16/07/2023
1 चमड़ी की एलर्जी,
2 धूल धुआँ मिट्टी से एलर्जी-जुकाम, छींकें
3 अस्थमा
ये तीनों ही एलर्जी के प्रकार हैं, यदि बच्चे को कुछ ठंडा खाने, भागने दौड़ने, मौसम बदलने या धूल धुआं के संपर्क में आने से खांसी चलती है और खांसी देर रात या सुबह में अधिकतम होती है तो यह अस्थमा हो सकता है। आज के मैसेज का उद्देश्य अस्थमा की डिटेल नहीं, बल्कि इनहेलर्स के बारे में है। यह एक बहुत साधारण व असरदार उपचार पद्धति है लेकिन प्रायः लोगों के मन में यह भ्रांति रहती है कि इनहेलर कोई बुरी चीज है, जिसकी आदत पड़ जाती है या फेफड़े खराब हो जाते हैं। जब भी कोई नया बच्चा अस्थमा का आता है तो अभिभावक सिरप टेबलेट या नेबुलाइजेशन (भाप दिलवाना) पसंद करते हैं। उन्हें लगता है कि यह कम नुकसानदायक है जबकि स्थिति इसके उलट है। कैसे?? इन बिंदुओं से समझिए-
1- जब किसी व्यक्ति को मुंह से दवाई दी जाती है तो वह पहले पेट में जाकर घुलती है। उसके बाद खून में मिलकर अंततः पूरे शरीर में फैलती है जिसका केवल कुछ हिस्सा फेफड़ों तक पहुंचता है। इसलिए आमतौर पर मुंह की दवाइयों में डोज़ काफी ज्यादा देनी पड़ती है ताकि उसका जो हिस्सा फेफड़ों तक पहुंचे वह असर कर सके। नेबुलाइजेशन में काफी सारा दवा का हिस्सा धुँआ के रूप में हवा में व्यर्थ उड़ता है, इसलिए उसमें भी दवा की डोज ज्यादा रखनी पड़ती है ताकि पर्याप्त हिस्सा फेफड़ों तक पहुंच सके। इनहेलर में यही डोज 10 से 20 गुना तक कम रहती है।
2- मुहँ से दी जाने वाली दवा का उद्देश्य भले ही फेफड़ों पर असर करना हो परंतु फिर भी वह खून के साथ पूरे शरीर में फैलती है, भले ही उसका वहां कोई उद्देश्य ना हो। और यह हिस्सा जो बाकी शरीर में पहुंचता है, उसके लंबे इस्तेमाल के बाद इन बाकी हिस्सों पर साइड इफेक्ट हो सकते हैं, जैसे ह्रदय गति बढ़ना, हाथ पैरों में कंपन, शुगर बढ़ना आदि। नेबुलाइजेशन में भी निकलने वाला धुआं आंख नाक चेहरा आदि सभी हिस्सों पर आता है, जिससे बच्चा परेशान होता है। इनहेलर से बिना धुआँ और बाकी शरीर पर साइड इफेक्ट के दवा सीधे फेफड़ों पर असर करती है, जहां उसकी असल जरूरत है।
3- इनहेलर बाकी दोनों पद्धतियों के मुकाबले कहीं ज्यादा तेजी से असर करते हैं और तुरंत आराम प्रदान करते हैं। आपातकालीन परिस्थिति में भी जरूरी नहीं कि हर बार नेबुलाइजेशन की सुविधा आस पास उपलब्ध हो अथवा मुंह की दवाइयां मिल पाए। परंतु इनहेलर ऐसी चीज है जिसे आप अपने साथ हमेशा रख सकते हैं और बच्चे की सांस में परेशानी होने पर तुरंत इस्तेमाल किया जा सकता है।
4- यदि शुरुआती स्तर पर अस्थमा का प्रॉपर इलाज ना किया जाए तो एक उम्र के बाद सांस की नलियाँ परमानेंटली डैमेज हो सकती हैं,तथा वयस्क अवस्था अथवा वृद्धावस्था में दवाई असर नहीं करती हैं और जीवन की गुणवत्ता पर गंभीर रूप से असर पड़ता है। जबकि अस्थमा को यदि समय रहते सही पद्धति से कंट्रोल रखा जाए तो जीवन को काफी बेहतर तरीके से जिया जा सकता है।
5- हर बच्चे का हक है कि वह खेले कूदे, भागे दौड़े, मौसम के बदलाव को एंजॉय करे, बाकी बच्चों की तरह कभी-कभी शौक के लिए ठंडे पानी और आइसक्रीम का आनंद लें। अच्छी सांस ले पाना शरीर की परम आवश्यकता है। कृपया किसी भी इधर उधर की सुनी हुई बात पर यकीन करके मन में भ्रांति ना पाले। इन भ्रांतियों का नुकसान उन मरीजों पर होता है जो खुलकर सांस लेना चाहते हैं परंतु अफवाहों के चलते एक कॉम्प्रोमाइज्ड जिंदगी जीते हैं।
इसलिए समय पर अस्थमा का पता करें और समयानुसार सही पद्धति से इलाज शुरू करें, खुलकर जिएँ और अपने बच्चों को मस्त रहकर जीने दें।
धन्यवाद
डॉ शिव कुमावत
शिशु रोग विशेषज्ञ
अार्वी हॉस्पिटल, निवारू रोड,
जयपुर