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✨ MeditationDo not say:"Tomorrow I will meditate longer!”You will suddenly find that a year has passed without fulfilmen...
22/08/2025

✨ Meditation

Do not say:

"Tomorrow I will meditate longer!”

You will suddenly find that a year has passed without fulfilment of your good intentions.

Instead, say:

“This can wait and that can wait, but my meditation cannot wait!”

~ Sri Paramahansa Yogananda,
"Sayings of Paramahansa Yogananda"
🙏🏻🙏🏻🙏🏻

गुरु का स्वरूप और महत्वभारतीय संस्कृति में गुरु का स्थान सर्वोच्च माना गया है। गुरु ही वह शक्ति है जो अज्ञान के अंधकार क...
18/08/2025

गुरु का स्वरूप और महत्व

भारतीय संस्कृति में गुरु का स्थान सर्वोच्च माना गया है। गुरु ही वह शक्ति है जो अज्ञान के अंधकार को दूर कर ज्ञान का प्रकाश देती है। स्कन्दपुराण में स्वयं देवाधिदेव महादेव ने गुरु की महिमा का वर्णन करते हुए स्पष्ट किया है कि गुरु की प्राप्ति अनेक जन्मों के पुण्यों से संभव होती है।

गुरु की प्राप्ति

महादेव कहते हैं:
“बहुजन्मकृतात् पुण्याल्लभ्यतेऽसौ महागुरुः ।
लब्ध्वाऽमुं न पुनर्याति शिष्यः संसारबन्धनम् ।।”

अर्थात् अनेक जन्मों के पुण्यकर्मों से महागुरु प्राप्त होते हैं। ऐसे गुरु की शरण में जाने वाला शिष्य पुनः संसार के बंधन में नहीं पड़ता और मुक्त हो जाता है।

गुरु कौन हैं?

भगवान शिव पार्वतीजी को बताते हैं कि संसार में अनेक प्रकार के गुरु होते हैं, परंतु उनमें से केवल परम गुरु का ही सेवन करना चाहिए।

परम गुरु के लक्षण:
• जो सर्वकाल और सर्वदेश में स्वतंत्र, निश्चल और आनन्दस्वरूप हों।
• जो द्वैत-अद्वैत से परे, अपने अनुभव के प्रकाश से अज्ञान का नाश करने वाले हों।
• जिनके दर्शन मात्र से मन प्रसन्न हो जाए, धैर्य और शांति की अनुभूति हो।
• जो स्त्री और धन के मोह का नाश कर चुके हों, आत्मा को अद्वय जानने वाले हों।

गुरु के प्रकार

महादेव ने गुरु के विभिन्न प्रकार बताए हैं:
1. सूचक गुरु – लौकिक शास्त्रों का अभ्यास कराने वाले।
2. वाचक गुरु – वर्णाश्रम के अनुसार धर्म-अधर्म की शिक्षा देने वाले।
3. बोधक गुरु – मंत्रोपदेश देने वाले।
4. निषिद्ध गुरु – मोह, वशीकरण आदि तुच्छ मंत्रों का उपदेश करने वाले (इनसे बचना चाहिए)।
5. विहित गुरु – संसार की नश्वरता बताकर वैराग्य का मार्ग दिखाने वाले।
6. कारण गुरु – महावाक्यों (तत्वमसि आदि) का उपदेश करने वाले, संसार रूपी रोग का निवारण करने वाले।
7. परम गुरु / सदगुरु – संदेह का नाश करने वाले, जन्म-मृत्यु के भय को दूर करने वाले, सच्चे मार्गदर्शक।

गुरुदीक्षा का अधिकारी कौन?

शिवजी बताते हैं कि दीक्षा उसी को दी जानी चाहिए:
• जिसने दुष्ट संग और पापकर्म छोड़े हों।
• जो क्रोध और अहंकार से रहित हो।
• जो द्वैतभाव त्यागकर निर्मल जीवन जीता हो।
• जो सब प्राणियों के कल्याण में रत हो।

किसे गुरु नहीं बनाना चाहिए?

महादेव सावधान करते हैं कि इन व्यक्तियों को गुरु न मानें:
• पाखंडी, पापरत, नास्तिक, स्त्रीलम्पट।
• दुराचारी, क्रोधी, हिंस्र, शठ और कपटी।
• अज्ञानी, क्षमा-रहित, निन्दनीय तर्क करने वाले।
• धन और वासना के मोह में फँसे लोग।

स्कन्दपुराण में गुरु केवल ज्ञान देने वाले शिक्षक नहीं, बल्कि जीवन को दिशा देने वाले और मोक्ष का मार्ग दिखाने वाले बताए गए हैं। अनेक प्रकार के गुरु मिल सकते हैं, परंतु शिष्य को विवेक से निर्णय कर केवल सदगुरु की शरण लेनी चाहिए।

महादेव के वचनों का सार यही है कि —
गुरु ही जीवन के सच्चे मार्गदर्शक हैं। योग्य गुरु की शरण में जाकर ही आत्मज्ञान और मोक्ष की प्राप्ति संभव है।

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“योग साधना में निरंतरता – ही सफलता की कुंजी है”योग केवल शरीर को स्वस्थ रखने की विधा नहीं है, यह जीवन की सम्पूर्ण दिशा को...
01/08/2025

“योग साधना में निरंतरता – ही सफलता की कुंजी है”

योग केवल शरीर को स्वस्थ रखने की विधा नहीं है, यह जीवन की सम्पूर्ण दिशा को भीतर से परिवर्तित करने की एक साधना है। चाहे आप आसनों के साधक हों, प्राणायाम में रुचि रखते हों, ध्यान करते हों, या फिर हठ योग, अष्टांग योग, भक्ति योग या ज्ञान योग के पथिक हों — सभी के लिए एक बात समान है: निरंतर अभ्यास।

योग में निरंतरता का महत्व

योगसूत्र 1.14 में महर्षि पतंजलि कहते हैं:

स तु दीर्घकालनैरन्तर्यसत्कारासेवितो दृढभूमिः॥
“वह (अभ्यास) जो दीर्घकाल तक, निरंतर और श्रद्धा के साथ किया जाए, वह ही स्थिर आधार देता है।”

आजकल जीवन में विभिन्न कारणों से —
• पारिवारिक जिम्मेदारियाँ,
• शारीरिक रोग,
• मानसिक उलझनें,
• काम की अधिकता,
• या कभी-कभी अदृश्य प्रारब्ध —
इनके कारण योगाभ्यास में निरंतरता टूट जाती है।

मैंने यह अनुभव किया है कि 90% साधकों की यह ही कहानी होती है। शुरू में ऊर्जा होती है, लेकिन कुछ समय बाद वह लय टूट जाती है।

विघ्न कब आते हैं?

योगसूत्र 1.30 में बताया गया है कि साधना में बाधाएँ कौन-कौन सी हैं:

व्याधि-स्त्यान-संशय-प्रमाद-आलस्य-अविरति- भ्रान्तिदर्शन-अलब्धभूमिकत्व- अनवस्थितत्वानि चित्तविक्षेपास्तेऽन्तरायाः॥

इनमें से व्याधि (रोग), प्रमाद (लापरवाही), आलस्य (सुस्ती) और अलब्धभूमिकत्व (स्थिरता न बन पाना) — ये सबसे आम कारण हैं निरंतरता टूटने के।

तो समाधान क्या है?

ईश्वरप्रणिधान — समर्पण।
योगसूत्र 2.45 कहता है:

समाधि सिद्धिः ईश्वरप्रणिधानात्॥
“ईश्वर में समर्पण से समाधि सिद्ध होती है।”

यह वही बिंदु है जहाँ अभ्यास केवल “प्रयास” नहीं रहता, वह “प्रवृत्ति” बन जाता है। जब हम साधना को ईश्वर के चरणों में अर्पित करते हैं, तो उसमें से फल की अपेक्षा समाप्त हो जाती है, और फिर साधना खुद चलती है — बिना बाधा के।

भागवत गीता का संदेश

भगवद्गीता में भी भगवान श्रीकृष्ण अर्जुन से कहते हैं:

अभ्यासेन तु कौन्तेय वैराग्येण च गृह्यते॥ (गीता 6.35)
“हे कौन्तेय! अभ्यास और वैराग्य के द्वारा चंचल मन को वश में किया जा सकता है।”

यहाँ भी निरंतर अभ्यास की बात है, जो वैराग्य (आसक्ति की समाप्ति) के साथ मिलकर ही फल देता है।

यदि आप चाहते हैं कि योग आपको भीतर से रूपांतरित करे —
तो उसे केवल एक “activity” की तरह नहीं, बल्कि “जीवन का अंग” मानिए। भले ही 15 मिनट करो, पर हर दिन करो। जो आज नहीं कर पाए, वह कल फिर से शुरू करें — बिना अपराधबोध के।

हर दिन, हर पल, अपने अभ्यास को ईश्वर के चरणों में समर्पित करें, तो फिर न तो विघ्न टिकते हैं, न ही निरंतरता टूटती है।

🕉️ योग एक पथ है — और हर पथिक की पूंजी है उसकी निरंतरता।

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अनुराग और विषाद, निमित्त भाव और सब छूमंतरजीवन में हमारे सारे अनुभव दो भावों के इर्द-गिर्द घूमते हैं - अनुराग (जिससे हम ज...
28/07/2025

अनुराग और विषाद, निमित्त भाव और सब छूमंतर

जीवन में हमारे सारे अनुभव दो भावों के इर्द-गिर्द घूमते हैं - अनुराग (जिससे हम जुड़ते हैं) और विषाद (जिससे हम टूटते हैं)। एक खींचता है, एक गिराता है। लेकिन योग और भगवद गीता दोनों कहते हैं — यदि ये दोनों भाव “निमित्त” बन जाएं, तो सब क्लेश छूमंतर हो सकते हैं।

अनुराग – जब मन किसी से या किसी चीज़ से जुड़ जाता है

कभी कोई व्यक्ति, वस्तु, स्थान, स्मृति या भाव ऐसा लगता है कि “बस यही चाहिए”। हम उसमें खो जाते हैं। फिर वो छिन जाए या बदल जाए, तो हमें दुख होता है।

यही राग है — सुख की आसक्ति।
योग इसे क्लेश कहता है।

लेकिन अगर अनुराग को निमित्त बना दें —
मतलब: “इस प्रेम को माध्यम बनाऊँ अपने भीतर उतरने का। इस लगाव को सीढ़ी बनाऊँ ईश्वर से जुड़ने की।” तब यह बंधन नहीं, भक्ति बन जाता है।

विषाद – जब मन टूट जाता है

विषाद तब होता है जब कुछ छिन जाता है, कुछ जैसा चाहा वैसा नहीं होता, या जब भीतर खालीपन घर कर लेता है।

यही द्वेष या दुःख का भाव है।

लेकिन क्या आपने देखा है?
विषाद कभी-कभी हमें भीतर की गहराई में धकेल देता है। जहाँ हम सब कुछ छोड़कर बस मौन होते हैं — वहीं से ध्यान की शुरुआत होती है।

यदि हम इस विषाद को भी निमित्त बना लें —

“अब मैं और कुछ नहीं माँगता —
बस सत्य को जानना चाहता हूँ।”
तो यह दुःख भी जागृति का द्वार बन सकता है।

तो समाधान क्या है? – “निमित्त भाव”

जब हम अनुराग या विषाद में फँसते नहीं, बल्कि उन्हें साधना का साधन बना लेते हैं, तब ये भाव हमें नहीं गिराते — बल्कि ऊपर उठाते हैं।

- कोई प्रिय व्यक्ति है — उसे प्रेम करते हुए ईश्वर की झलक देखें
- कोई छूट गया है — उसकी याद में जागृत मौन देखें
- कोई अनुभव बार-बार सताता है — उसे चेतना का दर्पण बना दें

जो भाव आया है, वही साधना का द्वार बन सकता है – बस उसे ‘निमित्त’ बनाना आना चाहिए।

भगवद गीता 11.33:

“निमित्तमात्रं भव सव्यसाचिन्॥”

“हे अर्जुन! तू बस निमित्त मात्र बन जा…”

जब हम खुद को कर्ता नहीं, केवल एक माध्यम (उपकरण) मानते हैं, तब जीवन में भार नहीं, समर्पण और सहजता आती है।

और फिर क्या होता है?

जब भावों की पकड़ ढीली होती है, जब प्रेम में पकड़ नहीं, और दुःख में शिकायत नहीं — तब भीतर कुछ खुलता है।

वहाँ न राग रहता है, न द्वेष
न हर्ष, न विषाद, न इच्छा, न डर, बस एक मौन, एक आनंद… और वही है – योग। मन का रूपांतरण ही सच्चा योग है

भाव आएंगे,
राग-विषाद होंगे,
मन उलझेगा ही…

पर साधक वही है जो हर भाव को ईश्वर का निमित्त बना ले।

“अनुराग हो या विषाद — यदि दोनों में साधना दिखे,
तो जीवन में सब क्लेश, सब उलझन सच में छूमंतर हो जाते हैं।”

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जीवन के लिए चार दिव्य सूत्र: मैत्री, करुणा, मुदिता और उपेक्षापतंजलि योगसूत्र (साधनपाद – सूत्र 1.33)“मैत्री करुणा मुदिता ...
24/07/2025

जीवन के लिए चार दिव्य सूत्र: मैत्री, करुणा, मुदिता और उपेक्षा

पतंजलि योगसूत्र (साधनपाद – सूत्र 1.33)

“मैत्री करुणा मुदिता उपेक्षाणां सुखदुःखपुण्यापुण्यविषयाणां भावनातश्चित्तप्रसादनम्॥”

सुखी व्यक्तियों के प्रति मैत्री (मित्रता),
दुखी व्यक्तियों के प्रति करुणा (दया),
पुण्य आत्माओं के प्रति मुदिता (प्रसन्नता),
और अपुण्य या दोषयुक्त व्यक्तियों के प्रति उपेक्षा (वैराग्यपूर्ण तटस्थता) —
इनका भाव करने से चित्त प्रसन्न और शांत होता है।

पतंजलि का यह सूत्र — “मैत्री, करुणा, मुदिता, उपेक्षा” — न केवल योगियों के लिए बल्कि हर मनुष्य के लिए एक दिशा-सूचक दीपक के समान है। आज के समाज में जहाँ ईर्ष्या, द्वेष, प्रतिस्पर्धा और जलन लोगों को भीतर से खोखला कर रही हैं, यह सूत्र हमें आंतरिक शांति, स्थिरता और प्रसन्नता की ओर ले जाता है।

1. मैत्री – मित्रता और स्नेह का भाव

जब हम दूसरों के सुख से ईर्ष्या नहीं करते, बल्कि उसमें सहभागी बनते हैं, तब जीवन में सच्चा संतोष आता है।
मैत्री का अर्थ है — बिना किसी स्वार्थ के, दूसरे के कल्याण की भावना रखना।

आज समाज में किसी की तरक्की देख, बहुत से लोग कुढ़ते हैं। इस स्थिति में मैत्री की भावना हमें भीतर से स्वस्थ करती है।

2. करुणा – दुखियों के प्रति संवेदना

करुणा का अर्थ केवल दया नहीं, बल्कि दूसरों के दुःख को समझना और उस दुःख को कम करने की सच्ची भावना रखना है।

जब हम किसी दुःखी के प्रति संवेदनशील होते हैं, तो हमारे भीतर मानवीयता का सच्चा स्वरूप विकसित होता है। करुणा हमें कठोरता से बचाती है और हमारे चित्त को कोमल बनाती है।

3. मुदिता – दूसरों की सफलता में प्रसन्न होना

यह सबसे कठिन किन्तु सबसे ऊँचा गुण है।
जब हम किसी पुण्यशील, सफल, सच्चे मनुष्य की उन्नति देखकर हर्षित होते हैं, तब यह हमारी आत्मा की विशालता दर्शाता है।

आज जहां लोग जलन और स्पर्धा में जकड़े हुए हैं, वहाँ मुदिता हमें विष के स्थान पर अमृत पीने का विकल्प देती है।

4. उपेक्षा – दोषियों के प्रति तटस्थता

जब कोई व्यक्ति हमें दुःख दे या अनाचार करे, तो उसके प्रति उपेक्षा का भाव रखना — यह कोई पलायन नहीं, बल्कि आत्म-संरक्षण और विवेक का संकेत है।

उपेक्षा का अर्थ है – न तो घृणा, न क्रोध, न बदला – बस शांत तटस्थता, जैसे कमल जल में रहते हुए भी उससे अछूता रहता है।

क्यों ज़रूरी हैं ये चार सूत्र आज के युग में?
• क्योंकि हर मनुष्य के भीतर अशांति, असंतोष और असहिष्णुता बढ़ रही है।
• क्योंकि सोशल मीडिया, विज्ञापन और प्रतिस्पर्धा ने हमें दूसरों से तुलना करने की आदत डाली है।
• क्योंकि जीवन में शांति अब “साधारण” नहीं रही – उसे साधना पड़ता है।

यह सूत्र हमें सिखाता है कि चित्त की शांति कोई बाहर की चीज़ नहीं है, वह हमारे दृष्टिकोण और भावनाओं का परिणाम है।

पतंजलि का यह सूत्र कोई धार्मिक वाक्य नहीं, बल्कि एक मानव धर्म है।
यदि हम इन चार भावनाओं को अपने जीवन में उतार लें —
तो न केवल हमारा मन शांत होगा, बल्कि हमारा समाज भी एक सुंदर, स्नेहमय स्थान बन जाएगा।

मैत्री – हमें जोड़ती है,
करुणा – हमें नम्र बनाती है,
मुदिता – हमें बड़ा बनाती है,
उपेक्षा – हमें बचाती है।

इन चारों को अपने जीवन के चार स्तंभ बनाएं — ताकि हमारा चित्त प्रसन्न हो, और हमारा जीवन शांतिमय।

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पंच क्लेश – हमारे दुखों की पाँच जड़ें                     हर इंसान के जीवन में कोई न कोई दुःख जरूर होता है — मन की बेचैन...
22/07/2025

पंच क्लेश – हमारे दुखों की पाँच जड़ें

हर इंसान के जीवन में कोई न कोई दुःख जरूर होता है — मन की बेचैनी, रिश्तों की उलझन, इच्छाओं की पूर्ति न होना या फिर किसी प्रिय के खो जाने का डर।
योग कहता है — इन सभी दुखों की जड़ें हमारे ही भीतर होती हैं। इन्हें ‘पंच क्लेश’ कहा गया है।

योगसूत्र 2.3:
"अविद्यास्मितारागद्वेषाभिनिवेशाः क्लेशाः॥"
अविद्या, अस्मिता, राग, द्वेष और अभिनिवेश — ये पांच क्लेश हैं जो हमारे दुःखों की जड़ हैं।

1. अविद्या – जो जैसा है, उसे वैसा न देख पाना | गलत समझ ही सबसे बड़ा दुख है
योगसूत्र 2.5:
"अनित्याशुचिदुःखनात्मसु नित्यशुचिसुखात्मख्यातिरविद्या॥"
जो नाशवान है, उसे शाश्वत समझना, जो अशुद्ध है, उसे शुद्ध मानना, जो दुःखद है उसे सुखद मानना, और जो आत्मा नहीं है उसे आत्मा समझना — यही अविद्या है।
हम चीजों को जैसे हैं, वैसे नहीं देख पाते।
अस्थायी चीज़ों में स्थायित्व ढूंढते हैं — शरीर, पैसा, रिश्ते, पद, सब बदलने वाले हैं, लेकिन हम इन्हें पकड़कर बैठ जाते हैं।
👉 यही भ्रम है — यही अविद्या है।
और यहीं से दुखों की शुरुआत होती है।

2. अस्मिता – "मैं" का झूठा एहसास
योगसूत्र 2.6:
"दृग्दर्शनशक्त्योरेकात्मतेवास्मिता॥"
जब आत्मा और बुद्धि को एक मान लिया जाता है, तब अस्मिता पैदा होती है — "मैं ही शरीर हूँ", "मैं ही सोच हूँ"।

जब हम अपने नाम, काम, पहचान को ही अपना 'स्वरूप' मान बैठते हैं, तब हमारा अहं बढ़ता है, दुख भी। जब हम खुद को केवल नाम, शरीर, काम या पहचान से जोड़ लेते हैं — "मैं डॉक्टर हूँ", "मैं माँ हूँ", "मैं बड़ा आदमी हूँ", "मैं फेल हो गया", "मैं बहुत कुछ हूँ" —
तो ये ‘मैं’ बहुत भारी हो जाता है।
👉 यही अहं है — असली 'मैं' को भूल जाना।

3. राग – जो अच्छा लगा, उसे बार-बार पाना चाहना | सुख की आदत लग जाना
योगसूत्र 2.7:
"सुखानुशयी रागः॥"
जो अनुभव सुखद रहे हों, उनसे बार-बार जुड़ने की इच्छा ही राग है।

हमें जो अच्छा लगता है — मन करता है बार-बार मिले। हम सबको कुछ न कुछ अच्छा लगता है — कोई स्वाद, कोई व्यक्ति, कोई अनुभव। और जब वो चीज़ नहीं मिलती, तो बेचैनी होती है।
👉 यही राग है — सुख की लालसा।

4. द्वेष – जो दुख दिया, उसे भूल नहीं पाना
योगसूत्र 2.8:
"दुःखानुशयी द्वेषः॥"
जो अनुभव दुखद रहे, उनसे दूर भागने या नफरत करने की प्रवृत्ति ही द्वेष है।

कोई हमें अपमानित करता है, मन दुखी होता है। हम उसे भूल नहीं पाते।
हर बार उसका चेहरा, उसकी बात याद आती है — यही द्वेष है। जिससे कभी दुख मिला, चोट लगी, अपमान हुआ — उसे देखकर ही मन सिमट जाता है। हम उसे मन से निकाल नहीं पाते।
👉 यही द्वेष है — दुःख की स्मृति से उपजा गुस्सा या घृणा।

5. अभिनिवेश – खो जाने का डर, मौत का भय
योगसूत्र 2.9:
"स्वरसवाही विदुषोऽपि तथारूढोऽभिनिवेशः॥"
मृत्यु का भय — ज्ञानी व्यक्ति में भी होता है। यह जीवन को छोड़ने का डर है।
यह सबसे गहरा क्लेश है — मृत्यु का डर, हमें अपनों को खोने का डर सताता है, बीमार पड़ने या बूढ़ा होने का डर भी।

👉 यही अभिनिवेश है — सबसे सूक्ष्म लेकिन सबसे गहरा क्लेश। यही डर हमें बाँधता है, और जीवन में खुलकर जीने नहीं देता।

क्या करें इन क्लेशों का?

योग कहता है —
पहचानिए इन्हें, स्वीकार कीजिए, और धीरे-धीरे योग के अभ्यास से इनकी जड़ों को ढीला कीजिए।
योग कोई चमत्कारी उपाय नहीं देता, बल्कि एक धैर्यपूर्ण साधना का मार्ग बताता है:
• रोज़ ध्यान कीजिए
• खुद से संवाद करें — स्वाध्याय (आत्म-चिंतन) की आदत डालिए, "मैं किस क्लेश में फँसा हूँ?"
• धीरे-धीरे वैराग्य (अनासक्ति) को अपनाइए
• जीवन को जैसा है, वैसा स्वीकार करना सीखिए
• और अपने आप से पूछते रहिए —
"क्या मैं राग में हूँ?"
"क्या मैं किसी बात से द्वेष पाल रहा हूँ?"
"क्या मैं कुछ खोने से डर रहा हूँ?"
ये प्रश्न ही आपको मुक्त करना शुरू कर देंगे।
पहचान, स्वीकार और अभ्यास — यही है क्लेशों से मुक्ति का पहला कदम।

दुख मिटाना है तो जड़ तक जाना होगा, जब जड़ समझ आ जाए, तब इलाज आसान हो जाता है
दुख जीवन का हिस्सा है, पर उसका कारण समझना — और उससे मुक्त होना — योग का उपहार है।

पंच क्लेश केवल दर्शन नहीं, हमारे रोज़मर्रा के जीवन की सच्चाई हैं।
जब हम इन्हें देखना शुरू करते हैं, तब जीवन हल्का, सरल और शांत होने लगता है।
दुख बाहर की दुनिया से नहीं आते —
वे हमारे भीतर के क्लेशों से पैदा होते हैं।
योग हमें सिर्फ शरीर लचीला बनाने का साधन नहीं देता,
बल्कि मन को हल्का और आत्मा को मुक्त करने का रास्ता देता है।

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ईश्वरीय सत्ता एवं ईश्वर प्रणिधान मनुष्य की आध्यात्मिक यात्रा का मूल उद्देश्य है – स्वयं के अस्तित्व को समझना और उस परम स...
21/07/2025

ईश्वरीय सत्ता एवं ईश्वर प्रणिधान

मनुष्य की आध्यात्मिक यात्रा का मूल उद्देश्य है – स्वयं के अस्तित्व को समझना और उस परम सत्ता से जुड़ना जो समस्त सृष्टि की आधारशिला है। योगशास्त्र में इसे ईश्वर प्रणिधान कहा गया है – अर्थात् ईश्वर के प्रति पूर्ण समर्पण। यह केवल एक धार्मिक भाव नहीं, बल्कि एक गहन आध्यात्मिक प्रक्रिया है जो आत्मबोध, मन की शुद्धि और अंततः मोक्ष की ओर ले जाती है।

ईश्वरीय सत्ता क्या है?

ईश्वर या ईश्वरीय सत्ता कोई मानव-सदृश आकृति मात्र नहीं है, बल्कि चेतन तत्व है – सर्वज्ञ, सर्वशक्तिमान, सर्वव्यापक और सर्वसमर्थ। वह न सृजित है, न विनाशी; वह साक्षी भाव में स्थित होकर सृष्टि का संचालन करता है।

पतंजलि योग सूत्र में ईश्वर को परिभाषित किया गया है:
“क्लेश कर्म विपाकाशयैरपरामृष्टः पुरुषविशेष ईश्वरः”
(योग सूत्र 1.24)
अर्थात ईश्वर वह विशेष पुरुष है जो क्लेश, कर्म, कर्मफल और संस्कारों से अतीत है।

ईश्वर प्रणिधान क्या है?

ईश्वर प्रणिधान का तात्पर्य है — अपनी समस्त इच्छाओं, अहंकार, और नियंत्रण की प्रवृत्तियों को ईश्वर के चरणों में समर्पित कर देना। जब हम इस भावना से जीवन जीते हैं कि “जो भी हो रहा है, वह ईश्वर की इच्छा से हो रहा है और उसी में मेरे लिए सर्वोत्तम है”, तब हम भीतर में शांत, मुक्त और संतुलित हो जाते हैं।

पतंजलि योग सूत्र में इसे क्रियायोग का एक आवश्यक अंग बताया गया है:
“तपः स्वाध्यायेश्वरप्रणिधानानि क्रियायोगः”
(योग सूत्र 2.1)
अर्थात तप, स्वाध्याय और ईश्वर प्रणिधान – ये तीनों मिलकर क्रियायोग बनाते हैं, जो साधक को चित्त की शुद्धि की ओर ले जाता है।

ईश्वर प्रणिधान के लाभ
1. आंतरिक शांति – जब व्यक्ति ईश्वर के प्रति समर्पण करता है, तो वह चिंता, भय और असुरक्षा से मुक्त हो जाता है।
2. मानसिक स्थिरता – ईश्वर में विश्वास व्यक्ति को प्रतिकूल परिस्थितियों में भी धैर्यवान बनाए रखता है।
3. अहंकार का क्षय – समर्पण भाव अहं को पिघलाता है, जिससे आत्मिक विकास होता है।
4. गहन ध्यान की अवस्था – ईश्वर प्रणिधान ध्यान की गहराई में सहायक होता है, क्योंकि तब मन एक उद्देश्य पर टिक जाता है।

समर्पण - कर्तव्यों से पलायन नही है: ईश्वर प्रणिधान का अर्थ यह नहीं कि हम अपने कर्तव्यों से भाग जाएं। बल्कि यह भाव लाता है कि —
“मैं अपना कर्तव्य पूर्ण निष्ठा से करूँगा, परंतु फल ईश्वर पर छोड़ दूँगा।”
यह गीता के निष्काम कर्मयोग के समान है – कर्म करते रहो, परंतु फल की अपेक्षा ईश्वर को समर्पित कर दो।

ईश्वर प्रणिधान का अभ्यास कैसे करें?
1. नित्य प्रार्थना और ध्यान – दिन की शुरुआत और अंत में कुछ समय ईश्वर का स्मरण करें।
2. ‘जो हो रहा है वह शुभ है’ का भाव – जीवन में जो कुछ भी घट रहा है, उसे ईश्वर की योजना मानकर स्वीकार करें।
3. आत्मनिष्ठा का विकास – नियमित स्वाध्याय, मंत्र जप, या भक्ति-योग के माध्यम से ईश्वर के साथ संबंध मजबूत करें।
4. संकट में भी आस्था बनाए रखें – यही समय होता है ईश्वर के प्रति अपने समर्पण को सत्य में जीने का।

ईश्वर प्रणिधान कोई बाहरी अनुष्ठान नहीं, बल्कि अंतरात्मा की वह अवस्था है जहां ‘मैं’ समाप्त हो जाता है और केवल ‘वह’ शेष रह जाता है। यह योग का चरम है — जहाँ चित्त शांत, अहंकार विसर्जित और आत्मा ईश्वर में विलीन हो जाती है। आज के अशांत और भ्रमित जीवन में यदि कोई शक्ति हमें स्थिरता, सुरक्षा और आनंद दे सकती है, तो वह है — ईश्वर में पूर्ण समर्पण।

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🙏🏻 गुरु ब्रह्मा, गुरु विष्णु, गुरु देवो महेश्वरः।गुरुः साक्षात् परब्रह्म, तस्मै श्री गुरवे नमः॥🙏🏻गुरु हमारे जीवन में अंध...
10/07/2025

🙏🏻 गुरु ब्रह्मा, गुरु विष्णु, गुरु देवो महेश्वरः।
गुरुः साक्षात् परब्रह्म, तस्मै श्री गुरवे नमः॥🙏🏻

गुरु हमारे जीवन में अंधकार को मिटाकर ज्ञान का प्रकाश फैलाते हैं। उनकी कृपा से ही जीवन में दिशा मिलती है, लक्ष्य स्पष्ट होता है, और आत्मा शांति को प्राप्त करती है।

आज इस गुरु पूर्णिमा के पावन अवसर पर प्रार्थना करें —
“गुरु कृपा हम सभी पर सदा बनी रहे, और हम उनके दिखाए मार्ग पर अडिग रूप से चलते रहें।”

🙏 वंदन उन गुरुजनों को, जिन्होंने हमें जीवन जीना सिखाया।🙏🏻

गुरु और गुरु तत्त्व 🙏गुरु केवल एक व्यक्ति नहीं, बल्कि एक तत्त्व हैं — एक चेतना,जो हमारे भीतर अज्ञानता के अंधकार को हटाकर...
08/07/2025

गुरु और गुरु तत्त्व 🙏

गुरु केवल एक व्यक्ति नहीं, बल्कि एक तत्त्व हैं — एक चेतना,
जो हमारे भीतर अज्ञानता के अंधकार को हटाकर ज्ञान का दीपक प्रज्वलित करती है।

गुरु वह शक्ति हैं जो हमें जीवन की उलझनों, भ्रम और माया से बाहर निकालकर हमें स्व की ओर, सत्य की ओर ले जाती हैं।

गुरु के बिना जीवन एक दिशाहीन यात्रा है — जहाँ रास्ते तो हैं, पर मंज़िल नहीं दिखती।
गुरु ही हमारे जीवन में दिशा, विवेक और उद्देश्य का संचार करते हैं।

गुरु का साथ केवल शिक्षा नहीं देता — वह रूपांतरण लाता है।
वह बुद्धि से परे जाकर आत्मा को स्पर्श करता है।

✨ अपने भीतर के अंधकार को जानें, और गुरु के प्रकाश में उसे प्रेम, शांति और चेतना में बदल दें। ✨
गुरु न हों तो हम होते हैं केवल जानकारी के पुतले, गुरु हों तो वही जानकारी बन जाती है आत्मज्ञान।

🙏 तस्मै श्री गुरवे नमः 🙏

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27/06/2025

🌟 Announcing New Batch: 200-Hour Yoga Teacher Training Course 🌟

Anandabodh Institute of Yoga – Celebrating our 14th successful year of Yoga TTC, with hundreds of certified yoga professionals flourishing across the globe! 🌍

Are you ready to deepen your yoga journey and become a certified yoga professional? 🙏

🎓 200-Hour Certificate Course in Yogic Studies
🕉️ Duration: 4 Months
📜 Certifications:
• Yoga Alliance International (India)
• World Yoga Federation (USA)
• ISO Certified
🏛️ Also prepares you for Yoga Certification Board (YCB), AYUSH – Govt. of India

✨ Whether you’re looking to transform your personal practice or step into a global teaching career, this course offers a solid foundation with international credibility.

📍 Course Details & Registration:
🔗 anandabodh.com/yoga-ttc
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🎥 Watch our TTC Journey on YouTube:
▶️ Course Playlist: https://youtube.com/playlist?list=PLUv15Vpl9u6y6q427-6HFTnjvEnce-eq6&si=kNmRu7a7UyevNo0D

📞 To enquire and enroll, WhatsApp us: +91 98914 28646
🌐 Visit: www.anandabodh.com

🧘‍♀️✨ Begin your transformation. Learn. Heal. Inspire. ✨🧘‍♂️

✨ International Yoga Day 2025✨Grateful to have led a rejuvenating Corporate Yoga for Team FINKEDA today!From gentle desk...
21/06/2025

✨ International Yoga Day 2025✨

Grateful to have led a rejuvenating Corporate Yoga for Team FINKEDA today!

From gentle desk stretches to centering deep meditation, together we explored how small gentle practices can bring big transformations — nurturing both workplace harmony and personal well-being.

🙏 A special thanks to Team FINKEDA for embracing this journey with such enthusiasm. May this spark of balance, focus, and inner peace continue to grow in all of us.

✨ A healthy mind creates powerful results. Let’s stay committed to this path of wellness!

Address

D-46 Basement Mayfield Gardens Sector/50

122018

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