09/04/2024
ग़ज़ल..
कभी कभी तो मेरा ध्यान भी नहीं होता,
बुराई सुनना यूँ.. आसान भी नहीं होता...
परेशाँ होता था तो दोस्तों से मिलता था,
पर अब कभी मैं परेशान भी नहीं होता...
मुझे ज़कात-ए-मोहब्बत न देके ठीक किया,
कि मुझसे इश्क़ यूँ परवान भी नहीं होता...
मेरी तो साँस अटक जाए तर्क-ए-सोहबत से,
अजब है शख़्स वो, हलकान भी नहीं होता...
चला ही जाता कहीं दूर आपसे इक रोज़,
अगरचे आपका फ़रमान भी नहीं होता...
किसी को बे-वफ़ा क्योंकर कहें मोहब्बत में,
वफ़ा परखने का मीज़ान भी नहीं होता...
नतीजे इश्क़ के आ सकते हैं ख़राब ऐसे,
मुझ ऐसे लोगों को इम्कान भी नहीं होता...
इसीलिए तो मैं आमादा हूँ सफ़र के लिए,
कि मेरे कंधों पे सामान भी नहीं होता...
शहीद होने को सरहद पे ग़ैर ही अच्छा,
जिगर का ख़ून तो क़ुर्बान भी नहीं होता...
बदलते वक़्त ने आईन भी बदल डाले,
कि अब तो जंग का ऐलान भी नहीं होता...
ज़कात-ए-मोहब्बत: मोहब्बत की ख़ैरात
तर्क-ए-सोहबत: संबंध टूटना, Break-up.
हलकान: परेशान, विचलित।
मीज़ान: तोलने का पैमाना, Scale.
इम्कान: अंदाज़ा, Possibility.
आमादा: हमेशा तत्पर, तैयार, Eveready.
आईन: रिवाज़, क़ानून, नियम, Constitution. Law.
डॉ के.बी. 'साग़र'
10-04-2024.