सकती थी। जेब की अहमियत तभी से समझ में आने लगी थी। हमारी छोटी-सी मिठाई की दुकान थी, हम भाई-बहन जब ग्राहकों को तोलते थे, उसी समय चुपके से एक-दो पीस अपनी जेब के हवाले भी कर लेते थे। यह लूटपाट का 'जेबी संस्करण' बचपन से ही शुरू हो गया था, सिखाया नहीं जाता, बस अपने आप हो जाता है।

लेकिन वो समय था जब जेबें या तो मुद्रा रखने के लिए, या कलम रखने के लिए होती थीं। दो ही तरह के आदमी पाए जाते थे , जिन पर लक्ष्मी की कृपा, वो पैसों का धनी; और जिन पर सरस्वती की कृपा, वो कलम का धनी। हमारे गाँव के प्रधान जी का हमें याद है... वो बंडी पहनते थे... कुर्ता अपने कंधे पर रखते थे... धुला हुआ सफ़ेद झक्क कुर्ता, कलफ लगा हुआ, ये दिखाने के लिए कि उनके पास कुर्ता भी है। बंडी में आगे की तरफ एक लंबी जेब होती थी, बंडी का कपड़ा झीना होता था, पारदर्शी सा। उसमें रखी जाती थीं नोटों की गड्डी, जो साफ़-साफ़ दिखाई देती थीं। लोग उन चमकते नोटों को देखकर प्रधान जी की शान और शोहरत का अंदाज़ा लगा लेते थे। पहले यही शान-ओ-शौकत दिखाने का एक तरीका था। बाद में जब मोबाइल आए, तो यह दिखावा भी बदल गया। अब तो जेब की शानो-शौकत उसमें रखे मोबाइल के लेटेस्ट वर्जन से ही आंकी जाती है।

मेरे शहर के ही किसी भूतपूर्व डॉक्टर का किस्सा मुझे शहर के बाशिंदे अक्सर सुनाते हैं। वो डॉक्टर साहब मरीज़ों की जेब देखकर ही उनका इलाज तय करते थे। उनकी जेब की मोटाई के आधार पर ही फीस और जांचें होती थीं। ख़ैर, अब जेब में पैसे रखने की ज़रूरत नहीं रही, क्योंकि डिजिटल युग आ गया है और अब मोबाइल में ही बैंक आ गया है। पहले पैसा जनता की जेब में जाता था, और एक जेब से दूसरी जेब में पहुँचते-पहुँचते कुछ हिस्सा गायब हो जाता था। हमारे एक पुराने नेताजी ने तो अपने सार्वजनिक भाषण में यह चिंता जाहिर की थी कि सरकार की जेब से निकला एक रुपया जनता तक पहुँचते-पहुँचते 25 पैसे ही बचता है। उनकी चिंता स्वाभाविक थी, क्योंकि सरकार की गतिविधियाँ सरकारी आलाकमान के नाक के नीचे ही तो होती हैं। यह तो तय बात है, जनता को पैसा पहुँचने से पहले जितनी जेबें पड़ेंगी, उतनी ही छीजत होगी। जेबों में चिपक जाता है पैसा। जितना बड़ा अधिकारी , उतना ही उसकी जेब में लगा फेविकोल का मजबूत जोड़। और स्वाभाविक है, अधिकारियों की जेबें भरने के लिए बनी हैं, खाली करने के लिए नहीं। जेबें खाली करना तो जनता का काम है।

अब जब से जेब में पैसे रखने का रिवाज खत्म हो गया, जेबकतरों का धंधा भी मंदा पड़ गया। लेकिन असली जेबकतरे वो हैं जिन्हें आपकी जेब में रखे पैसों से कोई मतलब नहीं, वो तो आपकी नौकरी, सपने, और उम्मीदें काट ले जाते हैं।

कोई अपनी जेब में धर्म रखे घूम रहा है, कोई राजनीति, कोई समाज को अपनी जेब में डालकर चल रहा है, और साहित्य भी अब जेबों में रखा जा रहा है। लोकतंत्र के चार स्तंभ भी अब 'जेबी' हो गए हैं। चारों पिलर का जीर्णोद्धार हुआ... रेनोंवेशन... पिलर के चारों ओर बड़ी-बड़ी जेबें सजा दी गई हैं। चारों पिलर अपनी-अपनी जेबें अपने-अपने तरीकों से भर रहे हैं। आप जेब उनके कपड़ों पर ढूंढ रहे हैं, ये कपड़ों पर नज़र नहीं आतीं, इन्हें कोई पारंपरिक जेबकतरा काट नहीं सकता।

नौकरियाँ अब जेब में हैं, यही नहीं ..सिफारिशें, टेंडर, योजनाएँ, स्कीमें, राहत बजट और चुनावी रेवड़ियों से भरी हुई जेबें।

जिनकी जेब में 'नेताजी' होते हैं, समझो उनकी जेब का सिक्का हर जगह चलता है। मेरे ओपीडी में भी ऐसे कई मरीज़ आते हैं, जो आते ही सबसे पहले अपनी जेब से 'नेताजी' को निकालते हैं। मैं हँसते हुए कहता हूँ, "भाई, ये तो खोटा सिक्का है, ये यहाँ नहीं चलेगा।" वे हैरान होकर कहते हैं, "डॉक्टर साहब, ये आप कैसे कह सकते हैं?
कुछ हैं चालाक ..वो ऐसा सिक्का रखते हैं..जिसमें दो धुर विरोधी पार्टियों के नेताओं के चहरे लगे होते हैं..देश, काल, परिस्थिति के हिसाब से सिक्के का एक पहलू दिखाते है... ।एक अख़बार वाले हैं, जो मेरी जेब में आने को बेताब हैं। मेरी ख़ाली जेब उन्हें अच्छी नहीं लगती। क्या डॉक्टर साहब, हमें भी अपनी जेब में रख लो। देखिए, आपकी जेब की शोभा बन जाएँगे, और आपकी किस्मत चमका देंगे... आपको हीरो बना देंगे इस शहर का।"

कोई प्रशासन को अपनी जेब में रखता है, तो कोई मीडिया को। ऐसे लोग मानते हैं कि उनकी जेब ही उनकी ताक़त है। उनकी नज़र में, अगर जेब में 'नेताजी' या कोई प्रभावशाली व्यक्ति हो, तो ज़िन्दगी की आधी मुश्किलें हल हो जाती हैं।

नेताजी अपनी जेब में त्यागपत्र रखते हैं, दिखाने के लिए, देने के लिए नहीं। नेताजी की जेब दिखाने के लिए नहीं होती, और अगर कभी दिखा भी देंगे, तो फटी हुई जेब ही दिखाएँगे। हाथ डालकर कहेंगे, "देखो, हमारी जेब फटी हुई है, हम तुम्हारी बिरादरी के ही हैं, दीन-हीन हैं, जेब में क्या रखेंगे? जो भी रखेंगे, निकल जाएगा।" लेकिन असल में, नेताजी की दिखाने की जेब अलग और भरने की जेब अलग।

क्या-क्या नहीं रखते ये अपनी जेबों में! सिर्फ त्यागपत्र ही नहीं, इनकी जेबों में घोषणाएँ, वादे, एक रूमाल होता है जिसमें मगरमच्छ के आँसू भी होते हैं। जब चाहें, उन आँसुओं को अपनी आँखों में सुरमे की तरह लगा लेते हैं। जातिवाद, धार्मिक उन्माद, क्षेत्रवाद, सेकुलरवाद सब कुछ इनकी जेब में समाया रहता है। जहाँ चाहें, जैसा जादू दिखा दें और चला भी दें। दिखाएँगे वही जादू, जो जनता के सर चढ़कर बोले।

"लो, हमारे आका बताओ, कौन सा पत्ता चलेगा?" जहाँ जैसा पत्ता चलेगा, वो ही निकालेंगे... जाति का पत्ता, धर्म का पत्ता, क्षेत्रवाद का, भाषावाद का, साम्प्रदायिकता का। पूरी ताश की गड्डी के 52 पत्ते नेताजी की जेब में होते हैं, और जनता के पास होता है बस एक जोकर का पत्ता। उसी से जनता खेल रही है।

जेबें सिर्फ कपड़ों में नहीं होतीं, इनकी जेबें बैंकों में, लॉकर्स में, बोरों में, आलमारियों में, बेड में, बाथरूम में, कार की डिक्कियों में... सब जगह फैली होती हैं। ये लोग जेबों का तकिया लगाकर सोते हैं और उसी का बिछौना बनाते हैं। अब सत्ता जवाबदेही सरकार की नहीं, जेबदार सरकारों की हो रही है। जिसके जितनी बड़ी जेब, वही विधायक, वही सांसद... उसी का बहुमत।

जेब की ताकत कुर्सी दिलाती है, मंत्री पद दिलाती है, टिकट दिलाती है। गैंगस्टर अपनी जेब में पिस्टल रखते हैं, वहीं अफसर अपनी जेब में मीटिंग रखते हैं। ईडी, सीबीआई, आयोग, और समितियाँ भी जेबों में समा जाती हैं। कानून के रखवाले खुद कानून को अपनी जेब में रखते हैं ताकि जनता कानून को तोड़ न दे। कानून तोड़ने का हक़ सिर्फ उन्हें है, जनता को नहीं।

बचपन में चॉकलेट और पेंसिल रखने वाली जेबें आजकल सपने और नौकरियाँ चुराने का हुनर सीख गई हैं। लूटपाट के इस जेबी संस्करण से ही पूरी अर्थव्यवस्था चल रही है। जनता के हिस्से में हमेशा वही जोकर का पत्ता आता है, जो खेल में बस हार पक्की करता है।

अब जेबी संस्करण को जेबी ही रहने देते हैं... चलो मिर्जा ग़ालिब का असली शेर तो अर्ज कर लें...

"हजारों ख़्वाहिशें ऐसी कि हर ख़्वाहिश पे दम निकले,
बहुत निकले मेरे अरमान लेकिन फिर भी कम निकले।"
— मिर्ज़ा ग़ालिब
रचनाकार -डॉ मुकेश असीमित
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