Acharya Dheerendra shashtri

Acharya Dheerendra shashtri astrology and Pooja path
Vastu consultant

23/10/2024

सभी सनातनीय धर्मावलंबियों को सादर नमस्कार, प्रणाम जय माता दी आप सभी को अवगत कराना चाहेंगे कि दीपोत्सव महालक्ष्मी पर्व 1 नवंबर 2024 को ही संपूर्ण भारतवर्ष में मनाया जाएगा।

दीपावली पर्व के संबंध में यदि इस प्रकार का कोई भी संशय हो तो धर्म शास्त्रों में उसका निर्णय कुछ इस प्रकार दिया हुआ है
यदि दो दिन प्रदोष व्यापिनी अमावास्या होती है तो दूसरे दिन दीपावली (महालक्षमी) पर्व मनाना चाहिये-

*दिनद्वये प्रदोषसत्त्वे परः।*
*दण्डेकरजनीयोगे दर्शः स्यात्तु परेऽहनि ।*
*तदा विहायपूर्वेद्युः परेऽह्नि सुखरात्रिका ।।*

इस वर्ष 31 अक्टूबर तथा 1 नवम्बर, 2024 को कार्तिक कृष्ण अमावास्या प्रदोषव्यापिनी है। अतः 1 नवम्बर 2024 को ही दीपावली (महालक्ष्मी) पर्व मनाना शास्त्रोक्त है।

यथा शास्त्र वाक्य-

*अथाश्विनामावस्यायां प्रातरभ्यंगः प्रदोषे दीपदानलक्ष्मी-पूजनादि विहितम् । तत्र सूर्योदयं व्याप्ति-अस्तोत्तरं घटिकाधिकरात्रिव्यापिनी दर्शे सति न संदेहः* ।। (धर्मसिन्धु)

(अर्थात् कार्तिक अमावस्या को प्रदोष के समय लक्ष्मीपूजनादि कहा गया है। उसमें यदि सूर्योदय से लेकर सूर्यास्त के अन्तर 1 घड़ी (24 मिनट) से अधिक
रात्रि तक (प्रदोषकाल) अमावस्या हो, तो बिना संदेह उसी दिन पर्व मनाए।
*उभयदिने प्रदोषव्याप्तौ परा ग्राह्या । 'दण्डैकरजनीयोगे दर्शः स्यात्तु परेऽहनि।*
*तदा विहाय पूर्वेद्यु परेऽह्नि सुखरात्रिकाः ।*' (तिथितत्त्व) अर्थात् यदि दोनों दिन प्रदोषव्यापिनी होय, तो अगले दिन करें-क्योंकि तिथितत्त्व में ज्योतिष का वाक्य है-एक घड़ी रात्रि (प्रदोष) का योग होय तो अमावस्या दूसरे दिन होती है, तब प्रथम दिन छोड़कर अगले दिन सुखरात्रि होती है।) यद्यपि-दीपावली के दिन निशीथकाल में लक्ष्मी का आगमन शास्त्रों में अवश्य वर्णित है परंतु कर्मकाल (लक्ष्मी पूजन, दीपदान-आदि का काल) तो प्रदोष ही माना जाता है। लक्ष्मीपूजन, दीपदान के लिए प्रदोषकाल ही शास्त्र प्रतिपादित है-
*प्रदोषसमये लक्ष्मीं पूजयित्वा ततः क्रमात्।*
*दीपवृक्षाश्च दातव्याः शक्त्या देवगृहेषु च ।।*

निर्णयसिन्धु, धर्मसिन्धु, पुरुषार्थ-चिन्तामणि, तिथि-निर्णय आदि ग्रन्थों में दिए गए शास्त्रवचनों के अनुसार दोनों दिन प्रदोषकाल में अमावस्या की व्याप्ति कम या अधिक होने पर दूसरे दिन ही अर्थात् सूर्योदय से सूर्यास्त (प्रदोषव्यापिनी) वाली अमावस्या के दिन लक्ष्मीपूजन करना शास्त्रसम्मत होगा।
*इसके अतिरिक्त दिवाली पर्व पर स्वाति नक्षत्र का होना भी अति आवश्यक है जोकि एक नवंबर 2024 को ही पड़ रही है।*

अतः सभी शास्त्र-वचनों पर विचार कर हमारे मतानुसार 1 नवम्बर, 2024 शुक्रवार को ही दीपावली पर्व तथा लक्ष्मीपूजन करना शास्त्रसम्मत होगा। सम्पूर्ण भारत में यह पर्व इसी दिन होगा। यही निर्णय भारत के अधिकतर पंचाङ्गकारों को मान्य है। परम्परा अनुसार तथा गत अनेक उदाहरण भी इसी मत को मान्यता देते हैं।
(*इसके अतिरिक्त व्यक्तिगत रूप से व्यावहारिक पहलू पर भी अवश्य विचार करने की आवश्यकता है कि जितने भी पंचांग हैं उन सभी में 1 नवंबर 2024 को दीपोत्सव मनाने का निर्णय दिया गया है तो पंचांगकारों के परिश्रम को भी सम्मान देते हुए 1 नवंबर को ही दीपोत्सव मानना शास्त्र सम्मत होगा क्योंकि हर छोटे बड़े धार्मिक अनुष्ठान हेतु हम पंचांगों का ही प्रयोग करते हैं।)

भद्रा सम्बन्धी विचार विमर्श जब भी मुहूर्त की बात करते हैं तो सबसे पहले हमारे मन में भद्रा का नाम आता है। मुहूर्त के अंतर...
18/08/2024

भद्रा सम्बन्धी विचार विमर्श

जब भी मुहूर्त की बात करते हैं तो सबसे पहले हमारे मन में भद्रा का नाम आता है। मुहूर्त के अंतर्गत भद्रा का विचार मुख्य रूप से किया जाता है क्योंकि यह वास्तव में स्वर्ग लोक, पृथ्वी लोक तथा पाताल लोक में अपना प्रभाव दिखाती है। इसलिए किसी भी शुभ कार्य को करने के लिए भद्रा वास का विचार किया जाता है।

कौन है भद्रा
भद्रा कौन हैं धार्मिक दृष्टिकोण की बात करें तो इसके अनुसार भद्रा भगवान शनिदेव की बहन और सूर्य देव की पुत्री हैं। यह बहुत सुंदर थी लेकिन इनका स्वभाव काफी कठोर था। उनके उस स्वभाव को सामान्य रूप से नियंत्रित करने हेतु उन्हें पंचांग के एक प्रमुख अंग विष्टि करण के रूप में मान्यता दी गई। जब कभी भी किसी शुभ तथा मांगलिक कार्य के लिए शुभ मुहूर्त देखा जाता है तो उसमें भद्रा का विचार विशेष रूप से किया जाता है और भद्रा का समय त्यागकर अन्य मुहूर्त में ही कोई शुभ कार्य किया जाता है। लेकिन यह देखा गया है कि भद्रा सदैव ही अशुभ नहीं होती बल्कि कुछ विशेष प्रकार के कार्यों में इसका वास अच्छे परिणाम भी देता है।

भद्रा की गणना
तिथि, वार, योग, नक्षत्र और करण मुहूर्त के अंतर्गत पंचांग के मुख्य भाग हैं। इनमें करण एक महत्वपूर्ण अंग माना गया है। कुल मिलाकर 11 करण होते हैं, जिनमें से चार करण शकुनि, चतुष्पद, नाग और किंस्तुघ्न अचर होते हैं और शेष सात करण बव, बालव, कौलव, तैतिल, गर, वणिज और विष्टि चर होते हैं। इनमें से विष्टि करण को ही भद्रा कहा जाता है। चर होने के कारण ये सदैव गतिशील होती है। जब भी पंचांग की शुद्धि की जाती है तो उस समय भद्रा को विशेष महत्व दिया जाता है।

भद्रा का वास कैसे ज्ञात किया जाता है
कुम्भ कर्क द्वये मर्त्ये स्वर्गेऽब्जेऽजात्त्रयेऽलिंगे।
स्त्री धनुर्जूकनक्रेऽधो भद्रा तत्रैव तत्फलं।।
जब चंद्रमा मेष, वृषभ, मिथुन और वृश्चिक राशि में होता है तो भद्रा स्वर्ग लोक में मानी जाती है और उर्ध्वमुखी होती है। जब चंद्रमा कन्या, तुला, धनु और मकर राशि में होता है तो भद्रा का वास पाताल में माना जाता है और ऐसे में भद्रा अधोमुखी होती है। वहीं जब चंद्रमा कर्क, सिंह, कुंभ और मीन राशि में स्थित होता है तो भद्रा का निवास भूलोक अर्थात पृथ्वी लोक पर माना जाता है और ऐसे में भद्रा सम्मुख होती है। उर्ध्वमुखी होने के कारण भद्रा का मुंह ऊपर की ओर होगा तथा अधोमुखी होने के कारण नीचे की तरफ। लेकिन दोनों ही परिस्थितियों में भद्रा शुभ प्रभाव लेगी। इसके साथ ही सम्मुख होने पर भद्रा पूर्ण रूप से प्रभाव दिखाएगी।

ज्योतिष ग्रथ मुहुर्त्त चिन्तामणि के अनुसार भद्रा का वास जिस लोक में भी होता है वहां भद्रा का विशेष रूप से प्रभाव माना जाता है। ऐसी स्थिति में जब चंद्रमा कर्क राशि, सिंह राशि, कुंभ राशि और मीन राशि में होगा तो भद्रा का वास भूलोक में होने से भद्रा सम्मुख होगी और पूर्ण रूप से पृथ्वी लोक पर अपना प्रभाव दिखाएगी। यही अवधि पृथ्वी लोक पर किसी भी शुभ कार्य को करने के लिए वर्जित मानी जाती है, क्योंकि ऐसे में किए गए कार्य या तो पूर्ण नहीं होते या उनके पूर्ण होने में बहुत अधिक विलंब और रुकावटें आती हैं।

स्वर्गे भद्रा शुभं कुर्यात पाताले च धनागम।
मृत्युलोक स्थिता भद्रा सर्व कार्य विनाशनी ।।
संस्कृत ग्रंथ पियूष धारा के अनुसार जब भद्रा का वास स्वर्ग लोक पाताल लोक में होगा तब वह पृथ्वी लोक पर शुभ फल प्रदान करने में सक्षम होगी।

स्थिताभूर्लोस्था भद्रा सदात्याज्या स्वर्गपातालगा शुभा।
मुहूर्त मार्तण्ड के अनुसार जब भी भद्रा भूलोक में होगी तो उसका सदैव त्याग करना चाहिए और जब वह स्वर्ग तथा पाताल लोक में हो तो शुभ फल प्रदान करने वाली होगी।

अर्थात जब भी चंद्रमा का गोचर कर्क राशि, सिंह, कुंभ राशि तथा मीन राशि में होगा तो भद्रा पृथ्वी लोक पर होगी और कष्टकारी होगी। ऐसी भद्रा का त्याग करना श्रेयस्कर होगा।

भद्रा मुख तथा भद्रा पुच्छ
भद्रा के वास्तु के अनुसार ही उसका फल मिलता है। इस संबंध में निम्नलिखित मुक्ति पठनीय है ।

भद्रा यत्र तिष्ठति तत्रैव तत्फलं भवति।
अर्थात भद्रा जिस समय जहां स्थित होती है उसी प्रकार वहां पर फल देती है। तो आइये अब जानते हैं कि कैसे होता है भद्रा मुख और भद्रा पुच्छ का ज्ञान ।

शुक्ल पूर्वार्धेऽष्टमीपञ्चदशयो भद्रैकादश्यांचतुर्थ्या परार्द्धे।
कृष्णेऽन्त्यार्द्धेस्या तृतीयादशम्योःपूर्वेभागे सप्तमीशंभुतिथ्योः।।
अर्थात शुक्ल पक्ष की अष्टमी तथा पूर्णिमा के पूर्वार्ध में और एकादशी तथा चतुर्थी के उत्तरार्ध में भद्रा होती है। कृष्ण पक्ष की तृतीया तथा दशमी के उत्तरार्ध में और सप्तमी तथा चतुर्थी के पूर्वार्ध में भद्रा होती है।

यहां ध्यान देने योग्य बात यह है कि एक पहर 3 घंटे का होता है। जिसके अनुसार एक दिन और एक रात में कुल मिलाकर आठ पहर होते हैं यानी कि 24 घंटे। उपरोक्त तालिका में बताए हुए पहर के पहले 2 घंटे अर्थात 5 घड़ी भद्रा का मुख होता है तथा उसे शुभ माना जाता है। दूसरी ओर ऊपरी तालिका में ही बताए हुए पहर के अंत का एक घंटा 15 मिनट यानि कि तीन घड़ी भद्रा की पुच्छ होती है।

दूसरे शब्दों में कहें तो मुहूर्त चिंतामणि ग्रंथ के अनुसार चंद्र मास के शुक्ल पक्ष की चतुर्थी तिथि की पांचवें प्रहर की 5 घड़ियों में भद्रा मुख होता है, अष्टमी तिथि के दूसरे प्रहर के कुल मान आदि की 5 घटियाँ, एकादशी के सातवें प्रहर की प्रथम 5 घड़ियाँ तथा पूर्णिमा के चौथे प्रहर के शुरुआत की 5 घड़ियों में भद्रा का मुख होता है। इसी प्रकार चंद्र मास के कृष्ण पक्ष की तृतीया के 8वें प्रहर आदि की 5 घड़ियाँ भद्रा मुख होती है, कृष्ण पक्ष की सप्तमी के तीसरे प्रहर में आरंभ की 5 घड़ी में भद्रा मुख होता है। इसी प्रकार कृष्ण पक्ष की दशमी तिथि का 6 प्रहर और चतुर्दशी तिथि का प्रथम प्रहर की 5 घड़ी में भद्रा मुख व्याप्त रहता है।

भद्रा की पुच्छ शुभ होने के कारण इसमें किसी भी प्रकार का शुभ कार्य कर सकते हैं। तिथि के उत्तरार्ध में होने वाली भद्रा यदि दिन में हो और किसी के पूर्वार्ध में होने वाली भद्रा यदि रात में हो तो शुभ मानी जाती है।

भद्रा को प्राय सभी शुभ और मांगलिक कार्यों में त्याज्य माना जाता है और जब भी भद्रा लग रही होती है तो उस समय शुभ कार्य संपादित नहीं किए जाते।

कार्येत्वाश्यके विष्टेरमुख, कण्ठहृदि मात्रं परित्येत।
अर्थात बहुत अधिक आवश्यक होने पर पृथ्वीलोक की भद्रा, कंठ, ह्रदय और भद्रा मुख को त्याग कर भद्रा पुच्छ में शुभ एवं मांगलिक कार्य संपन्न किये जा सकते हैं।

ईयं भद्रा शुभकार्येषु अशुभा भवति।

अर्थात किसी भी शुभ कार्य में भद्रा अशुभ मानी जाती है। हमारे ऋषि मुनियों ने भी भद्रा काल को अशुभ तथा दुखदायी बताया है ।

न कुर्यात मंगलं विष्ट्या जीवितार्थी कदाचन।
कुर्वन अज्ञस्तदा क्षिप्रं तत्सर्वं नाशतां व्रजेत।। महर्षि कश्यप
महर्षि कश्यप के अनुसार जो कोई भी प्राणी अपना जीवन सुखी बनाना चाहता है और आनंद पूर्वक जीवन बिताना चाहता है उसे भद्रा काल के दौरान कोई भी शुभ कार्य नहीं करना चाहिए। यदि भूलवश कोई ऐसा कार्य हो जाए तो उसका शुभ फल नष्ट हो जाता है।

भद्रा काल के दौरान मुख्य रूप से मुंडन संस्कार, विवाह संस्कार, गृहारंभ, कोई नया व्यवसाय आरंभ करना, गृह प्रवेश, शुभ यात्रा, शुभ उदेश्य से किए जाने वाले सभी कार्य तथा रक्षाबंधन आदि मांगलिक कार्यों को नहीं करना चाहिए।

भद्रा के दौरान किये जाने वाले कार्य

लगभग सभी शुभ कार्यों के लिए भद्रा का निषेध माना गया है। लेकिन कुछ कार्य ऐसे होते हैं जिनकी प्रकृति अशुभ होती है, ऐसे कार्य भद्रा काल के दौरान किए जा सकते हैं। इनमें मुख्य रूप से शत्रु पर आक्रमण करना, अस्त्र-शस्त्र का प्रयोग करना, ऑपरेशन करना, किसी पर मुकदमा आरंभ करना, आग जलाना, भैंस, घोड़ा, ऊँट आदि से संबंधित कार्य तथा किसी वस्तु को काटना, यज्ञ करना तथा स्त्री प्रसंग करना आदि कार्य इसमें सम्मिलित हैं। यदि इन कार्यों को भद्र काल के दौरान किया जाए तो इनमें मनोवांछित सफलता मिल सकता हैं।

भद्रा का परिहार करने का तरीका

सर्वप्रथम यह ज्ञात किया जाता है कि भद्रा का वास कहां है। यदि भद्रा स्वर्ग लोक अथवा पाताल लोक में है तो परिहार की आवश्यकता नहीं होती केवल मृत्यु लोक में अर्थात पृथ्वी लोक पर भद्रा का वास होने पर विशेष रूप से हानिकारक माना जाता है और इसीलिए इसका परिहार किया जाता है। साथ ही साथ भद्रा के मुख और पुच्छ का विचार भी किया जाता है। भद्रा के परिहार के लिए सबसे अधिक प्रभावी भगवान शिव की आराधना करना माना जाता है। इसलिए यदि अत्यंत आवश्यक कोई कार्य आपको भद्रा वास के दौरान करना हो तो भगवान शिव की अराधना अवश्य करें।

इस संबंध में निम्नलिखित तथ्यों पर विचार किया जा सकता है। इस सम्बन्ध में पीयूष धारा तथा मुहूर्त चिंतामणि के अनुसार ।

दिवा भद्रा रात्रौ रात्रि भद्रा यदा दिवा।
न तत्र भद्रा दोषः स्यात सा भद्रा भद्रदायिनी।।
इसका तात्पर्य यह है कि यदि दिन के समय की भद्रा रात्रि में और रात्रि के समय की भद्रा दिन में आ जाए, तो ऐसी स्थिति में भद्रा का दोष नहीं लगता है। विशेष रुप से हंसी भद्रा का दोष पृथ्वी लोक पर नहीं माना जाता है। इस प्रकार की भद्रा को भद्रदायिनी अर्थात शुभ फल देने वाली भद्रा माना जाता है।

इसके अतिरिक्त निम्नलिखित बात भी विचारणीय है ।

रात्रि भद्रा यदा अहनि स्यात दिवा दिवा भद्रा निशि।
न तत्र भद्रा दोषः स्यात सा भद्रा भद्रदायिनी।।

इस संबंध में एक और बात भी विचारणीय मानी जाती है

तिथे पूर्वार्धजा रात्रौ दिन भद्रा परार्धजा।
भद्रा दोषो न तत्र स्यात कार्येsत्यावश्यके सति।।

अर्थात यदि आपको कोई अत्यंत महत्वपूर्ण कार्य करना है तो ऐसी स्थिति में उत्तरार्ध के समय की भद्रा दिन में तथा पूर्वार्ध के समय की भद्रा रात्रि में हो तब इसे शुभ ही माना गया है। इसे इस प्रकार भी कहा जा सकता है कि यदि कभी भी आपको भद्रा के दौरान कोई शुभ कार्य करना आवश्यक हो जाए तो पृथ्वी लोक की भद्रा तथा भद्रा मुख-काल को छोड़कर तथा स्वर्ग व पाताल की भद्रा के पुच्छ काल में शुभ तथा मांगलिक कार्य संपन्न किए जा सकते हैं क्योंकि ऐसी स्थिति में भद्रा का परिणाम शुभ फलदायी होता है।

एक अन्य मत के अनुसार यदि आप भद्रा के दुष्प्रभावों से बचना चाहते हैं, तो आपको प्रातः काल उठकर भद्रा के निम्नलिखित 12 नामों का स्मरण तथा जाप करना चाहिए ।

भद्रा के यह बारह नाम इस प्रकार हैं
१- धन्या
२- दधिमुखी
३- भद्रा
४ महामारी
५- खरानना
६- कालरात्रि
७- महारुद्रा
८- विष्टि
९- कुलपुत्रिका
१०- भैरवी
११- महाकाली
१२- असुरक्षयकारी

यदि आप पूरी निष्ठा तथा विधि पूर्वक भद्रा का पूजन करते हैं और भद्रा के उपरोक्त 12 नामों का स्मरण कर उनकी पूजा करते हैं तो भद्रा का कष्ट आपको नहीं लगता और आपके सभी कार्य निर्विघ्न संपन्न होते हैं।।

छमिहहि सज्जन मोर ढिढाई ।
पडिय ही बाल बचन मन लाई ।।
राधे राधे ।

06/08/2024
06/08/2024

कृपया पूरे परिवार को पढ़कर सुनाये 👇
*कांग्रेस भारत को संविधान के माध्यम से मुस्लिम राष्ट्र बना चुकी थी बस घोषणा नहीं कर पाई*


अनुच्छेद 25, 28, 30 (1950)
एचआरसीई अधिनियम (1951)
एचसीबी एमपीएल (1956)
धर्मनिरपेक्षता (1975)
अल्पसंख्यक अधिनियम (1992)
POW अधिनियम (1991)
वक्फ अधिनियम (1995)
राम सेतु शपथ पत्र (2007)
केसर (2009)

*1)* उन्होंने अनुच्छेद 25 द्वारा धर्मांतरण को वैध बनाया ।
*2)* उन्होंने अनुच्छेद 28 के माध्यम से हिंदुओं से धार्मिक शिक्षा छीन ली लेकिन अनुच्छेद 30 के माध्यम से मुस्लिमों और ईसाइयों को धार्मिक शिक्षा की अनुमति दी ।
*3)* उन्होंने एचआरसीई अधिनियम 1951 लागू करके सभी मंदिरों और मंदिरों का पैसा हिंदुओं से छीन लिया ।
*4)* उन्होंने हिंदू कोड बिल के तहत तलाक कानून, दहेज कानून द्वारा हिंदू परिवारों को नष्ट कर दिया लेकिन मुस्लिम पर्सनल लॉ को नहीं छुआ । उन्हें बहुविवाह की अनुमति दी ताकि वे अपनी जनसंख्या बढ़ाते रहें ।
*5)* 1954 में विशेष विवाह अधिनियम लाया गया ताकि मुस्लिम लड़के आसानी से हिंदू लड़कियों से शादी कर सकें ।
*6)* 1975 में उन्होंने आपातकाल लगाया, जबरदस्ती धर्मनिरपेक्षता शब्द संविधान में जोड़ा और जबरदस्ती भारत को धर्मनिरपेक्ष बना दिया ।
*7)* कांग्रेस यहीं नहीं रुकी. 1991 में वे अल्पसंख्यक आयोग कानून लेकर आये और घोषणा की
एमएसएल ! एम को अल्पसंख्यक माना जाता है, हालांकि धर्मनिरपेक्ष देश में बहुसंख्यक-अल्पसंख्यक नहीं हो सकते ।
*8)* उन्होंने छात्रवृत्ति, सरकारी जैसे विशेष अधिकार दिए । अल्पसंख्यक अधिनियम के तहत उन्हें लाभ मिले ।
*9)* 1992 में, उन्होंने हिंदुओं को उनके मंदिर कानूनी तरीके से वापस लेने से रोक दिया और पूजा स्थल अधिनियम द्वारा 40000 मंदिर हिंदुओं से छीन लिए ।
*10)* कांग्रेस यहीं नहीं रुकी और 1995 में उन्होंने मुसलमानों को किसी भी जमीन पर दावा करने, वक्फ अधिनियम के जरिए किसी भी हिंदू की जमीन छीनने का अधिकार दे दिया और मुसलमानों को भारत का दूसरा सबसे बड़ा जमीन मालिक बना दिया ।
*11)* 2007 में, उन्होंने सुप्रीम कोर्ट में रामसेतु हलफनामे में *श्री राम* के अस्तित्व को अस्वीकार कर दिया और हिंदू विरोधी धर्मयुद्ध में चरम बिंदु 2009 में था जब कांग्रेस ने भगवा चरमपंथ शब्द गढ़कर हिंदू धर्म को चरमपंथी धर्म घोषित किया ।
*12)* और मजे की बात यह है कि इसी कांग्रेस ने अपने 136 साल के इतिहास में कभी बुर्के में, तीन तलाक में कोई अतिवाद नहीं पाया !
*13)* कांग्रेस धीरे-धीरे बड़ी चतुराई से हिंदुओं को नंगा करती रही । वे एक-एक करके हिंदू अधिकारों को छीनते रहे और अब हिंदू पूरी तरह से हर चीज से वंचित हो गए हैं और मजेदार बात यह है कि उन्हें इसके बारे में पता भी नहीं है ।
*14)* उनके पास अपने मंदिर नहीं हैं, उनके पास अपनी धार्मिक शिक्षा नहीं है, उनकी ज़मीनें उनकी स्थायी संपत्ति नहीं हैं ।
और वे प्रश्न भी नहीं पूछते !
क्यों मस्जिद और चर्च स्वतंत्र हैं, लेकिन मंदिर सरकार के अधीन हैं ? नियंत्रण ?
सरकार क्यों हैं ? वित्त पोषित मदरसे, कॉन्वेंट स्कूल लेकिन सरकारी नहीं । वित्त पोषित गुरुकुल ?
उनका वक्फ अधिनियम तो हिंदू भूमि अधिनियम क्यों नहीं है?
उनका मु$ल क्यों है m पर्सनल बोर्ड लेकिन हिंदू पर्सनल बोर्ड नहीं ?
यदि भारत धर्मनिरपेक्ष देश है तो यहां बहुसंख्यक अल्पसंख्यक क्यों हैं ? स्कूलों में रामायण और महाभारत क्यों नहीं पढ़ाई जाती ?
*15)* औरंगजेब ने हिंदू धर्म को नष्ट करने के लिए तलवार का इस्तेमाल किया, कांग्रेस ने हिंदू धर्म को नष्ट करने के लिए संविधान, अधिनियमों, विधेयकों का इस्तेमाल किया और जहां तलवार विफल रही, वहां संविधान ने यह काम किया ।
*16)* और फिर मीडिया है ।
अगर कोई ये सवाल पूछने की कोशिश करता है तो उसे सांप्रदायिक, भगवा और भक्त घोषित कर दिया जाता है ।
यदि कोई राजनेता इन गलतियों को सुधारने का प्रयास करता है तो उन्हें बुलाया जाता है क्योंकि वे लोकतंत्र को कमजोर कर रहे हैं ।
*17)* याद रखें शक्तिशाली रोमन धर्म के पतन में केवल 80 वर्ष लगे ।
प्रत्येक हिंदू को रोमन सभ्यता के पतन के बारे में अवश्य पढ़ना चाहिए ।
कोई भी बाहरी ताकत उन्हें हरा नहीं सकी, वे आंतरिक रूप से अपने ही शासक कॉन्सटेंटाइन और ईसाई धर्म से हार गए ।
*18)* हिंदुओं ने 1950 से नेहरू और उनके परिवार को चुना और भारी कीमत चुकाई है और अधिकांश वर्षों तक कांग्रेस सरकारों से उन्हें नुकसान उठाना पड़ा है ।
हिंदुओं के लिए गुलाम मानसिकता से बाहर आने और शिवाजी और महाराजा प्रताप की तरह बनने का समय आ गया है, जो अपने शासनकाल के दौरान कभी गुलाम नहीं बने ।
आज हमारे पास एक गतिशील प्रधान मंत्री हैं जिनके हाथों को तब तक मजबूत करने की आवश्यकता है जब तक कि हम दुनिया को तलवार से नहीं बल्कि "वसुदैवम कुटुम्बकम" से जीत लें ।
क्या हमें इस एक पार्टी की ज़रूरत है जिसने हिंदुओं को इतना नुकसान पहुंचाया है ???
दोष केवल कांग्रेस पर नहीं होना चाहिए... वे क्षेत्रीय दल भी दोषी हैं जो राजनीतिक कारणों से समय-समय पर कांग्रेस के साथ गठबंधन करते रहे और मूक दर्शक बने रहे... जागो.

अब समझना है वाकई मे कांग्रेस धर्म निरपेक्ष क्यों है ? धर्म निरपेक्ष के हथियार से हिन्दू सनातन धर्म को समाप्त करने का कुत्सित प्रयास आज चल रहा है ! समय समय हिन्दू धर्म के खिलाफ जहर उगलना षड़यंत्र का हिस्सा है ! आज कांग्रेस ने अपनी मानसिकता के अनुरूप कई दलों के साथ गठबंधन करना इसका परिचायक है ! अगर देश सारे वाम पंथी कांग्रेस के साथ मिलकर सरकार बना ले तब क्या होगा यहीं कल्पना करके हिन्दुओं को किसे वोट देना है यह तय करना होगा !

*इस संदेश को कम से कम पांच ग्रुप में जरूर भेजे*
*कुछ लोग नही भेजेंगे*
*लेकिन मुझे यकीन है आप जरूर भेजेंगे ।*
🙏🙏🙏🙏🙏

06/08/2024

दक्षिणा का महत्व

ब्राह्मणों की दक्षिणा हवन की पूर्णाहुति करके एक मुहूर्त ( २४ ) मिनट के अन्दर दे देनी चाहिये , अन्यथा मुहूर्त बीतने पर १०० गुना बढ जाती है ,
और तीन रात बीतने पर एक हजार ,
सप्ताह बाद दो हजार ,
महीने बाद एक लाख ,
और संवत्सर बीतने पर तीन करोड गुना यजमान को देनी होती है ।
यदि नहीं दे तो उसके बाद उस यजमान का कर्म निष्फल हो जाता है ,
और उसे ब्रह्महत्या लग जाती है ,
उसके हाथ से किये जाने वाला हव्य - कव्य देवता और पितर कभी प्राप्त नहीं करते हैं । इसलिए ब्राह्मणों की दक्षिणा जितनी जल्दी हो देनी चाहिये ।

यह जो कुछ भी कहा है सबका शास्त्रोॆ में प्रमाण है ।

मुहूर्ते समतीते तु , भवेच्छतगुणा च सा ।

त्रिरात्रे तद्दशगुणा , सप्ताहे द्विगुणा मता ।।

मासे लक्षगुणा प्रोक्ता ,ब्राह्मणानां च वर्धते ।

संवत्सर व्यतीते तु , त्रिकोटिगुणा भवेत् ।।

कर्म्मं तद्यजमानानां , सर्वञ्च निष्फलं भवेत् ।

सब्रह्मस्वापहारी च , न कर्मार्होशुचिर्नर: ।।

इसलिए चाणक्य ने कहा """नास्ति यज्ञसमो रिपु: """ मतलब यज्ञादि कर्म विधि से सम्पन्न हो तब लाभ अन्यथा सबसे बडे शत्रु की तरह है ।

गीता में स्वयं भगवान ने कहा

विधिहीनमसृष्टान्नं , मन्त्रहीनमदक्षिणम् ।

श्रद्धाविरहितं यज्ञं , तामसं परिचक्षते ।।

बिना सही विधि से बनाया भोजन जैसे परिणाम में नुकसान करता है ,
वैसे ही ब्राह्मण के बोले गये मन्त्र दक्षिणा न देने पर नुकसान करते हैं ।

शास्त्र कहते हैं
लोहे के चने या टुकडे भी व्यक्ति पचा सकता है
परन्तु ब्राह्मणों के धन को नहीं पचा सकता है ।
किसी भी उपाय से ब्राह्मणों का धन लेने वाला हमेशा दु:ख ही पाता है ।
इस पर एक कहानी सुनाता हूँ शास्त्रों में वर्णित

महाभारत का युद्ध चल रहा था , युद्ध के मैदान में सियार , आदि हिंसक जीव योद्धाओं के गरम -गरम खून को पी रहे थे , इतने में ही धृष्टद्युम्न ने तलवार से पुत्रशोक से दु:खी निशस्त्र द्रोणाचार्य की गर्दन काट दी । तब द्रोणाचार्य के गरम -गरम खून को पीने के लिए सियारिन दौडती है ,
तो सियार अपनी सियारिन से कहता है 👇

प्रिये """ विप्ररक्तोSयं गलद्दगलद्दहति """

यह ब्राह्मण का खून है इसे मत पीना ,
यह शरीर को गला- गला कर नष्ट कर देगा ।
तब उस सियारिन ने भी ब्राह्मण द्रोणाचार्य का रक्तपान नहीं किया ।

ऋषि - मुनियों का कर के रुप में खून लेने पर ही रावण के कुल का संहार हो गया ।
इसलिए जीवन में कभी भी ब्राह्मणों के द्रव्य का अपहरण किसी भी रुप में नहीं करना चाहिये ।

वित्तशाट्ठ्यं न कुर्वीत, सति द्रव्ये फलप्रदम ।

अनुष्ठान , पाठ - पूजन जब भी करवायें ब्राह्मणों को उचित दक्षिणा देनी चाहिये ,
और दक्षिणा के अतिरिक्त उनके आने - जाने का किराया आदि -आदि पूछकर अलग से देना चाहिये ।

उसके बाद विनम्रता से ब्राह्मणों की वचनों द्वारा भी सन्तुष्टि करते हुए आशीर्वाद देना चाहिये ,
ऐसा करने पर ब्राह्मण मुँह से नहीं बल्कि हृदय से आशीर्वाद देता है ,
और तब यजमान का कल्याण होता है ।

यत्र भुंड्क्ते द्विजस्तस्मात् , तत्र भुंड्क्ते हरि: स्वयम् ।।

जिस घर में इस तरह श्रद्धा से ब्राह्मण भोजन करवाया जाता है ,
वहाँ ब्राह्मण के रुप में स्वयं भगवान ही भोजन करते हैं । धन्यवाद! पढें ,शेयर करें और आचरण भी करे
हर हर महादेव। Jai shre Radhe Krishna 🌹 🙏 🙏🌹

31/07/2024

काँवड यात्रा से जुड़े रोचक रहस्य
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किसने किया था सबसे पहले शिव लिंग का जल अभिषेक?

श्रावण का महीना आते ही हर कोई शिव की भक्ति में झूमने लगता है. इस पावन त्यौहार में पुरे उत्तर भारत और अन्य राज्यो से कावड़िये शिव के पवित्र धामो में जाते है तथा वहां से गंगाजल लाकर शिव का जलाभिषेक करते है.

कावड़ियो को नंगे पैर बहुत दूर चलकर गंगा जल लाना होता है तथा शर्त यह होती है की कावड़ी, शिव कावड़ को जमीन में नही रखता. इस प्रकार शिव भक्त अनेक कठिनाइयों का समाना करके गंगा जल लाते है तथा उससे शिव का जलाभिषेक करते है.

परन्तु क्या आपने कभी यह सोचा है की आखिर वह कौन पहला व्यक्ति होगा जो सबसे पहला कावड़ी था तथा जिसने सबसे पहले भगवान शिव का जलाभिषेक कर उनकी कृपा प्राप्त करी व इस परम्परा का आरम्भ हुआ.ऋषि जमदग्नि ने उनका बहुत अच्छी तरह से आदर सत्कार किया उनकी सेवा में किसी भी तरह की कमी नहीं आने दी . सहस्त्रबाहु ऋषि के आदर सत्कार से बहुत ही प्रसन्न हुआ परन्तु उसे यह बात समझ में नहीं आ रही थी की आखिर एक साधारण एवम गरीब ऋषि उसके और उसकी सेना के लिए इतना सारा खाना कैसे जुटा पाया .

तब उसे अपने सेनिको से यह पता लगा की रसिहि जमदग्नि के पास एक कामधेनु नाम की दिव्य गाय है. जिससे कुछ भी मांगो वह सब कुछ प्रदान करती है.

जब राजा को यह ज्ञात हुआ की इसी कामधेनु गाय के कारण ऋषि जमदग्नि संसाधन जुटाने में कामयाब हो पाया तो उस गाय को प्राप्त करने के लिए सहस्त्रबाहु के मन में लालच उतपन्न हुआ.

उसने ऋषि से कामधेनु गाय मांगी परन्तु ऋषि जमदग्नि ने कामधेनु गाय को देने से मना कर दिया. इस पर सह्त्रबाहु अत्यंत कोर्धित हो गया तथा उसने कामधेनु गाय को प्राप्त करने के लिए ऋषि जमदग्नि की हत्या कर दी.

जब यह खबर परशुराम को पता लगी की सहस्त्रबाहु ने उनके पिता की हत्या कर दी है तथा वह कामधेनु गाय को अपने साथ ले गया है तो वे अत्यंत क्रोधित हो गए. उन्होंने सहस्त्रबाहु के सभी भुजाओ को काट कर उसकी हत्या कर डाली.बाद में परशुराम ने अपने तपस्या प्रभाव से अपने पिता जमदग्नि को पुनः जीवनदान दिया. जब ऋषि को यह बात पता चला की परशुराम ने सहस्त्रबाहु की हत्या कर दी तो उन्होंने इसके पश्चाताप के लिए परशुराम जी से भगवान शिव का जलाभिषेक करने को कहा.

तब परशुराम अपने पिता के आज्ञा से अनेको मिल दूर चलकर गंगा जल लेकर आये तथा आश्रम के पास ही शिवलिंग की स्थापना कर शिव का महाभिषेक किया व उनकी स्तुति करी .

जिस क्षेत्र में परशुराम ने शिवलिंग स्थापित किया था उस क्षेत्र का प्रमाण आज भी मौजूद है. वह क्षेत्र उत्तरप्रदेश में आता है तथा पूरा महादेव के नाम से
प्रसिद्ध है।

काँवड यात्रा के मुहूर्त
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वर्ष 2024 मे कांवड़ यात्रा की शुरुआत 22 जुलाई 2024 से हो चुकी है और यह 2 अगस्त 2024 तक चलेगी।

सावन माह शिवरात्रि में जलाभिषेक
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हिंदू धर्मशास्त्रों के अनुसार मासिक शिवरात्रि हर महीने की कृष्ण पक्ष की त्रयोदशी तिथि को पड़ती है। लेकिन सावन की शिवरात्रि का अलग महत्व है। इस दिन भगवान आशुतोष की विशेष पूजा अर्चना के साथ शिवालयों में जलाभिषेक तथा कावंडियो द्वारा लाये गये गंगाजल से अभिषेक करके अपनी कांवड यात्रा को पूर्ण करने की परंपरा है।

पंचांग के अनुसार साल 2024 में सावन का महीना 22 जुलाई से शुरू होकर 19 अगस्त को पूर्ण होगा। कांवड़ यात्रा 22 जुलाई से आरंभ होगी तथा सावन शिवरात्रि 2 अगस्त, शुक्रवार को समाप्त हो जाएगी।

त्रयोदशी तिथि प्रारंभ👉 1 अगस्त दिन 3:28 से।

त्रयोदशी तिथि समाप्त👉 2 अगस्त दिन 3:26 पर।

मंदिरों में त्रयोदशी व चतुर्दशी के दिन शिवभक्त भगवान आशुतोष का जलाभिषेक करेंगे।

2 अगस्त को प्रदोष काल, एवं 3 अगस्त को शिवलिङ्ग पर जलाभिषेक हेतु प्रातःकाल सूर्योदय के पश्चात् 2 घण्टे 24 मिनट का समय श्रेष्ठ रहेगा।

श्रावण शिवरात्रि जलाभिषेक मुहूर्त
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1👉 1 अगस्त- दिन 3:55 से 7:56 तक।
2👉 2 अगस्त- प्रातः 9:35 तक।
3👉 2 अगस्त- दिन 4:02 से 7:50 तक।
4👉 2 अगस्त प्रदोषकाल मुहूर्त सायं 7:11 से 9:53 तक।
5👉 3 अगस्त प्रातः 9:30 तक।

विशेष:👉 कुछ विद्वान मुख्य मुहूर्त्त यानि श्रावण शिवरात्रि, वाले दिन सारा दिन ही अभिषेक करते हैं, तथा कुछ प्रदोषकाल (7:11 से 9:53 तक) व निशीथकाल (2/3 अगस्त मध्यरात्रि 12:06 से 12:49) में भी जलाभिषेक करते हैं।

इसके अतिरिक्त आर्द्रा नक्षत्र (1 अगस्त प्रातः 10:24 से 2 अगस्त 10:59) मे तथा मिथुन लग्न (2/3 अगस्त मध्यरात्रि 2:13 से 4:27) विशेष रूप से शिव पूजन एवं जलाभिषेक के लिए शुभ माना गया है।

श्रीगंगादि तीथों से 'जल लाने' एवं भगवान् शिव का पूजन एवं शिवलिङ्ग को 'जलांजली अभिषेक' करने हेतु अगस्त माह के शुभ पुण्य मुहूर्त〰️〰️〰️〰️〰️〰️〰️〰️〰️〰️〰️〰️〰️
गुरूवार👉 1 अगस्त- प्रदोषकाल।
शुक्रवार👉 2 अगस्त - सारा दिन।
शनिवार👉 3 अगस्त - प्रात: 10 बजे तक।
शुक्रवार👉 9 अगस्त -प्रातः काल।
शनिवार👉 17 अगस्त --प्रातः काल।
रविवार👉18 अगस्त - प्रदोषकाल।
मंगलवार👉 29 अगस्त -सारा दिन।

विशेष:👉 भक्तगण इन मुहूत्तों में से कांवड़ जलाभिषेक हेतु जल को लाने एवं जलांजली अभिषेक हेतु कोई भी मुहूर्त्त ग्रहण कर सकते हैं।

काँवड यात्रा से जुड़े अन्य रहस्य
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हिन्दू धर्म मे श्रावण माह में शिव की भक्ति के महत्व का वर्णन वेद तथा पुराणो में किया गया है।

सावन का यह माह शिवभक्ति और आस्था का प्रतीक माना जाता है। कांवड़ियों द्वारा जल लाने की यात्रा के आरंभ की कुछ तिथियाँ होती हैं। इन्ही तिथियों पर कांवड़ियों को यात्रा करना शुभ रहता है।

श्रावण के पावन मास में शिव भक्तों के द्वारा काँवर यात्रा का आयोजन किया जाता है। इस दौरान लाखों शिव भक्त दूरस्थ तथा दुर्गम स्थानों जैसे गोमुख, श्री अमरनाथ, श्री हरिद्वार, नीलकण्ठ एवं गंगा आदि तीर्थो से पवित्र गंगाजल के कलश से भरी काँवड़ को अपने कंधों रखकर पैदल लाते हैं और उस गंगा जल से भगवान् शिव के प्रतिष्ठित मन्दिरों, ज्योतिर्लिङ्गों, विग्रहों, स्वरूपों तथा क्षेत्रीय मन्दिरों में शिवभक्त कांवड़ियों द्वारा श्रद्धारूपी श्रीगङ्गाजल का अभिषेक किया जाता है।

स्कन्दपुराणानुसार श्रावण मास में नियमपूर्वक नक्त व्रत करना चाहिए, और महीने भर प्रतिदिन रुद्राभिषेक करना अत्यंत पुण्यदायी होता है।

कुर्यात् नक्त व्रतं योगिन् श्रावणे नियतो नरः।
रुद्राभिषेकं कुर्वीत् मासमात्रं दिने दिने ।।

कुछ लोगों का भ्रम है कि श्रावण भाद्रपद मास में नदियां रजस्वलारूप हो जाने से उनका जल पवित्र नहीं होता। परन्तु स्कन्दपुराण में स्पष्ट उल्लेख है कि सिन्धु, सूती, चन्द्रभागा, गंगा, सरयू, नर्मदा, यमुना, प्लक्षजाला, सरस्वती- ये सभी नंदसंज्ञा वाली नदियां रजोदोष से युक्त नहीं होती है। ये सभी अवस्थाओं में निर्मल रहती हैं।

प्रतिवर्ष होने वाली इस यात्रा में भाग लेने वाले श्रद्धालुओं को काँवरिया अथवा काँवड़िया कहा जाता है। भगवान् शिव की प्रसन्नता हेतु आषाढ़ पूर्णिमा से लेकर सम्पूर्ण श्रावण मास, शिवभक्त कांवड़िये तीर्थ स्थलों तथा अन्य तीर्थ स्थलो से गंगा जल लाकर इसी प्रकार से भगवान शिव का जलाभिषेक करते हैं।

कांवड लाने तथा जलाभिषेक करने का पौराणिक महत्व
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हिन्दू धर्म शास्त्रों मे प्रतिवर्ष सावन मास में कांवड लाने तथा भगवान शिव का जलाभिषेक करने के कई कारणों का उल्लेख किया गया है, जिसमें से दो मुख्य कारण इस प्रकार से है-

1. प्रथम कारण:👉 सतयुग मे देवासुर संग्राम के समय समुद्र मंथन से जो 14 रत्न प्राप्त हुए थे, उनमे "अमृतकलश" से पहले "कालकूट" नामक हलाहल यानि विष भी प्राप्त हुआ था। सृष्टि की रक्षा तथा सर्वकल्याण हेतु उस भयंकर विष को स्थान देने के लिए भगवान शिव ने उस विष का पान कर लिया, उस विष को कण्ठ मे धारण करने से विष के घातक प्रभाव से भगवान शिव का बदन भयानक गरमी से झुलसने लगा, तब इस भीषण जलन से मुक्ति प्रदान करने के लिए देवी-देवताओ, ऋषियों-मुनियों तथा शिवगणों ने गंगाजल, तथा अन्य पवित्र नदियों के जल से भगवान शिव का अभिषेक करके, विष की तीव्र ज्वाला को शान्त किया।

तभी से श्रावण मास मे शिवकृपा पाने हेतु सावनमास की पूजा, अभिषेक तथा कांवड़ यात्रा की परंपरा शुरू हुई, और तभी से ही विष के कण्ठ मे धारण विष के प्रभाव से भगवान शिव को नीलकंठ भी क्हा जाने लगा ।

शिवपुराण' में उल्लेख है कि भगवान शिव स्वयं ही जल हैं। इसलिए जल से उनकी अभिषेक के रूप में आराधना का उत्तमोत्तम फल है, जिसमें कोई संशय नहीं है।

2. द्वितीय कारण:👉 भगवान शिव को सावन का महीना अत्यंत प्रिय है, क्योंकि भगवान शिव सावन के महीने में पृथ्वी पर अवतरित होकर अपनी ससुराल गए थे, और वहां उनका स्वागत अर्घ्य और जलाभिषेक से किया गया था। माना जाता है कि प्रत्येक वर्ष सावन माह में भगवान शिव अपनी ससुराल आते हैं। भू-लोक वासियों के लिए शिव कृपा पाने का यह उत्तम समय होता है। अतः शिवभक्तो ने भगवान शिव की प्रसन्नता पाने हेतु सावन मास में भगवान का जलाभिषेक करना प्रारम्भ कर दिया।

3.👉 एक अन्य मान्यता के अनुसार, भगवान परशुराम ने सबसे पहले कांवड़ यात्रा की शुरुआत की थी। परशुराम गढ़मुक्तेश्वर धाम से गंगाजल लेकर आए थे और यूपी के बागपत के पास स्थित "पुरा महादेव" का गंगाजल से अभिषेक किया था।

सावन मे शिव जलाभिषेक का फल:
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श्रावण मास भगवान शिव का जलाभिषेक करने से व्यक्ति को समस्त सुखों की प्राप्ति होती है। इस विषय में प्रसिद्ध एक पौराणिक मान्यता के अनुसार श्रावण मास में जो भी मनुष्य कांवड लाता अथवा शिव का जलाभिषेक करता है, उसकी समस्त इच्छाएं पूर्ण होती है।

इन दिनों किया गया जलाभिषेक, दान-पुण्य एवं पूजन समस्त ज्योतिर्लिंगों के दर्शन के समान फल देने वाला होता है। इस जलाभिषेक के फलस्वरूप अनेक कामनाएं तथा उद्देश्यों की पूर्ति हो सकती है, इससे सुखी वैवाहिक जीवन, संतान सुख, सुख-समृद्धि प्राप्ति, मनोवांछित जीवनसाथी की प्राप्ति, तथा संतान सुख अर्थात कुल वृद्धि कारक होता है। इससे लक्ष्मी प्राप्ति और यश-कीर्ति भी प्राप्त होती है।

कुछ लोगों का भ्रम है कि श्रावण भाद्रपद मास में नदियां रजस्वलारूप हो जाने से उनका जल पवित्र नहीं होता। परन्तु स्कन्दपुराण में स्पष्ट लिखा है कि सिन्धु, सूती, चन्द्रभागा, गंगा, सरयू, नर्मदा, यमुना, प्लक्षजाला, सरस्वती- ये सभी नंदसंज्ञा वाली नदियां रजोदोष से युक्त नहीं होती है। ये सभी अवस्थाओं में निर्मल रहती है
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नोटः-यह एक विस्तृत लेख है समय का अभाव होने पर न पढ़ें क्योंकि अधूरा ज्ञान घातक सिद्ध हो सकता है।                  ✈️  वै...
22/07/2024

नोटः-यह एक विस्तृत लेख है समय का अभाव होने पर न पढ़ें क्योंकि अधूरा ज्ञान घातक सिद्ध हो सकता है।

✈️ वैदिक_विज्ञान 🚀

🚁शीघ्रगामी_यानों_की_गति_का_परिणाम 🚁

🚁विमान_शास्त्र✈️

परिचय

ऐसे कई गूढ़ रहस्य भरे है.. हमारे देश की पांडुलिपियों और प्राचीन ग्रन्थों मे "'अन्तर्राष्ट्रीय संस्कृत शोध मण्डल" ने प्राचीन पाण्डुलिपियों की खोज के विशेष प्रयास किये फलस्वरूप् जो ग्रन्थ मिले, उनके आधार पर ऋषि भरद्वाज का `विमान_प्रकरण´, विमान शास्त्र प्रकाश
में आया इस ग्रन्थ का बारीकी से अध्यन करने पर आठ प्रकार के विमानों का पता चला है :-

१ शक्त्युद्गम- बिजली से चलने वाला।
२ भूतवाह- अग्नि, जल और वायु से चलने वाला।
३ धूमयान- गैस से चलने वाला।
४ शिखोद्गम- तेल से चलने वाला।
५ अंशुवाह- सूर्यरश्मियों से चलने वाला।
६ तारामुख- चुम्बक से चलने वाला।
७ मणिवाह-चन्द्रकान्त,सूर्यकान्त मणियों से चलने वाला
८ मरुत्सखा - केवल वायु से चलने वाला..

विस्तृत लेख

प्राचीन_भारतीय_विमान_शास्त्र :

सनातन वैदिक विज्ञान का अप्रतिम स्वरूप :

हिंदू वैदिक ग्रंथोँ एवं प्राचीन मनीषी साहित्योँ मेँ वायुवेग से उड़ने वाले विमानोँ (हवाई जहाज़ोँ) का वर्णन है, सेकुलरोँ के लिए ये कपोल कल्पित कथाएं हो सकती हैँ, परन्तु धर्मभ्रष्ट लोगोँ की बातोँ पर ध्यान ना देते हुए हम तथ्योँ को विस्तार देते हैँ।ब्रह्मा का १ दिन, पृथ्वी पर हमारे वर्षोँ के ४,३२,००००००० दिनोँ के बराबर है। और यही १ ब्रह्म दिन चारोँ युगोँ मेँ विभाजित है यानि, सतयुग, त्रेता, द्वापर एवं वर्तमान मेँ कलियुग।

सतयुग की आयु १,७२,८००० वर्ष निर्धारित है, इसी प्रकार १,००० चक्रोँ के सापेक्ष त्रेता और कलियुग की आयु भी निर्धारित की गई है।

सतयुग मेँ प्राणी एवं जीवधारी वर्तमान से बेहद लंबा एवं जटिल जीवन जीते थे, क्रमशः त्रेता एवं द्वापर से कलियुग आयु कम होती गई और सत्य का प्रसार घटने लगा,

उस समय के व्यक्तियोँ की आयु लम्बी एवं सत्य का अधिक प्रभाव होने के कारण उनमेँ आध्यात्मिक समझ एवं रहस्यमयी शक्तियां विकसित हुई, और उस समय के व्यक्तियोँ ने जिन वैज्ञानिक रचनाओँ को बनाया उनमेँ से एक थी "वैमानिकी"।

उस समय की मांग के अनुसार विभिन्न विमान विकसित किए गए, जिन्हेँ भगवान ब्रह्मा और अन्य देवताओँ के आदेश पर यक्षोँ (जिन्हेँ इंजीनियर कह सकते हैँ) ने बनाया था,

ये विमान प्राकृतिक डिज़ाइन से बनाए जाते थे, इनमेँ पक्षियोँ के परोँ जैसी संरचनाओँ का प्रयोग जाता था, इसके पश्चात् के विमान, वैदिक ज्ञान के प्रकांड संतएवं मनीषियोँ द्वारा निर्मित किए गए, तीनोँ युगोँ के अनुरूप विमानोँ केभी अलग अलग प्रकार होते थे,

प्रथम युग सतयुग मेँ विमान मंत्र शक्ति से उड़ा करते थे, द्वितीय युग त्रेता मेँ मंत्र एवं तंत्र की सम्मिलित शक्ति का प्रयोग होता था, तृतीय युग द्वापर मेँ मंत्र-तंत्र-यंत्र तीनोँ की सामूहिक ऊर्जा से विमान उड़ा करते थे, वर्तमान मेँ अर्थात् कलियुग मेँ मंत्र एवं तंत्र के ज्ञान की अथाह कमी है, अतः आज के विमान सिर्फ यंत्र (मैकेनिकल) शक्ति से उड़ा करते हैँ,

युगोँ के अनुरूप हमेँ विमानोँ के प्रकारोँ की संख्या ज्ञात है, सतयुग मेँ मंत्रिका विमानोँ के २६ प्रकार (मॉडल) थे, त्रेता मेँ तंत्रिका विमानोँ के ५६ प्रकार थे, तथा द्वापर मेँ कृतिका (सम्मिलित) विमानोँ के भी २६ प्रकार थे,

हालांकि आकार और निर्माण के संबंध मेँ इनमेँ आपस मेँ कोई अंतर नहीँ हैँ।

महान भारतीय आचार्य महर्षि भारद्वाज ने एक ग्रंथ रचा, जिसका नाम है, "विमानिका" या "विमानिका शास्त्र"

१८७५ ईसवीँ में दक्षिण भारत के एक मन्दिर में विमानिका शास्त्र ग्रंथ की एक प्रति मिली थी। इस ग्रन्थ को ईसा से ४०० वर्ष पूर्व का बताया जाता है, इस ग्रंथ का अनुवाद अंग्रेज़ी भाषा में हो चुका है। इसी ग्रंथ में पूर्व के ९७ अन्य विमानाचार्यों का वर्णन है तथा २० ऐसी कृतियों का वर्णन है जो विमानों के आकार प्रकार के बारे में विस्तृत जानकारी देते हैं। खेद का विषय है कि इन में से कई अमूल्य कृतियां अब लुप्त हो चुकी हैं। कई कृतियोँ को तो विधर्मियोँ ने नालंदा विश्वविद्यालय मेँ जला दिया,

इस महान ग्रंथ मेँ विभिन्न प्रकार के विमान, हवाई जहाज एवं उड़न-खटोले बनाने की विधियाँ दी गई हैँ, तथा विमान और उसके कलपुर्जे तथा ईंधन के प्रयोग तथा निर्माण की विधियोँ का भी सचित्र वर्णन किया गया है, उन्होँने अपने विमानोँ मेँ ईंधन या नोदक अथवा प्रणोदन (प्रोपेलेँट) के रूप मेँ पारे (मर्करी Hg) का प्रयोग किया।

बहुत कम लोग जानते हैँ कि कलियुग का पहला विमान राइट ब्रदर्स ने नहीँ बनाया था, पहला विमान १८९५ ई. में मुम्बई स्कूल ऑफ आर्ट्स के अध्यापक शिवकर बापूजी तलपड़े, जो एक महान वैदिक विद्वान थे, ने अपनी पत्नी (जो स्वयं भी संस्कृत की विदुषा थीं) की सहायता से बनाया एवं उड़ाया था। उन्होँने एक मरुत्सखा प्रकार के विमान का निर्माण किया। इसकी उड़ान का प्रदर्शन तलपड़े ने मुंबई चौपाटी पर तत्कालीन बड़ौदा नरेश सर शिवाजी राव गायकवाड़ और बम्बई के प्रमुख नागरिक लालजी नारायण के सामने किया था। विमान १५०० फुट की ऊंचाई तक उड़ा और फिर अपने आप नीचे उतर आया। बताया जाता है कि इस विमान में एक ऐसा यंत्र लगा था, जिससे एक निश्चित ऊंचाई के बाद उसका ऊपर उठना बन्द हो जाता था। इस विमान को उन्होंने महादेव गोविन्द रानडे को भी दिखाया था।

दुर्भाग्यवश इसी बीच तलपड़े की विदुषी जीवनसंगिनी का देहावसान हो गया(कथित है कुछ अंग्रेज उनको मार कर दस्तावेज चुरा ले गए)।फिर तलपड़े जी मानसिक रुप से विमार पड़ गये। फलत: वे इस दिशा में और आगे न बढ़ सके। १७ सितंबर, १९१८ ईँसवी को उनका देहावसान हो गया।

राइट ब्रदर्स के काफी पहले वायुयान निर्माण कर उसे उड़ाकर दिखा देने वाले तलपड़े महोदय को आधुनिक विश्व का प्रथम विमान निर्माता होने की मान्यता देश के स्वाधीन (?) हो जाने के इतने वर्षों बाद भी नहीं दिलाई जा सकी, यह निश्चय ही अत्यन्त दुर्भाग्यपूर्ण है। और इससे भी कहीं अधिक दुर्भाग्यपूर्ण यह है कि पाठ्य-पुस्तकों में शिवकर बापूजी तलपड़े के बजाय राइटब्रदर्स (राइट बन्धुओं) को ही अब भी प्रथम विमान निर्माता होने का श्रेय दिया जा रहा है, जो नितान्त असत्य है।

"समरांगन:-सूत्र धारा" नामक भारतीय ग्रंथ मेँ भी विमान निर्माण संबंधी जानकारी है। इस ग्रंथ मेँ युद्ध के समय वैमानिक मशीनोँ के प्रयोग का वर्णन है, इस ग्रंथ मेँ संस्कृत के २३० श्लोक हैँ, स्थान की कमी के कारण हम यहाँ इस ग्रंथ के पूरे श्लोक नहीँ लिख रहे हैँ, अन्यथा लेख लंबा हो जाएगा।

परन्तु हम इस ग्रंथ के १९० वेँ श्लोक का अनुवाद अवश्य कर रहे हैँ :-

"[२:२० . १९०] परिपत्रोँ से पूर्ण विमान के दाहिने पंख से अंदर जाते हुए केंद्र पर ध्वनि की गति से पारे को ईँधन के सापेक्ष पहुँचाने पर एक छोटी पर अधिक दबाव वाली आंतरिक ऊर्जा उत्पन्न होती है, जो आपके यंत्र को आकाश मेँ शनैः शनैः ले जाएगी, जिससे यंत्र के अंदर बैठा व्यक्ति अविस्मरणीय तरीके से नभ की यात्रा करेगा, चार कठोर धातु से बने पारे के पात्रोँ का संयोजन उचित स्थिति मेँ किया जाना चाहिए, एवं उन्हेँ नियंत्रित तरीके से ऊष्मा देनी चाहिए, ऐसा करने से आपका विमान आकाश मेँ चमकीले मोती के समान उड़ता नज़र आएगा।।"

इस ग्रंथ के एक गद्य का अनुवाद इस प्रकार है -

"सर्वप्रथम पाँच प्रकार के विमानों का निर्माण ब्रह्मा, विष्णु, यम, कुबेर तथा इन्द्र के लिये किया गया था। तत्पश्चात अन्य विमान बनाये गये। चार मुख्य श्रेणियों का ब्योरा इस प्रकार हैः-

(१) रुकमा – रुकमा नुकीले आकार के और स्वर्ण रंग के विमान थे।

(२) सुन्दरः –सुन्दर: त्रिकोण के आकार के तथा रजत (चाँदी) युक्त विमान थे।

(३) त्रिपुरः – त्रिपुरः तीन तल वाले शंक्वाकार विमान थे।

(४) शकुनः – शकुनः का आकार पक्षी के जैसा था। तथा ये अंतर्राक्षीय विमान थे।

दस अध्याय संलगित विषयों पर लिखे गये हैं जैसे कि विमान चालकों का प्रशिक्षण, उडान के मार्ग, विमानों के कल-पुर्ज़े, उपकरण, चालकों एवं यात्रियों के परिधान तथा लम्बी विमान यात्रा के समय भोजन किस प्रकार का होना चाहिये। ग्रंथ में धातुओं को साफ करने की विधि, उस के लिये प्रयोग करने वाले द्रव्य, अम्ल जैसे कि नींबू अथवा सेब या अन्य रसायन, विमान में प्रयोग किये जाने वाले तेल तथा तापमान आदि के विषयों पर भी लिखा गया है।

साथ ही, ७ प्रकार के इंजनों का वर्णन किया गया है, तथा उनका किस विशिष्ट उद्देश्य के लिये प्रयोग करना चाहिये तथा कितनी ऊंचाई पर उसका प्रयोग सफल और उत्तम होगा ये भी वर्णित है।

ग्रंथ का सारांश यह है कि इसमेँ प्रत्येक विषय पर तकनीकी और प्रयोगात्मक जानकारी उपलब्ध है। विमान आधुनिक हेलीकॉप्टरों की तरह सीधे ऊंची उडान भरने तथा उतरने के लिये, आगे-पीछे तथा तिरछा चलने में भी सक्षम बताये गये हैं

इसके अतिरिक्त हमारे दूसरे ग्रंथोँ - रामायण, महाभारत, चारोँ वेद, युक्तिकरालपातु (१२ वीं सदी ईस्वी) मायाम्तम्, शतपत् ब्राह्मण, मार्कण्डेय पुराण, विष्णु पुराण, भागवतपुराण, हरिवाम्सा, उत्तमचरित्र ,हर्षचरित्र, तमिल पाठ जीविकाचिँतामणि, मेँ तथा और भी कई वैदिक ग्रंथोँ मेँ भी विमानोँ के बारे मेँ विस्तार से बताया गया है,

महर्षि भारद्वाज के शब्दों में - "पक्षियों की भान्ति उडने के कारण वायुयान को विमान कहते हैं, (वेगसाम्याद विमानोण्डजानामिति ।।)

विमानों के प्रकार:-

(१) शकत्युदगम विमान -"विद्युत से चलने वाला विमान"

(२) धूम्र विमान - "धुँआ, वाष्प आदि से चलने वाला विमान"

(३) अशुवाह विमान - "सूर्य किरणों से चलने वाला विमान",

(४) शिखोदभग विमान - "पारे से चलने वाला विमान",

(५) तारामुख विमान -"चुम्बकीय शक्ति से चलने वाला विमान",

(६) मरूत्सख विमान - "गैस इत्यादि से चलने वाला विमान"

(७) भूतवाहक विमान - "जल,अग्नि तथा वायु से चलने वाला विमान"

वो विमान जो मानवनिर्मित नहीं थे किन्तु उन का आकार प्रकार आधुनिक ‘उडनतशतरियों’ के अनुरूप है। विमान विकास के प्राचीन ग्रन्थ भारतीय उल्लेख प्राचीन संस्कृत भाषा में सैंकडों की संख्या में उपलब्द्ध हैं, किन्तु खेद का विषय है कि उन्हें अभी तक किसी आधुनिक भाषा में अनुवादित ही नहीं किया गया।

प्राचीन भारतीयों ने जिन विमानों का अविष्कार किया था उन्होंने विमानों की संचलन प्रणाली तथा उन की देख भाल सम्बन्धी निर्देश भी संकलित किये थे, जो आज भी उपलब्द्ध हैं और उनमें से कुछ का अंग्रेजी में अनुवाद भी किया जा चुका है। विमान-विज्ञान विषय पर कुछ मुख्य प्राचीन ग्रन्थों का ब्योरा इस प्रकार हैः-

प्रथम ग्रंथ :

(१) ऋगवेद- इस आदिग्रन्थ में कम से कम २०० बार विमानों के बारे में उल्लेख है। उन में तिमंजिला, त्रिभुज आकार के, तथा तिपहिये विमानों का उल्लेख है जिन्हेँ अश्विनों (वैज्ञानिकों) ने बनाया था। उन में साधारणतया तीन यात्री जा सकते थे। विमानों के निर्माण के लिये स्वर्ण,रजत तथा लोह धातु का प्रयोग किया गया था तथा उन के दोनो ओर पंख होते थे। वेदों में विमानों के कई आकार-प्रकार उल्लेखित किये गये हैं। अहनिहोत्र विमान के दो ईंजन तथा हस्तः विमान (हाथी की शक्ल का विमान) में दो से अधिक ईंजन होते थे। एक अन्य विमान का रुप किंग-फिशर पक्षी के अनुरूप था। इसी प्रकार कई अन्य जीवों के रूप वाले विमान थे। इस में कोई संदेह नहीं कि बीसवीं सदी की तरह पहले भी मानवों ने उड़ने की प्रेरणा पक्षियों से ही ली होगी।

यातायात के लिये ऋग्वेद में जिन विमानों का उल्लेख है वह इस प्रकार है-

(१) जलयान – यह वायु तथा जल दोनो तलों में चल सकता था। (ऋग वेद ६.५८.३)

(२) कारायान – यह भी वायु तथा जल दोनो तलों में चल सकता था। (ऋग वेद ९.१४.१)

(३) त्रिताला – इस विमान का आकार तिमंजिला था। (ऋगवेद ३.१४.१)

(४) त्रिचक्र रथ – यह रथ के समान तिपहिया विमान आकाश में उड़ सकता था। (ऋगवेद ४.३६.१)

(५) वायुरथ – रथ के जैसा ये यह विमान गैस अथवा वायु की शक्ति से चलता था। (ऋगवेद ५.४१.६)

(६) विद्युत रथ – इस प्रकार का रथ विमान विद्युत की शक्ति से चलता था। (ऋगवेद ३.१४.१).

आ नासत्या त्रिभिरेकादशैरिह देवेभिर्यातं मधुपेयमश्विना।
प्रायुस्तारिष्टं नी रपासि मृक्षतं सेधतं द्वेषो भवतं सचाभुवा।।
- ऋग्वेद। मं०१। सू०३४ मं०११।।

हे शिल्पविद्या के ज्ञाता जनों! आप ( नासत्या ) सत्यगुण - स्वभाव वाले अश्विनी ( सचाऽभुवा ) सम्मिलन करने वाले जल एवम् अग्नि के समान ( देवेभिः ) सम्मिलन करने - करानेवाले विद्वानों के साथ ( इह ) इस उत्तम यान में बैठकर ( त्रिऽभिः ) तीन दिन और तीन रातों में समुद्र के पार व ( एकादशैः ) ग्यारह दिन और ग्यारह रात्रियों में भूगोल - पृथ्वी के अन्त को ( यातम् ) जाओ तथा ( द्वेषः ) शत्रुओं को तथा दुःखों को अच्छी तरह दूर करो । ( मधुऽपेयम् ) मधुर गुण युक्त पान ( सेवन ) के लिए योग्य द्रव्यों द्वारा ( आयुः ) जीवन की ( तारिषृम् ) प्रयत्नपूर्वक वृद्धि करो । इस प्रकार उत्तम सुख की ( सेधतम् ) प्राप्ति करके सब दृष्टियों से श्रेष्ठ व्यक्ति बनो ।

तीन अहोरात्रों ( रात - दिनों में ) में पृथ्वी के एक सिरे से दूसरे सिरे तक तथा ग्यारह अहोरात्रों में पूरे भूगोल का पर्यटन करने तक - अर्थात् पृथ्वी की कर्ण - रेखा की लम्बाई और उसकी परिधि की लम्बाई के कुल मीलों की दूरी क्रमशः ७२ और २६४ घंटों में पूरी की जा सके , विमान का इतना वेग होना चाहिये । पृथ्वी का व्यास लगभग ८००० मील है । ७२ घण्टों में इतनी दूरी तय करने के लिए एक घण्टे में १११ १/९(एक सौ ग्यारह एक बटा नौ) मील के वेग से जाने वाले विमानों की आवश्यकता होगी । पृथ्वी की परिधि २४ , ००० मील की है । उतने मीलों की यात्रा २६४ घण्टे में करने के लिए प्रति घण्टा ९० मील के वेग से जाने वाले यानों की आवश्यकता होगी। तात्पर्य यह कि यान का वेग एक घण्टे में ९० से लेकर १११ मील का होना चाहिये ।

अन्वेषण , आविष्कार या खोज करनेवाले लोगों के लिए किसी भी बात की कमा नहीं होती । दयालु परमेश्वर ने सम्पूर्ण सष्टि ही हमारे सामने प्रत्यक्ष खड़ी की है ।
उस सृष्टि को वेदों की सहायता से नहीं जानकर वेद प्रचारक ऋषियों की सन्तानें जब यह कहती हैं कि अपने यहाँ विमानादि शिल्पविद्या का कुछ भी अता - पता नहीं है, और यदि वे यह समझते हों कि वे विद्याएँ हमारे यहाँ नही थी , तो मेरा उनसे इतना ही कहना है कि शोध करने वाले विद्वान् विद्या , कला - कौशल आदि को खोजकर निकाल सकते हैं तथा प्रयोग करने वालों को अपने ध्येय में पूर्णता भी अवश्य प्राप्त होती है । आलसी , निरुत्साही , पुरूषार्थहीन एवम् पराधीनता में आनन्द मनाने वाले लोगों को विद्या और कला - कौशल आदि कदापि प्राप्त नहीं हो सकती । तनिक यूरोप के लोगों की ओर देखिये - इसे क्या कहा जाय कि विद्या और कला - कौशल के ग्रन्थ उन्हें हिन्दुस्थान में मिले हैं और उन्होंने , जो उन ग्रन्थों का महत्व ही नहीं जानते थे , उन हमारे पूर्वजों से वे ग्रन्थ प्राप्त किये । फिर उन ग्रन्थों का अध्ययन , अन्वेषण करके बड़ा परिश्रम किया और अपने तथा अन्य देशों को उस अध्ययन , परिश्रमादि का लाभ प्राप्त कराया ।
एक ओर वे और एक ओर हम !! हम मुंह उठाकर सारे संसार को कहते फिर रहे हैं कि हमारे यहाँ कला - कोशल के ग्रन्थ हैं ही नहीं । इससे बडा आश्चर्य और क्या होगा ?

द्वितीय ग्रंथ :

(२) यजुर्वेद - यजुर्वेद में भी एक अन्य विमान का तथा उन की संचलन प्रणाली उल्लेख है जिसका निर्माण जुड़वा अश्विन कुमारों ने किया था। इस विमान के प्रयोग से उन्होँने राजा भुज्यु को समुद्र में डूबने से बचाया था।

तृतीय ग्रंथ :

(३) यन्त्र सर्वस्वः – यह ग्रंथ भी महर्षि भारद्वाज रचित है। इसके ४० भाग हैं जिनमें से एक भाग मेँ ‘विमानिका प्रकरण’ के आठ अध्याय, लगभग १०० विषय और ५०० सूत्र हैं जिन में विमान विज्ञान का उल्लेख है। इस ग्रन्थ में ऋषि भारद्वाज ने विमानों को तीन श्रैँणियों में विभाजित किया हैः-

(१) अन्तर्देशीय – जो एक स्थान से दूसरे स्थान पर जाते हैं।

(२) अन्तर्राष्ट्रीय – जो एक देश से दूसरे देश को जाते हैँ।

(३) अन्तर्राक्षीय – जो एक ग्रह से दूसरे ग्रह तक जाते हैँ।

इनमें सें अति-उल्लेखनीय सैनिक विमान थे जिनकी विशेषतायें विस्तार पूर्वक लिखी गयी हैं और वह अति-आधुनिक साईंस फिक्शन लेखक को भी आश्चर्य चकित कर सकती हैं।

उदाहरणार्थ - सैनिक विमानों की विशेषतायें इस प्रकार की थीं-

पूर्णत्या अटूट,

अग्नि से पूर्णतयाः सुरक्षित

आवश्यक्तता पड़ने पर पलक झपकने मात्र के समय मेँ ही एक दम से स्थिर हो जाने में सक्षम,

शत्रु से अदृश्य हो जाने की क्षमता (स्टील्थ क्षमता),

शत्रुओं के विमानों में होने वाले वार्तालाप तथा अन्य ध्वनियों को सुनने में सक्षम।

शत्रु के विमान के भीतर से आने वाली आवाजों को तथा वहाँ के दृश्योँ को विमान मेँ ही रिकार्ड कर लेने की क्षमता,

शत्रु के विमानोँ की दिशा तथा दशा का अनुमान लगाना और उस पर निगरानी रखना,

शत्रु के विमान चालकों तथा यात्रियों को दीर्घ काल के लिये स्तब्द्ध कर देने की क्षमता,

निजी रुकावटों तथा स्तब्द्धता की दशा से उबरने की क्षमता,

आवश्यकता पडने पर स्वयं को नष्ट कर सकने की क्षमता,

चालकों तथा यात्रियों में मौसमानुसार अपने आप को बदल लेने की क्षमता,

स्वचालित तापमान नियन्त्रण करने की क्षमता,

हल्के तथा उष्णता ग्रहण कर सकने वाले धातुओं से निर्मित तथा आपने आकार को छोटा बड़ा करने, तथा अपने चलने की आवाजों को पूर्णतयाः नियन्त्रित कर सकने की सक्षमता,

विचार करने योग्य तथ्य है कि इस प्रकार का विमान अमेरिका के अति आधुनिक स्टेल्थ विमानोँ और अन्य हवाई जहाज़ोँ का मिश्रण ही हो सकता है। ऋषि भारद्वाज कोई आधुनिक ‘फिक्शन राइटर’ तो थे नहीं। परन्तु ऐसे विमान की परिकल्पना करना ही आधुनिक बुद्धिजीवियों को चकित करता है, कि भारत के ऋषियों ने इस प्रकार के वैज्ञानिक माडल का विचार कैसे किया।

उन्होंने अंतरिक्ष जगत और अति-आधुनिक विमानों के बारे में लिखा जब कि विश्व के अन्य देश साधारण खेती-बाड़ी का ज्ञान भी हासिल नहीं कर पाये थे।

चतुर्थ ग्रंथ :

(४) कथा सरित सागर – यह ग्रन्थ उच्च कोटि के श्रमिकों (इंजीनियरोँ) का उल्लेख करता है जैसे कि काष्ठ का काम करने वाले जिन्हें राज्यधर और प्राणधर कहा जाता था। यह समुद्र पार करने के लिये भी रथों का निर्माण करते थे तथा एक सहस्त्र यात्रियों को ले कर उडने वाले विमानों को बना सकते थे। यह रथ विमान मन की गति से चलते थे।

पंचम ग्रंथ :

(५) अर्थशास्त्र - चाणक्य के अर्थशास्त्र में भी अन्य कारीगरों के अतिरिक्त सेविकाओं (पायलट) का भी उल्लेख है जो विमानों को आकाश में उड़ाती थी। चाणक्य ने उनके लिये विशिष्ट शब्द "आकाश युद्धिनाः" का प्रयोग किया है जिसका अर्थ है आकाश में युद्ध करने वाला (फाईटर-पायलट)

आकाश-रथ, का उल्लेख सम्राट अशोक के शिलालेखों में भी किया गया है जो उसके काल (२३७-२५६ ईसा पूर्व) में लगाये गये थे।

भारद्वाज मुनि ने विमानिका शास्त्र मेँ लिखा हैं, -"विमान के रहस्यों को जानने वाला ही उसे चलाने का अधिकारी है।"

शास्त्रों में विमान चलाने के बत्तीस रहस्य बताए गए हैं। उनका भलीभाँति ज्ञान रखने वाला ही उसे चलाने का अधिकारी है। क्योँकि वहीँ सफल पायलट हो सकता है।

विमान बनाना, उसे जमीन से आकाश में ले जाना, खड़ा करना, आगे बढ़ाना टेढ़ी-मेढ़ी गति से चलाना या चक्कर लगाना और विमान के वेग को कम अथवा अधिक करना उसे जाने बिना यान चलाना असम्भव है।

अब हम कुछ विमान रहस्योँ की चर्चा करेँगे।

(१) कृतक रहस्य - बत्तीस रहस्यों में यह तीसरा रहस्य है, जिसके अनुसार हम विश्वकर्मा , छायापुरुष, मनु तथा मयदानव आदि के विमान शास्त्रोँ के आधार पर आवश्यक धातुओं द्वारा इच्छित विमान बना सकते , इसमें हम कह सकते हैं कि यह हार्डवेयर यानी कल-पुर्जोँ का वर्णन है।

(२) गूढ़ रहस्य - यह पाँचवा रहस्य है जिसमें विमान को छिपाने (स्टील्थ मोड) की विधि दी गयी है। इसके अनुसार वायु तत्व प्रकरण में कही गयी रीति के अनुसार वातस्तम्भ की जो आठवीं परिधि रेखा है उस मार्ग की यासा , वियासा तथा प्रयासा इत्यादि वायु शक्तियों के द्वारा सूर्य किरण हरने वाली जो अन्धकार शक्ति है, उसका आकर्षण करके विमान के साथ उसका सम्बन्ध बनाने पर विमान छिप जाता है।

(३) अपरोक्ष रहस्य - यह नौँवा रहस्य है। इसके अनुसार शक्ति तंत्र में कही गयी रोहिणी विद्युत के फैलाने से विमान के सामने आने वाली वस्तुओं को प्रत्यक्ष देखा जा सकता है।

(४) संकोचा - यह दसवाँ रहस्य है। इसके अनुसार आसमान में उड़ने समय आवश्यकता पड़ने पर विमान को छोटा करना।

(५) विस्तृता - यह ग्यारहवाँ रहस्य है। इसके अनुसार आवश्यकता पड़ने पर विमान को बड़ा या छोटा करना होता है। यहाँ यह ज्ञातव्य है कि वर्तमान काल में यह तकनीक १९७० के बाद विकसित हुई है।

(६) सर्पागमन रहस्य - यह बाइसवाँ रहस्य है जिसके अनुसार विमान को सर्प के समान टेढ़ी - मेढ़ी गति से उड़ाना संभव है। इसमें कहा गया है दण्ड, वक्र आदि सात प्रकार के वायु और सूर्य किरणों की शक्तियों का आकर्षण करके यान के मुख में जो तिरछें फेंकने वाला केन्द्र है, उसके मुख में उन्हें नियुक्त करके बाद में उसे खींचकर शक्ति पैदा करने वाले नाल में प्रवेश कराना चाहिए। इसके बाद बटन दबाने से विमान की गति साँप के समान टेढ़ी - मेढ़ी हो जाती है।

(७) परशब्द ग्राहक रहस्य - यह पच्चीसवाँ रहस्य है। इसमें कहा गया है कि शब्द ग्राहक यंत्र विमान पर लगाने से उसके द्वारा दूसरे विमान पर लोगों की बात-चीत सुनी जा सकती है।

(८) रूपाकर्षण रहस्य - इसके द्वारा दूसरे विमानों के अंदर का दृश्य देखा जा सकता है।

(९) दिक्प्रदर्शन रहस्य - दिशा सम्पत्ति नामक यंत्र द्वारा दूसरे विमान की दिशा का पता चलता है।

(९) स्तब्धक रहस्य - एक विशेष प्रकार का अपस्मार नामक गैस स्तम्भन यंत्र द्वारा दूसरे विमान पर छोड़ने से अंदर के सब लोग मूर्छित हो जाते हैं।

(१०) कर्षण रहस्य - यह बत्तीसवाँ रहस्य है, इसके अनुसार आपके विमान का नाश करने आने वाले शत्रु के विमान पर अपने विमान के मुख में रहने वाली वैश्र्‌वानर नाम की नली में ज्वालिनी को जलाकर सत्तासी लिंक (डिग्री जैसा कोई नाप है) प्रमाण हो, तब तक गर्म कर फिर दोनों चक्कल की कीलि (बटन) चलाकर शत्रु विमानों पर गोलाकार दिशा से उस शक्ति की फैलाने से शत्रु का विमान नष्ट हो जाता है।

"विमान-शास्त्री महर्षि शौनक" आकाश मार्ग का पाँच प्रकार का विभाजन करते हैं तथा "महर्षि धुण्डीनाथ" विभिन्न मार्गों की ऊँचाई पर विभिन्न आवर्त्त या तूफानोँ का उल्लेख करते हैं और उस ऊँचाई पर सैकड़ों यात्रा पथों का संकेत देते हैं। इसमें पृथ्वी से १०० किलोमीटर ऊपर तक विभिन्न ऊँचाईयों पर निर्धारित पथ तथा वहाँ कार्यरत शक्तियों का विस्तार से वर्णन करते हैं।

आकाश मार्ग तथा उनके आवर्तों का वर्णन निम्नानुसार है -

(१) १० किलोमीटर - रेखा पथ - शक्त्यावृत्त तूफान या चक्रवात आने पर

(२) ५० किलोमीटर - वातावृत्त - तेज हवा चलने पर

(३) ६० किलोमीटर - कक्ष पथ - किरणावृत्त सौर तूफान आने पर

(४) ८० किलोमीटर - शक्तिपथ - सत्यावृत्त बर्फ गिरने पर

एक महत्वपूर्ण बात विमान के पायलटोँ को विमान मेँ तथा पृथ्वी पर किस तरह भोजन करना चाहिए इसका भी वर्णन है

उस समय के विमान आज से कुछ भिन्न थे। आज के विमान की उतरने की जगह (लैँडिग) निश्चित है, पर उस समय विमान कहीं भी उतर सकते थे।

अतः युद्ध के दौरान जंगल में उतरना पड़ा तो जीवन निर्वाह कैसे करना चाहिए, इसीलिए १०० वनस्पतियों का वर्णन दिया गया है, जिनके सहारे दो-तीन माह जीवन चलाया जा सकता है। जब तक दूसरे विमान आपको खोज नहीँ लेते।

विमानिका शास्त्र में कहा गया है कि पायलट को विमान कभी खाली पेट नहीं उड़ान चाहिए

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