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23/07/2025

“बेटी को स्वतंत्र बनाने के प्रयास में, उसे स्त्री बनाना ही भूल गए…”

मैं एक ज्योतिषाचार्या हूँ। प्रतिदिन मेरे पास अनेक माता-पिता अपनी संतानों की समस्याएँ लेकर आते हैं — विशेषकर अपनी बेटियों के विवाह को लेकर।

“मैडम, हमारी बेटी 30 वर्ष की हो गई है, लेकिन अभी तक शादी के लिए तैयार नहीं है।”
“हम जो भी कहते हैं, उसकी ज़िंदगी में हमारी कोई बात मायने ही नहीं रखती।”
“अब तो लगता है जैसे वो हमारी बेटी रही ही नहीं…”

और दुर्भाग्यवश, ऐसे मामलों की संख्या दिन-ब-दिन बढ़ती जा रही है।

जब मैंने इन समस्याओं को गहराई से समझने का प्रयास किया,
तो मेरे अनुभव और अंतर्मन ने जो उत्तर दिए —
उन्हें आज मैं आप सभी के साथ साझा करना चाहती हूँ।

माता-पिता की यह आम शिकायत होती है कि:
“हमारी संतानें हमारी नहीं सुनतीं, उनके जीवन में हम जैसे महत्वहीन हो गए हैं…”

पर क्या इसमें केवल बच्चों की गलती है?

नहीं।

जिस उम्र में उसके मन में ममता, सहनशीलता और त्याग के बीज बोने थे…
हमने वहाँ केवल महत्वाकांक्षा का जंगल उगा दिया…”

मूल गलती वहाँ हुई,
जब आपने अपनी बेटी को सिर्फ़ आत्मनिर्भर बनाने का लक्ष्य रखा,
पर उसे “एक स्त्री” बनाना ही भूल गए।

मैं यह नहीं कह रही कि शिक्षा देना या स्वतंत्र बनाना ग़लत है।
पर यह मान लेना कि जीवन में केवल नौकरी, पदोन्नति और आत्मनिर्भरता ही सब कुछ है —
यह सोच स्वयं एक बड़ी भूल बन जाती है।

आज समाज में हम क्या देख रहे हैं?

🔹 विवाह में अनावश्यक देरी
🔹 लड़कियों द्वारा विवाह के लिए अत्यधिक और अव्यवहारिक शर्तें
🔹 विवाहित जीवन में असंतुलन और अलगाव
🔹 और यहाँ तक कि एक्स्ट्रा मैरिटल अफेयर

“जब माँ-बाप ने उसे सिर्फ़ उड़ना सिखाया…
तो उसने लौटकर आना ही नहीं सीखा…”

बचपन से ही बेटियों को सिखाया गया:
“पहले पढ़ाई पूरी करो”
“अब इतना पढ़ लिया है, तो नौकरी भी करनी ही होगी”
“इतना खर्च और समय लगाया है, तो कुछ बनकर दिखाना भी ज़रूरी है”

जब नौकरी मिल गई तो कहा:
“अब करियर की ग्रोथ ज़रूरी है, प्रमोशन आने वाला है — अभी शादी नहीं करूंगी”
“शादी तभी करूंगी जब लड़का मेरे शहर में काम करता हो”
“मैं क्यूँ अपनी नौकरी छोड़ूँ? वो छोड़े”
“मैं किसी के लिए एडजस्ट नहीं करूंगी”

इस बीच — उम्र बढ़ती गई…
माँ-बाप की भी… बेटी की भी…
और साथ ही बढ़ता गया तनाव…

लेकिन अब बेटियों को कोई अंतर ही नहीं पड़ता।
माता-पिता कहते हैं:
“हमारी बेटी अब हमारी रही ही नहीं। उसके अंदर हमारे लिए कोई भावना, कोई संवेदना ही नहीं बची है…”

पर सोचिए, ऐसा हुआ क्यूँ?

क्योंकि जब उसके मन और चरित्र में “नारी के संस्कार” रोपित करने का समय था —
तब हमने उसके दिमाग़ में एक ही बात बैठा दि की
“तुम्हें अपनी ज़िंदगी खुद बनानी है, तुम्हें किसी पर निर्भर नहीं रहना है…”

और इसी प्रक्रिया में उसके भीतर से:

🔸 स्त्रियोचित कोमलता
🔸 संवेदनशीलता
🔸 त्याग और समर्पण
🔸 परिवार के लिए अपनापन

ये सब धीरे-धीरे मिटते चले गए…

और आज वही बेटी इतनी “स्वतंत्र” हो गई है कि
ना उसे माता-पिता की ज़रूरत है
ना जीवनसाथी की।

बेटी को मज़बूत बनाया, लेकिन मुलायम दिल छीन लिया…
अब वो जीवन के फैसले लेती है — पर दिल से नहीं, दिमाग से।”

मेरी यह बात न तो बेटियों की शिक्षा के विरोध में है, न ही किसी की भावना को ठेस पहुँचाने के लिए।

मैं बस इतना कहना चाहती हूँ:

“स्वतंत्रता आवश्यक है — पर स्त्रीत्व की पहचान उससे भी अधिक आवश्यक है।”
“बेटी को पढ़ाओ, बढ़ाओ — पर साथ ही उसे ‘नारी’ बनाओ, उसके भीतर संस्कार और संवेदना का दीप भी प्रज्वलित करो।”

वरना एक दिन वही बेटी,
ना आपकी रहेगी,
ना खुद ki

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