
29/04/2025
अक्षय तृतीया: सत्कर्मों का उत्सव, न कि केवल स्वर्ण-खरीद का पर्व
'अक्षय' शब्द का अर्थ होता है — जो कभी क्षय न हो, जो शाश्वत और अविनाशी हो। 'अक्षय तृतीया' हिन्दू पंचांग के अनुसार वैशाख शुक्ल पक्ष की तृतीया तिथि को मनाई जाती है। यह तिथि स्वयं में इतनी पुण्यकारी मानी गई है कि इस दिन किए गए जप, तप, दान और सेवा जैसे शुभ कर्म अक्षय फल देने वाले होते हैं — अर्थात् इनका पुण्य कभी नष्ट नहीं होता।
हमारे ऋषियों और मुनियों ने अक्षय तृतीया को इसीलिए विशेष महत्व दिया था कि मनुष्य इस दिन ऐसे कार्य करे जो आत्मा को शुद्ध करें, समाज को लाभ पहुँचाएँ और जिनके फल अनंत काल तक साथ रहें। वे चाहते थे कि हम दान करें, जरूरतमंदों की सहायता करें, अपने मन, वचन और कर्म को शुद्ध करें — ताकि हमारी आत्मिक उन्नति हो और जीवन में अक्षय पुण्य संचित हो।
लेकिन दुख की बात है कि आज का समाज इस दिन का अर्थ केवल सोना खरीदने तक सीमित कर चुका है। 'अक्षय' का तात्पर्य अब स्वर्णाभूषणों से जोड़ दिया गया है — ऐसा प्रचार किया जाता है कि इस दिन खरीदा गया सोना कभी दुर्भाग्य नहीं लाता। बाज़ार और विज्ञापन की दुनिया ने हमारे आध्यात्मिक पर्व को उपभोक्तावादी दृष्टिकोण से बदल दिया है। अक्षय पुण्य की जगह अब अक्षय संपत्ति की कामना प्रमुख हो गई है।
क्या हमें सोचना नहीं चाहिए कि क्या वास्तव में सोना अक्षय है? समय, परिस्थिति, चोरी, मूल्य घट-बढ़ — ये सब तो उसे नष्ट कर सकते हैं। जबकि एक जरूरतमंद को दिया गया अन्न, किसी गरीब की शिक्षा में दिया गया सहयोग, किसी बीमार की सेवा — ये ऐसे कर्म हैं जिनका पुण्य चिरकाल तक बना रहता है और आत्मा को परम शांति देता है।
इसलिए, हमें आज अक्षय तृतीया पर आत्मचिंतन करना चाहिए कि क्या हम इस दिन केवल आभूषणों तक सीमित रहेंगे या अपने जीवन में ऐसे सत्कर्म करेंगे जो सच्चे अर्थों में 'अक्षय' कहलाएँ। आइए, इस पावन अवसर पर अपनी परंपरा के सार को समझें और उसे यथार्थ में जीने का संकल्प लें।