14/04/2024
*आजीविका के लिए बहुत अपमान सहना पड़ता है।।*
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*महाभारत के, आदिपर्व के,118 वें अध्याय के,22 वें श्लोक में, मृग ऋषि से शापित होने के पश्चात, महाराज पाण्डु को, अति वैराग्य हो गया, और अपनी दोनों पत्नियों,कुन्ती और माद्री से कहने लगे कि -*
*सत्कृतोsसत्कृतो वापि योsन्यं कृपणचक्षुषा।*
*उपैति वृत्तिं कामात्मा,स शुनां वर्तते पथि ।।*
महाराज पाण्डु ने,ऋषि के शाप को,अपना प्रारब्ध कर्म का फल मानकर स्वीकार कर लिया। कुन्ती और माद्री से कहने लगे कि -
ऋषिवर ने शाप दिया है कि - मैं जब भी ,किसी स्त्री के साथ संयोग करूंगा तो,मेरे शरीर का अंत हो जाएगा।इस शाप के कारण,मेरा तो गृहस्थ जीवन ही पूर्ण हो गया। मेरा शारीरिक उपयोग ही समाप्त हो गया।
अब मैं, हस्तिनापुर जाकर भी क्या करूंगा? इसी वनप्रदेश में, वृक्षों से,भिक्षा मांगकर स्वत: सिद्ध ब्रह्मचर्य का पालन करते हुए अपना जीवन, तपस्या में व्यतीत कर दूंगा।
जब कभी ये वृक्ष भी भिक्षा देने योग्य नहीं होंगे, अर्थात फल देने की ऋतु नहीं होगी तो,ग्राम नगर में जाकर, पांच सात गृहस्थ घरों में जाकर भिक्षाटन कर लूंगा।
*तपोमय जीवन व्यतीत करते हुए,आनन्द से वनवास करूंगा। अब तो, एकमात्र अपने शरीर की ही रक्षा करना शेष है।*
विविध प्रकार के राजगृह के भोगों से स्वत:ही निवृत्ति हो गई।
जब मैं राजकार्य को देख रहा था तो,अनेक प्रकार की चिन्ताएं रहतीं थीं। अब मैं चिंतामुक्त हो गया।
एक इन्द्रिय के कारण ही संसार में आसक्ति होती है। एकमात्र भोग इन्द्रिय के कारण ही,प्रपंच की वृद्धि होती है। सभी दुखों का मूल कारण तो कामना ही है। यदि प्रजनन इन्द्रिय का अवरोध हो जाए तो, बौद्धिक, मानसिक, तथा शारीरिक, तीनों प्रकार से ही संसार का नाश हो जाता है।
*इस शरीर में,जिह्वा और प्रजनन इन्द्रिय,ये दो इन्द्रियां ही तो, संसार की उत्पत्ति का,तथा संचालन और व्यवहार का कारण हैं।*
यदि जिह्वा का स्वाद तथा जननेन्द्रिय का स्वाद, दोनों ही समाप्त हो जाएं तो, सांसारिक व्यवहार ही समाप्त हो जाता है। मेरा तो सम्पूर्ण सांसारिक व्यवहार पूर्ण हो गया। अब मैं हस्तिनापुर जाकर भी क्या करूंगा? अब तो वन में निवास करना ही श्रेयस्कर है।
इस संसार में, आजीविका ही, और ये इन्द्रियां ही,सभी दुखों का कारण हैं। इन्द्रियों के कारण ही तो,एक ऋषि के वध का पाप हुआ है। वधरूप अपराध पाप के कारण ही मुझे शाप प्राप्त हुआ है। ये शाप ही, मेरे वैराग्य और आत्मविचार का साधन है।
बिना दुखों के, वैराग्य नहीं होता है। बिना दुखों के संसार और मोह का त्याग नहीं होता है। मेरे प्रारब्ध में इतना ही सुख प्राप्त होना था,सो वो प्राप्त हो चुका। अब सुख ही मेरी मृत्यु का कारण बनेगा।
*संसार में,दुख ही मृत्यु का कारण बनते देखा जाता है, किन्तु स्त्रीसुख ही मेरी मृत्यु का कारण,बनेगा। अद्भुत है। आश्चर्य है।*
महाराज पाण्डु ने कहा कि - हे कुन्ति!
*सत्कृतोsसत्कृतो योsन्यं कृपणचक्षुषा।*
जब कोई कृपणचक्षु अर्थात भोगमय दृष्टिवाले स्त्री पुरुष, मात्र भोग और भोजन में ही अपनी बुद्धि को लगा देते हैं,मन में, एकमात्र भोग्य पदार्थों को भोगने की कामना वासना होती है तो वह,किसी धनवान के समीप जाकर, कार्य की याचना करता है।
*जब तक किसी के कार्य को नहीं करते हैं,तबतक धन भी प्राप्त नहीं होता है। धन की प्राप्ति होती है,तभी तो,भोजन और भोग्य सामग्री भी प्राप्त होती है।*
बस,इस शरीर की पूर्ति करने के लिए,जैसे ही किसी की सेवा करने के लिए याचना करते हैं, और याचना के अनुसार कार्य मिल जाता है तो, सम्मान भी मिलता है, और सम्मान से अधिक तो अपमान ही मिलता है।
सत्कार प्राप्त हो,या असत्कार प्राप्त हो, किन्तु आजीविका और भोगकामना की पूर्ति के लिए, अपमान सहन करना ही पड़ता है।
*बिना अपमान के, आजीविका ही नहीं चलती है। बिना अपमान के,धन ही प्राप्त नहीं होता है। जो धन देता है,वह कार्य तो करवाता ही है,साथ साथ, प्रतिदिन अपमानित भी करता है।*
*इस शरीर की पूर्ति के लिए, जहां से भी,जिस प्रकार से भी,जिस विधि से भी,धन आता है,वह धन,बिना अपमान के तो नहीं ही आता है। अपमान सहित ही धन की प्राप्ति होती है।*
*उपैति वृत्तिं कामात्मा।*
जिस स्त्री पुरुष के हृदय में, बुद्धि में और मन में, कामनाओं की पूर्ति का संकल्प होता है,उसे कामात्मा शब्द से कहा जाता है। जो कामात्मा होते हैं,वे ही तो दूसरों की सेवा करते हैं,नौकरी चाकरी तथा व्यापार करते हैं।
कामनाएं ही, अपमान प्राप्ति की कारण हैं। *जिसके हृदय में किसी भी प्रकार की भोग कामना नहीं होती है,उसको अपमानित करनेवाला कोई भी नहीं होता है।*
*स शुनां वर्तते पथि।*
*आजीविका चलाने वाले स्त्री पुरुषों की स्थिति तो, मार्ग में स्थित कुत्ते के समान ही होती है। जो भी आता है,दुत्कारता चला जाता है।*
कामात्मा स्त्री पुरुषों की सांसारिक, व्यावहारिक स्थिति तो श्वान अर्थात कुत्तों जैसी ही होती है। पुनः पुनः अनेकों बार अपमानित होने पर भी,जैसे कुत्ते,अपने स्वामी के पीछे-पीछे चलते हैं, इसी प्रकार शारीरिक सुख की आशा करनेवाले स्त्री पुरुष,धन भोग और भोजन की कामना की पूर्ति के लिए,धनदाता के अपमानित करने पर, निर्लज्जता से, उनके पीछे-पीछे चलते हुए,उनको ही नमस्कार करते हैं,तभी उनको धन की प्राप्ति होती है।
जो स्त्री पुरुष, अपमान सहन नहीं कर पाते हैं,उनको धन की प्राप्ति भी नहीं होती है,यही सिद्धान्त है। धन और अपमान, दोनों ही एकसाथ रहते हैं। आजीवन सम्मान सहित धन की प्राप्ति ही नहीं होती है।
*महाराज पाण्डु ने कहा कि - हे कुन्ती! हे माद्री! मैंने अपने बल और पौरुष से,अभी तक जो सम्मान प्राप्त किया था,अब शापित होने के पश्चात,सभी के अपमान का पात्र हो गया हूं। पत्नी को पुत्र सुख नहीं दे सकता हूं, और जनता को राज्य सुख भी नहीं दे सकता हूं। अब मैं,इस भोग विवर्जित शरीर के लिए, अपमानित होने का अवसर ही क्यों आने दूंगा! अर्थात अब तो मैं,अपने जीवन को तपोमय जीवन बनाकर* *आत्मकल्याण का साधन ही करूंगा।*
*जिन स्त्री पुरुषों के हृदय में,दुख प्राप्त होने पर भी, आत्मकल्याण का विचार आता है,वे ही इस संसार में,सभी स्त्री पुरुषों में उत्तम स्त्री पुरुष हैं। संसार का सुख सौभाग्य छूटने पर ही कल्याण का मार्ग प्रशस्त होता है।*
*आचार्य ब्रजपाल शुक्ल वृंदावनधाम। 11-4- 2024*