Yoga For Spine Cure

Yoga For Spine Cure YOGA TEACHER/ THERAPIST FOR SPINE PROBLEMS (SLIP DISC,SCIATICA,CERVICAL )

16 कैमरों वाले इस शॉट को लेने के लिए एक जर्मन फोटोग्राफर को 62 दिनों तक इंतजार करना पड़ा। स्क्रीन को टच करें और आप चंद्र...
13/02/2023

16 कैमरों वाले इस शॉट को लेने के लिए एक जर्मन फोटोग्राफर को 62 दिनों तक इंतजार करना पड़ा। स्क्रीन को टच करें और आप चंद्रमा और सूर्य को एक साथ देख सकते हैं। इसे केवल 2035 में फिर से देखा जा सकता है। फोटो का आनंद लें।
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श्रद्धा और आस्था पे ऐसी मानसकिताक्या यह एक होने वाली मानसिकता है🙏🏻🙏🏻🙏🏻🙏🏻🙏🏻
31/01/2023

श्रद्धा और आस्था पे ऐसी मानसकिता
क्या यह एक होने वाली मानसिकता है
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"एक धार्मिक व्यक्ति इतने गहरे रूप से जीता है कि वह किसी मृत्यु को नहीं जानता। मृत्यु को जानने के लिए ऊर्जा बचती ही नहीं।...
22/01/2023

"एक धार्मिक व्यक्ति इतने गहरे रूप से जीता है कि वह किसी मृत्यु को नहीं जानता। मृत्यु को जानने के लिए ऊर्जा बचती ही नहीं। कोई वहां होता नहीं मृत्यु को जानने के लिए। जब तुम इतने गहरे रूप से जीते हो जीवन को तो मृत्यु मिट जाती है ।मृत्यु केवल तभी अस्तित्व रखती है ,यदि तुम सतह पर जीते हो। जब तुम गहरे रूप से जीते हो तो मृत्यु भी जीवन बन जाती है। जब तुम जीते हो सतह पर तो जीवन भी मृत्यु बन जाता है।"
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सूत्र है-जांच कीजिए कि मैं कौन हूं?
भीतर गहरे में उतरिये और स्वयं की तरह रहिये।
वह ईश्वर है अस्तित्व की तरह।"
अस्तित्व सत चित आनंदस्वरुप है, अन्यथा हो नहीं सकता। अन्यथा को तो शरीर के जन्म मरण से जोडकर देखा जाता है।
कृष्ण कहते हैं-"मैं सबका नाश करनेवाला मृत्यु और उत्पन्न होनेवालों का उत्पत्ति -हेतु हूं।।"
वे ही कृष्ण कहते हैं -"मैं सब भूतों के हृदय में स्थित सबका आत्मा हूं तथा संपूर्ण भूतों का आदि,मध्य और अंत भी मैं ही हूं।।"
दोनों चीजें अलग अलग हैं।जो उत्पन्न तथा नष्ट होता है वह वह नहीं है जो न उत्पन्न होता है,न नष्ट होता है।
वह हर समय है मौजूद हम सबके हृदय में। हमें इसीकी गहराई में उतरने की परम आवश्यकता है अपने अस्तित्व बोध के माध्यम से।
तदर्थ चित्त को मन से तोड लेना चाहिए,मैं हूं अनुभव को मैं यह हूं,वह हूं इस मान्यता से तोड लेना चाहिए।
केवल और केवल मैं हूं अनुभव -इसकी गहराई में उतरना अंतर्यात्रा करना है मूल को पहचानकर उसमें स्थित होने के लिए।तब शरीर,मन आदि बहुत पीछे छूट जाते हैं।उनके जन्म मरण को लेकर होने वाले विचार, चिंता,भय आदि सब विलीन हो जाते हैं।
ऐसा व्यक्ति ही धार्मिक कहे जाने योग्य है।तनमन को मैं मानकर जीनेवाला व्यक्ति तो अधार्मिक है।वह सतह पर जीता है और सतह पर जीवन, मृत्यु बन जाता है।
गहराई में मृत्यु,जीवन बन जाती है।
कृष्ण स्वयं कह रहे हैं -मैं मृत्यु हूं।'
शाश्वत जीवन कह रहा है-मैं मृत्यु हूं।
तो मृत्यु किसकी?शाश्वत की तो मृत्यु है नहीं अन्यथा वह शाश्वत है नहीं।
प्रकाश कहे-मैं अंधकार हूं।
तो ऐसा कैसे हो सकता है?
या जैसे सूर्य कहे-मैं अंधकार हूं।
तो यह तो असंभव ही है। सूर्य पृथ्वी के जिस भाग में है वहां उजाला ही संभव है। वहां तब वहां, यहां तब यहां। पृथ्वी के लिए होता है प्रकाश, अंधकार,
सूर्य के लिए तो अंधकार है ही नहीं। वहां प्रकाश की तरह प्रकाश भी नहीं है तुलनात्मक रुप में।उसीको पहचानने की बात है।
इसी तरह शाश्वत जीवन के लिए मृत्यु जैसी कोई चीज नहीं है।
फिर मृत्यु किसकी?
हम स्वयं को जान लें तो ही कह सकते हैं कि मृत्यु जैसी कोई चीज नहीं है।
एक साधारण सी बात है।हम जब शरीर छोड देते हैं तब दूसरों को लगता है हम मर गये जबकि हम होते हैं।
दूसरों को लगने से क्या होता है,वे तो शरीर को ही देखते हैं।सवाल तो हमारा है कि हम मरे क्या?हम तो वैसे के वैसे होते हैं।स्थूल नहीं तो सूक्ष्म शरीर में-वस्तुत: आत्मरुप,स्वरुप जो सचमुच हम हैं,जो हमारी सच्ची पहचान है।
यह बनने वाला, मिटने वाला शरीर हमारी पहचान नहीं है।इसे पहचान बनाने का अर्थ है सतह पर जीना।सतह पर जीवन भी मृत्यु प्रतीत होता है। गहराई में मृत्यु भी जीवन बन जाती है।
कृष्ण कहते हैं -मैं मृत्यु हूं।
शाश्वत जीवन स्वयं मृत्यु नहीं हो सकता।
शरीर में जो जीवात्मा है वह कृष्ण का ही अंश है,उसकी मृत्यु हो नहीं सकती।
इसलिए मृत्यु उसीकी मानी जाती है जो स्वयं को नाशवान देह मानता है।
वह स्वयं को जन्मा हुआ भी मानता है।
जड चेतनहि ग्रंथि परी गई।
यह अहंकार रुपी गांठ ही है जो स्वयं को जन्मने मरनेवाला मानती है।यह गांठ खुलनी चाहिए।
यह खुल सकती है यदि गहरे में यात्रा की जाय।सतह पर इसका पता नहीं चलता।समुद्र के गहरे राज तो उसके भीतर गहरे उतरने पर ही मालूम होते हैं।सतह पर तो शोर है,वे ही लहरों के रागद्वेष, आपसी झगडे।जन्म मृत्यु की मान्यताएं भी वहीं हैं। लहरें बनती बिगड़ती रहती हैं।सागर की अथाह गहराई में है परम शांति ,असीम शांति।
यह सागर ही तो कहता है लहरों को-मेरी शरण में आओ।परम शांति तथा शाश्वत पद को प्राप्त हो जाओगे।
पता चल जायेगा कि वास्तव में जो है वह कभी जन्मता,मरता नहीं।वह तो शाश्वत रुप से वैसा का वैसा ही है जैसा है।
उसकी गहराई में तो उतरना पडेगा तभी समझ में आयेगा-
"एक धार्मिक व्यक्ति इतने गहरे रूप से जीता है कि वह किसी मृत्यु को नहीं जानता। मृत्यु को जानने के लिए ऊर्जा बचती ही नहीं। कोई वहां होता नहीं मृत्यु को जानने के लिए।
जब तुम इतने गहरे रूप से जीते हो जीवन को,तो मृत्यु मिट जाती है। मृत्यु केवल तभी अस्तित्व रखती है, यदि तुम सतह पर जीते हो।जब तुम गहरे रुप से जीते हो,तो मृत्यु भी जीवन बन जाती है।"
न वह मरता है,न किसीको मरने देता है।अगर कोई मृत्यु भय से भयभीत है तो वह जानता है व्यर्थ है यह भय। स्वयं तो कभी मर सकता नहीं और जिस शरीर के मरने से डरता है वह तो सतह पर है। गहराई में कहीं कोई शरीर नहीं,न मन है,न विचार,न कोई स्मृति,न कोई मान्यता।सारा खेल अहंग्रंथि का है जिसे छुड़ाना मुश्किल है मगर वास्तव में वह है नहीं। जदपि मृषा छूटत कठिनई।
मिथ्या है तो छूटना कैसा? कठिनाई कैसी?
यही है।जागे बिना सपने के दुख दूर नहीं होते,वे जारी रहते हैं, असहनीय भी हो जाते हैं फिर भी सपना सपना ही है।
"उमा कहउं मैं अनुभव अपना।सत हरि भजन जगत सब सपना।।"
समस्या है तो समाधान भी है।हम पर है कि हम जोरों से किसे कसकर पकडे रहते हैं समस्या को या समाधान को?
जो है वह तो सदा ही है।
"परमात्मा को स्वीकार करो अथवा न करो किंतु प्राप्ति तो परमात्मा की ही होती है क्योंकि सिवाय परमात्मा के कुछ है नहीं,होगा नहीं,हो सकता नहीं।"
कोई कहे हम तो सतह पर ही सारे राज जान लेंगे और सुखी हो जायेंगे तो यह कभी नहीं होगा।सतह पर अहंग्रंथि खुल नहीं सकती। शिथिल, विश्राम पूर्ण (रिलेक्स्ड )होकर अस्तित्व बोध की गहराई में तो आना ही होगा।
सतह पर तमाम तनाव हैं,खिंचाव हैं,हम सुखपूर्वक रह ही नहीं सकते। हमेशा कुछ नजर आता रहेगा पाने या हटाने के लिए।
'इन्द्रियस्येन्द्रियस्यार्थे रागद्वेषौ व्यवस्थितौ।।'
हां,जो भी दिखाई,सुनाई पड रहा है हम उससे रागद्वेषरहित हो सकें तो अपनी गहराई में उतरना आसान हो सकता है। होता हीहै।किये बिना पता नहीं चलता।

उष्ट्रासन : क्रोध पर नियंत्रण के इस योग की जानिये योग विधि, अन्य लाभ और सावधानियाउष्ट्रासन दो शब्द मिलकर बना है।  ‘उष्‍ट...
26/11/2022

उष्ट्रासन : क्रोध पर नियंत्रण के इस योग की जानिये योग विधि, अन्य लाभ और सावधानिया

उष्ट्रासन दो शब्द मिलकर बना है। ‘उष्‍ट्र’ का अर्थ ऊंट होता है। इस मुद्रा में शरीर ऊंट के समान लगता है इसीलिए इसको इस नाम से पुकारा जाता है। स्वस्थ लाभ के हिसाब से उष्ट्रासन बैठ कर करने वाले आसन में एक महत्वपूर्ण योगाभ्यास है। उष्ट्रासन एक ऐसी योग एक्सरसाइज है जो क्रोध एवं शारीरक विकारों को दूर करने में अहम भूमिका निभाता है।

उष्ट्रासन योग के लाभ

1 इसका अभ्यास करके आप डायबिटीज को बहुत हद तक कण्ट्रोल कर सकते हैं क्योंकि यह आपके पैंक्रियास को उत्तेजित करता है और इन्सुलिन के स्राव में मदद करता है।

2 इस योग से पेट की चर्बी को कम होती हैं।

3 फेफड़े के स्वस्थ के लिए यह एक उम्दा आसन है और फेफड़े से सम्बंधित परेशानियों से आप को बचाता है।

4 दृष्टि विकार वाले व्‍यक्तियों के लिए उष्‍ट्रासन अत्‍यधिक उपयोगी होता है।

5 उष्ट्रासन कमर दर्द में: इसको विशेषज्ञ के सामने अभ्यास करने से कमर दर्द में बहुत मदद मिलती है। यह आसन कमर दर्द के लिए रामबाण है।

6 यह योगाभ्यास क्रोध को कम करते हुए आपको शांत करने में मदद करता है।

7 गर्दन के दर्द: गर्दन के दर्द को भी कम करने में मदद करता है।

8 पतली कमर और खूबसूरत चेहरा के लिए उष्ट्रासन का अभ्यास करनी चाहिए।

9 यह स्लिप डिस्क एवं साइटिका को दूर करने में मददगार है।

10 उष्ट्रासन पाचन संबंधी समस्‍याओं में यह लाभकारी होता है।

11 यह आसन महिलाओं में मासिक जैसी परेशानियों को दूर करने में लाभदायक है।

उष्ट्रासन योग करने की विधि

सबसे पहले आप स्वच्छ आसन बिछाकर उस पर घुटनों के बल बैठ जाएं या आप वज्रासन में बैठे।

ध्यान रहे जांघों तथा पैरों को एक साथ रखें, पंजे पीछे की ओर हों तथा फर्श पर जमे हों।

घुटनों तथा पैरों के बीच करीब एक फुट की दूरी रखें।

अब आप अपने घुटनों पर खड़े हो जाएं।

सांस लेते हुए पीछे की ओर झुकें और अब दाईं हथेली को दाईं एड़ी पर तथा बाईं हथेली को बाईं एड़ी पर रखें।

ध्‍यान रहे कि पीछे झुकते समय गर्दन को झटका न लगे।

अंतिम मुद्रा में जांघें फर्श से समकोण बनाती हुई होंगी और सिर पीछे की ओर झुका होगा।

शरीर का वजन बांहों तथा पांवों पर समान रूप से होना चाहिए।

धीरे धीरे सांस ले और धीरे धीरे सांस छोड़े।

जहाँ तक हो सके अपने हिसाब से मुद्रा को मेन्टेन करें।

और फिर लंबी गहरी सांस छोड़ते अपनी आरंभिक अवस्था में आएं।

यह एक चक्र हुआ।

इस तरह से आप इसको पांच से सात बार कर सकते हैं।

उष्ट्रासन योग के सावधानी

उच्‍च रक्‍तचाप में इसे नहीं करनी चाहिए।

हृदय रोग से पीड़ित व्यक्ति इसे करने से बचें।

हर्निया से ग्रस्‍त व्‍यक्तियों को यह आसन नहीं करना चाहिए।

अधिक कमर दर्द में इसका अभ्यास न करें।

साइटिका एवं स्लिप डिस्क वाले मरीज इसको किसी विशेषज्ञ के सामने करनी चाहिए।

कमर दर्द, गर्दन दर्द, नजला जुकाम, तनावग्रस्त के लिए संपर्क करें
जालंधर
9814944728

जीवन-ऊर्जाहमारी सारी जीवन-ऊर्जा बाहर की तरफ यात्रा कर रही है। इस बहिर्यात्रा में ही हम भीतर अंधेरे में पड़े हैं। यह ऊर्जा...
26/10/2022

जीवन-ऊर्जा

हमारी सारी जीवन-ऊर्जा बाहर की तरफ यात्रा कर रही है। इस बहिर्यात्रा में ही हम भीतर अंधेरे में पड़े हैं। यह ऊर्जा भीतर की तरफ लौटे तो यही #ऊर्जा #प्रकाश बनेगी। यह ऊर्जा ही प्रकाश है।

तुम्हारा सारा प्रकाश बाहर पड़ रहा है--वृक्षों पर, पर्वतों पर, पहाड़ों पर, लोगों पर। लेकिन तुम एक अपने पर अपनी रोशनी नहीं डालते। सबको देख लेते हो अपने प्रति अंधे रह जाते हो। और सबको देखने से क्या होगा? जिसने अपने को न देखा, उसने कुछ भी न देखा।

आज के सूत्र तुम्हारे भीतर का दीया कैसे जले, #सच्ची_दीवाली कैसे पैदा हो, कैसे तुम भीतर चांद बनो, कैसे तुम्हारे भीतर चांदनी का जन्म हो--उसके सूत्र हैं। बड़े मधु-भरे! सुंदर ने बहुत प्यारे वचन कहे हैं, पर आज के सूत्रों का कोई मुकाबला नहीं है। बहुत रस-भरे हैं, पीओगे तो जी उठोगे। ध्यान धरोगे इन पर, संभल जाओगे। डुबकी मारोगे इनमें, तो तुम जैसे हो वैसे मिट जाओगे; और तुम्हें जैसा होना चाहिए वैसे प्रकट हो जाओगे।

है दिल मैं दिलदार... ।

जिसको तुम खोज रहे हो, तुम्हारे भीतर बैठा है। तुम्हारी खोज के कारण ही तुम उसे नहीं पा रहे हो। तुम दौड़े चले जाते हो। सारी दिशाओं में खोजते हो, थकते हो, गिरते हो। हर बार जीवन कब्र में समाप्त हो जाता है। जीवन से मिलन नहीं हो पाता। और जिसे तुम खोजने चले हो, जिस मालिक को तुम खोजने चले हो, उस मालिक ने तुम्हारे घर में बसेरा किया हुआ है। तुम जिसे खोजने चले हो, वह अतिथि नहीं है, आतिथेय है। खोजनेवाले में ही छिपा है। वह जो गंतव्य है, कहीं दूर नहीं, कहीं भिन्न नहीं, गंता की आंतरिक अवस्था है।

है दिल मैं दिलदार सही अंखियां उलटि करि ताहि चितइए।

लेकिन अगर उसे देखना हो, अगर उसके प्रति चैतन्य से भरना हो तो आंखें उलटाना सीखना पड़े। आंख उलटाना ही ध्यान है। ध्यान साधारणतया दृश्य से जुड़ा है। ऐसा मत सोचना कि तुम्हारे पास ध्यान नहीं है। तुम्हारे पास ध्यान है--उतना ही जितना बुद्धों के पास। रत्ती भर कम नहीं। परमात्मा किसी को कम और ज्यादा देता नहीं। उसके बादल सब पर बराबर बरसते हैं। उसका सूरज सबके लिए उगता है। उसकी आंखों में न कोई छोटा है न कोई बड़ा है। ऐसा मत सोचना कि #कृष्ण को कुछ ज्यादा दिया था, कि #बुद्ध को कुछ ज्यादा दिया था, कि #सुंदरदास को जरूर कुछ ज्यादा दे दिया होगा--कि ये रोशन हुए, कि ये जगमगाए। न खुद जगमगाए, बल्कि इनकी जगमगाहट से और भी लोग जगमगाए। दीयों से दीये जलते चले गए। ज्योति से ज्योति जले! जरूर इन्हें कुछ ज्यादा दे दिया होगा छिपा कर; हमें दिया नहीं, हम क्या करें? नहीं; ऐसा मत सोचना।

परमात्मा की तरफ से प्रत्येक को बराबर मिला है। रत्ती भर भेद नहीं। फिर हम अंधेरे में क्यों हैं? फिर कोई बुद्ध रोशन हो जाता है और हम बुद्धू के बुद्धू क्यों रह जाते हैं। हमें जो मिला है, हमने उसे गलत से जोड़ा है। जैसे कोई सरिता मरुस्थल में खो जाए, जल तो लाए बहुत हिमालय से और मरुस्थल में खो जाए--ऐसी हमारी जीवन-ऊर्जा मरुस्थल में खोई जा रही है। बाहर विस्तार है मरुस्थल का।

#ध्यान तुम्हारे पास उतना ही है जितना मेरे पास। लेकिन तुमने ध्यान वस्तुओं पर लगाया है। तुमने ध्यान किसी विषय पर लगाया है। तुम्हारा ध्यान हमेशा किसी चीज पर अटका है। चीजों को गिर जाने दो--चीजों को हट जाने दो। विषय वस्तु से मुत्त हो जाओ, मात्र ध्यान को रह जाने दो, निरालंब! और आंख भीतर मुड़ जाती है।

निरालंब ध्यान का नाम #समाधि। आलंबन से भरे ध्यान का नाम संसार। जब तक आलंबन है तब तक तुम बाहर जाओगे, क्योंकि आलंबन बाहर है। जब आलंबन नहीं तब तुम भीतर आओगे। कोई उपाय ही न बचा तो तुम्हें भीतर आना ही होगा। ध्यान को कहीं ठहरना ही होगा। बाहर न ठहराओगे तो अपने-आप सहज सरलता से ध्यान लौट आता है।

– ओशो
ज्योति से ज्योति जले

दिवाली ना तो हैप्पी होती है और न ही उसकी मुबारकबाद होती है।दीपावली तो केवल "शुभ" होती हैआप सभी को " शुभ दीपावली "🙏🏻🙏🏻🙏🏻🙏...
24/10/2022

दिवाली ना तो हैप्पी होती है और न ही उसकी मुबारकबाद होती है।
दीपावली तो केवल "शुभ" होती है

आप सभी को " शुभ दीपावली "
🙏🏻🙏🏻🙏🏻🙏🏻

23/10/2022

धनतेरस की आपको सपरिवार हार्दिक हार्दिक शुभकामनाएं
आयुर्वेद के जनक भगवान धनवंतरी के जन्म दिवस के उपलक्ष में यह दिन मनाया जाता है ।
असली धन हमारा स्वास्थ्य है, शारीरिक स्वास्थ्य,मानसिक स्वास्थ्य और अध्यात्मिक स्वास्थ्य।
ईश्वर आपको और आपके परिवार को सर्वश्रेष्ठ स्वास्थ्य उपलब्ध कराए।
शुभ धनतेरस
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मधुर रोगपरमात्मा की खोज तो एक ऐसा मधुर रोग है कि जिसे लगे, वही जाने। यह तो स्वाद है। और स्वाद शब्दों में व्यक्त नहीं होत...
18/10/2022

मधुर रोग

परमात्मा की खोज तो एक ऐसा मधुर रोग है कि जिसे लगे, वही जाने। यह तो स्वाद है। और स्वाद शब्दों में व्यक्त नहीं होते। यह तो अंतर्तम में उठी एक अभीप्सा है, जिसके लिए कोई कारण दिया नहीं जा सकता।
उठे तो उठे; न उठे तो न उठे। इसलिए संतों ने कहा है कि परमात्मा को वे ही खोजते हैं, जिन्हें परमात्मा खोजता है। इसके पहले कि तुम उसकी अभीप्सा करो, वह तुम्हें पुकारे, तो ही अभीप्सा पैदा हो सकती है।
परमात्मा की खोज मनुष्य के भीतर तब संभव होती है, जब और सब प्रेम-पात्र असफल हो जाते हैं। धन को किया प्रेम, और कुछ न पाया। पद को किया प्रेम, और कुछ न पाया। प्रियजन, मित्र, परिवार, पति-पत्नी, भाई-बंधु--सब को किया प्रेम, और हाथ खाली के खाली रहे। और गागर न भरी सो न भरी। जिसके जीवन में प्रेम के और सारे आयाम असफल हो गए हैं, उसके भीतर परमात्मा की अभीप्सा पैदा होती है। वह प्रेम की अंतिम चुनौती है; वह प्रेम की अंतिम पुकार है।

परमात्मा, प्रेम का अंतिम पात्र है। इसलिए जिनके जीवन में और प्रेम अभी महत्वपूर्ण हैं, अभी जिन्हें आशा बंधी है, जिनकी आंखें अभी इस आश्वासन से भरी हैं कि संसार में कुछ मिल जाएगा--आज नहीं तो कल, कल नहीं तो परसों--वे परमात्मा की खोज को नहीं समझ पाएंगे। परमात्मा की खोज तो केवल वे ही समझ सकते हैं, जिनकी और सारी खोजें निष्फल हो गईं, समग्ररूपेण निष्फल हो गईं। जिन्होंने सब जगह टटोल कर देख लिया, रिक्तता पाई। जिनके हाथों में हीरे आए, और पाया कि राख थे। सोना आया, और पाया कि मिट्टी थी। संबंध बने और बिगड़े, और पाया कि पानी के बबूले थे। बहुत राग, बहुत आसक्तियां, बहुत लगाव--लेकिन सब स्वप्न सिद्ध हुए। जैसे पानी पर खींची गई लकीरें, खिंच भी न पाएं और मिट जाएं। जिन्होंने जीवन को सब दिशाओं से जांचा-परखा और व्यर्थ पाया है, वे परमात्मा की खोज पर निकलते हैं।
तुम परमात्मा की चिंता अभी न करो। और न उनकी चिंता करो, जो परमात्मा की अभीप्सा से भरे हैं। अभी तो तुम यह देखो कि तुम्हारा प्रेम क्या मांग रहा है--धन, पद, प्रतिष्ठा, प्रियजन? अभी तो तुम अपने प्रेम को परखो।

अभी तुम्हारा प्रेम कुछ क्षुद्र मांग रहा होगा। तुम्हारा प्रेम अभी किसी सीमित दिशा में गति कर रहा होगा। तुम्हारा प्रेम अभी संसार से हारा नहीं है। तुम्हारा प्रेम अभी विषादग्रस्त नहीं हुआ है। तुम्हारे भीतर विषादऱ्योग पैदा नहीं हुआ है। तुमने अभी प्रेम की व्यर्थता, आत्यंतिक व्यर्थता से परिचय नहीं बनाया है। अभी आशा का दीया जल रहा है। अभी टिमटिमा रही है ज्योति। कल, आने वाले कल में अभी तुम्हारी आशा टिकी है, सपने टिके हैं।

इसलिए तुम्हें हैरानी होती होगी, तुम चकित होते होओगे। तुम्हारा चकित होना मुझे चकित नहीं करता। तुम्हारा आश्चर्य से भरना मुझे आश्चर्य से नहीं भरता। यह स्वाभाविक है। तुम सोच-विचार वाले व्यक्ति हो। तुम्हारे मन में यह बात समझ में नहीं आती कि लोग क्यों परमात्मा की खोज में लगे हैं? परमात्मा यानी क्या? तुम्हारे लिए कुछ परमात्मा शब्द में अभी अर्थ भी नहीं है। अभी यह शब्द कोरा है, खाली है, शब्द-मात्र है, अर्थशून्य है, अर्थ-रिक्त है।

परमात्मा कोई व्यक्ति नहीं है। न ही परमात्मा तुम से बाहर कोई शक्ति है। परमात्मा है तुम्हारे भीतर प्रेम का वापस लौट आना।

ओशो

सजग, शांत और संतुलित हो जाओ।ध्यान टुकड़ों में करने वाली चीज नहीं हो सकती, वह एक सतत प्रयास होना चाहिए। प्रत्येक को हर क्ष...
20/09/2022

सजग, शांत और संतुलित हो जाओ।

ध्यान टुकड़ों में करने वाली चीज नहीं हो सकती, वह एक सतत प्रयास होना चाहिए। प्रत्येक को हर क्षण सचेत, सजग और ध्यानपूर्ण होना चाहिए। लेकिन मन एक चालबाजी करता है, तुम सुबह ध्यान करते हो और तब उसे उठाकर बगल में रख देते हो अथवा तुम मंदिर जाकर प्रार्थना करते हो और तब भूल जाते हो। तब तुम पूरी तरह बिना ध्यान इस संसार में वापस लौटते हरे, लगभग अचेत से जैसे तुम सम्मोहित निद्रा में चल रहे हो।

इस टुकड़े-टुकड़े प्रयास से अधिक कुछ होने का नहीं। तुम एक घंटे के लिए ध्यानपूर्ण कैसे हो सकते हो, जब तुम दिन के तेईस घंटे बिना ध्यान के रहते हो? यह असम्भव है। अचानक एक घंटे के लिए ध्यानपूर्ण हो जाना सम्भव नहीं है। तुम अपने आपको सिर्फ धोखा दे सकते हो।

चेतना एक सतत प्रवाह है। यह एक नदी की भांति है, जो निरन्तर बह रही है। यदि तुम दिन- भर के लिए उसके प्रत्येक क्षण ध्यानपूर्ण रहे? हो... और जब तुम दिन- भर ध्यान पूर्ण रहे हो, खिलावट तभी हो सकती है। इससे पहले कुछ होने का नहीं।

यह झेन वृत्तान्त यों तो व्यर्थ जैसा दिखाई देता है, लेकिन है बहुत अर्थपूर्ण। एक झेन सद्‌गुरु जो अपने को भिक्षु ही कहा करता था, स्वयं अपने आपको ही पुकारता रहता था-यही है वह जिसे ध्यान कहते हैं, स्वयं को पुकारना-वह अपना नाम लेकर स्वयं को बुलाया करता था। वह कहा करता था-’‘ जुईगन क्या तुम वहां हो? ‘‘

वह स्वयं ही उत्तर देता था-’‘जी हां श्रीमान! मैं यही हूं। ‘‘

यह एक प्रयास ही नहीं, शिखर प्रयास है सजग रहने का। तुम इसका प्रयोग कर सकते हो। यह बहुत सहायक होगा ध्यान में। अचानक सड़क पर चलते हुए तुम स्वयं को पुकार सकते हो-’‘ क्या तुम हो वहां? ‘‘अचानक विचार-प्रक्रिया थम जाएगी, क्योंकि तुम्हें उत्तर भी देना है-’‘जी हां श्रीमान! मैं यही हूं। ‘‘

जैसे ही विचार प्रक्रिया रुकती है, यह तुम्हें केन्द्र बिंदु पर ले आती है और तुम सजग और ध्यानपूर्ण हो जाते हो।

स्वयं अपने को पुकारना एक विधि है। तुम सोने जा रहे हो, तुमने रात में जलने वाला प्रकाश बुझा दिया है, अचानक तुम पुकारते हो-’‘ क्या तुम हो वहां? ‘‘
और उस अंधेरे में ही सजगता आ जाती है। तुम अन्दर एक लपट बनकर उत्तर देते हो-’‘ हां! मैं यहीं हूं। ‘‘

और तब वह भिक्षु कहा करता था-सजग, शांत और संतुलित हो जाओ, ईमानदार बनो, प्रामाणिक बनो, कोई खेल मत खेलो। वह स्वयं को पुकारते हुए कहता था-‘‘ शांत और संतुलित हो जाओ। ‘‘और वह जवाब देता-’‘जी हां! जितना भी किया जा सकता है, वह हर सम्भव प्रयास करूंगा।‘‘

हमारा पूरा जीवन बेवकूफ बने हुए चारों ओर घूमते रहना ही है।

तुम इसे कर सकते हो क्योंकि तुम इसके प्रति सजग नहीं हो कि तुम कैसे अपना समय बरबाद करते हो, कैसे अपनी ऊर्जा व्यर्थ खोते हो और अंत में कैसे बिना सजग हुए अपना पूरा जीवन बरबाद कर देते हो। सब कुछ नीचे नाली में व्यर्थ बह जाता है। हर चीज बरबाद होकर नीचे नाली में बही जा रही है। केवल जब मौत तुम्हारे द्वार पर दस्तक देती है, तुम तभी सजग और सचेत हो सकते हो। तब तुम सोचते हो-' मैं अभी तक क्या करता रहा? मैंने अभी तक जीवन के साथ क्या किया? मैंने एक महान अवसर खो दिया। मैं बेवकूफ बना चारों ओर घूमता आखिर करता क्या रहा? 'तुम शांत और संतुलित नहीं थे। तुम जो कुछ कर रहे थे उसके परिणाम को तुम कभी देखते नहीं रहे।

जीवन यूं ही बस बिता देने के लिए नहीं है, वह अपने ही अन्दर कहीं गहराई में पहुंचने के लिए है। जीवन केवल सतह पर नहीं है, वह परिधि भी नहीं है-वह है केन्द्र तुम अभी तक अपने केन्द्र पर नहीं पहुंचे हो। सजग और संतुलित हो जाओ।

काफी समय पहले ही व्यर्थ बीत चुका है। सचेत हो जाओ और देखो, तुम क्या कर रहे हो? क्या कर रहे हो तुम, क्या धन की तलाश? जो अंतिम रूप से व्यर्थ सिद्ध होगी। यह फिर एक तरह का खेल है, धन खेल। तुम्हारे पास दूसरे से कहीं अधिक है-तुम्हें अच्छा लगता है, दूसरों के पास तुमसे अधिक है तुम्हें बुरा लगता है। यह एक खेल है, लेकिन आखिर इसका अर्थ क्या है? तुम इससे क्या प्राप्त करते हो? संसार- भर में जितना भी धन है, यदि वह सभी तुम्हारे पास आ भी जाए तो भी मृत्यु के क्षण तुम भिखारी होकर ही मरोगे इसलिए संसार- भर का धन भी तुम्हें धनी नहीं बना सकता। कोई भी खेल तुम्हें कभी भी धनी नहीं बना सकता। सजग, शांत और संतुलित हो जाओ।

मनुष्य होने की कला
ओशो

"दवाई" केवल दवाई की बोतलें और गोलियां ही नहीं होती हैं।कुछ ऐसी "दवाएं" भी होती हैं। जिनके उपयोग से बीमारी हो ही नहीं सकत...
01/09/2022

"दवाई" केवल दवाई की बोतलें और गोलियां ही नहीं होती हैं।
कुछ ऐसी "दवाएं" भी होती हैं। जिनके उपयोग से बीमारी हो ही नहीं सकती,
जैसे : -
01) कसरत (Exercise) एक दवाई हैं।
02) सुबह सैर करना एक दवाई हैं।
03) व्रत रखना एक दवाई हैं।
04) परिवार के संग भोजन करना भी एक दवाई हैं।
05) आपसी हंसी मजाक एक दवाई हैं।
06) गहरी नींद एक दवाई हैं।
07) अपनों के संग वक्त बिताना एक दवाई हैं।
08) हमेशा खुश रहना दवाई हैं।
09) कुछ मामलों में चुप्पी बना कर रखना भी एक दवाई हैं।
10) सबको सहयोग करना एक दवाई हैं।
11) एक अच्छा दोस्त तो दवाई की दुकान हैं ही।

इन सबका अनुसरण कीजिए।
न इसमें पैसा खर्च होता हैं और न हीं इसके कोई साइड इफेक्ट ही होते हैं।
🙏🏻🌹हरि ॐ नमो नारायण🌹🙏🏻

ओम् 🙏 संसारवृक्षमारूढाः पतन्ति नरकार्णवे ।यस्तानुद्धरते सर्वान् तस्मै श्रीगुरवे नमः ॥ गुरुर्ब्रह्मा गुरुर्विष्णुर्गुरुर्...
14/07/2022

ओम् 🙏

संसारवृक्षमारूढाः पतन्ति नरकार्णवे ।
यस्तानुद्धरते सर्वान् तस्मै श्रीगुरवे नमः ॥

गुरुर्ब्रह्मा गुरुर्विष्णुर्गुरुर्देवो महेश्वरः ।
गुरुरेव परं ब्रह्म तस्मै श्रीगुरवे नमः ॥

अज्ञानतिमिरान्धस्य ज्ञानाञ्जनशलाकया ।
चक्षुरुन्मीलितं येन तस्मै श्रीगुरवे नमः ॥

अखण्डमण्डलाकारं व्याप्तं येन चराचरम् ।
तत्पदं दर्शितं येन तस्मै श्रीगुरवे नमः ॥

स्थावरं जङ्गमं व्याप्तं यत्किञ्चित्सचराचरम् ।
त्वम्पदं दर्शितं येन तस्मै श्रीगुरवे नमः ॥

चिन्मयं व्यापितं सर्वं त्रैलोक्यं सचराचरम् ।
असित्वं दर्शितं येन तस्मै श्रीगुरवे नमः ॥

निमिषन्निमिषार्ध्वाद्वा यद्वाक्यादै विमुच्यते ।
स्वात्मानं शिवमालोक्य तस्मै श्रीगुरवे नमः ॥

चैतन्यं शाश्वतं शान्तं व्योमातीतं निरञ्जनम् ।
नादबिन्दुकलातीतं तस्मै श्रीगुरवे नमः ॥

निर्गुणं निर्मलं शान्तं जङ्गमं स्थिरमेव च ।
व्याप्तं येन जगत्सर्वं तस्मै श्रीगुरवे नमः ॥

स पिता स च मे माता स बन्धुः स च देवता ।
संसारमोहनाशाय तस्मै श्रीगुरवे नमः ॥

यत्सत्त्वेन जगत्सत्यं यत्प्रकाशेन भाति तत् ।
यदानन्देन नन्दन्ति तस्मै श्रीगुरवे नमः ॥

यस्मिन्स्थितमिदं सर्वं भाति यद्भानरूपतः ।
प्रियं पुत्रादि यत्प्रीत्या तस्मै श्रीगुरवे नमः ॥

येनेदं दर्शितं तत्त्वं चित्तचैत्यादिकं तथा ।
जाग्रत्स्वप्नसुषुप्त्यादि तस्मै श्रीगुरवे नमः ॥

यस्य ज्ञानमिदं विश्वं न दृश्यं भिन्नभेदतः ।
सदैकरूपरूपाय तस्मै श्रीगुरवे नमः ॥

यस्य ज्ञातं मतं तस्य मतं यस्य न वेद सः ।
अनन्यभावभावाय तस्मै श्रीगुरवे नमः ॥

यस्मै कारणरूपाय कार्यरूपेण भाति यत् ।
कार्यकारणरूपाय तस्मै श्रीगुरवे नमः ॥

नानारूपमिदं विश्वं न केनाप्यस्ति भिन्नता ।
कार्यकारणरूपाय तस्मै श्रीगुरवे नमः ॥

ज्ञानशक्तिसमारूढतत्त्वमालाविभूषणे ।
भुक्तिमुक्तिप्रदात्रे च तस्मै श्रीगुरवे नमः ॥

अनेकजन्मसम्प्राप्तकर्मबन्धविदाहिने ।
ज्ञानानिलप्रभावेन तस्मै श्रीगुरवे नमः ॥

शोषणं भवसिन्धोश्च दीपनं क्षरसम्पदाम् ।
गुरोः पादोदकं यस्य तस्मै श्रीगुरवे नमः ॥

न गुरोरधिकं तत्त्वं न गुरोरधिकं तपः ।
न गुरोरधिकं ज्ञानं तस्मै श्रीगुरवे नमः ॥

ऊँ सादर चरण प्रणाम।

🕉गुरु पूर्णिमाभारतीय परम्परा में गुरु पूर्णिमा का बड़ा महत्व है। गुरु का अर्थ है- जो ज्ञान का मार्ग दिखाये और उस पर चलकर ...
14/07/2022

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गुरु पूर्णिमा

भारतीय परम्परा में गुरु पूर्णिमा का बड़ा महत्व है। गुरु का अर्थ है- जो ज्ञान का मार्ग दिखाये और उस पर चलकर व्यक्ति आत्मसाक्षात्कार कर सके।

पूर्णिमा का अर्थ है पूर्णता, समूची सृष्टि की, संचालक शक्ति की अर्थात् प्राकृतिक नियमों की पूर्णता में जागृति। इसका अर्थ यह हुआ कि गुरुपूर्णिमा मनाने का, उसमें सम्मिलित होने का अर्थ है – प्रकृति की समग्रता को अपनी चेतना में जागृत कर सर्वसमर्थता की प्राप्ति।

आधुनिक-विज्ञान भी कहता है कि अव्यक्त शून्य में कुछ सजीवता है। इस शून्य सत्ता से ही सारे विश्र्व ब्रह्माण्ड का उदय हुआ है और इसी में इसके संचालन का रहस्य है।

व्यक्ति की शान्त चेतना में सारे विश्र्व ब्रह्माण्ड की इसी ज्ञान-शक्ति का, क्रिया-शक्ति के पूर्ण प्रस्फुटन का पर्व है – गुरु पूर्णिमा। अर्थात् गुरु पूर्णिमा-पूर्ण ज्ञान का प्रकाशक है।

यह स्पष्ट होने के बाद प्रश्र्न्न उठता है कि सम्पूर्ण ज्ञान सत्ता की वाहक इन प्राकृतिक शक्तियों का, नियमों का, सिद्घान्तों का व्यक्ति की चेतना में जागरण कैसे हो?

इसी के लिए गुरु की आवश्यकता पड़ती है। गुरु ही इस पूर्ण ज्ञान से साक्षात्कार के माध्यम बता सकता है, इसलिए यह गुरु के पूजन का, गुरु के सम्मान का दिन है।

अपने शास्त्रों में गुरु को श्रोत्रिय कहा गया है, ब्रह्मनिष्ठ कहा गया है।

“तद् विज्ञानार्थं सद्गुरुमेवाभिगच्छेः सनित्पाणिः श्रोत्रियं ब्रह्मनिष्ठं’
अर्थात् उस परम तत्व को जानने के लिए, जिसके जानने से सब कुछ जाना जाता है, ऐसे गुरु से शिष्य शिक्षा लें। “श्रोत्रियं ब्रह्मनिष्ठं" चेतना वाले गुरु की चेतना पूर्ण विस्तारित होगी।

इसलिए शिष्य के प्रश्र्न्नों का, समस्याओं का, शंकाओं का समाधान भी पूर्णता में होगा।

दुग्धेन धेनुः कुसुमेन वल्ली, शीलेन भार्याकमलेन तोयम्।
गुरुं विना भाति न चैव शिष्यः, शमेन विद्या नगरी जनेन॥

जैसे दूध बगैर गाय, फूल बगैर लता, शील बगैर भार्या, कमल बगैर जल, शम बगैर विद्या, और लोग बगैर नगर शोभा नहीं देते, वैसे हि गुरु बिना शिष्य शोभा नहीं देता।

☀।। *वन्दे मातरम* ।।☀

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