Astro Shiv Shankar Chaturvedi

Astro Shiv Shankar Chaturvedi कर्मकाण्ड एवं ज्योतिषीय परामर्श हेतु

ॐ नमो भगते वासुदेवाय

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*🌷ॐ नमो परमात्मने 🌷**पितृ पक्ष में कौओं को भोजन कराने का महत्व*〰️〰️🌸〰️〰️🌸〰️〰️🌸〰️〰️🌸〰️〰️*!!!..-सनातन धर्म में पितृपक्ष का...
10/09/2025

*🌷ॐ नमो परमात्मने 🌷*

*पितृ पक्ष में कौओं को भोजन कराने का महत्व*
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*!!!..-सनातन धर्म में पितृपक्ष का विशेष महत्व होता है, इस साल पितृपक्ष 7 सितम्बर से 21 सितम्बर तक चलेगा, पितृ पक्ष में पितरों का श्राद्ध और तर्पण किया जाता है, इसके साथ ही इस दिन कौओं को भी भोजन कराया जाता है, इस दिन कौओं को भोजन कराना काफी महत्वपूर्ण माना जाता है। पितृपक्ष में पितरों का श्राद्ध और तर्पण करना जरूरी माना जाता है, यदि कोई व्यक्ति ऐसा नहीं करता तो उसे पितरों का श्राप लगता है, लेकिन शास्त्रों के अनुसार श्राद्ध करने के बाद जितना जरूरी भांजे और ब्राह्मण को भोजन कराना होता है, उतना ही जरूरी कौओं को भोजन कराना होता है, माना जाता है कि इस समय में हमारे पितृ कौए का रूप धारण करके पृथ्वी पर उपस्थित रहते हैं।*

*इसके पीछे एक पौराणिक कथा जुड़ी है जो कि इस प्रकार है:- इन्द्र के पुत्र जयन्त ने ही सबसे पहले कौए का रूप धारण किया था, यह कथा त्रेतायुग की है, जब भगवान श्रीराम ने अवतार लिया और जयंत ने कौए का रूप धारण कर माता सीता के पैर में चोंच मारा था, तब भगवान श्रीराम ने तिनके का बाण चलाकर जयंत की आंख फोड़ दी थी, जब उसने अपने किए की क्षमा मांगी, तब राम ने उसे यह वरदान दिया कि तुम्हें अर्पित किया भोजन पितरों को मिलेगा, तभी से श्राद्ध में कौओं को भोजन कराने की परंपरा चली आ रही है, यही कारण है कि श्राद्ध पक्ष में कौओं को ही पहले भोजन कराया जाता है। इसी कारण कौओं को न तो मारा जाता है और न ही किसी भी रूप से सताया जाता है, यदि कोई व्यक्ति ऐसा करता है तो उसे पितरों के श्राप के साथ- साथ अन्य देवी देवताओं के क्रोध का भी सामना करना पड़ता है और उन्हें जीवन में कभी भी किसी भी प्रकार का कोई सुख और शांति प्राप्ति नहीं होती है। पितर पक्ष के समय पंच बली जरूर निकाले 1. चींटी, 2. गाय, 3.कौआ, 4. कुत्ता, 5. देवादि बलि यह जरूर करनी चाहिए।*

*कौए से जुड़े शकुन और अपशकुन का रहस्य?*
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*प्राचीन समय के ऋषियों मुनियों ने अपने शोध में बताया था कि प्रत्येक जानवर के विचित्र व्यवहार एवं हरकतों का कुछ न कुछ प्रभाव अवश्य होता है. जानवरों के संबंध में अनेकों बातें हमारे पुराणों एवं ग्रंथों में भी विस्तार से बतलाई गई हैं।*

*हमारे सनातन धर्म में माता के रूप में पूजनीय गाय के संबंध में तो बहुत सी बाते आप लोग जानते ही होंगे परन्तु आज हम जानवरों के संबंध में पुराणों से ली गई कुछ ऐसी बातों के बारे में बतायेंगे जो आपने पहले कभी भी किसी से नहीं सुनी होंगी. जानवरों से जुड़े रहस्यों के संबंध में पुराणों में बहुत ही विचित्र बातें बतलाई गईं जो किसी को भी आश्चर्य में डाल देंगी।*

*कौए का रहस्य*
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*कौए के संबंध में पुराणों में बहुत ही विचित्र बातें बतलाई गईं हैं मान्यता है कि कौआ अतिथि आगमन का सूचक एवं पितरों का आश्रम स्थल माना जाता है।*

*हमारे धर्म ग्रन्थ की एक कथा के अनुसार इस पक्षी ने देवताओं और राक्षसों के द्वारा समुद्र मंथन से प्राप्त अमृत का रस चख लिया था. यही कारण है की कौआ की कभी भी स्वाभाविक मृत्यु नहीं होती. यह पक्षी कभी किसी बिमारी अथवा अपने वृद्धा अवस्था के कारण मृत्यु को प्राप्त नहीं होता. इसकी मृत्यु आकस्मिक रूप से होती है।*

*यह बहुत ही रोचक है की जिस दिन कौए की मृत्यु होती है, उस दिन उसका साथी भोजन ग्रहण नहीं करता. ये आपने कभी ख्याल किया हो तो यह बात गौर देने वाली है की कौआ कभी भी अकेले में भोजन ग्रहण नहीं करता यह पक्षी किसी साथी के साथ मिलकर ही भोजन करता है।*

*कौआ की लम्बाई करीब 20 इंच होती है, तथा यह गहरे काले रंग का पक्षी है. जिनमें नर और मादा दोनों एक समान ही दिखाई देते हैं. यह बगैर थके मीलों उड़ सकता है. कौए के बारे में पुराण में बतलाया गया है कि भविष्य में होने वाली घटनाओं का आभास पूर्व ही हो जाता है.*

*पितरों का आश्रय स्थल👉 श्राद्ध पक्ष में कौए का महत्व बहुत ही अधिक माना गया है . इस पक्ष में यदि कोई भी व्यक्ति कौओं को भोजन कराता है तो यह भोजन कौआ के माध्यम से उसके पीतर ग्रहण करते हैं. शास्त्रों में यह बात स्पष्ट बतलाई गई है की कोई भी क्षमतावान आत्मा कौए के शरीर में विचरण कर सकती है।*

*भादों की पूर्णिमा से क्वांर की अमावस्या तक 16 दिन कौआ हर घर की छत का मेहमान बनता है. ये 16 दिन श्राद्ध पक्ष के दिन माने जाते हैं. कौए एवं पीपल को पितृ प्रतीक माना जाता है. इन दिनों कौए को खाना खिलाकर एवं पीपल को पानी पिलाकर पितरों को तृप्त किया जाता है।*

*कौए से जुड़े शकुन और अपशकुन*
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*1 . यदि आप शनिदेव को प्रसन्न करना चाहते हों तो कौआ को भोजन कराना चाहिए।*

*2 . यदि आपके मुंडेर पर कोई कौआ बोले तो मेहमान अवश्य आते हैं।*

*3 . यदि कौआ घर की उत्तर दिशा से बोले तो समझें जल्द ही आप पर लक्ष्मी की कृपा होने वाली है।*

*4 . पश्चिम दिशा से बोले तो घर में मेहमान आते हैं।*

*5 . पूर्व में बोले तो शुभ समाचार आता है।*

*6 . दक्षिण दिशा से बोले तो बुरा समाचार आता है।*

*7 . कौए को भोजन कराने से अनिष्ट व शत्रु का नाश होता है।।*

*|| सूतक/पातक विचार ||*        ***************हमारे ऊपर आ रहे कष्टो का एक  कारण सूतक के नियमो का पालन नहीं करना भी हो सक...
09/09/2025

*|| सूतक/पातक विचार ||*
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*हमारे ऊपर आ रहे कष्टो का एक कारण सूतक के नियमो का पालन नहीं करना भी हो सकता है।सूतक का सम्बन्ध “जन्म एवं मृत्यु के” निम्मित से हुई अशुद्धि से है ! जन्म के अवसर पर जो नाल काटा जाता है और जन्म होने की प्रक्रिया में अन्य प्रकार की जो हिंसा होती है, उसमे लगने वाले दोष/पाप के प्रायश्चित स्वरुप सूतक माना जाता है !*

*जन्म के बाद नवजात की*
*पीढ़ियों को हुई अशुचिता*

*3 पीढ़ी तक – 10 दिन*
*4 पीढ़ी तक – 10 दिन*
*5 पीढ़ी तक – 6 दिन*

*ध्यान दें :- एक रसोई में भोजन करने वालों के पीढ़ी नहीं गिनी जाती वहाँ पूरा 10 दिन का सूतक माना है !*

*प्रसूति (नवजात की माँ*
*को 45 दिन का सूतक रहता है।*

*प्रसूति स्थान 1 माह तक अशुद्ध है ! इसीलिए कई लोग जब भी अस्पताल से घर आते हैं तो स्नान करते हैं !*

*अपनी पुत्री*
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*पीहर में जनै तो हमे 3 दिन का,ससुराल में जन्म दे तो उन्हें 10 दिन का सूतक रहता है ! और हमे कोई सूतक नहीं रहता है !*

*नौकर-चाकर*
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*अपने घर में जन्म दे तो 1 दिन का,*
*बाहर दे तो हमे कोई सूतक नहीं !*

*पालतू पशुओं का*
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*घर के पालतू गाय, भैंस, घोड़ी, बकरी इत्यादि को घर में बच्चा होने पर हमे 1 दिन का सूतक रहता है !किन्तु घर से दूर-बाहर जन्म होने पर कोई सूतक नहीं रहता !बच्चा देने वाली गाय, भैंस और बकरी का दूध, क्रमशः 15 दिन,10 दिन और 8 दिन तक अभक्ष्य/अशुद्ध रहता है !*

*पातक*
****
*पातक का सम्बन्ध मरण के: निम्मित से हुई अशुद्धि से है ! मरण के अवसर पर "दाह-संस्कार में इत्यादि में जो हिंसा होती है,उसमे लगने वाले दोष/पाप के प्रायश्चित स्वरुप “पातक” माना जाता है !*

*मरण के बाद हुई अशुचिता 😗
*3 पीढ़ी तक – 12 दिन*
*4 पीढ़ी तक – 10 दिन*
*5 पीढ़ी तक – 6 दिन*

*ध्यान दें :- जिस दिन दाह-संस्कार किया जाता है, उस दिन से पातक के दिनों की गणना होती है, न कि मृत्यु के दिन से ! यदि घर का कोई सदस्य बाहर/विदेश में है, तो जिस दिन उसे सूचना मिलती है,उस दिन से शेष दिनों तक उसके पातक लगता है ! अगर 12 दिन बाद सूचना मिले तो स्नान-मात्र करने से शुद्धि हो जाती है !*

*गर्भपात-*
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*किसी स्त्री के यदि गर्भपात हुआ हो तो, जितने माह का गर्भ पतित हुआ, उतने ही दिन का पातक मानना चाहिए घर का कोई सदस्य तपस्वी' साधु सन्यासी बन गया हो तो, उस साधु सन्त को,उसे घर में होने वाले जन्म-मरण का सूतक-पातक नहीं लगता है ! किन्तु स्वयं उसका ही मरण हो जाने पर उसके घर वालों को 1 दिन का पातक लगता है !*

*विशेष-*
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*किसी अन्य की शवयात्रा में जाने वाले को 1 दिन का, मुर्दा छूने वाले को 3 दिन और मुर्दे को कन्धा देने वाले को 8 दिन की अशुद्धि जाननी चाहिए !घर में कोई आत्मघात करले तो 6 महीने का पातक मानना चाहिए !यदि कोई स्त्री अपने पति के मोह/निर्मोह से आग लगाकर जल मरे,बालक पढाई में फेल होकर या कोई अपने ऊपर दोष देकर आत्महत्या कर मरता है तो इनका पातक बारह पक्ष याने 6 महीने का होता है !*

*उसके अलावा भी कहा है कि जिसके घर में इस प्रकार अपघात होता है, वहाँ छह महीने तक कोई बुद्धिमान मनुष्य भोजन अथवा जल भी ग्रहण नहीं करता है ! वह मंदिर नहीं जाता और ना ही उस घर का द्रव्य मंदिर जी में चढ़ाया जाता है !जहां आत्महत्या हुई है,उस घर का पानी भी 6 माह तक नहीं पीना चाहिए। एवं अनाचारी स्त्री-पुरुष के हर समय ही पातक रहता है।*

*यह भी ध्यान से पढ़िए-*
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*सूतक-पातक की अवधि में देव-शास्त्र-गुरु का पूजन, प्रक्षाल,आहार आदि धार्मिक क्रियाएं वर्जित होती हैं !इन दिनों में मंदिर के उपकरणों को स्पर्श करने का भी निषेध है ! यहाँ तक की गुल्लक में रुपया डालने का भी निषेध बताया है ! दान पेटी मे दान भी नहीं देना चाहिए। देव- दर्शन, प्रदिक्षणा, जो पहले से याद हैं वो विनती/स्तुति बोलना, भाव-पूजा करना, हाथ की अँगुलियों पर जाप देना शास्त्र सम्मत है !*

*कहीं कहीं लोग सूतक-पातक के दिनों में मंदिर ना जाकर इसकी समाप्ति के बाद मंदिरजी से गंधोदक; लाकर शुद्धि के लिए घर-दुकान में छिड़कते हैं, ऐसा करके नियम से घोनघोर पाप का बंध करते हैं !मानो या न मानो,यह सत्य है,नहीं मानने पर दुःख, कष्ट, तकलीफ, होगी इन्हे समझना इसलिए ज़रूरी है, ताकि अब आगे घर-परिवार में हुए जन्म-मरण के अवसरों पर अनजाने से भी कहीं दोष का उपार्जन ना हो।*

*आचार्य दया शंकर चतुर्वेदी

9646351008 9464661008

*क्या गयाजी में श्राद्ध के बाद तर्पण नहीं करना चाहिए ?🤔*♦️ आचार्य दया शंकर  चतुर्वेदी ♦*बहुत लोगों के मन में यह भ्रम रहत...
05/09/2025

*क्या गयाजी में श्राद्ध के बाद तर्पण नहीं करना चाहिए ?🤔*
♦️ आचार्य दया शंकर चतुर्वेदी ♦
*बहुत लोगों के मन में यह भ्रम रहता है, जानिये इस अज्ञानता रुपी बात की सच्चाई ❗*
*शास्त्र का वचन है-*
*"श्रद्ध्या इदं श्राद्धम्" अर्थात्- श्रद्धा ही श्राद्ध है। प्रत्येक व्यक्ति को अपने पूर्वजों के निमित्त तर्पण और यथा सामर्थ्य श्राद्ध अवश्य करना चाहिए। पुराणों के अनुसार प्रत्येक कुल के पितर पितृपक्ष में जल के लिए लालायित होकर पितृगण कहते हैं-*
*"अपि धन्य: कुले जायाद स्माकं मति मान्नार:।"*
*"अकुर्वन्वित्तशाठ्यं य: पिण्डान्नो निर्वपिष्यति।।"*
*हमारे कुल मे कोई ऐसा बुद्धिमान पुरुष पैदा होगा जो हमारा पिंड दान करेगा और तर्पण कर हमें तृप्त करेगा और याद रहे श्राद्ध या तर्पण ना करने से हम अपने पितरों के कोप के भागी होते हैं। अत: प्रत्येक व्यक्ति को अपने पितरों की तृप्ति हेतु तर्पण, श्राद्ध करना आवश्यक है।*
*शास्त्रों के अनुसार श्राद्ध के कई अवसर बताए गए हैं और नित्य तर्पण करना चाहिए, किंतु महालय अर्थात् पितृ पक्ष में तो तर्पण, श्राद्ध अवश्य ही करना चाहिए। इसके लिए संगम तट, तीर्थ स्थान एवं पवित्र नदी के तट पर करने का भी बहुत महत्व होता है। घर पर भी कर सकते हैं। इन सब में गया श्राद्ध की अपनी विशेष महिमा एवं महत्व है। गया में श्राद्ध करने के पश्चात् पितर देवलोक प्रस्थान कर जाते हैं। कुछ लोग गया श्राद्ध को अंतिम श्राद्ध मानते हुए इसके पश्चात् तर्पण, श्राद्ध ना करने का परामर्श देते हैं जो पूर्णत: अनुचित है। ऐसी बात कहकर वे आम जनमानस को भ्रमित करते हैं। शास्त्रानुसार गया श्राद्ध के पश्चात् भी बद्रीनाथ क्षेत्र के "ब्रह्मकपाली" में श्राद्ध करने का विधान है।*
*प्राचीन काल में जहां ब्रह्मा जी का सिर गिरा था उस क्षेत्र को "ब्रह्मकपाली" कहा जाता है। गया में श्राद्ध करने के उपरांत अंतिम श्राद्ध "ब्रह्मकपाली" में किया जाता है। हमारे शास्त्रों में श्राद्ध क्षेत्रों का वर्णन प्राप्त होता है जिनमें श्राद्ध करना श्रेष्ठ माना गया है, ये स्थान हैं- प्रयाग, पुष्कर, हरिद्वार, गया एवं ब्रह्मकपाली। लेकिन कई लोगों को भ्रम होता है कि गया श्राद्ध करने के उपरांत श्राद्ध पक्ष में तर्पण , पितरों के निमित्त दान एवं ब्राह्मण भोजन बंद कर देना चाहिए, यह एक गलत धारणा है। गया में श्राद्ध करने के उपरांत भी अपने पितरों के निमित्त तर्पण एवं ब्राह्मण भोजन बंद नहीं करना चाहिए। शास्त्र का स्पष्ट निर्देश है कि गया एवं ब्रह्मकपाली में श्राद्ध करने के उपरांत भी अपने पितरों के निमित्त तर्पण, दान एवं ब्राह्मण भोजन करना चाहिए-..!!!

आचार्य दया शंकर चतुर्वेदी हाजीपुर पंजाब

9464661008 9646351008

*०____कुछ लोग आपसे सदैव बैर रखते हैं..‼️*इसलिए नहीं कि आप बुरे हैं...बल्कि इसलिए कि आपकी उपस्थिति उनके अस्तित्व को व्यर्...
04/09/2025

*०____कुछ लोग आपसे सदैव बैर रखते हैं..‼️*

इसलिए नहीं कि आप बुरे हैं...
बल्कि इसलिए कि आपकी उपस्थिति उनके अस्तित्व को व्यर्थ बना देती है...!! 😊
_________________________________
कुछ लोग जीवन में हमेशा इस कारण विरोध और बैर का भाव रखते दिखाई देते हैं कि सामने वाला व्यक्ति अपने व्यक्तित्व, अपने कर्म, अपनी निष्ठा और अपनी क्षमता से इतना दृढ़ और प्रकाशमान हो जाता है कि उनके अस्तित्व की सार्थकता ही गौण हो जाती है। यह स्थिति केवल व्यक्तिगत संबंधों तक सीमित नहीं रहती बल्कि सामाजिक, राजनीतिक, आर्थिक और सांस्कृतिक सभी परिदृश्यों में गहराई तक नज़र आती है। जब किसी व्यक्ति की उपस्थिति मात्र से दूसरों को यह आभास होने लगे कि उनका मूल्यांकन, उनका महत्व और उनकी पहचान कमतर हो रही है, तब स्वाभाविक रूप से भीतर ही भीतर ईर्ष्या, द्वेष और विरोध का भाव जन्म लेने लगता है। यह भाव मनोवैज्ञानिक दृष्टि से देखा जाए तो एक प्रकार की हीनभावना का प्रत्यक्ष परिणाम है। समाज में अनेक ऐसे उदाहरण देखने को मिलते हैं जहाँ किसी की प्रतिभा, किसी का परिश्रम और किसी की ईमानदारी अन्य लोगों के लिए प्रेरणा बनने के बजाय उन्हें असहज कर देती है क्योंकि उन्हें लगता है कि अब उनकी पहचान धूमिल हो रही है।

इस प्रकार की परिस्थितियाँ मानव व्यवहार के उन जटिल पहलुओं की ओर संकेत करती हैं जिनमें आत्ममूल्यांकन और सामाजिक तुलना की भूमिका अत्यधिक महत्त्वपूर्ण होती है। कोई व्यक्ति जब निरंतर परिश्रम कर अपनी उपलब्धियों का विस्तार करता है तो वह अनजाने में ही दूसरों के लिए एक दर्पण बन जाता है। इस दर्पण में उन्हें अपनी वास्तविकता का प्रतिबिंब दिखने लगता है, जिसमें उनकी कमियाँ, उनकी निष्क्रियता और उनका आत्मसंतोष स्पष्ट दिखाई देने लगता है। यही वह क्षण होता है जब विरोध की ऊर्जा जन्म लेती है। दरअसल बैर का भाव बाहरी परिस्थितियों की तुलना में अधिकतर आंतरिक असुरक्षाओं से उपजता है। जो व्यक्ति स्वयं के प्रति आश्वस्त होता है, वह कभी किसी दूसरे की सफलता से भयभीत नहीं होता, बल्कि उससे सीखकर अपने जीवन में प्रगति का मार्ग खोजता है। किंतु जो व्यक्ति भीतर से खोखला और असुरक्षित होता है, उसकी दृष्टि सदैव इस प्रयास में लगी रहती है कि किसी तरह सामने वाले को गिराकर अपनी महत्वहीनता को छिपा सके।

इतिहास में ऐसे असंख्य प्रसंग मिलते हैं जहाँ किसी महान व्यक्ति की प्रतिभा और उसका प्रभाव समाज के कुछ हिस्सों के लिए सहन करना कठिन हो गया। महान दार्शनिकों, साहित्यकारों, समाज सुधारकों और राजनीतिक नेताओं तक को विरोध और षड्यंत्र का सामना करना पड़ा। वे इसलिए नहीं कि उन्होंने समाज के साथ अन्याय किया, बल्कि इसलिए कि उनके अस्तित्व ने परंपरागत ढांचे, जड़ मानसिकताओं और स्वार्थी समूहों के वर्चस्व को चुनौती दी। जब भी कोई विचार या व्यक्तित्व प्रचलित मानकों से आगे बढ़कर समाज को नई दिशा देता है, तब वह उन लोगों के लिए खतरे की घंटी बन जाता है जिनका अस्तित्व पुरानी जड़ता और अज्ञान पर टिका होता है। यही कारण है कि विद्वानों और सुधारकों को अक्सर अपने समय में उपेक्षा, आलोचना और दमन का सामना करना पड़ा, जबकि भविष्य ने उनकी महत्ता को स्वीकार किया।

समाजशास्त्रीय दृष्टि से भी देखा जाए तो हर समाज में शक्ति और प्रभाव का एक निश्चित ढांचा होता है। जब कोई नया व्यक्ति उस ढांचे को प्रभावित करने लगता है, तब पुराने संरक्षक असुरक्षित हो उठते हैं। यही असुरक्षा उन्हें शत्रुता की ओर ले जाती है। यह शत्रुता अक्सर व्यक्तिगत नहीं होती बल्कि सत्ता, प्रतिष्ठा और नियंत्रण खोने के डर से उत्पन्न होती है।
उदाहरण स्वरूप जब किसी नए उद्यमी की सफलता से पुराने व्यापारी वर्ग को खतरा महसूस होता है तो वे उसका विरोध करते हैं, न कि इसलिए कि उसका कार्य बुरा है बल्कि इसलिए कि उसकी उपस्थिति उनके एकाधिकार को समाप्त कर सकती है। इसी प्रकार राजनीति में भी कोई नया और सशक्त नेता जब जनता का विश्वास अर्जित कर लेता है तो स्थापित नेता उसके विरुद्ध बैर पाल लेते हैं, क्योंकि उनकी स्थिति और अस्तित्व को चुनौती मिलने लगती है।

मनोविज्ञान में यह तथ्य स्वीकार किया गया है कि व्यक्ति की पहचान और आत्मसम्मान का बड़ा हिस्सा सामाजिक मान्यता पर आधारित होता है। जब कोई दूसरा व्यक्ति अधिक सम्मान और महत्व प्राप्त करने लगता है तो तुलना का भाव स्वतः जाग्रत होता है। यह तुलना सकारात्मक भी हो सकती है यदि व्यक्ति इसे प्रेरणा के रूप में ले, किंतु अधिकांश स्थितियों में यह नकारात्मक हो जाती है और ईर्ष्या का रूप धारण कर लेती है। ईर्ष्या के बीज ही बैर के वृक्ष का निर्माण करते हैं। इस वृक्ष की जड़ें गहरी होती हैं क्योंकि यह व्यक्ति के आत्मसम्मान को सीधा आघात पहुँचाती हैं। जिन लोगों का आत्मसम्मान बाहरी मान्यताओं पर टिका होता है, वे अधिक संवेदनशील होकर दूसरों की सफलता को व्यक्तिगत खतरे के रूप में देखने लगते हैं। यही वजह है कि आपकी उपस्थिति मात्र से उनके अस्तित्व को व्यर्थ प्रतीत होने लगता है।

यदि इस दृष्टिकोण को और गहराई से देखा जाए तो यह स्पष्ट होता है कि विरोध और बैर का यह भाव वास्तव में विरोध करने वाले की ही कमजोरी है। जब किसी के पास अपनी प्रतिभा को विकसित करने, अपनी मेहनत को बढ़ाने और अपनी स्थिति को मजबूत करने का साहस नहीं होता तो वह दूसरों की उपलब्धियों को नीचा दिखाने की कोशिश करता है। यह प्रयास कभी आलोचना के रूप में, कभी षड्यंत्र के रूप में और कभी खुले बैर के रूप में प्रकट होता है। परंतु यह भी सच है कि ऐसे विरोध से ही किसी व्यक्तित्व की असली शक्ति और उसकी दृढ़ता का पता चलता है। क्योंकि जो व्यक्ति आलोचना और विरोध के बावजूद अपने मार्ग पर अडिग रहता है, वही वास्तव में समाज में परिवर्तन और प्रगति का वाहक बनता है।

इस परिप्रेक्ष्य में यह भी समझना आवश्यक है कि बैर पालने वाले लोग जितना दूसरों का विरोध करते हैं, उतना ही स्वयं को भीतर से खोखला करते जाते हैं। वे अपना समय, ऊर्जा और मानसिक संतुलन नष्ट कर देते हैं केवल इसलिए कि वे किसी दूसरे की रोशनी में स्वयं को अंधकारमय महसूस करते हैं। जबकि सच यह है कि यदि वे अपनी ऊर्जा को स्वयं को बेहतर बनाने में लगाएँ तो उनका भी अस्तित्व सार्थक हो सकता है। किंतु असुरक्षा और हीनभावना इतनी गहरी होती है कि वे ऐसा कर नहीं पाते और अंततः उनका संपूर्ण जीवन दूसरों को नीचा दिखाने की कोशिश में ही व्यर्थ हो जाता है। इस प्रकार देखा जाए तो किसी की महानता या किसी की उपलब्धियाँ स्वयं में समस्या नहीं होतीं, समस्या उस मानसिकता की होती है जो दूसरों की सफलता को अपनी विफलता मानकर चलती है।

यह विचार श्रृंखला हमें यह भी बताती है कि समाज में यदि वास्तविक सामंजस्य और प्रगति चाहिए तो व्यक्ति को दूसरों की सफलता से प्रेरणा लेना सीखना होगा। यदि प्रत्येक व्यक्ति यह समझ ले कि दूसरे की उपलब्धियाँ उसके अस्तित्व को व्यर्थ नहीं करतीं बल्कि उसे अपने भीतर छिपी संभावनाओं को खोजने का अवसर देती हैं, तब बैर और विरोध का भाव स्वतः समाप्त हो सकता है। दुर्भाग्य से यह समझ बहुत कम लोगों में विकसित हो पाती है और बहुसंख्यक लोग तुलना की नकारात्मक आग में जलते रहते हैं। यही कारण है कि इतिहास के प्रत्येक युग में और समाज के प्रत्येक वर्ग में यह प्रवृत्ति देखी जाती है कि महान व्यक्तित्वों को अपने जीवनकाल में विरोध सहना पड़ा।

अंततः यही कहा जा सकता है कि यदि कुछ लोग आपकी उपस्थिति से ही बैर रखने लगते हैं तो यह उनकी हीनभावना और असुरक्षा का द्योतक है, न कि आपकी किसी कमी का। वास्तव में आपकी शक्ति, आपका तेज और आपकी निष्ठा इतनी प्रखर होती है कि वह दूसरों की निष्क्रियता और कमजोरी को उजागर कर देती है। आपके अस्तित्व की यही शक्ति दूसरों को असहज बनाती है। यह असहजता उनका व्यक्तिगत संकट है, आपकी कमी नहीं। अतः ऐसे विरोध और बैर को जीवन में अवरोध न मानकर अपनी सफलता और अपनी सार्थकता का प्रमाण मानना चाहिए। जो आपकी उपस्थिति से ही विचलित हो जाए, उसका अस्तित्व वैसे भी स्थायी नहीं रह सकता क्योंकि वह दूसरों को नीचा दिखाकर जीना चाहता है, जबकि आप अपने कर्म और चरित्र से आगे बढ़ रहे हैं। यही अंतर अंततः सत्य और असत्य, स्थायी और क्षणिक, सार्थक और व्यर्थ के बीच की रेखा खींच देता है
#आचार्य दया शंकर चतुर्वेदी हाजीपुर पंजाब #

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