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अजूबा ही नहीं, एक तिलिस्म है मानवी शरीर ........................अपनी अंगुलियों से नापने पर 96 अंगुल लम्बे इस मनुष्य−शरीर...
04/04/2022

अजूबा ही नहीं, एक तिलिस्म है मानवी शरीर ........................

अपनी अंगुलियों से नापने पर 96 अंगुल लम्बे इस मनुष्य−शरीर में जो कुछ है, वह एक बढ़कर एक आश्चर्यजनक एवं रहस्यमय है।

हमारी शरीर यात्रा जिस रथ पर सवार होकर चल रही है उसके प्रत्येक अंग-अवयव या कलपुर्जे कितनी विशिष्टतायें अपने अन्दर धारण किये हुए है, इस पर हमने कभी विचार ही नहीं किया। यद्यपि हम बाहर की छोटी-मोटी चीजों को देखकर चकित हो जाते हैं और उनका बढ़ा-चढ़ा मूल्याँकन करते हैं, पर अपनी ओर, अपने छोटे-छोटे कलपुर्जों की महत्ता की ओर कभी ध्यान तक नहीं देते। यदि उस ओर भी कभी दृष्टिपात किया होता तो पता चलता कि अपने छोटे से छोटे अंग अवयव कितनी जादू जैसी विशेषता और क्रियाशीलता अपने में धारण किये हुए हैं। उन्हीं के सहयोग से हम अपना सुरदुर्लभ मनुष्य जीवन जी रहे हैं।

विशिष्टता हमारी काया के रोम-रोम में संव्याप्त है। आत्मिक गरिमा तथा शरीर की सूक्ष्म एवं कारण सत्ता को जिसमें पंचकोश, पाँच प्राण, कुण्डलिनी महाशक्ति, षट्चक्र, उपत्यिकाएँ आदि सम्मिलित हैं, की गरिमा पर विचार करना पीछे के लिए छोड़कर मात्र स्थूलकाय संरचना और उसकी क्षमता पर विचार करें तो इस क्षेत्र में भी सब कुछ अद्भुत दीखता है। वनस्पति तो क्या-मनुष्येत्तर प्राणि शरीरों में भी वे विशेषताएं नहीं मिलतीं जो मनुष्य के छोटे और बड़े अवयवों में सन्निहित हैं। कलाकार ने अपनी सारी कला को इसके निर्माण में झोंक दिया है।

शरीर रचना से लेकर मनःसंस्थान और अन्तःकरण की संवेदनाओं तक सर्वत्र असाधारण ही असाधारण दृष्टिगोचर होता है। यदि हम कल्पना करें और वैज्ञानिक दृष्टि से आँखें उघाड़ कर देखें तो पता चलेगा कि मनुष्य−शरीर के निर्माण में स्रष्टा ने जो बुद्धि, कौशल खर्च किया तथा परिश्रम जुटाया, वह अन्य किया तथा परिश्रम जुटाया, वह अन्य किसी भी शरीर के लिए नहीं किया। मनुष्य सृष्टि का सबसे विलक्षण उत्पादन है। ऐसा आश्चर्य और कोई दूसरा नहीं है। यह सर्व क्षमता संपन्न जीवात्मा का अभेद्य दुर्ग, यंत्र एवं वाहन है। यह जिन कोषों से बनता है, उसमें चेतन परमाणु ही नहीं होते, वरन् दृश्य जगत में दिखाई देने वाली प्रकृति का भी उसमें योगदान है।

इससे मनुष्य−शरीर की क्षमता और मूल्य और भी बढ़ जाता है। ठोस द्रव और गैस जल, आक्सीजन, हाइड्रोजन, नाइट्रोजन, कार्बन सिल्वर, सोना, लोहा, फास्फोरस आदि जो कुछ भी तत्व पृथ्वी में हैं और जो कुछ पृथ्वी में नहीं हैं, अन्य ग्रह नक्षत्रों में हैं, वह सब भी स्थूल और सूक्ष्म रूप में शरीर में है।

जिस तरह वृक्ष में कहीं तने, कहीं पत्ते, कहीं फल एक व्यापक विस्तार में होते हैं,शरीर के विभिन्न क्षेत्रों में उसी प्रकार विभिन्न लोक और लोकों की शक्तियां विद्यमान देखकर ही शास्त्रकार ने कहा था-’यत्ब्रह्माण्डेतत्पिंडे’ ब्रह्माण्ड की संपूर्ण शक्तियां मनुष्य−शरीर में विद्यमान हैं।

सूर्य चन्द्रमा, बुद्ध, बृहस्पति, उत्तरायण, दक्षिणायन मार्ग, पृथ्वी, जल, अग्नि, आकाश, वायु, विद्युत, चुम्बकत्व, गुरुत्वाकर्षण आदि सब शरीर में हैं। यह समूचा विराट् जगत अपनी इसी काया के भीतर समाया हुआ है।
आज के वैज्ञानिक भी इस बात को मानते हैं कि जो विशेषताएं और सामर्थ्य प्रकृति ने मनुष्य को प्रदान की हैं, वह सृष्टि के किसी भी प्राणी-शरीर को उपलब्ध नहीं।

गर्भोपनिषद् के अनुसार मानवी काया में 180 संधियाँ, 107 मर्मस्थान, 109 स्नायु, और 700 शिरायें हैं। 500 मज्जायें, 306 हड्डियाँ, साढ़े चार करोड़ रोएं, 8 पल हृदय, 12 पल जिह्वा, एक प्रस्थ पित्त, एक आढ़क कफ, एक कुड़वशुक्र, दो प्रस्थ मेद हैं। इसके अतिरिक्त आहार ग्रहण करने व मल मूत्र निष्कासन के जो अच्छे से अच्छे यंत्र इस शरीर में लगे हैं, वह अन्य किसी भी शरीर में नहीं है।

स्थूलशरीर पर दृष्टि डालने से सबसे पहले त्वचा नजर आती है। शरीरशास्त्रियों के अनुसार प्रत्येक वयस्क व्यक्ति के त्वचा का भार लगभग 9 पौण्ड होता है जो कि प्रायः मस्तिष्क से तीन गुना अधिक है। यह त्वचा 18 वर्ग फुट से भी अधिक जगह घेरे रहती है। मोटे तौर से देखने पर वह ऐसी लगती है मानों शरीर पर कोई मोमी कागज चिपका जो, परन्तु बारीकी से देखने पर पता चलता है कि उसमें भी एक पूरा सुविस्तृत कारखाना चल रहा है।

शरीर पर इसका क्षेत्रफल लगभग 250 फुट होता है। सबसे पतली वह पलकों पर होती है- .5 मिलीमीटर। पैर के तलुवों में सबसे मोटी है- 6 मिलीमीटर। साधारणतया उसकी मोटाई 0.3 से लेकर 300 मिलीमीटर तक होती है। एक वर्ग इंच त्वचा में प्रायः 72 फुट लम्बी तंत्रिकाओं का जाल बिछा रहता है। इतनी ही जगह में रक्त नलिकाओं की लम्बाई नापी जाय तो वे भी 12 फुट लम्बी तंत्रिकाओं का जाल बिछा होता है। इतनी ही जगह में रक्त नलिकाओं की लम्बाई नापी जाय तो वे भी 12 फुट से कम न बैठेगी। यह रक्तवाहनियां सर्दी में सिकुड़ती और गर्मियों में फैलती रहती है ताकि शारीरिक तापमान का संतुलन ठीक बना रहे। चमड़ी की सतह पर प्रायः 3 लाख स्वेद ग्रंथियाँ और अगणित छोटे-छोटे बारीक छिद्र होते हैं। इन रोमकूपों से लगभग एक पौण्ड पसीना प्रति दिन बाहर निकलता रहता है। त्वचा के भीतर बिखरे ज्ञान तन्तुओं को यदि एक लाइन में रख दिया जाय तो वे 45 मील लम्बे होंगे।

त्वचा से ‘सीवम’ नामक एक विशेष प्रकार का तेल निकलता रहता है। यह सुरक्षा और सौंदर्य वृद्धि के दोनों ही कार्य करता है। उसकी रंजक कोशिकायें ‘मिलेनिन’ नामक रसायन उत्पन्न करती है। यही चमड़ी को गोरे, काले भूरे आदि रंगों से रंगता रहता है। त्वचा देखने में एक प्रतीत होती है, पर उसके तीन मोटे विभाग किये जा सकते हैं- ऊपरी त्वचा, भीतरी त्वचा तथा सब क्युटेनियम टिष्यू। नीचे वाली परत में रक्त वाहिनियाँ, तंत्रिकाएँ एवं वसा के कण होते हैं। इन्हीं के द्वारा चमड़ी हड्डियों से चिपकी रहती है। आयु बढ़ने के साथ-साथ जब यह वसा कण सूखने लगते हैं तो त्वचा पर झुर्रियाँ लटकने लगती हैं।

भीतरी त्वचा पर में तंत्रिकाएँ, रक्तवाहनियां रोमकूप, स्वेद ग्रंथियाँ तथा तेल ग्रंथियाँ होती हैं। इन तंत्रिकाओं को एक प्रकार से संवेदना वाहक टेलीफोन के तार कह सकते हैं। वे त्वचा स्पर्श की अनुभूतियों को मस्तिष्क तक पहुँचाते हैं और वहाँ के निर्देश- संदेशों को अवयवों तक पहुँचाते हैं। त्वचा कभी भी झूठ नहीं बोलती। झूठ पकड़ने की मशीन-’लाय डिटेक्टर या पोली ग्राफ मशीन’ इस सिद्धान्त पर कार्य करती है कि दुराव-छिपाव से उत्पन्न हार्मोनिक परिवर्तनों के फलस्वरूप त्वचा के वैद्युतीय स्पंदन एवं रग में जो परिवर्तन या तनाव उत्पन्न होता है, वह सारे रहस्यों को उजागर कर देता है।

साँप की केंचुली सबने देखी है। जिस प्रकार सांप अपनी केंचुली बदलता है, उसी प्रकार हम भी अपनी त्वचा हर-चौथे पाँचवें दिन बदल देते हैं। होता यह है कि हमारी शारीरिक कोशिकायें करोड़ों की संख्या में प्रति मिनट के हिसाब से मरती रहती हैं और नयी कोशिकायें पैदा होती रहती हैं और इस प्रकार केंचुली बदलने का क्रम चलता रहता है। यह क्रम बहुत हलका और धीमा होने से हमें दिखाई नहीं पड़ता। इस तरह जिन्दगी भर में हमें हजारों बार अपनी चमड़ी की केंचुली बदलनी पड़ती है। यही हाल आँतरिक अवयवों का भी है। किसी अवयव का कायाकल्प जल्दी-जल्दी होता है तो किसी का देर में धीमे-धीमे।
यह परिवर्तन अपनी पूर्वज कोशिकाओं के अनुरूप ही होता है, अतः अंतर न पड़ने से यह प्रतीत नहीं होता कि पुरानी के चले जाने और नयी स्थानापन्न होने जैसा कुछ परिवर्तन हुआ है।

त्वचा के भीतर प्रवेश करें तो मांसपेशियों का सुदृढ़ ढांचा खड़ा मिलता है। उन्हीं के आधार पर शरीर का हिलना डुलना, मुड़ना, चलना, फिरना संभव हो रहा है।शरीर की सुन्दरता, सुदृढ़ता और सुडौलता बहुत करके मांसपेशियों की संतुलित स्थिति पर ही निर्भर रहती है। मांसपेशियों की बनावट एवं वजन के हिसाब से ही मोटे और पतले आदमियों की पहचान होती है। प्रत्येक व्यक्ति के शरीर में 600 से अधिक मांसपेशियां होती हैं और उनमें से प्रत्येक के अपने विशिष्ट कार्य होते हैं। इनमें से कितनी ही अविराम गति से जीवन पर्यंत तक अपने कार्य में जुटी रहती हैं, यहाँ तक कि सोते समय भी, जैसे कि हृदय का धड़कना, फेफड़ों का सिकुड़ना-फैलना, रक्त संचार, आहार का पचना आदि की क्रियायें अनवरत रूप से चलती रहती हैं।
30 माँस पेशियां ऐसी होती हैं जो खोपड़ी की हड्डियों से जुड़ी होती है और चेहरे भाव परिवर्तन में सहायता करती हैं। शैशव अवस्था में प्रथम तीन वर्ष तक मांसपेशियों का विकास हड्डियों से भी अधिक दो गुनी तीव्र गति से होता है इसके बाद विकास की गति कुछ धीमी पड़ जाती है जब शरीर में अचानक परिवर्तन उभरते हुए दृष्टिगोचर होते हैं। संरचना में प्रत्येक मांसपेशी अनेकों तन्तुओं से मिलकर बनी होती है। वे बाल से भी पतले होते हैं, पर मजबूत इतने कि अपने वजन की तुलना में एक लाख अधिक भारी वजन उठा सके।

इन अवयवों में से जिस पर भी तनिक गहराई से विचार करें तो उसी में विशेषताओं का भण्डार भरा दीखता है। यहाँ तक कि बाल जैसी निर्जीव और बार-बार खर-पतवार की तरह उखाड़-काट कर फेंक दी जाने वाली वस्तु भी अपने आप में अद्भुत हैं।

प्रत्येक मनुष्य का शरीर असंख्य बालों से (लगभग साढ़े चार करोड़) ढका होता है, यद्यपि वे सिर के बालों की अपेक्षा बहुत छोटे होते हैं। सिर में औसतन 120000 बाल होते हैं। प्रत्येक बाल त्वचा से एक नन्हें गढ्ढे से निकला है जिसे रोमकूप कहते हैं। यहीं से बालों को पोषण होता है। बालों की वृद्धि प्रतिमास तीन चौथाई इंच होती है, इसके बाद वह घटती जाती है। जब बाल दो वर्ष के हो जाते हैं तो उनकी गति प्रायः रुक जाती है। किसी के बाल तेजी से और किसी के धीमी गति से बढ़ते हैं। प्रत्येक सामान्य बाल की जीवन-अवधि लगभग 3 वर्ष होती है, जब कि आँख की बरोनियों की प्रायः 150 दिन ही होती है। आयु पूरी करके बाल अपनी जड़ से टूट जाते हैं और उसके स्थान पर नया बाल उगता है।

शरीर के आन्तरिक अवयवों की रचना तो और भी विलक्षण होती है। उसकी सबसे बड़ी एक विशेषता तो यही है कि वे दिन-रात अनवरत रूप से क्रियाशील रहते हैं-गति करते रहते हैं। उनकी क्रियायें एक क्षण के लिए भी रुक जायँ तो जीवन संकट तक उपस्थित हो जाता है। उदाहरण के लिए रक्त परिवहन संस्थान को ही लें। हृदय की धड़कन के फलस्वरूप रक्त संचार होता है और जीवन के समस्त क्रिया-कलाप चलते हैं। यह रक्त प्रवाह नदी-नाले की तरह नहीं चलता वरन् पंपिंग स्टेशन जैसी विशेषता उसमें रहती है। हृदय के आकुँचन-प्रकुँचन प्रक्रिया के स्वरूप ही ऊपर-नीचे-समस्त अंग अवयवों में रक्तप्रवाह होता रहता है। सारे शरीर में रक्त की एक परिक्रमा प्रायः 90 सेकेंड में पूरी हो जाती है।
हृदय और फेफड़े की दूरी पार करने उसे मात्र 6 सेकेंड में पूरी हो जाती है। हृदय और फेफड़े की दूरी पार करने में उसे मात्र 6 सेकेंड लगते हैं, जबकि मस्तिष्क तक रक्त पहुँचने में 8 सेकेंड लग जाते हैं। रक्त प्रवाह रुक जाने पर भी हृदय 5 मिनट और और अधिक जी लेता है, पर मस्तिष्क 3 मिनट में ही बुझ जाता है। हार्ट अटैक हृदयाघात की मृत्युओं में प्रधान कारण धमनियों से रक्त की सप्लाई रुक जाना होता है। रक्त प्रवाह संस्थान का निर्माण करने वाली रक्तवाही नलिकाओं की कुल लम्बाई 60 हजार मील है जो कि पृथ्वी के धरातल की दूरी है। औसत दर्जे के मानवी काया में प्रायः 5 से 6 लीटर तक रक्त रहता है। इसमें से 5 लीटर तो निरंतर गतिशील रहता है और एक लीटर आपत्ति-कालीन आवश्यकता के लिए सुरक्षित रहता है। 24 घंटे में हृदय को 13 हजार लीटर रक्त का आयात-निर्यात करना पड़ता है। 10 वर्ष में इतना खून फेंका-समेटा जाता है जिसे एक बारगी यदि इकट्ठा कर लिया है जिसे एक बारगी यदि इकट्ठा कर लिया जाय तो उसे 400 फुट घेरे की 80 मंजिली टंकी में ही भरा जा सकेगा।

इतना श्रम यदि एक बार ही करना पड़े तो उसमें इतनी शक्ति लगानी पड़ेगी जितनी 10 टन बोझ जमीन से 50 हजार फुट तक ऊपर उठा ले जाने में लगानी पड़ेगी।शरीर में जो तापमान रहता है, उसका कारण रक्त प्रवाह से उत्पन्न होने वाली ऊष्मा ही है। रक्त संचार की दुनिया इतनी सुव्यवस्थित और महत्वपूर्ण है कि यदि उसे ठीक तरह से समझा जा सके और उसके उपयुक्त रीति-नीति अपनायी जा सके तो सुदृढ़ और सुविकसित दीर्घ जीवन प्राप्त किया जा सकता है।
त्वचा, मांसपेशियां रक्त परिसंचरण प्रणाली ही नहीं शरीर संस्थान का एक-एक घटक अद्भुत और विलक्षण है। 5 फीट 6 इंच की इस मानवी काया में परमात्मा ने इतने अधिक आश्चर्य भर दिये हैं कि उसे देव मंदिर कहने और मानने में कोई आश्चर्य नहीं करना चाहिए।

ईश्वर की महिमा अपरम्पार
ॐ नमः शिवाय 🚩

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 #जनेऊ क्या है और इसकी क्या महत्वता है? #भए कुमार जबहिं सब भ्राता। दीन्ह जनेऊ गुरु पितु माता॥जनेऊ क्या है : आपने देखा हो...
04/04/2022

#जनेऊ क्या है और इसकी क्या महत्वता है?

#भए कुमार जबहिं सब भ्राता।
दीन्ह जनेऊ गुरु पितु माता॥

जनेऊ क्या है : आपने देखा होगा कि बहुत से लोग बाएं कांधे से दाएं बाजू की ओर एक कच्चा धागा लपेटे रहते हैं। इस धागे को जनेऊ कहते हैं। जनेऊ तीन धागों वाला एक सूत्र होता है। जनेऊ को संस्कृत भाषा में ‘यज्ञोपवीत’ कहा जाता है।

यह सूत से बना पवित्र धागा होता है, जिसे व्यक्ति बाएं कंधे के ऊपर तथा दाईं भुजा के नीचे पहनता है। अर्थात इसे गले में इस तरह डाला जाता है कि वह बाएं कंधे के ऊपर रहे।

तीन सूत्र क्यों : जनेऊ में मुख्यरूप से तीन धागे होते हैं। यह तीन सूत्र देवऋण, पितृऋण और ऋषिऋण के प्रतीक होते हैं और यह सत्व, रज और तम का प्रतीक है। यह गायत्री मंत्र के तीन चरणों का प्रतीक है।यह तीन आश्रमों का प्रतीक है। संन्यास आश्रम में यज्ञोपवीत को उतार दिया जाता है।

नौ तार : यज्ञोपवीत के एक-एक तार में तीन-तीन तार होते हैं। इस तरह कुल तारों की संख्या नौ होती है। एक मुख, दो नासिका, दो आंख, दो कान, मल और मूत्र के दो द्वारा मिलाकर कुल नौ होते हैं।

पांच गांठ : यज्ञोपवीत में पांच गांठ लगाई जाती है जो ब्रह्म, धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष का प्रतीक है। यह पांच यज्ञों, पांच ज्ञानेद्रियों और पंच कर्मों का भी प्रतीक भी है।

वैदिक धर्म में प्रत्येक आर्य का कर्तव्य है जनेऊ पहनना और उसके नियमों का पालन करना। प्रत्येक आर्य को जनेऊ पहन सकता है बशर्ते कि वह उसके नियमों का पालन करे।

जनेऊ की लंबाई : यज्ञोपवीत की लंबाई 96 अंगुल होती है। इसका अभिप्राय यह है कि जनेऊ धारण करने वाले को 64 कलाओं और 32 विद्याओं को सीखने का प्रयास करना चाहिए।

चार वेद, चार उपवेद, छह अंग, छह दर्शन, तीन सूत्रग्रंथ, नौ अरण्यक मिलाकर कुल 32 विद्याएं होती है। 64 कलाओं में जैसे- वास्तु निर्माण, व्यंजन कला, चित्रकारी, साहित्य कला, दस्तकारी, भाषा, यंत्र निर्माण, सिलाई, कढ़ाई, बुनाई, दस्तकारी, आभूषण निर्माण, कृषि ज्ञान आदि।

जनेऊ के नियम :
1.यज्ञोपवीत को मल-मूत्र विसर्जन के पूर्व दाहिने कान पर चढ़ा लेना चाहिए और हाथ स्वच्छ करके ही उतारना चाहिए। इसका स्थूल भाव यह है कि यज्ञोपवीत कमर से ऊंचा हो जाए और अपवित्र न हो। अपने व्रतशीलता के संकल्प का ध्यान इसी बहाने बार-बार किया जाए।

2.यज्ञोपवीत का कोई तार टूट जाए या 6 माह से अधिक समय हो जाए, तो बदल देना चाहिए। खंडित यज्ञोपवीत शरीर पर नहीं रखते। धागे कच्चे और गंदे होने लगें, तो पहले ही बदल देना उचित है।

4.यज्ञोपवीत शरीर से बाहर नहीं निकाला जाता। साफ करने के लिए उसे कण्ठ में पहने रहकर ही घुमाकर धो लेते हैं। भूल से उतर जाए, तो प्रायश्चित करें ।

5.मर्यादा बनाये रखने के लिए उसमें चाबी के गुच्छे आदि न बांधें। इसके लिए भिन्न व्यवस्था रखें। बालक जब इन नियमों के पालन करने योग्य हो जाएं, तभी उनका यज्ञोपवीत करना चाहिए।

चिकित्सा विज्ञान के अनुसार दाएं कान की नस अंडकोष और गुप्तेन्द्रियों से जुड़ी होती है। मूत्र विसर्जन के समय दाएं कान पर जनेऊ लपेटने से शुक्राणुओं की रक्षा होती है।

वैज्ञानिकों अनुसार बार-बार बुरे स्वप्न आने की स्थिति में जनेऊ धारण करने से इस समस्या से मुक्ति मिल जाती है।
कान में जनेऊ लपेटने से मनुष्य में सूर्य नाड़ी का जाग्रण होता है। कान पर जनेऊ लपेटने से पेट संबंधी रोग एवं रक्तचाप की समस्या से भी बचाव होता है।

माना जाता है कि शरीर के पृष्ठभाग में पीठ पर जाने वाली एक प्राकृतिक रेखा है जो विद्युत प्रवाह की तरह काम करती है। यह रेखा दाएं कंधे से लेकर कमर तक स्थित है।
जनेऊ धारण करने से विद्युत प्रवाह नियंत्रित रहता है जिससे काम-क्रोध पर नियंत्रण रखने में आसानी होती है।

जनेऊ से पवित्रता का अहसास होता है। यह मन को बुरे कार्यों से बचाती है। कंधे पर जनेऊ है, इसका मात्र अहसास होने से ही मनुष्य भ्रष्टाचार से दूर रहने लगता है।।।।

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*वास्तु दोष दूर करने वाले पौधे*आज के तनाव भरी जीवन शैली में अगर हरियाली के कुछ पल दिख जाए। तो आंखों के साथ-साथ शरीर भी ऊ...
04/04/2022

*वास्तु दोष दूर करने वाले पौधे*

आज के तनाव भरी जीवन शैली में अगर हरियाली के कुछ पल दिख जाए। तो आंखों के साथ-साथ शरीर भी ऊर्जावान महसूस करने लगता है। यही सब सोच कर लोग अपने घरो में छोटी सी बगिया सजा लेते हैं। परंतु अज्ञानता वश कुछ ऐसे पेड़ पौधे लगा देते हैं जो उनके ग्रहों और वास्तु के हिसाब से बहुत ही नकारात्मक प्रभाव उनके जीवन पर डालते हैं तो, कौन से पौधे लगाने से वास्तु दोष और आपके दुर्भाग्य दूर हो सकते हैं।

*तुलसी*
तुलसी के पौधे को कार्तिक मास में घर के उत्तर पूर्व दिशा की ओर लगाना सबसे शुभ माना जाता है। तुलसी पूजन से अनेक ग्रह दोष, पाप कर्म और वास्तुदोष का नाश होता है। घर में एक सकारात्मक वातावरण का निर्माण होता है तथा घर धन-धान्य से परिपूर्ण रहता है।

*आंवला*
आंवला भगवान विष्णु को प्रिय पेड़ जिसमें देवताओं का वास माना जाता है इसे घर के उत्तर और पूर्व दिशा में लगाना चाहिए तथा इसकी रोज पूजा करनी चाहिए। रोज पूजा करने से भगवान विष्णु और माता लक्ष्मी जी का आशीर्वाद प्राप्त होता है और घर में धन की कोई कमी नहीं रहती जिससे आपके कष्टों का निवारण होता है।

*पारिजात यानि हरसिंगार*
यह पौधा घर में लगाना अति शुभ माना जाता है। इसे घर के पूर्व या उत्तर दिशा में लगाना चाहिए। समुद्र मंथन में ग्यारह नंबर पर जो रत्न प्राप्त हुआ था, वह पारिजात वृक्ष ही है। इसलिए इसे स्वर्ग का पौधा भी कहा जाता है, जिसे छूने मात्र से ही शरीर में ऊर्जा का संचार होता है, और थकान मिट जाती है। जिस घर में यह पौधा होता है, वहां देव दोष शांत होता है तथा सभी देवी देवताओं का आशीर्वाद बना रहता है। और उस घर में धन की कोई कमी नहीं रहती।

*शमी*
शमी को भगवान शनिदेव का पौधा कहते हैं। जिसको घर के बाहर ऐसे लगाना चाहिए की जब भी आप घर से निकले तो ये आपको दायी ओर से दर्शन दें और इसकी नियमित सरसों के तेल से दीपक जलाकर पूजा करनी चाहिए। मान्यता है कि शनि देव किसी को भी राजा से रंक या रंक से राजा बना सकते हैं। इसलिए शमी के पौधे की पूजा करने से घर में धन धान्य की कभी कमी नहीं होती और शनिदेव का आशीर्वाद भी मिलता रहता है।

*बिल्वपत्र का वृक्ष*
घर के आंगन में बेलपत्र का पेड़ लगाने से घर पापनाशक और यशस्वी हो जाता है। बेलपत्र के वृक्ष और सफेद आक को जोड़े से लगाने पर निरंतर लक्ष्मी की प्राप्ति होती रहती है। अगर पेड़ घर के उत्तर-पश्चिम में लगा हो तो इससे यश बढ़ता है। वहीं घर के उत्तर-दक्षिण में पेड़ हो तो सुख-शांति बढ़ती है और बीच में हो तो मधुर जीवन बनता है। बिल्वपत्र के वृक्ष में लक्ष्मी का वास माना गया है। इसकी पूजा करने से दरिद्रता दूर होती है।

*मनीप्लांट*
मनी प्लांट घर के दक्षिण पूर्व दिशा में लगाना चाहिए। इसको लेकर प्रचलित है कि यह जिस घर में जितना तेजी फैलता है, वहा उतनी तेज़ी से धन और समृद्धि बढ़ती है बशर्ते इसके पत्ते काले और पूरे पीले नहीं पड़ने चाहिए, साथ ही जमीन पर भी नहीं फैलने चाहिए। यह जितना घना होता है उतनी ही घर में बढ़िया सकारात्मकता फ़ैलती है।
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*अश्वगंधा*
अश्वगंधा को भी बहुत ही शुभ माना जाता है । इसे घर में लगाने से समस्त वास्तु दोष समाप्त हो जाते हैं ।अश्वगंधा का पौधा जीवन में शुभता को बढ़ाकर जीवन को और भी अधिक सक्रिय बनाता है। यह एक अत्यन्त लोकप्रिय आयुर्वेदिक औषधि है।

*अशोक का पौधा*
घर में अशोक का पौधा लगाना भी बहुत शुभ माना गया है । अशोक अपने नाम के अनुसार ही शोक को दूर करने वाला और प्रसन्नता देने वाला वृक्ष है। इससे घर में रहने वालों के बीच आपसी प्रेम और सौहार्द बढ़ता है।

*गुडहल का पौधा*
गुडहल का पौधा ज्योतिष में सूर्य और मंगल से संबंध रखता है, गुडहल का पौधा घर में कहीं भी लगा सकते हैं, परंतु ध्यान रखें कि उसको पर्याप्त धूप मिलना जरूरी है। गुडहल का फूल जल में डालकर सूर्य को अघ्र्य देना आंखों, हड्डियों की समस्या और नाम एवं यश प्राप्ति में लाभकारी होता है। मंगल ग्रह की समस्या, संपत्ति की बाधा या कानून संबंधी समस्या हो, तो हनुमान जी को नित्य प्रात: गुडहल का फूल अर्पित करना चाहिए। माँ दुर्गा को नित्य गुडहल अर्पण करने वाले के जीवन से सारे संकट दूर रहते है ।

*नारियल का पेड़*
नारियल का पेड़ भी शुभ माना गया है । कहते हैं, जिनके घर में नारियल के पेड़ लगे हों, उनके मान-सम्मान में खूब वृद्धि होती है।

*नीम*
घर के वायव्य कोण में नीम केे वृक्ष का होना अति शुभ होता है। सामान्तया लोग घर में नीम का पेड़ लगाना पसंद नहीं करते, लेकिन घर में इस पेड़ का लगा होना काफी शुभ माना जाता है। पॉजिटिव एनर्जी के साथ यह पेड़ कई प्रकार से कल्याणकारी होता है। शास्त्रों के अनुसार जो व्यक्ति नीम के सात पेड़ लगाता है उसे मृत्योपरांत शिवलोक की प्राप्ति होती है। जो व्यक्ति नीम के तीन पेड़ लगाता है वह सैकड़ों वर्षों तक सूर्य लोक में सुखों का भोग करता है।

*केले का पौधा*
केले का पौधा धार्मिक कारणों से भी काफी महत्वपूर्ण माना गया है। गुरुवार को इसकी पूजा की जाती है और अक्सर पूजा-पाठ के समय केले के पत्ते का ही इस्तेमाल किया जाता है। इसे भवन के ईशान कोण में लगाना चाहिए, क्योंकि यह बृहस्पति ग्रह का प्रतिनिधि वृक्ष है।इसे ईशान कोण में लगाने से घर में धन बढ़ता है। केले के समीप यदि तुलसी का पेड़ भी लगा लें तो अधिक शुभकारी रहेगा। इससे विष्णु और लक्ष्मी की कृपा साथ-साथ बनी रहती है। कहते हैं इस पेड़ की छांव तले यदि आप बैठकर पढ़ाई करते हैं तो वह जल्दी जल्दी याद भी होता चला जाता है।

*बांस का पौधा*
बांस का पौधा घर में लगाना अच्छा माना जाता है। यह समृद्धि और आपकी सफलता को ऊपर ले जाने की क्षमता रखता है।सामान्यता दूध या फल देने वाले पेड़ घर पर नहीं लगाने चाहिए, लेकिन नारंगी और अनार अपवाद है । यह दोनों ही पेड़ शुभ माने गए है और यह सुख एवं समृद्धि के कारक भी माने गए है । धन, सुख समृद्धि और घर में वंश वृद्धि की कामना रखने वाले घर के आग्नेय कोण (पूरब दक्षिण) में अनार का पेड़ जरूर लगाएं। यह अति शुभ परिणाम देता है।वैसे अनार का पौधा घर के सामने लगाना सर्वोत्तम माना गया है । घर के बीचोबीच पौधा न लगाएं। अनार के फूल को शहद में डुबाकर नित्यप्रति या फिर हर सोमवार भगवान शिव को अगर अर्पित किया जाए, तो भारी से भारी कष्ट भी दूर हो जाते हैं और व्यक्ति तमाम समस्याओं से मुक्त हो जाता है।

*राशि अनुसार पेड़ की पूजा*
मेष एवं वृश्चिक - खैर
वृषभ एवं तुला - गूलर
मिथुन एवं कन्या - अपामार्ग
कर्क - पलाश
सिंह - आंकड़े का पौधा
धनु एवं मीन - पीपल
मकर एवं कुंभ - शमी

इन्हीं पेड़ों की लकड़ियों से संबंधित राशियों के ग्रह स्वामी की शांति हेतु हवन भी किया जाता है।

सभी वृक्षों का अपना अलग महत्व है, लेकिन कुछ वृक्ष ऐसे है जिनका शास्त्रों में काफी महत्व बताया गया है। ऐसा माना जाता है कि पीपल में जल अर्पित करने से सभी प्रकार के ग्रह दोष दूर हो जाते हैं और अक्षय पुण्य की प्राप्ति होती है। इसके अलावा अन्य वृक्ष जैसे नीम, बरगद, बेलपत्र, अशोक, चंदन, आम आदि की भी पूजा की जाती है या इनके फल, पत्ते, तने को पूजा में शामिल किया जाता है।

पीपल में जल चढ़ाने से शनि की साढ़ेसाती या ढैया में बहुत जल्द लाभ प्राप्त होता है, कालसर्प दोष का प्रभाव भी कम होता है। जिन लोगों का भाग्य साथ नहीं देता उन्हें पीपल में प्रतिदिन जल चढ़ाकर, सात परिक्रमा करनी चाहिए। इससे कुछ ही दिनों में व्यक्ति को भाग्य का साथ अवश्य मिलने लगेगा।

*संवत्सर के नाम , फल एवं स्वामी*〰️〰️🌼〰️🌼🌼〰️🌼〰️〰️भारतीय संस्कृति में चन्द्र वर्ष का प्रयोग किया जाता है। चन्द्र वर्ष को ह...
04/04/2022

*संवत्सर के नाम , फल एवं स्वामी*
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भारतीय संस्कृति में चन्द्र वर्ष का प्रयोग किया जाता है। चन्द्र वर्ष को ही संवत्सर कहा जाता है। ब्रह्माजी ने सृष्टि का आरम्भ चैत्र शुक्ल प्रतिपदा से किया था अतः नव संवत का प्रारम्भ भी चैत्र शुक्ल प्रतिपदा से होता है। हिंदू परंपरा में समस्त शुभ कार्यों के आरम्भ में संकल्प करते समय उस समय के संवत्सर का उच्चारण किया जाता है। अग्नि ,नारद आदि पुराणों, विभिन्न ज्योतिष ग्रंथो में वर्णित साठ संवत्सरों के नाम तथा उनके विश्व में होने वाले शुभाशुभ फल निम्नलिखित प्रकार से हैं। ये फल वृहत संहिता ज्योतिष ग्रन्थ के अनुसार हैं I प्रथम 20 सम्वत (1 से 20 ) ब्रह्मविंशति अगले 20 सम्बत (21 से 40) विष्णुविंशति अगले 20 सम्बत (41 से 60)रूद्रविंशति होते हैI

संवत्सर का नाम वर्ष फल संवत्सर स्वामी
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1. प्रभव प्रजा में यज्ञादि शुभ कार्यों कि भावना हो। स्वामी विष्णु
2. विभव प्रजा में सुख समृद्धि हो। स्वामी बृहस्पति
3. शुक्ल विश्व में धान्य प्रचुर मात्रा में हो। स्वामी इंद्र
4. प्रमोद प्रजा में आमोद प्रमोद ,सुख वैभव कि वृद्धि हो। स्वामी लोहित
5. प्रजापति विश्व में चतुर्विध उन्नति हो। स्वामी त्वष्टा
6. अंगिरा भोग विलास कि वृद्धि हो। स्वामी अहिर्बुध्न्य
7. श्री मुख जनसँख्या में अधिक वृद्धि हो। स्वामी पितर
8. भाव प्राणियों में सद्भावना बढे।स्वामी विश्वेदेव
9. युवा मेघों द्वारा प्रचुर वृष्टि हो। स्वामी चन्द्र
10. धाता विश्व में समस्त औषधियों कि वृद्धि हो। स्वामी इन्द्राग्नी
11. ईश्वर आरोग्य व क्षेम कि प्राप्ति हो। स्वामी अश्वनी कुमार
12. बहुधान्य अन्न कि प्रचुरता हो। स्वामी भग
13. प्रमाथी शुभाशुभ प्रकार का मध्यम वर्ष हो। स्वामी विष्णु
14. विक्रम अन्न कि अधिकतारह। स्वामी बृहस्पति
15. वृषप्रजा जनों का पोषण हो। स्वामी इंद्र
16. चित्रभानु विचित्र घटनाएं हों। स्वामी लोहित
17. सुभानु आरोग्यकारक व कल्याणकारी वर्ष हो। स्वमी त्वष्टा
18. तारण मेघों द्वारा शुभकारक वर्षा हो। अहिर्बुध्न्य
19. पार्थिव सस्य संपत्तिकि वृद्धि हो। पितर
20. अव्यय अतिवृष्टि हो। विश्वेदेव
21. सर्वजीत उत्तम वृष्टि का योग। चन्द्र
22. सर्वधारी धान्यों कि अधिकत। इन्द्राग्नी
23. विरोधी अनावृष्टि। अश्वनी कुमार
24. विकृति भय कारक घटनाएं। भग
25. खर पुरुषों में साहस व वीरता का संचार। विष्णु
26. नंदन प्रजा में आनंद। बृहस्पति
27. विजय दुष्टों का नाश। इंद्र
28. जय रोगों का शमन। लोहित
29. मन्मथ विश्व में ज्वर का प्रकोप। त्वष्टा
30. दुर्मुख मनुष्यों किवाणी में कटुता। अहिर्बुध्न्य
31. हेम्लम्बी सम्पदा कि वृद्धि। पितर
32. विलम्बी अन्न कि प्रचुरता। विश्वेदेव
33. विकारी दुष्ट व शत्रु कुपित हों। चन्द्र
34. शार्वरी कृषि में वृद्धि। इन्द्राग्नी
35. प्लव नदियों में बाढ़ का प्रकोप। अश्वनी कुमार
36. शुभकृत प्रजा में शुभत। भग
37. शोभकृत शुभ फलों कि वृद्धि। विष्णु
38. क्रोधी स्त्री –पुरुषों में वैर ,रोग वृद्धि। बृहस्पति
39. विश्वावसु अन्न महंगा,रोग व चोरों कि वृद्धि,राजा लोभी। इंद्र
40. पराभव रोग वृद्धि, प्रचुर वृष्टि,राजा का तिरस्कार ,तुच्छ धान्यों कि अधिकता। लोहित
41. प्ल्वंग कृषि हानि,प्रजा में रोग व चोरी,राजाओं का युद्ध। त्वष्टा
42. कीलक पित्त विकार,मध्यम वर्षा ,सर्प भय,प्रजा में कलह। अहिर्बुध्न्य
43. सौम्य राजा प्रसन्न,शीत प्रकृति के रोग, मध्यम वर्षा ,सर्प भय पितर
44. साधारण राजा व प्रजा सुखी ,कृषि के लिए वर्षा उत्तम। विश्वेदेव
45. विरोधकृत राजाओं में वैर –भाव , मध्यम वर्षा,प्रजा में आनंद। चन्द्र
46. परिधावी अन्न महंगा। मध्यम वर्षा,प्रजा में रोग ,उपद्रव।इन्द्राग्नी
47. प्रमादी जनता में आलस्य व प्रमाद कि वृद्धि।अश्वनी कुमार
48. आनंद जनता में सुख व आनंद। भग
49. राक्षस प्रजा में निष्ठुरता कि वृद्धि। विष्णु
50. आनल विविध धान्यों किवृद्धि। बृहस्पति
51. पिंगल कहीं उत्तम व कहीं मध्यम वृष्टि । इंद्र
52. कालयुक्त धन –धन्य कि हानि। लोहित
53. सिद्धार्थी सम्पूर्ण कार्यों कि सिध्धि। त्वष्टा
54. रौद्र विश्व में रौद्र भाव कि अधिकता। अहिर्बुध्न्य
55. दुर्मति मध्यम वृष्टि। पितर
56. दुन्दुभी धन –धान्य कि वृद्धि। विश्वेदेव
57. रूधिरोद्गारी हिंसक घटनाओं से रक्तपात। चन्द्र
58. रक्ताक्षी रक्तपात से जनहानि। इन्द्राग्नी
59. क्रोधन शासकों को विजय प्राप्त। अश्वनी कुमार
60. क्षय प्रजा का धन क्षीण भग

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