Ramlal Dham Jhansi

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565.*ॐ प्रभु रामलाल परब्रह्मणे नमः* *ॐ  प्रभु  चन्द्रमोहन मम सद्गुरवे नमः*   *सिद्धयोग मासिक पत्रिका से उद्धृत*         ...
26/09/2025

565.

*ॐ प्रभु रामलाल परब्रह्मणे नमः*
*ॐ प्रभु चन्द्रमोहन मम सद्गुरवे नमः*

*सिद्धयोग मासिक पत्रिका से उद्धृत*

*त्याग*

त्याग आपको सर्वोत्तम स्थिति में रखता है, आपको उत्कर्ष की स्थिति में पहुंचा देता है।
त्याग निश्रय ही आपके बल को बढ़ा देता है, आपकी शक्तियों को कई गुना कर देता है, आपके पराक्रम को दृढ़ कर देता हैं, नहीं- आपको ईश्वर बना देता है। वह आपकी चिन्ताएँ और भय हर लेता है। आप निर्भय तथा आनन्दमय हो जाते हैं ।
स्वार्थपूर्ण और व्यक्तिगत सम्बन्धों को त्याग दो, प्रत्येक में और सबमें ईश्वरत्व को देखो, प्रत्येक में और सबमें ईश्वर के दर्शन करो।
त्याग क्या है? अहंकारयुक्त जीवन को त्याग देना। निःसंशय और निःसंदेह अमर जीवन व्यक्तिगत और परिच्छिन्न जीवन को खो डालने से मिलता है।
त्याग का आरम्भ सबसे निकट और सबसे प्रिय वस्तुओं से करना चाहिए। जिनका त्याग करना परमावश्यक है, वह है मिथ्या अहंकार अर्थात् मैं यह कर रहा हूँ', मैं कर्ता हूँ, मैं भोक्ता हूं यही भाव हममें मिथ्या व्यक्तित्व को उत्पन्न करते हैं इनको त्याग देना होगा।
त्याग आपकी हिमालय के घने जंगल में जाने का आदेश नहीं देता, त्याग आपसे कपड़े उतार डालने का आग्रह नहीं करता; त्याग आपको नंगे पांव और नंगे सिर घूमने के लिये नहीं कहता ।
त्याग के अतिरिक्त और कहीं वास्तविक आनन्द नहीं मिल सकता त्याग के बिना न ईश्वर प्रेरणा हो सकती है, न प्रार्थना ।

*।।इति।।*

योगीश्वर पादकमलेभ्यो नमः

भाग४यौगिक विभूतियाँ २•१ऊँ योगीश्वर महाप्रभु रामलाल भगवान नमः ऊँ योगेश्वर प्रभु चन्द्रमोहन मम् सद्गुरवे नमः  *"योग योगेश्...
26/09/2025

भाग४
यौगिक विभूतियाँ

२•१

ऊँ योगीश्वर महाप्रभु रामलाल भगवान नमः
ऊँ योगेश्वर प्रभु चन्द्रमोहन मम् सद्गुरवे नमः

*"योग योगेश्वर अनन्त श्री चन्द्रमोहन भगवान के योग सिद्धांत से उद्धृत"*

*उन्हीं के शब्दों में*
खण्ड-२
भाग-४
अध्याय-२
*संयम और सिद्धियाँ*

सिद्धियों का आधार संयम है। संयम सिद्ध हो जाने पर ही योगी को सकल सिद्धियाँ उपलब्ध होती हैं। योगदर्शन के विभूतिपाद में भगवान पतंजलि देव ने जिन-जिन सिद्धियों का जिक्र किया है वे सब संयम पर आधारित हैं। इससे पहले कि मैं सिद्धियों का वर्णन करूँ 'संयम' का अर्थ समझा देना परमावश्यक है। संयम की परिभाषा लिखते हुए भगवान् पतंजलि देव अपने एक छोटे से सूत्र में लिखते हैं:--

*त्रयमेकत्र संयमः।*

इस सूत्र पर श्रीव्यास-भाष्य की पंक्तियाँ निम्नांकित हैं:--

*एकविषयाणि त्रीणि साधनानि संयम इत्युच्यते तदस्य त्रयस्य तान्त्रिकी परिभाषा संयम इति।*

अर्थात-- धारणा, ध्यान एवं समाधि तीनों साधनों का एक लक्ष्य में लक्षित हो जाना ही संयम की सही परिभाषा है। इस बात को इस प्रकार से समझ लेना चाहिए। जैसे एक नया साधक ज्यों ही योगाभ्यास करना आरम्भ करता है, उसके सामने पहला लक्ष्य रहता है -- धारणा को सिद्ध करना। वह धारणा को सिद्ध करने के लिए जब कोई अभ्यास आरम्भ करता है तो धारणा के लक्षीभूत किसी देश को अपने चिन्तन का आधार बनाता है। धारणा का लक्षण बतिते हुए भगवान् पतंजलि देव ने लिखा है:--

*देशबन्धश्चित्तस्य धारणा।*

अर्थात-- किसी एक लक्ष्य में अषने चित्त को इकट्ठा करना धारणा कहलाती है। इस सूत्र पर श्री व्यासदेव जी धारणा की परिभाषा समझाते हुए धारणा स्थलों का निर्देश इस प्रकार करते हैं:--

*नाभिचक्रे, हृदयपुण्डरीके, मूर्ध्नि ज्योतिषि, नासिकाग्रे, जिह्वाग्रे इत्येवमादिषु देशेषु, वाह्ये वा विषये, चित्तस्य वृत्तिमात्रेण बन्ध इति धारणा।*

अर्थात--जिस समय साधक धारणा का अभ्यास आरम्भ करे तब वह मन के चिन्तन से ही धारणा के लक्ष्य को केन्द्रित करे। योगाचार्यों के अनुभूत स्थान नाभिचक्र, हृदयकमल, मूर्धाज्योति, नासिकाग्र, जिह्वाग्र, जिह्वामूल आदि-आदि हैं। जिस समय कोई भी योगी साधक उपरोक्त धारणा स्थलों को लक्षित केन्द्र बनायेगा तो वहाँ का सब दृश्य धीरे-धीरे उसके सामने आने लगेगा एवं उसका सर्वार्थक मन धारणा स्थल में एकाग्र हो जायेगा। धारणा का फल है-- मन की ताकत का बढ़ जाना। भगवान पतंजलि देव स्पष्ट शब्दों में लिखते हैं:--

*धारणासु योग्या मनसः।*

धारणा मन को ध्यान करने लायक बल देती है किन्तु अभ्यासी साधक को धारणा के विषय में सफलता लाभ करने के लिए यह याद रखना चाहिए कि वह धैर्य को न छोड़े। यह इस प्रकार का कोर्स है कि यदि साधक इसको परिपक्व कर डालेगा तो आगे की भूमिकाओं में उसको कुछ भी प्रयास करने की आवश्यकता नहीं रहेगी। भगवान पतंजलि देव उसके बारे में निर्देश करते हैं कि:--

*स तु दीर्घकाल नैरन्तर्य सत्कारासेवितो दृढ़भूमिः।*

क्रमशः.........

564.*ॐ प्रभु रामलाल परब्रह्मणे नमः* *ॐ  प्रभु  चन्द्रमोहन मम सद्गुरवे नमः*   *सिद्धयोग मासिक पत्रिका से उद्धृत*         ...
25/09/2025

564.

*ॐ प्रभु रामलाल परब्रह्मणे नमः*
*ॐ प्रभु चन्द्रमोहन मम सद्गुरवे नमः*

*सिद्धयोग मासिक पत्रिका से उद्धृत*

*कुछ जिज्ञासायें और उनका समाधान*

स्थान हिमालय का एक अञ्चल ।सत्संग चल रहा था। सत्संगी सज्जनों से कुछ आवश्यक परामर्श करना था। इसके बाद आज का महत्वपूर्ण प्रवचन होना था, इतने में एक युवक खड़े हुए और लगातार अनेक प्रश्न कर डाले। उनमें से अपने राम ने सभी के उत्तर दिये। प्रश्नोत्तर दोनों ही सत्संगियों के लाम के समझकर हम उन्हें क्रमशः नीचे दे रहे हैं।

प्र०-- मनुष्यों में श्रेष्ठ कौन है ?

उ०-जो ज्ञान-चक्षु से सम्पन्न है।

प्र०-- आत्मोन्नति का मूल मन्त्र क्या है ?

उ०--विश्वास ।

प्र० - सम्पत्ति और विपत्ति में कैसे रहना चाहिए ?

उ०- -समचित्त ।

प्र०--भक्ति-और योग मार्ग में विघ्न क्या हैं?

उ०- विषय-चिन्तन और विषयी का संग।

प्र० - - पृथ्वी पर अशान्ति क्यों है ?

उ०--सभी स्वार्थ की आग में जल रहे हैं, इसलिये ।

प्र० - आत्मिक शक्ति का विकास कैसे होता है ?

उ०- पवित्रता प्रेम और यम-नियम के धारण द्वारा ।

प्र० मुनि कौन है?

उ०-जिसका मन शान्त हो गया है।

प्र० - वैर-भाव का नाश कैसे होता है ?

उ० क्षमाशील होने से ।

*।।इति।।*

योगीश्वर पादकमलेभ्यो नमः

ऊँ योगीश्वर प्रभु रामलाल प्रभवे नमःऊँ योगेश्वर प्रभु चन्द्रमोहन प्रभवे नमः *सिद्धयोग मासिक पत्रिका से उद्धृत*  *प्रसन्नत...
25/09/2025

ऊँ योगीश्वर प्रभु रामलाल प्रभवे नमः
ऊँ योगेश्वर प्रभु चन्द्रमोहन प्रभवे नमः

*सिद्धयोग मासिक पत्रिका से उद्धृत*

*प्रसन्नता क्यों और कैसे ?*

[ तपोधन आचार्य श्रीरामशर्मा ]

*रागद्वेषवियुक्तैस्तु विषयानिन्द्रियेश्चरन । प्रात्मवरयैर्विधेयात्मा प्रसादमधिगच्छति ।। प्रसादे सर्वदुःखानां हानिरस्योपजायते । प्रसन्नचेतसो ह्याशु बुद्धि पर्यवतिष्ठते* ।

राग-द्वेष रहित वशवर्ती मन वाला, अर्थात् स्वाधीन मन वाला पुरुष अपने वश में की हुई इन्द्रियों से विषयों को भोगता हुआ भी प्रसन्नता को प्राप्त होता है। प्रसन्नता में इसके समस्त दुःख नष्ट हो जाते हैं क्योंकि प्रसन्न चित्त वाले मनुष्य की बुद्धि शीघ्र ही स्थिर हो जाती है।

प्रसन्नता मनुष्य की सबसे प्रिय वस्तु है। प्रसन्न वह रहता है जो सुखी होता है। सुख का प्रमाण, चिन्ह 'प्रसन्नता' है। इस संसार में कौन ऐसा है जो प्रसन्न न रहना चाहता हो, पर देखा यह जाता है कि आये दिन कोई न कोई कारण ऐसे सामने आ उपस्थित होते है कि प्रसन्नता स्थिर नहीं रह पाती। बार बार अप्रसन्नता, क्षोभ, क्रोध, चिन्ता, भय, निराशा आदि के कारण सामने आ उपस्थित होते हैं। चित्त खिन्न रहे, मन उद्विग्न एवं
अप्रसन्न रहे तो कितनी ही सम्पदा, विद्या, विभूति पास हो, सब एक प्रकार से व्यर्थ ही है।

भगवान ने मानव जीवन की परम प्रिय वस्तु प्रसन्नता के प्राप्त न होने का कारण और उपलब्धि का उपाय बहुत ही संक्षिप्त एवं सारगर्भित रीति से समझा दिया है। उपरोक्त श्लोकों में बताया गया है कि राग द्वेष छोड़ देने और इन्द्रियों को विषयों से रोक लेने पर अप्रसन्नता के कारण नष्ट हो जाते हैं। जिसका मन वशमें है उसे प्रसन्नता मिलनी ही चाहिए। प्रसन्न रहने का महात्म्य बताते हुए गीताकार ने कहा है कि प्रसन्न रहने से मनुष्य के सारे दुःख दूर हो जाते हैं और उसकी विवेक बुद्धि स्थिर हो जाती है।

लोगों का अनुमान है कि वस्तुओं के अभाव या प्रतिकूल परिस्थियों के कारण अप्रसन्नता एवं खिन्नता रहती है। पर यह बात इसलिए सही नहीं कि असंख्य मनुष्य ऐसे हैं जिनके पास गुजारे के लिए समुचित साधन मौजूद हैं, कोई खास प्रतिकूलता या सङ्कट भी सामने नहीं फिर भी वे खिन्न दिखाई पड़ते हैं। यदि अभाव या सङ्कट ही कारण होते तो साधन सम्पन्न और सकुशल लोग उद्विग्न क्यों दीखते ? इसके विपरीति ऐसे भी अनेक लोग हैं जो अभावों और प्रतिकूलताओं से भरा जीवन-यापन करते हुए भी बड़े प्रसन्न एवं सुखी हैं । वनबासी ऋषियों को भौतिक सुख सुविधा की वस्तुओं का प्रायः अभाव ही रहता था । भोजन, वस्त्र, मकान जैसी साधारण जीवनोपयोगी वस्तुयें भी उन्हें गरीब एवं साधनहीन लोगों की तरह घटिया स्तर की ही मिलती थीं, फिर भी वे कितना उत्कृष्ट एवं कितना आनन्दमय जीवन-यापन करते थे । संसार के महान पुरुषों ने अनेक प्रकार के कष्ट सहे हैं, अभावग्रस्त जीवन व्यतीत किया है और सदुद्देश्य के लिए निरन्तर श्रम किया है। फिर भी उनकी अन्तरात्मा सदा प्रसन्नता का ही अनुभव करती रही। इससे स्पष्ट है कि यह मान्यता सही नहीं कि समृद्धि या सत्ता के द्वारा आनन्द प्राप्त होता है ।

क्रमशः

*योगेश्वर सद्गुरु चरणकमलेभ्यो नमः*

563.*ॐ प्रभु रामलाल परब्रह्मणे नमः* *ॐ  प्रभु  चन्द्रमोहन मम सद्गुरवे नमः*   *सिद्धयोग मासिक पत्रिका से उद्धृत*         ...
24/09/2025

563.

*ॐ प्रभु रामलाल परब्रह्मणे नमः*
*ॐ प्रभु चन्द्रमोहन मम सद्गुरवे नमः*

*सिद्धयोग मासिक पत्रिका से उद्धृत*

*नौ योगीश्वरों की वार्ता*

उस परम पुरातन युग की बात है, जब भारतवर्ष का नाम अजानवर्ष था। भगवान ऋषभदेव तब इस देश के राजा थे। इन ऋषभदेव जी के, सौ सुयोग्य पुत्र थे। इनमें से सबसे बड़े राजर्षि भरत थे । इन्हीं के नाम पर अजानवर्ष का नाम बाद में भारतवर्ष हो गया । कहते हैं भरत ने समस्त पृथ्वी का राज्य-भोग किया लेकिन अपने जीवन के उत्तराद्ध में वे समस्त राज्य-वैभव को छोडकर तपस्वी हो गये और तपस्या के बल पर अन्त में उन्होंने जीवन के चरम लक्ष्य मोक्ष की प्राप्ति की ।
इनके शेष निन्यानवे भाइयों में से इक्यासी तो कर्मकाण्ड के रचयिता ब्राह्मण हुए; नौ भाइयों ने भारतवर्ष के आस-पास स्थित नौ द्वीपों का शासन भार सम्हाला और शेष नौ संन्यासी हो गये जिन्होने अध्यात्म और आत्म तत्व की खोज में ही अपने समूचे जीवन को दे डाला। इनका यश थोड़े ही समय में सर्वत्र फैल गया। सभी जगह इनका आदर मान था। सभी इन्हें नौ योगीश्वरों के नाम से पुकारते थे ।
एक बार विदेह राज महात्मा निमि ऋषिया के द्वारा एक वृहद यज्ञ करा रहे थे। भ्रमण करते हुए यह नौ योगीश्वर भाई भी उधर जा पहुंचे। यज्ञ-मण्डप में प्रवेश करते ही राजर्षि निमि तथा सभी ऋषि-मुनियों ने इन्हें अत्यन्त आदर के साथ लिया। यथोचित अभिवादन के पश्चात् उचित आसन पर बिठलाया। समूचे नगर में तथा उसके आस-पास घोषणा कर दी गई कि अध्यात्म, ब्रह्म-विद्या और आत्मतत्व के विशेषज्ञ नौ योगीश्वर आये हुए हैं। समस्त नगर-निवासी जो आत्म तत्व को जानने की इच्छा रखते हैं-यज्ञमण्डप में आकर इनके प्रवचनों का लाभ उठावें ।
सूचना पाकर श्रोताओं से यज्ञमण्डप खचाखच भर गया । सत्संग चर्चा ठीक समय पर आरम्भ हो गई । राजा निमी ने नौ योगीश्वरों से विनम्रतापूर्वक पूछा- हे योगीश्वर हम सब आप से यह जानना चाहते हैं कि इस संसार में परम कल्याण का स्वरूप क्या है और उसे प्राप्त करने का साधन क्या है ?
राजा निमि से यह प्रश्न सुनकर योगीश्वरों में से सबसे बड़े भाई ने जिनका नाम कवि था, प्रश्न करता की सराहना की और कहा, राजन संसार के कल्याण के लिए किया गया तुम्हारा प्रश्न सम्मान के योग्य है इसका उत्तर शांत चित्त से सुनने की कृपा करें । योगीश्वर ने कहना आरम्भ कियाः -

१- राजन इस संसार में परम कल्याण का स्वरूप उस ईश्वर की उपासना ही है जो सदा हमारे साथ है और जिससे हम कभी भी दूर नहीं हैं।

२-देह गेह श्रादि तुच्छ एवं असत् पदार्थों में ममता तथा अहंता हो जाने पर उद्विग्न मन भी उपासना द्वारा पूर्णतया निवृत हो जाता है। और वह फिर प्रभु मय ही हो जाता है।

३-ऐसा प्रभु परायण-पुरुष साधारण लोगों की स्थिति से ऊपर उठ जाता है। वह हर वस्तु में हरेक प्राणी में अपने प्रियतम प्रभु के दर्शन करता है।

४ - राग-द्वेष ईर्षा आदि विकारों से दूर रहकर वह हरि कीर्तन और हरि-चर्चा में ही मग्न रहता है। और उसी में परम शान्ति का अनुभव करता है ।

५- प्रभु का आराधक और उपासक ही तपस्वी कहलाता है यम और नियम उसके आचरण में समावेशित रहते है । दम्भ ढोंग और अधर्म से वह कोसों दूर रहता है। वह इन्द्रियजित और आत्मकाम कहलाकर मन वचन और कर्म से संसार में ईश्वरतत्व का ही प्रचार और प्रसार करता रहता है ।
‌ तप और आराधना के बल से वह ऐसी अलौकिक देवी सम्पदा को प्राप्त होता है जो आत्म-कल्याण और आत्म शक्ति का कोष होती है। ईश्वराधक की आत्म शक्ति के कोष से संसार का कल्याण स्वतः हुआा करता है ।

*।।इति।।*

योगीश्वर पादकमलेभ्यो नमः

ऊँ योगीश्वर प्रभु रामलाल प्रभवे नमःऊँ योगेश्वर प्रभु चन्द्रमोहन प्रभवे नमः *सिद्धयोग मासिक पत्रिका से उद्धृत* *वासनाओं क...
24/09/2025

ऊँ योगीश्वर प्रभु रामलाल प्रभवे नमः
ऊँ योगेश्वर प्रभु चन्द्रमोहन प्रभवे नमः

*सिद्धयोग मासिक पत्रिका से उद्धृत*

*वासनाओं का केन्द्रीयकरण*

वासना भी एक शक्ति है, ताकत है ।। यह आत्माकी स्वाभाविक शक्ति नहीं, वैभाविक शक्ति है। फिर भी शक्ति होने के कारण उसमें हित और अहित के दोनों पक्ष विद्यमान हैं। वह जीवन के लिये उपयोगी भी हो सकती है और विनाशकारी भी। उससे जीवन का लाभभी हो सकता है और हानि भी। वह मनुष्य के जीवन को बना भी सकती है और बिगाड़ भी। उसमें जीवन आबाद करने का भी गुण है और वर्वाद करने का भी।

वासना आध्यात्मिक नहीं, भौतिक शक्ति है। उसका नियंत्रण मनुष्य के हाथ में है। यदि मनुष्य उसे अपने नियंत्रण से बाहर नहीं • जाने देता है, तो वह इन्सान का, आत्मा का कुछ भी बिगाड़ नहीं कर सकती। आँखों का काम देखना है और अन्य इन्द्रियों के भी अपने काम हैं और वे सब अपने काम करती हैं। ब्रह्मचारी की इन्द्रियाँ देखने सुनने, सूंघने चखने आदि के काम तो करती ही हैं, परन्तु वे उसके नियंत्रण से बाहर नहीं है, इसलिये वासना की आग उसका जरा भी बाल-बाँका नहीं कर सकती। परन्तु जब मनुष्यका वासना
पर से नियंत्रण हट जाता है, वह बिना किसी रोक-टोक के मन और इन्द्रियों को खुला छोड़ देता है, तो वे अनियंत्रित एव उच्छृङ्खल वासनाएँ आत्मा को तबाह कर देती हैं, पतन के महागर्त में गिरा देती हैं।

वस्तुतः शक्ति शक्ति ही है। विकास से विनाश की ओर मुड़ते उसे देर नहीं लगती। इसलिए यह अनुद्यासक (Controller) के हाथ में है कि वह उसका विवेक के साथ उपयोग करे। वह उस शक्तिको नियंत्रण से बाहर न होने दे। आवश्यकता पड़ने पर उसका उपयोग भी करता रहे, परन्तु विवेक के साथ । उसका काम एक कुशल इन्जीनियर (Expert engineer) का काम है। उसे अपने काम में सदा सावधान रहना पड़ता है और समय एवं परिस्थितियों का भी ध्यान रखना पड़ता है।

मान लो. एक इन्जीनियर पानी के प्रवाह को रोक कर उसकी ताकत का मानव जाति के हित में उपयोग करना चाहता है। इसके लिए वह तीनों ओर से मजबूत पहाड़ियों से आवृत्त स्थल को एक ओर दोवार बनाकर बाँध (Dam) का रूप देता है। वह उसमें कई द्वार भी बनाता है, जिनके द्वारा अनाव-श्यक पानी को निकाल कर बाँध की सुरक्षा की जा सके । उस बाँध में जितने पानी को रखने की क्षमता है, उतने पानो के भरने तक उसे कोई खतरा नहीं होता' परन्तु जब उसमें उसकी क्षमता से अधिक पानी भर जाता है, उस समय भी यदि इन्जिनियर उसके द्वार को खोलकर फालतू पानी को बाहर नहीं निका-लता है, तो वह पानी का प्रबल स्रोत उस दीवार को तोड़ देता है और उस बाँध को तोड़कर बहने वाला उच्छङ्खल प्रवाह मानव-जाति के लिए विनाशकारी प्रलय का दृश्य उपस्थित कर देता है । अतः कोई भी कुशल इन्जिनियर इतनी बडी भूल नहीं करता कि जो देश के लिये खतरा पैदा करदे ।

क्रमशः

*योगेश्वर सद्गुरु चरणकमलेभ्यो नमः*

562.2*ॐ प्रभु रामलाल परब्रह्मणे नमः* *ॐ  प्रभु  चन्द्रमोहन मम सद्गुरवे नमः*   *सिद्धयोग मासिक पत्रिका से उद्धृत*        ...
24/09/2025

562.2

*ॐ प्रभु रामलाल परब्रह्मणे नमः*
*ॐ प्रभु चन्द्रमोहन मम सद्गुरवे नमः*

*सिद्धयोग मासिक पत्रिका से उद्धृत*

*शाश्वत शान्ति का मार्ग*

गतांक से आगे.....

अब यह जिज्ञासा स्वयं होती है कि क्या ऐसी स्थिर-शक्ति सर्व साधारण को प्राप्त हो सकती है? अथवा यह कुछ इने-गिने भाग्यशाली जीवों की ही बपोती है ? कारण, प्रायः संसार में अशान्ति का साम्राज्य है। जीवमात्र में स्पर्धा, द्वेष, डाह, ईर्ष्या आदि दुर्गुण पाये जाते हैं। धनी निर्धन, साधु, असाधु, रोगी, निरोग, मूर्ख, विद्वान् सभी में एक प्रकार की वासना-चाह-तृष्णा विद्यमान है, जिसके कारण "कुतः साद्वलतातस्य यस्याग्निः कोटरेतरोः" की उक्ति के अनुसार स्थिर शान्ति रूप हरियाली प्रायः देखने में नहीं आती। इसके उत्तर में यही कहा जा सकता है कि -
*मनुष्याणां सहस्रषु, कश्चिद्यतति सिद्धये ।*
*यततामपि सिद्धानां, कश्चिन्मां वेत्ति तत्वतः ॥*

इस परम शान्ति की प्राप्ति रूप सिद्धि के लिए हजारों पुरुषों में कोई ही प्रयत्न करता है और प्रयत्न करने वालों में भी कोई ही उस परम शान्ति के आश्रम-धाम भगवान् को प्राप्त कर पाता है। कारण प्रयत्न की विषमता एवं विफलता ही देखी जाती है। हजारों विद्यार्थियों में कोई एक ही सर्व प्रथम पदवी का अधिकारी होता है। शाश्वत सुख अभिलाषी जनों में भी विरले ही कोई उसको पाते हैं। हां, यह प्राप्य सबको हो सकता है। शास्त्र व विश्व के इतिहास को देखने से यही निश्चत होता है कि सच्ची लगन से दृढ़ता के साथ अनवरत प्रयत्न द्वारा जो भी चाहे अपने अभीष्ट को प्राप्त कर सकता है। सर्व प्रथम आदि कवि वाल्मीकि का उदाहरण विद्यमान है। डाकू लुटेरे का पेशा करने वाला व्यक्ति जो नित्य अनेकों की शान्ति को सर्वथा भंग करता था, उसे स्वयं स्थायी शान्ति कैसे प्राप्त हो सकती थी ? परन्तु भगवान् की माया बड़ी बलवती है। वही व्यक्ति उस पेशे को त्याग कर शान्ति की खोज में अपना जीवन समर्पण करके अन्त में असीम शान्ति का भागी बन गया और संसार में एक आदर्श छोड़ गया कि जो कोई भी मानव चाहे वह कितना ही पापी हो, सच्ची लगन से आत्म- शुद्धि करके अपना महत्त्व समझना चाहेगा तो निश्चय ही उसको पा लेगा। उसका बनाया हुआ महाकाव्य विश्व साहित्य का आदि स्रोत हुआ । उपनिषद् में लिखा है- जिसने इस रहस्य को जाना और अनुभव किया वही परम शान्ति का भागी बन गया; तथा जो और कोई भी ऐसा करेगा, वह भी उसको पाकर कृत-कृत्य हो जायेगा- इसमें सन्देह नहीं है।
उक्त कथन से यह सिद्ध हो गया कि जो कोई भी सत्य की खोज करने का निश्चय करेगा वहीं उसे पा सकेगा ।
वर्तमान काल में सर्व देशीय मनुष्य की गतिविधि को विचारने से स्थायी शान्ति की प्राप्ति एक स्वप्न के समान प्रतीत होती है।कारण जिन देशों के प्रकृति पर आधिपत्य जमाकर नाना प्रकार के आविष्कारों द्वारा मानव जगत् को विक्षुब्ध कर दिया। घोर युद्धों द्वारा भीषण संहार, परमाणु बम सदृश सर्व संहारक आविष्कारों द्वारा उथल-पुथल, आदि घटनाओं से तो शान्ति केवल शब्द मात्र, एक सीमाबद्ध सी ही शेष रह गई हो, ऐसा प्रतीत होता है। ऐसी दशा में विदेशों में होने वाले शान्ति सम्मेलनों की ओर मनुष्य समाज टकटकी लगाकर अपने भविष्य की विजय में सन्देह भरी निराशामयी दृष्टि से देख रहा है। ऐसा होने पर आधुनिक समीक्षाओं के दृष्टिकोण से तो शाश्वत शान्ति का होना असम्भव तथा केवल कुछ व्यक्तियों के सीमित आशावाद का विषयमात्र है। यद्यपि यह सब कुछ ठीक है और समष्टि गत तथ्य है, तथापि यह आवश्यक नहीं है कि विश्व के क्षुब्ध होने पर सभी प्राणी क्षुब्ध हों। समुद्र के विक्षुब्ध होने भी वहां की चट्टानें ज्यों की त्यों अटल शान्त बनी रहती हैं। भयंकर आंधी-तूफानों में भी पत्थर के टुकड़े निश्चल पड़े रहते हैं। इसी प्रकार भय के होने पर भी कई जीव निर्भय रहते हैं। अशान्ति के दौर में उनकी शान्ति भंग नहीं होती । वे ही यथार्थ में स्थायी शान्ति के सर्वेसर्वा होते हैं। ऐसी ही शान्ति के लिये सर्व साधारण को प्रयत्नशील होना है तथा अपना जीवन सफल करना है, इसको पाने की खोज करना यही जीवन की सार्थकता है। "ततः पद तत्परिमार्गितव्यम्” इस सत्युक्ति का यही लक्ष्य है। इस पद को ढूंढ निकालने में ही जीवन की सार्थकता है।
भारतवर्ष के महान् आचार्यों ने यही पद प्राप्त किया है और उसी की प्राप्ति जीवन का मुख्य उद्दे‌श्य बनाया है। यह आध्यात्मिक तत्व है, जिसका श्रद्धालु कर्मठ वीरों ने साक्षात् किया है तथा अब भी कर रहे हैं। इसी मार्ग पर स्वयं चलकर महान् पुरुष संसार को मार्ग दिखा रहे हैं। ऐसे विजयी, विशुद्ध जीवन को प्राप्त करके उस परम एवं चरम शान्ति को प्राप्त करना हमारा मुख्य कर्त्तव्य है यह मार्ग श्रद्धा भक्ति पूर्वक, अनन्यता से तत्पर होकर प्राप्त किया जाता है । माता गायत्री के पावन जाप से सकल ताप नष्ट होकर आनन्द स्वरूप स्व का ज्ञान होगा, फिर विस्मृति न होने देने के लिए परम सावधान रह कर "ओं द्योः शान्तिः" आदि भावना से नित्य नियम पूर्वक प्रार्थना करने से शाश्वत शान्ति का निश्चय ही साम्राज्य होगा ।


*।।इति।।*

योगीश्वर पादकमलेभ्यो नमः

ऊँ योगीश्वर प्रभु रामलाल प्रभवे नमःऊँ योगेश्वर प्रभु चन्द्रमोहन प्रभवे नमः *सिद्धयोग मासिक पत्रिका से उद्धृत* *दैवी और आ...
23/09/2025

ऊँ योगीश्वर प्रभु रामलाल प्रभवे नमः
ऊँ योगेश्वर प्रभु चन्द्रमोहन प्रभवे नमः

*सिद्धयोग मासिक पत्रिका से उद्धृत*

*दैवी और आसुरी विधा*

संसार में हम दो प्रकार के मनुष्य दीखते हैं- एक तो आसुरी प्रकृति वाले, जिनकी दृष्टि में शरीर का पालन-पोषण ही सर्वस्व है, और दूसरे दैवी प्रकृति वाले, जिनकी यह धारणा रहती है कि शरीर किसी एक विशेष उद्देश्य की पूर्ति का- आत्मोन्नति का एक साधन मात्र है । शैतान भी अपनी कार्यसिद्धि के लिए शास्त्रोंको उद्यत कर सकता है और कहता भी है और इस तरह ऐसा प्रतीत होता है कि ज्ञानमार्ग जिस प्रकार साधु व्यक्तियों के सत्कार्य का प्रबल प्रेरक है, उसी प्रकार असाधु व्यक्तियों के भी कार्य का समर्थक है। ज्ञानयोग में यही एक बड़े खतरे की बात है। परन्तु भक्तियोग बिल्कुल स्वाभाविक और मधुर है। भक्त उतनी ऊँची उड़ान नहीं उड़ता, जितना कि एक ज्ञानयोगी और इसीलिए उसके बड़े खड्‌डों में गिरने की आशङ्का नहीं रहती। पर हाँ, इतना समझ लेना होगा कि साधक किसी भी पथ पर क्यों न चले, जब तक आत्मा के सारे बन्धन छूट नहीं जाते, तब तक वह मुक्त नहीं हो सकता ।

- स्वामी विवेकानन्द
*योगेश्वर सद्गुरु चरणकमलेभ्यो नमः*

https://youtu.be/KOHZ77mSRJ4
24/04/2025

https://youtu.be/KOHZ77mSRJ4

नाटक:- भक्त बालेंदु पर श्री प्रभुजी की कृपा | रामलाल धाम झाँसीभक्त बालेंदु पर श्री प्रभुजी की कृपा | एक लघु नाटिका - र.....

13/04/2025


MahaprabhuRamlal Siddhyog MartandpeethJhansi

06/04/2025

हिमालय के अनादि सिद्ध योगीश्वर सिद्धयोग मार्तण्ड आदिगुरु महाप्रभु रामलाल भगवान के दिव्य प्राकट्य पर्व की परम पावनी बेला दिनाँक 06-04-2025, दिन रविवार को दिव्य अभिषेक - पूजन आरती, गुरु गीता पाठ एवं प्रवचन के साथ प्रारंभ हुई |

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