30/03/2022
मोतियाबिंद के ऑपरेशन के बाद लगने वाले लेंस अनेक प्रकार के होते हैं । इन लेंसों का चयन ब्रांड, देसी - विदेशी और पैसों के ऊपर ना करें । लेंसों का चयन इन खासियतों के आधार पर करें ।
1. लेंस मटेरियल: पॉलिमैथिलमेथैक्राइलेट (PMMA), सिलिकॉन, हाइड्रोफोबिक और हाइड्रोफिलिक ऐक्रेलिक इत्यादि लेंस बनाने के मटेरियल उपलब्ध हैं।
पीएमएमए कठोर गैर-फोल्ड करने योग्य लेंस होते हैं जिनका उपयोग बड़े चीरे की (6 - 10 मिमी) मोतियाबिंद सर्जरी (SICS और ECCE) में किया जाता है।
फोल्डेबल लेंसों में हाइड्रोफोबिक ऐक्रेलिक को कैप्सुलर ओपेसिफिकेशन (जाला) रोकने में अपने दीर्घकालिक प्रभावों के कारण सबसे अच्छा माना जाता है। फोल्डबल लेंस को आमतौर पर अतिसूक्ष्म चीरे (2.8 and 2.2 मिमी) वाली फेको विधि (Phacoemulsification Surgery) से होने वाली सर्जरी के बाद प्रत्यारोपित किया जाता है |
जाला सर्जरी के 6 महीने के बाद आने की संभावना होती है, पुनः दृष्टि में धुँधलापन इसका मुख्य लक्षण होता है | लेज़र द्वारा जाले की सफाई ही फिर से रौशनी लाने का एक मात्र विकल्प होता है | लेज़र के साइड इफेक्ट्स दुर्लभ लेकिन गंभीर होते हैं, इसमें रेटिना डिटेचमेंट और फ्लोटर्स की संभावनाएं शामिल हैं | जवान लोगों, शुगर के मरीज़ों, परदे (रेटिना) के मरीज़ों इत्यादि रोगों में जाला आने के संभावना अधिक होती है और लेज़र द्वारा इसकी सफाई के बाद परदे पर असर अधिक होता है ।
2. परा बैंगनी (अल्ट्रा वायलेट - UV) फ़िल्टर: प्राकृतिक लेंस परा बैंगनी किरणों को परदे (रेटिना) तक नहीं जाने देता है । मोतियाबिंद सर्जरी के बाद प्राकृतिक धुँधले हुए लेंस को हटा कर एक कित्रिम लेंस प्रत्यारोपित किया जाता है, अगर इस लेंस में परा बैंगनी किरणों को रोकने का फ़िल्टर मौजूद नहीं हो तो ये किरणें आँख के परदे तक पहुँच कर रेटिना की बहुत सारी बिमारियों का कारण बनती हैं अथवा कुछ पुरानी रेटिनल बीमारियों (मधुमेह, उच्च रक्तचाप इत्यादि) को तेजी से बढाती हैं, जिससे स्थायी अंधापन हो सकता है । पहले परा बैंगनी किरणों का एक मात्र स्त्रोत सूर्य होता था, आजकल मोबाइल, लैपटॉप, डेस्कटॉप इत्यादि स्क्रीन और LED बल्बों से भी परा बैंगनी किरणें निकलती हैं, जिससे आँख पर होने वाले उनके प्रभाव ज्यादा होते हैं ।
3. स्क्वायर एज और अनुकूलित स्क्वायर एज डिज़ाइन: इस डिज़ाइन की वजह से आपरेशन के बाद होने वाले जाले (Posterior Capsular Opacification) आने की संभावना कम हो जाती है, इसके वजह से आपरेशन के बाद धुँधलापन और लेज़र से जाले के बाद रेटिना की समस्याएं नहीं होती हैं ।
4. एस्फेरिक डिजाइन: एस्फेरिक डिज़ाइन का उपयोग करके उच्च क्रम अबेरशन को सही किया जाता है । जिसके वजह से कम रौशनी में, रात को गाड़ी चलाते वक़्त, अधिक बेहतर रौशनी प्राप्त होती है । रंग भी अधिक सजीले और स्पष्ट दिखाई देते हैं ।
5. फ़ोकेलिटी (लेंसों पर पावर के प्रकार)
a. मोनोफोकल लेंस (एक पावर वाले लेंस): यह लेंस दूरी दृष्टि के लिए सही है, इस लेंस से ड्राइविंग और सिनेमाघरों में फिल्म देखने जैसी दूरी के काम को आप बिना चश्में के कर सकते हैं । नजदीक और कंप्यूटर दूरी पर काम करने के लिए चश्मा लगाना होगा । मोनोफोकल लेंस उपलब्ध सबसे बुनियादी लेंस है, सारे इंश्योरन्स, कैशलेस, सरकारी विभाग (ECHS , इत्यादि ) इसी लेंस तक की ही धनराशि स्वीकृत करते हैं
b. बाइफोकल लेंस (दो पावर वाले लेंस): बाइफोकल चश्में की तरह इन लेंसों में भी बहुत दूर और नजदीक देखने के पावर होते हैं । इन लेंसों से रोज़मर्रा के अधिकतर कार्य बिना चश्में के किये जा सकते हैं लेकिन आपको अभी भी बहुत अच्छे प्रिंट पढ़ने के लिए चश्मे की आवश्यकता हो सकती है। इन लेंसों में एक संभावित कमी यह है कि आप रात में गाड़ी चलाते समय रोशनी के आसपास हेलो अनुभव कर सकते हैं हालांकि, यह आमतौर पर समय के साथ कम हो जाता है ।
c. ट्राईफोकल लेंस: प्रोग्रेसिव चश्में की तरह इस लेंस पर तीन / चार पावर जोन होते हैं। ये अभी तक के सबसे बेहतरीन लेंस हैं, इस लेंस से सभी दूरी पर बिना चश्मा के देखा जा सकता है ।
d. टॉरिक (Toric) लेंस: अगर किसी व्यक्ति को पहले से ही अधिक सिलिंड्रिकल नंबर यानी कॉर्निया के आकार में गड़बड़ी है तो उन्हें टॉरिक लेंस की आवश्यकता होती है । टॉरिक लेंस, मोनोफोकल, मल्टीफोकल और ईडीओएफ तीनों प्रकार के आते हैं ।
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