22/01/2023
"एक धार्मिक व्यक्ति इतने गहरे रूप से जीता है कि वह किसी मृत्यु को नहीं जानता। मृत्यु को जानने के लिए ऊर्जा बचती ही नहीं। कोई वहां होता नहीं मृत्यु को जानने के लिए। जब तुम इतने गहरे रूप से जीते हो जीवन को तो मृत्यु मिट जाती है ।मृत्यु केवल तभी अस्तित्व रखती है ,यदि तुम सतह पर जीते हो। जब तुम गहरे रूप से जीते हो तो मृत्यु भी जीवन बन जाती है। जब तुम जीते हो सतह पर तो जीवन भी मृत्यु बन जाता है।"
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सूत्र है-जांच कीजिए कि मैं कौन हूं?
भीतर गहरे में उतरिये और स्वयं की तरह रहिये।
वह ईश्वर है अस्तित्व की तरह।"
अस्तित्व सत चित आनंदस्वरुप है, अन्यथा हो नहीं सकता। अन्यथा को तो शरीर के जन्म मरण से जोडकर देखा जाता है।
कृष्ण कहते हैं-"मैं सबका नाश करनेवाला मृत्यु और उत्पन्न होनेवालों का उत्पत्ति -हेतु हूं।।"
वे ही कृष्ण कहते हैं -"मैं सब भूतों के हृदय में स्थित सबका आत्मा हूं तथा संपूर्ण भूतों का आदि,मध्य और अंत भी मैं ही हूं।।"
दोनों चीजें अलग अलग हैं।जो उत्पन्न तथा नष्ट होता है वह वह नहीं है जो न उत्पन्न होता है,न नष्ट होता है।
वह हर समय है मौजूद हम सबके हृदय में। हमें इसीकी गहराई में उतरने की परम आवश्यकता है अपने अस्तित्व बोध के माध्यम से।
तदर्थ चित्त को मन से तोड लेना चाहिए,मैं हूं अनुभव को मैं यह हूं,वह हूं इस मान्यता से तोड लेना चाहिए।
केवल और केवल मैं हूं अनुभव -इसकी गहराई में उतरना अंतर्यात्रा करना है मूल को पहचानकर उसमें स्थित होने के लिए।तब शरीर,मन आदि बहुत पीछे छूट जाते हैं।उनके जन्म मरण को लेकर होने वाले विचार, चिंता,भय आदि सब विलीन हो जाते हैं।
ऐसा व्यक्ति ही धार्मिक कहे जाने योग्य है।तनमन को मैं मानकर जीनेवाला व्यक्ति तो अधार्मिक है।वह सतह पर जीता है और सतह पर जीवन, मृत्यु बन जाता है।
गहराई में मृत्यु,जीवन बन जाती है।
कृष्ण स्वयं कह रहे हैं -मैं मृत्यु हूं।'
शाश्वत जीवन कह रहा है-मैं मृत्यु हूं।
तो मृत्यु किसकी?शाश्वत की तो मृत्यु है नहीं अन्यथा वह शाश्वत है नहीं।
प्रकाश कहे-मैं अंधकार हूं।
तो ऐसा कैसे हो सकता है?
या जैसे सूर्य कहे-मैं अंधकार हूं।
तो यह तो असंभव ही है। सूर्य पृथ्वी के जिस भाग में है वहां उजाला ही संभव है। वहां तब वहां, यहां तब यहां। पृथ्वी के लिए होता है प्रकाश, अंधकार,
सूर्य के लिए तो अंधकार है ही नहीं। वहां प्रकाश की तरह प्रकाश भी नहीं है तुलनात्मक रुप में।उसीको पहचानने की बात है।
इसी तरह शाश्वत जीवन के लिए मृत्यु जैसी कोई चीज नहीं है।
फिर मृत्यु किसकी?
हम स्वयं को जान लें तो ही कह सकते हैं कि मृत्यु जैसी कोई चीज नहीं है।
एक साधारण सी बात है।हम जब शरीर छोड देते हैं तब दूसरों को लगता है हम मर गये जबकि हम होते हैं।
दूसरों को लगने से क्या होता है,वे तो शरीर को ही देखते हैं।सवाल तो हमारा है कि हम मरे क्या?हम तो वैसे के वैसे होते हैं।स्थूल नहीं तो सूक्ष्म शरीर में-वस्तुत: आत्मरुप,स्वरुप जो सचमुच हम हैं,जो हमारी सच्ची पहचान है।
यह बनने वाला, मिटने वाला शरीर हमारी पहचान नहीं है।इसे पहचान बनाने का अर्थ है सतह पर जीना।सतह पर जीवन भी मृत्यु प्रतीत होता है। गहराई में मृत्यु भी जीवन बन जाती है।
कृष्ण कहते हैं -मैं मृत्यु हूं।
शाश्वत जीवन स्वयं मृत्यु नहीं हो सकता।
शरीर में जो जीवात्मा है वह कृष्ण का ही अंश है,उसकी मृत्यु हो नहीं सकती।
इसलिए मृत्यु उसीकी मानी जाती है जो स्वयं को नाशवान देह मानता है।
वह स्वयं को जन्मा हुआ भी मानता है।
जड चेतनहि ग्रंथि परी गई।
यह अहंकार रुपी गांठ ही है जो स्वयं को जन्मने मरनेवाला मानती है।यह गांठ खुलनी चाहिए।
यह खुल सकती है यदि गहरे में यात्रा की जाय।सतह पर इसका पता नहीं चलता।समुद्र के गहरे राज तो उसके भीतर गहरे उतरने पर ही मालूम होते हैं।सतह पर तो शोर है,वे ही लहरों के रागद्वेष, आपसी झगडे।जन्म मृत्यु की मान्यताएं भी वहीं हैं। लहरें बनती बिगड़ती रहती हैं।सागर की अथाह गहराई में है परम शांति ,असीम शांति।
यह सागर ही तो कहता है लहरों को-मेरी शरण में आओ।परम शांति तथा शाश्वत पद को प्राप्त हो जाओगे।
पता चल जायेगा कि वास्तव में जो है वह कभी जन्मता,मरता नहीं।वह तो शाश्वत रुप से वैसा का वैसा ही है जैसा है।
उसकी गहराई में तो उतरना पडेगा तभी समझ में आयेगा-
"एक धार्मिक व्यक्ति इतने गहरे रूप से जीता है कि वह किसी मृत्यु को नहीं जानता। मृत्यु को जानने के लिए ऊर्जा बचती ही नहीं। कोई वहां होता नहीं मृत्यु को जानने के लिए।
जब तुम इतने गहरे रूप से जीते हो जीवन को,तो मृत्यु मिट जाती है। मृत्यु केवल तभी अस्तित्व रखती है, यदि तुम सतह पर जीते हो।जब तुम गहरे रुप से जीते हो,तो मृत्यु भी जीवन बन जाती है।"
न वह मरता है,न किसीको मरने देता है।अगर कोई मृत्यु भय से भयभीत है तो वह जानता है व्यर्थ है यह भय। स्वयं तो कभी मर सकता नहीं और जिस शरीर के मरने से डरता है वह तो सतह पर है। गहराई में कहीं कोई शरीर नहीं,न मन है,न विचार,न कोई स्मृति,न कोई मान्यता।सारा खेल अहंग्रंथि का है जिसे छुड़ाना मुश्किल है मगर वास्तव में वह है नहीं। जदपि मृषा छूटत कठिनई।
मिथ्या है तो छूटना कैसा? कठिनाई कैसी?
यही है।जागे बिना सपने के दुख दूर नहीं होते,वे जारी रहते हैं, असहनीय भी हो जाते हैं फिर भी सपना सपना ही है।
"उमा कहउं मैं अनुभव अपना।सत हरि भजन जगत सब सपना।।"
समस्या है तो समाधान भी है।हम पर है कि हम जोरों से किसे कसकर पकडे रहते हैं समस्या को या समाधान को?
जो है वह तो सदा ही है।
"परमात्मा को स्वीकार करो अथवा न करो किंतु प्राप्ति तो परमात्मा की ही होती है क्योंकि सिवाय परमात्मा के कुछ है नहीं,होगा नहीं,हो सकता नहीं।"
कोई कहे हम तो सतह पर ही सारे राज जान लेंगे और सुखी हो जायेंगे तो यह कभी नहीं होगा।सतह पर अहंग्रंथि खुल नहीं सकती। शिथिल, विश्राम पूर्ण (रिलेक्स्ड )होकर अस्तित्व बोध की गहराई में तो आना ही होगा।
सतह पर तमाम तनाव हैं,खिंचाव हैं,हम सुखपूर्वक रह ही नहीं सकते। हमेशा कुछ नजर आता रहेगा पाने या हटाने के लिए।
'इन्द्रियस्येन्द्रियस्यार्थे रागद्वेषौ व्यवस्थितौ।।'
हां,जो भी दिखाई,सुनाई पड रहा है हम उससे रागद्वेषरहित हो सकें तो अपनी गहराई में उतरना आसान हो सकता है। होता हीहै।किये बिना पता नहीं चलता।