04/09/2022
आध्यात्मिकता के लक्षण -
𝐒𝐢𝐠𝐧𝐬 𝐨𝐟 𝐒𝐩𝐢𝐫𝐢𝐭𝐮𝐚𝐥𝐢𝐭𝐲
आध्यात्मिकता कोई पूजा-पद्धति नहीं, बल्कि एक विलक्षण अनुभव है।
मनुष्य जन्म से नहीं बल्कि अपने कर्मो से शूद्र और ब्राम्हण होता है,
कोई भी पुरुष अपने कर्मों से महान बनता है न कि जन्म से।
ब्राह्मण वह है जिसने ब्रह्म को जाना। जिसने जीवन के परम सत्य को जाना, वह ब्राह्मण है। पैदा सभी शुद्र होते है। फिर कोई ध्यान की प्रक्रिया से समाधि तक पहुँच कर, मन के पार होकर ब्राह्मण हो जाता है। ब्राम्हण होना उपलब्धि है। जन्म से कोई ब्राह्मण नहीं होता है।
हम में से हर कोई ईश्वर की बात करता है। आप ईश्वर के समर्थक हों या विरोधी उसकी चर्चा जरूर करेंगे। ईश्वर एक ऐसा नायक है, जो दिखता तो नहीं है, लेकिन सबसे ज्यादा महिमामंडित है- 'which cannot be seen with the eyes but can be felt'
जो लोग ईश्वर में विश्वास करते हैं, उन्हें आस्तिक कहा जाता है और जो विश्वास नहीं करते, नास्तिक कहलाते हैं। आस्तिक और नास्तिक लोगों में बदलाव होता रहता है। जो कल तक आस्तिक थे, वे अचानक नास्तिक में बदल जाते हैं और जो कल तक नास्तिक थे वे अचानक ईश्वर की महिमा गाने लगते हैं। इस नौटंकी को देखकर ईश्वर जरूर हंसता होगा।
आस्तिकता और नास्तिकता पारस्परिक विनिमय का मामला है। इन्हीं अर्थो में मैं नास्तिकता को एक लेबल मानता हूं। आज कोई नास्तिकता के लेबल में अपना कॉलर ऊंचा करके घूम रहा होता है। कल वही शख्स अचानक इतना आस्थावान बन जाता है। यही लेबल है। लेबल बदल गया तो आस्था बदल गई।
दुनिया भर के लोग ईश्वर को कैसे लेते होंगे? ईश्वर को आमतौर पर दो तरीके से स्वीकार किया जाता है- पहला ईश्वर को मानना और दूसरा ईश्वर को जानना। मानना का अर्थ है- हमने कभी ईश्वर को देखा तो नहीं है, लेकिन सुना है कि उसका अस्तित्व है और हम इसी से कन्विंस होकर ईश्वर के अस्तित्व को स्वीकार कर लेते हैं। चलो लोग कहते हैं कि ईश्वर है तो मान लेते हैं। हमारे धरती पर पैदा होने के कुछ समय बाद ही मानने की यह प्रक्रिया शुरू हो जाती है। इस अर्थ में देखें तो मानना बिना अनुभव की स्वीकार्यता है- एक्सेप्टेंस। हम सारे लोग इतने सरल हैं कि किसी के मुंह से सुनते हैं तो मान ही लेते हैं कि ईश्वर होगा। अब उसकी तलाश करने के पचडे में कौन पडे। फिर हम अपनी प्रार्थनाएं, अपनी संवेदनाएं, अपने दुख, अपनी मुसीबतें ईश्वर के साथ साझा करने लगते हैं। दुनिया में ईश्वर को मानने वालों की संख्या भी लगभग सौ प्रतिशत है।
ईश्वर को स्वीकार करने का दूसरा तरीका है उसको सचमुच जानना - realization। हममें से कुछ ही लोग ईश्वर का बोध कर पाते हैं या शायद ईश्वर जैसी किसी शक्ति का बोध कर लेते हैं। या फिर कुछ ऐसे स्टेट्स का बोध करते हैं, जिनके लिए कैवल्य, निर्वाण या मोक्ष जैसे शब्द इस्तेमाल होते हैं। जब कोई ईश्वर की शक्ति का बोध करता है, तो वह बुद्ध कहलाता होगा। यह जानना जो है, मानने से अलग घटना है। जब दुनिया भर में ईश्वर को मानने वाले सौ प्रतिशत हैं तो स्वाभाविक है कि जानने वालों की संख्या न के बराबर होगी।
जो ईश्वर को जान जाता है, वह प्रबुद्ध हो जाता है और जो जानने की कोशिश करता है वह आध्यात्मिक हो जाता है। जब हम धार्मिक होते हैं तो केवल ईश्वर को मानते हैं, लेकिन आध्यात्मिक होते ही हम ईश्वर को जानने की कोशिश करने लगते हैं। यही कारण है कि धर्म में अनुयायी होते हैं, लेकिन अध्यात्म में साधक होते हैं। धार्मिकता की शुरुआत पैदा होते ही हो जाती है, जबकि आध्यात्मिक हमें बनना पडता है।