26/09/2025
‘वह जो पहाड़ दिख रहा है, वह मेघालय है। वहाँ पहुँच कर सब ठीक हो जाएगा’, गुवाहाटी की भीड़-भाड़ भरे ट्रैफिक में रेंगती गाड़ी के चालक ने कहा।
मैंने पूछा, ‘जब अधिकांश गाड़ियाँ शिलॉन्ग की तरफ़ जा रही है, सड़क भी एक ही है, तो आखिर मेघालय सीमा पर ऐसा क्या करिश्मा होगा?’
उन्होंने कहा, ‘वहाँ कोई ग़लत ओवरटेक नहीं करेगा। सब लेन से चलेगा। डिसिप्लिन अच्छा है।’
वाकई असम सीमा खत्म होते ही यूँ लगा जैसे किसी स्कूल असेंबली की घंटी बज गयी हो, और उछल-कूद शोर करते बच्चे अचानक पंक्तिबद्ध होकर चलने लगे हों। आड़ी-तिरछी खड़ी मेटाडोर सीधी हो गयी। दो बड़ी गाड़ियों के बीच नाक घुसेड़ती एक पुरानी मारुति अपनी नाक सहित पीछे कतार में लग गयी। सड़क से उतर कर हिचकोले खाती गाड़ियाँ सड़क पर आ गयी। वादे के मुताबिक़ सब ठीक हो गया था।
मैंने पूछा, ‘अगर मेघालय में लेन तोड़ दें तो क्या जुर्माना लग जाएगा? क्या यह पुलिस का डर है?’
उन्होंने कहा, ‘नहीं नहीं। पुलिस तो हर जगह एक जैसा है। लाइन तोड़ने पर यहाँ का लोग आपको परेशान कर देगा। गाली देगा, हॉर्न बजाएगा। न खुद लेन तोड़ेगा, न आपको तोड़ने देगा।’
यह बात शायद हर किसी के गले न उतरे, मगर भारतीय इस फ़ेनोमेनन से ख़ूब वाक़िफ़ हैं। यहाँ दस कोस पर लोग बदल जाते हैं। भाषा बदल जाती है। संस्कृति बदल जाती है। दुनिया बदल जाती है। भारत के उत्तर-पूर्वी क्षेत्र में यह फ़ेनोमेनन अपने चरम पर होता है, जब एक ही भोगौलिक राज्य में दर्जनों सांस्कृतिक समूह दिखने लगते हैं।
‘ये एरिया खासी लोगों का है। यहाँ से शिलॉन्ग और आगे तक अधिकतर लोग खासी है। सबसे ज़्यादा वही लोग है। ये पहाड़ सब खासी पहाड़ है।’, उसने सुर्ख़ लाल पत्थरों और घनी हरियाली वाले पहाड़ों को दिखा कर कहा
‘हाँ! खासी, गारो, जैन्तिया। सुने हैं ये नाम’, मैंने कहा
‘गारो हिल्स पूरब के तरफ़ है। उधर थोड़ा तिब्बत कल्चर है। जैन्तिया अभी आगे मिलेगा। बांग्लादेश के तरफ जाने से…’
हम जैसे-जैसे आगे बढ़ रहे थे, मैंने ग़ौर किया कि घरों की ऊँचाई कुछ कम दिख रही है। अंदाज़न सात-आठ फीट ऊँचाई पर छत, और छह फ़ीट ऊँचे दरवाज़े। बनावट पहाड़ी इलाकों जैसी ही थी, मगर दूर से खिलौनानुमा रंग-बिरंगे छोटे-छोटे घर दिख रहे थे।
‘सबका हाइट छोटा है, तो घर भी छोटा-छोटा है…’, यह टिप्पणी कुछ नस्लवादी सी लगी मगर सहजता से कह दी गयी थी
‘मेरा तो दरवाज़े पर ही सर टकरा जाए’, मैंने भी सहजता से कह दिया
‘नहीं नहीं! सर झुका कर नहीं जाना होगा। आराम से घुस जाता है। आपके तरफ तो पंखा टाँगते हैं, हवा चाहिए, इसलिए छत ऊँचा रखते हैं। यहाँ क्या जरूरत है? ये तो पहले से ठंडा है!’
‘यहाँ इतने पहाड़ हैं। बस्तियाँ हैं। मगर दूर-दूर तक कहीं कोई मंदिर नहीं दिख रहा। असम में तो बहुत थे।’
‘मंदिर है। लेकिन बहुत कम। आपको चर्च दिखेगा। ये क्रिश्चियन स्टेट है न, इसलिए’
अंदाज़ा तो था, मगर नज़र नहीं थी। देखा तो कोस-कोस पर दूर-दूर तक छोटे, मझोले, बड़े गिरजाघर और चैपल दिखने लगे। अलग-अलग ईसाई पंथों के। बैप्टिस्ट, प्रेस्बाइटेरियन, कैथॉलिक, चर्च ऑफ गॉड। इतने तरह के गिरजाघर तो मैंने यूरोप में नहीं देखे।
‘इधर छोटा-छोटा बच्चा भी इंगलिश बोल लेता है। यहाँ का जो भाषा है, वह पढ़ने में इंगलिश जैसा ही है। पहले बोलने का भाषा था, लिखने का नहीं था। लिखने के लिए तो मिशनरी लोग ही सिखाया’
जब मैंने मेघालय के तमाम बोर्ड पर रोमन में लिखे खासी भाषा की सूचनाओं के विषय में पूछा तो यह उत्तर मिला। एक अन्य व्यक्ति ने जोड़ा-
‘चर्च यहाँ स्कूल बनाया, अस्पताल बनाया, बहुत सुविधा दिया। नहीं तो क्या था? सब जंगल था इधर’
‘जंगल तो अभी भी है”, मैंने दूर हाथ दिखा कर कहा
‘हाँ! अभी भी जंगल है लेकिन गाँव में सभी बच्चे स्कूल जाते हैं। सब लिख सकता है। पढ़ सकता है’, उन्होंने कहा
‘हाँ! साक्षरता तो 75 प्रतिशत है….लेकिन, ये मिशनरी लोग कब आए? ब्रिटिश लेकर आए?’, मैंने उत्तर जानते हुए भी पूछा
‘हाँ! वही लोग लाया। एक फादर जोंस था, जो सबसे पहले इधर आया’
‘किधर आया? शिलॉन्ग?’
‘वो सोहरा में आया। उधर से फिर पूरा मेघालय में घूमा। शिलॉन्ग में भी उसका चर्च है’
‘सोहरा?’
‘तुमको सोहरा मालूम नहीं? फिर मेघालय कैसे आया?’, उन्होंने हँस कर कहा
मेरे चालक ने अपनी हँसी मिला कर कहा, ‘आपलोग जिसको चेर्रापूंजी बोलता है, उसका नाम सोहरा है’
‘अच्छा? सोहरा को ही अंग्रेज़ चेर्रा या चेर्रापूंजी बुलाने लगे?’, मैंने तर्क लगाया
‘ये मालूम नहीं। पता नहीं क्यों बाहर का टूरिस्ट लोग चेर्रापुंजी बोलता है’
शिलॉन्ग से डेढ़ घंटे दूर स्थित चेरापूंजी का नाम हमने जनरल नॉलेज की किताबों में पढ़ा था कि वहाँ सबसे अधिक बारिश होती है। इस में एक और कौतूहल जुड़ गया। अब मुझे वह पहला गिरजाघर देखना था, जहाँ से पूरा मेघालय ईसाई बनता गया।
जब गिरजाघर ढूँढते हुए पहुँचा, तो एक लाल रंग की इमारत थी, जिसके दरवाजे पर दो कुत्ते बैठे थे। यह लिखा था कि स्थाप्ना 1846 ई. में हुई। वहीं एक सफ़ेद पट्टिका पर अंकित था कि पादरी थॉमस जोन्स 1841 में चेर्रा आए, और वह पहले मिशनरी थे।
गिरजाघर के इतिहास में लिखा था-
थॉमस जोन्स खासी पहाड़ियों में वर्षों घूमते रहे, वहाँ की भाषा सीखी, और स्थानीय लोगों से घुल-मिल गए। वह काश्तकारी में निपुण थे। उन्होंने खासी भाषा को रोमन लिपि में लिखना शुरू किया, और लोगों को यह लिपि सिखायी। उन्होंने बाइबल का खासी भाषा में अनुवाद कर इसका प्रचार किया, और इस भाषा की पहली पुस्तक लिखी। वह खासी लिपि के पितामह कहे जाते हैं।
यह प्रक्रिया जितनी सहज लगती है, उतनी शायद न रही हो। क्या एक ईसाई मिशनरी खासी भाषा सीख कर, काश्तकारी करते हुए पूरे समुदाय को ईसाई बना गए? यह फौरी तौर पर मुमकिन नहीं लगता। बशर्तें कि यह ऐसा प्रस्ताव हो, जिसे ठुकराया न जा सके।
इन उत्तरों को तलाशते हुए देखा कि कई छोटे टीलों पर ईसाई कब्र हैं, जिन पर क्रॉस लगे हैं। वहीं कुछ टीलों पर क्रॉस के बजाय ऊँचे पत्थर टिका कर रखे हैं। मुझे लगा कि वह भी ईसाई कब्र ही होगी, मगर करीब जाकर देखा तो वह कुछ और ही निकला।
खासी पहाड़ियों में बिखरी वे एकाकार शिलाएँ एक खोयी हुई संस्कृति की दास्तान कह रही थी। वे उन खासी और जैन्तिया नायकों की स्मृति थी जो युद्ध लड़ते हुए मारे गए। जितनी शिलाएँ, उतने गुमनाम नायक।
[दिसंबर 2022 में प्रकाशित। पूरा संस्मरण पढ़ने के लिए praveenjha.in पर जाएँ, या Praveen Jha’s podcast पर सुनें]