24/08/2023
'*' जप कृत्य होता है। चेष्टा करनी पड़ती है, स्मरण रखना पड़ता है, तो होता है।
फिर धीरे-धीरे जब भीतर के तार मिल जाते हैं, तो साधक को जप करना नहीं पड़ता। नानक ने उस अवस्था का अजपा-जाप कहा है। फिर जाप अपने से होता है। साधक तब साक्षी हो जाता है--सिर्फ देखता है। मस्त होता है, डोलता है। बीन अब खुद नहीं बजाता है। बीन अब बजती है। इसलिए उस नाद को अनाहत-नाद कहा है। अपने से होता है। न कोई वीणा है वहां, न कोई मृदंग है वहां, न कोई बजाने वाला है वहां, लेकिन नाद है। अपरंपार नाद है। जिसका पारावर नहीं--ऐसा नाद है।
समझोः सदियों की खोज से यह अनुभव में आया है कि वह नाद कुछ-कुछ ऐसा होता है, जैसा--ओम्। लेकिन यह तो हमारी व्याख्या है कि ऐसा होता है। यह ऐसे ही है, जैसे कोई सूरज को उगते देखे, और कागज पर एक तस्वीर बना ले। सूरज उग रहा है कागज पर, और लाकर कागज तुम्हें दे दे और कहे कि सुबह बड़ी सुंदर थी और मैंने सोचा कि तस्वीर बना दंू, ताकि तुम्हें भी समझ में आ जाए--कैसी थी।
वह जो कागज पर तस्वीर है, उसमें न तो सूरज की गरमी है; न सूरज की किरणें हैं; न सूरज का सौंदर्य है। प्रतीकमात्र है। या ऐसे समझो कि जैसे तुम्हें कोई हिमालय का नक्शा दे दे। उसमें न तो हिमालय की शांति है, न हिमालय का सन्नाटा है, न हिमालय के उत्तुंग शिखर हैं, न उत्तुंग शिखरों पर जमी हुई कुंवारी बरफ है। कुछ भी नहीं है। नक्शा है। लेकिन नक्शा प्रतीक है।
ऐसे ही ओम प्रतीकमात्र है। कागज पर बनाया गया नक्शा है, उस अजपा-जाप का, जो भीतर कभी प्रगट होता है। वह ध्वनि जो भीतर अपने आप फूटती है। जिसको कबीर ‘शब्द’ कहते हैं।
तुम जब शुरू करोगे, तब तो तुम ओम्, ओम्, ओम् के जाप से शुरू करोगे। यह जाप तुम्हारा होगा। इस जाप को अगर करते गए और गहरा होता गया यह जाप...। गहरे का मतलब हैः पहले होंठ से होगा; फिर वाणी में होगा, लेेकिन होंठ पर नहीं आएगा; कंठ में ही रहेगा; मन में ही गूंजेगा। फिर घड़ी आएगी, जब मन में भी नहीं गूंजेगा, कंठ में भी नहीं होगा। तुम अपने भीतर ही उसे किसी गहन तल से उठता हुआ पाओगे।
तो एक तो जाप था, जो तुमने किया और एक जाप है, जिसे एक दिन तुम साक्षी की तरह देखोगे।....'*ॐ जय गुरुदेव🙏