Rajendra Chopra Astrovaastu - Yantra Energy Consultant

Rajendra Chopra  Astrovaastu - Yantra Energy  Consultant Mr.Rajendra Chopra has been researching, studying and practising vaastu science since 1992. His rese

31/05/2025
09/06/2023

शुभ-केलि के आनन्द के धन के मनोहर धाम हो,

नरनाथ से सुरनाथ से पूजित चरण, गतकाम हो।

सर्वज्ञ हो, सर्वोच्च हो, सबसे सदा संसार में,

प्रज्ञा कला के सिन्धु हो, आदर्श हो आचार में॥ १॥



संसार-दु:ख के वैद्य हो, त्रैलोक्य के आधार हो,

जय श्रीश! रत्नाकर प्रभो! अनुपम कृपा-अवतार हो।

गतराग है, विज्ञप्ति मेरी मुग्ध की सुन लीजिये,

क्योंकि प्रभो! तुम विज्ञ हो मुझको अभय वर दीजिए॥२॥



माता पिता के सामने बोली सुनाकर तोतली,

करता नहीं क्या अज्ञ बालक बाल्य-वश लीलावली।

अपने हृदय के हाल कों त्यों ही यथोचित रीति से

मैं कह रहा हूँ, आपके आगे विनय से प्रीति से॥ ३॥



मैंने नहीं जग में कभी कुछ दान दीनों को दिया,

मैं सच्चरित भी हूँ, नहीं मैंने नहीं तप भी किया।

शुभ भावनाएँ भी हुईं, अब तक न इस संसार में,

मैं घूमता हूँ, व्यर्थ ही भ्रम से भवोदधि-धार में॥ ४॥



क्रोधाग्नि से मैं रात दिन हा! जल रहा हूँ हे प्रभो!

मैं लोभ नामक सांप से काटा गया हूँ, हे विभो!

अभिमान के खल ग्राह से अज्ञानवश मैं ग्रस्त हूँ,

किस भांति हों स्मृत आप, मायाजाल से मैं व्यस्त हूँ॥५॥



लोकेश! पर-हित भी किया मैंने न दोनों लोक में,

सुख-लेश भी फिर क्यों मुझे हो, झींकता हूँ शोक में ,

जग में हमारे से नरों का जन्म ही बस व्यर्थ है,

मानों जिनेश्वर! वह भवों की पूर्णता के अर्थ है॥ ६॥



प्रभु! आपने निज मुख सुधा का दान यद्यपि दे दिया,

यह ठीक है, पर चित्त ने उसका न कुछ भी फल लिया

आनन्द-रस में डूबकर सद्वृत्त वह होता नहीं,

है वज्र सा मेरा हृदय, कारण बड़ा बस है यही॥ ७॥



रत्नत्रयी दुष्प्राप्य है प्रभु से उसे मैंने लिया,

बहुकाल तक बहु बार जब जग का भ्रमण मैंने किया।

हा खो गया वह भी विवश मैं नींद आलस के रहा,

बतलाइये उसके लिए रोऊँ प्रभो! किसके यहाँ॥ ८॥



संसार ठगने के लिए वैराग्य को धारण किया,

जग को रिझाने के लिए उपदेश धर्मों का दिया।

झगड़ा मचाने के लिए मम जीभ पर विद्या बसी,

निर्लज्ज हो कितनी उड़ाऊँ हे प्रभो! अपनी हँसी॥ ९॥



परदोष को कहकर सदा मेरा वदन दूषित हुआ,

लख कर पराई नारियों को हा नयन दूषित हुआ,

मन भी मलिन है सोचकर पर की बुराई हे प्रभो

किस भाँति होगी लोक में मेरी भलाई हे प्रभो॥ १०॥



मैंने बड़ाई निज विवशता हो अवस्था के वशी,

भक्षक रतीश्वर से हुई उत्पन्न जो दुख-राक्षसी।

हा! आपके सम्मुख उसे अति लाज से प्रकटित किया,

सर्वज्ञ! हो सब जानते स्वयमेव संसृति की क्रिया ॥ ११॥



अन्यान्य मन्त्रों से परम परमेष्ठि-मंत्र हटा दिया,

सच्छास्त्र-वाक्यों को कुशास्त्रों से दबा मैंने दिया।

विधि-उदय को करने वृथा, मैंने कुदेवाश्रय लिया,

हे नाथ, यों भ्रमवश अहित मैंने नहीं क्या क्या किया॥ १२



हा, तज दिया मैंने प्रभो! प्रत्यक्ष पाकर आपको,

अज्ञान वश मैंने किया फिर देखिये किस पाप को।

वामाक्षियों के राग में रत हो सदा मरता रहा,

उनके विलासों के हृदय में ध्यान को धरता रहा॥ १३॥



लखकर चपल-दृग-युवतियों के मुख मनोहर रसमई,

जो मन-पटल पर राग भावों की मलिनता बस गई।

वह शास्त्र-निधि के शुद्ध जल से भी न क्यों धोई गई ?

बतलाइये यह आप ही मम बुद्धि तो खोई गई॥ १४॥



मुझमें न अपने अंग में सौन्दर्य का आभास है,

मुझमें न गुण गण है विमल, न कला-कलाप-विलास है।

प्रभुता न मुझमें स्वप्न को भी चमकती है, देखिये,

तो भी भरा हूँ गर्व से मैं मूढ़ हो किसके लिए ॥ १५॥



हा नित्य घटती आयु है पर पाप-मति घटती नहीं,

आई बुढ़ोती पर विषय से कामना हटती नहीं।

मैं यत्न करता हूँ, दवा मैं, धर्म मैं करता नहीं,

दुर्मोह-महिमा से ग्रसित हूँ नाथ! बच सकता नहीं॥ १६॥



अघ-पुण्य को भव-आत्म को मैंने कभी माना नहीं,

हो आप आगे हैं खड़े दिननाथ से यद्यपि यहीं।

तो भी खलों के वाक्य को मैंने सुना कानों वृथा,

धिक्कार मुझको है, गया मम जन्म ही मानो वृथा॥ १७॥



सत्पात्र-पूजन देव-पूजन कुछ नहीं मैंने किया,

मुनिधर्म श्रावक धर्म का भी नहिं सविधि पालन किया।

नर-जन्म पाकर भी वृथा ही मैं उसे खोता रहा,

मानो अकेला घोर वन में व्यर्थ ही रोता रहा॥ १८॥



प्रत्यक्ष सुखकर जिन-धरम में प्रीति मेरी थी नहीं,

जिननाथ! मेरी देखिये है मूढ़ता भारी यही।

हा! कामधुक कल्पद्रुमादिक के यहाँ रहते हुए,

हमने गँवाया जन्म को धिक्कार दुख सहते हुए॥ १९॥



मैंने न रोका रोग-दुख संभोग-सुख देखा किया।

मन में न माना मृत्यु-भय-धन-लाभ ही लेखा किया।

हा! मैं अधम युवती-जनों का ध्यान नित करता रहा,

पर नरक-कारागार से मन में न मैं डरता रहा॥ २०॥



सद्वृत्ति से मन में न मैंने साधुता हा साधिता,

उपकार करके कीर्ति भी मैंने नहीं कुछ अर्जिता।

शुभतीर्थ के उद्धार आदिक कार्य कर पाये नहीं,

नर-जन्म पारस-तुल्य निज मैंने गँवाया व्यर्थ ही॥ २१॥



शास्त्रोक्त विधि वैराग्य भी करना मुझे आता नहीं,

खल-वाक्य भी गत क्रोध हो सहना मुझे आता नहीं।

अध्यात्म-विद्या है न मुझमें है न कोई सत्कला,

फिर देव ! कैसे यह भवोदधि पार होवेगा भला॥ २२॥



सत्कर्म पहले जन्म में मैंने किया कोई नहीं,

आशा नहीं जन्मान्य में उसको करूँगा मैं कहीं।

इस भांति का यदि हूँ जिनेश्वर! क्यों न मुझको कष्ट हों।

संसार में फिर जन्म तीनों क्यों न मेरे नष्ट हों॥ २३॥



हे पूज्य! अपने चरित को बहुभांति गाऊं क्या वृथा,

कुछ भी नहीं तुमसे छिपी है पापमय मेरी कथा।

क्योंकि त्रिजग के रू प हो तुम, ईश हो सर्वज्ञ हो,

पथ के प्रदर्शक हो,तुम्हीं मम चित्त के मर्मज्ञ हो॥ २४॥



दीनोद्धारक धीर आप सा अन्य नहीं है,

कृपा-पात्र भी नाथ ! न मुझसा अवर कहीं है।

तो भी माँगू नहीं धान्य धन कभी भूल कर,

अर्हन् ! केवल बोधिरत्न होवे मंगलकर॥२५॥



श्री रत्नाकर गुणगान यह दुरित दु:ख सबके हरे।

बस एक यही है प्रार्थना मंगलमय जग को करे॥

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