02/04/2024
जिंदगी की सीमा में कैद मौत की दहलीज़ पर खड़ा स्वस्थ-चित्त व्यक्ति पल पल मृत्यु का अनुभव करता है। वह हर क्षण मुक्त होना चाहता है। और हां दर्द तो वह बिल्कुल नहीं चाहता।
वह कातर आंखों से अपने डॉक्टर की तरफ देखता तो है , पर समय के साथ साथ डॉक्टर से उसकी अपेक्षाएं कम होने लगती हैं। आत्म-बोध का यह दौर उसके डॉक्टर को भगवान की जगह से उठाकर सीधे सामान्य इंसान बना देने की भगवान की ही योजना का एक हिस्सा लगता है। क्योंकि ईश्वर को किसी और का ईश्वर हो जाना कैसे बर्दाश्त हो। और यही सत्य है। फिर चिकित्सा की अपनी सीमाएं हैं , बाध्यता है। पर इस सबके बावजूद मरीज के मन- मस्तिष्क में उम्मीद की एक किरण हमेशा रहती है, वह सब जानते हुए भी एक जादू की उम्मीद लिए अंतिम समय तक बैठा रहता है। और इस दर्दनाक ऊहापोह में वह एक भगवान से दूसरे भगवान , एक डॉक्टर से दूसरे डॉक्टर , एलोपैथी से होमिओपैथी अथवा आयुर्वेद तक का सफर तय करता रहता है।
ऐसी परिस्थितियों में कई अतिउत्साही मेरी तरह के नौजवान चिकित्सकों की वजह से उन्हें सामान्य से ज्यादा कष्ट भी झेलने पड़ जाते हैं। जो कि कभी कभी शारीरिक और निश्चित रूप से आर्थिक तो होते ही हैं।
शायद ऐसे वक्त में आत्म बोध की जरूरत , मरीज और डॉक्टर दोनों को है।
ऐसे धर्मसंकट में एक डॉक्टर गाहे- बगाहे पड़ता ही रहता है। अब उम्मीद की किरण को जिंदा रखने के लिए हल्की हवा देनी है अथवा तेज फूंक मारकर एकबार में उसे बुझाकर मरीज को अंधकार में ढकेल देना है , ये डॉक्टर के विवेक पर निर्भर करता है।
चिकित्सा के ज्ञान के मामले में सभी डॉक्टर लगभग एक जैसे ही होते हैं। पर जीवन- मृत्यु की परिस्थिति में एक अच्छा डॉक्टर, मरीज की उम्मीद की किरण को बुझने भी नहीं देता, और अगर उम्मीद की किरण से जीवन की लालसा एक आग बनने लगे तो सबसे पहले उसे बुझाने में लग पड़ता है। वह मरीज की उम्मीद को भी जिंदा रखता है और आग भी नहीं लगने देता। यह संतुलन बहुत जरूरी है। ऐसे संतुलन को आते आते समय लगता है।
इस प्रक्रिया में मरीज को डॉक्टर पर पूर्ण विश्वास होने लगता है। वह डॉक्टर की बाध्यता भी समझ लेता है, और भगवान बनाने की बजाय एक सामान्य इंसान की उसकी स्तिथि पर खेद भी व्यक्त नहीं करता। धीरे- धीरे वह हर अवस्था में उसे ही देखना चाहता है। वजह बेवजह अपने डॉक्टर से मिलकर उसे शांति का अहसास होता है। और हो भी क्यों ना, क्योंकि अपने शारीरिक दर्द को तो वो अस्पताल में छोड़ ही आता है , बाकी मानसिक दर्द को वो अपने डॉक्टर के कान में डालकर निश्चिंत हो जाता है। वो अपने परिवारीजनों के बारे में या किसी के भी बारे में अपने डॉक्टर से बेहिचक बोल देता है। क्या पता यही उसे ईश्वर का द्वार लगता हो ?
मरीज - डॉक्टर के इस अनोखे रिश्ते में अच्छा डॉक्टर एक अच्छे स्पॉन्ज की तरह चुपचाप सब सोख लेता है। और इसके बदले में उसे कुछ नहीं मिलता। हां अगर थोड़ी कृतज्ञता भी मिल जाए , तो वो उसे खुशी देती है।
समय के साथ चीजें तेजी से बदलती नजर आईं हैं । पर एक चीज़ जो कभी नहीं बदली वो यही कि कि एक अच्छा डॉक्टर वही है जो मरीज के मन भाए। और मरीज के मन को वही भा सकता है जो मरीज के मन तक पहुंच जाए।
- डॉ. नवीन सोलंकी
# गिरती हुयी दीवार का हमदर्द हूँ यारो.