Arya Samaj, Mysore

Arya Samaj, Mysore was founded by Saraswati (1824-83) in April,1875 for reviving religion propounded the oldest scripture of the Vedas.

President:
Mr.Hemachandra Arya
9886826289

Secretary:
Mr. Umesh Arya
9448800595

22/07/2025

(Hindi source: Swamy Bramha Muni)

यो न: पिता जनिता यो विधाता धामानि वेद भुवनानि विश्वा।
यो देवानां नामधा एक एव तं संप्रश्नं भुवना यन्त्यन्या।।
(ऋग्वेद 10/82/3)

मंत्र का सरल अर्थ-
जो परमात्मा हम लोगों का पिता है, हम लोगों को धरती पर जन्म देने वाला है, वही संसार के सारे रहस्यों और ठिकानों को जानता है। उसी से प्रश्न पूछकर दूसरे लोग भी सारी बातें जान जाया करते हैं।

ಯೋ ನಃ ಪಿತಾ ಜನಿತಾ ಯೋ ವಿಧಾತಾ ಧಾಮಾನಿ ವೇದ ಭುವನಾನಿ ವಿಶ್ವಾ।
ಯೋ ದೇವಾನಾಂ ನಾಮಧಾ ಏಕ ಏವ ತಂ ಸಂಪ್ರಶ್ನಂ ಭುವನಾ ಯಂತ್ಯನ್ಯಾಃ।।
(ಋಗ್ವೇದ 10/82/3)

ಪದ ವಿಂಗಡಣೆ:
ಯಃ-ನಃ-ಜನಿತಾ ಪಿತಾ) — ನಮ್ಮೆಲ್ಲರ ಜನ್ಮದಾತನೂ, ಪೋಷಕನೂ
(ಯಃ-ವಿಧಾತಾ) — ಕರ್ಮಫಲದ ನಿಯಮ ಹಾಗೂ ಫಲವನ್ನು ನೀಡುವನೂ
(ವಿಶ್ವಾ ಧಾಮಾನಿ) — ಎಲ್ಲ ಜಗತ್ತಿನ ರಹಸ್ಯಗಳನ್ನು
(ಭುವನಾನಿ) — ಲೋಕ-ಲೋಕಾಂತರಗಳನ್ನು
(ವೇದ) — ಯಾರು ತಿಳಿದಿರುತ್ತಾನೋ
(ಯಃ) — ಯಾರು
(ದೇವಾನಾಂ) — ಅಗ್ನಿಯಂತಹ ದೈವಿಕ ಗುಣಗಳನ್ನು
(ನಾಮಧಾಃ) — ಧರಿಸಿದ್ದಾನೆಯೋ
(ತಂ ಸಂಪ್ರಶ್ನಮ್) — ಯಾರ ಉಪಾಸನೆ ಮತ್ತು ಆಶ್ರಯವನ್ನು ನಾವೆಲ್ಲರೂ ಮಾಡಬೇಕೋ ಆ ಪರಮಾತ್ಮನನ್ನು
(ಅನ್ಯಾ ಭುವನಾ ಯಂತಿ) — ಇತರ ಲೋಕ-ಲೋಕಾಂತರಗಳು ಹಾಗೂ ಜೀವಿಗಳು ಆಶ್ರಯವಾಗಿಸಿಕೊಳ್ಳುತ್ತಾರೆ.

ಸರಳ ಕನ್ನಡ ಅನುವಾದ:
ಯಾವ ಪರಮಾತ್ಮನು, ನಮಗೆ ಜನ್ಮ ನೀಡಿ, ನಮ್ಮೆಲ್ಲರ ತಂದೆಯಾಗಿದ್ದಾನೆಯೋ, ಅನೇಕ ದಿವ್ಯ ಹೆಸರುಗಳಿಂದ ಕರೆಯಲ್ಪಡುತ್ತಾನೆಯೋ, ಅವನೇ ಇಡೀ ವಿಶ್ವದ ಎಲ್ಲಾ ರಹಸ್ಯಗಳು ಮತ್ತು ಸ್ಥಳಗಳನ್ನು ತಿಳಿದಿದ್ದಾನೆ. ಆ ಪರಮಾತ್ಮನ ಉಪಾಸನೆ ಮತ್ತು ಆಶ್ರಯ ಮಾಡುವುದರಿಂದಲೇ ಇತರರೂ ಜ್ಞಾನವನ್ನು ಪಡೆಯುತ್ತಾರೆ.

ಓಂ.

10/07/2025

*• आर्यसमाजी अनुशासन में गुरु का स्थान •*
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आर्यसमाज के प्रवर्तक महर्षि दयानन्द सरस्वती जी ने अपने जीवन में अनेक विद्वानों एवं गुरुजनों से विविध प्रकार का ज्ञान प्राप्त किया। उनके पिताजी शिवभक्त थे। उन्होंने अपने पुत्र मूलशंकर को अक्षरज्ञान के साथ-साथ अपनी आस्था के अनुरूप पूजापाठ और शिवलिंग-पूजा आदि का प्रारम्भिक शैव शिक्षण दिया। पास के गाँव के एक पंडितजी से भी उन्होंने अपने पुत्र के लिए विधिवत् अध्ययन की व्यवस्था की थी।

गृहत्याग के पश्चात् मूलशंकर ने अनेक विद्वानों से शास्त्र-अध्ययन तथा योगाभ्यास संबंधी ज्ञान प्राप्त किया। अंततः मथुरा में उन्होंने स्वामी विरजानन्द दंडी जी के चरणों में बैठकर ढाई वर्षों तक अष्टाध्यायी, महाभाष्य, निरुक्त आदि ग्रंथों का विधिपूर्वक अध्ययन किया। प्रतीत होता है कि स्वामी विरजानन्द जी के पश्चात् उन्होंने किसी अन्य को गुरु रूप में स्वीकार नहीं किया।

महर्षि दयानन्द जी अनेक विषयों में क्रांतिकारी सुधारक थे, किंतु गुरु-शिष्य परंपरा के विषय में वे प्राचीन वैदिक मर्यादा का ही समर्थन करते हैं। उन्होंने अपने ग्रंथों के अंत में स्वयं को स्वामी विरजानन्द जी का शिष्य घोषित किया है। अपने ग्रंथों — सत्यार्थप्रकाश, संस्कारविधि आदि — में उन्होंने गुरुकुल-आधारित शिक्षण-पद्धति का समर्थन किया है, जिसमें उपाध्याय, आचार्य और गुरु को उच्चतम सम्मान प्राप्त होता है। इस दृष्टि से वे प्राचीन वैदिक गुरु-शिष्य परंपरा के सशक्त समर्थक हैं।

महर्षि दयानन्द जी ने यह भी स्पष्ट किया है कि गुरु अथवा आचार्य कैसे होने चाहिए, शिष्य की योग्यताएँ क्या हों, उनके आपसी संबंध कैसे हों, और अध्ययन की विधि कैसी हो — इन सब विषयों पर उन्होंने अपने ग्रंथों में विस्तृत निर्देश किए हैं।

इन सबके बावजूद महर्षि दयानन्द जी 'गुरु-कृपा', चमत्कार, अथवा गुरु के अलौकिक सामर्थ्य जैसे अंधविश्वासों के घोर विरोधी थे। उन्होंने समाज को चेताया है कि वह झूठे, अयोग्य, दम्भी, लोभी, क्रोधी, लालची, चारित्र्यहीन, बगुला भगत तथाकथित गुरुओं से सावधान रहे। उन्होंने स्पष्ट किया कि ऐसे ढोंगी गुरु विविध युक्तियों से भोलेभाले अनुयायियों का शोषण करते हैं, उन्हें बौद्धिक रूप से अपंग और परमुखापेक्षी बना देते हैं।

आजकल अनेक अविवेकी लोग यह मानते हैं कि कोई गुरु अपनी "कृपा" से शिष्य को मालामाल करा सकता है, समाधिलाभ करा सकता है, ईश्वर-साक्षात्कार करवा सकता है, दूरस्थ स्थान से संवाद स्थापित कर सकता है, शक्तिपात कर सकता है, कुण्डलिनी जागृत कर सकता है, कुछ अप्रत्याशित लाभ प्राप्त करा सकता है — इत्यादि। किंतु एक विवेकी आर्यसमाजी इन अतिशयोक्तिपूर्ण, मिथ्या विश्वासों को स्वीकार नहीं करता।

महर्षि दयानन्द जी ने 'गुरु' की परिभाषा स्पष्ट करते हुए कहा है कि माता-पिता और वह प्रत्येक व्यक्ति जो सत्य का ग्रहण और असत्य का परित्याग कराने में सहायक हो — वह 'गुरु' कहलाने योग्य है। जो व्यक्ति अपने सत्योपदेश से अज्ञानरूपी अंधकार को दूर करता है, वही वास्तविक गुरु होता है। शिष्य को अपनी पात्रता के अनुसार ही ज्ञान प्राप्त होता है। यह ज्ञान श्रवण, मनन, निदिध्यासन और साक्षात्कार के द्वारा ही प्राप्त होता है — यह श्रमसाध्य, समयसाध्य प्रक्रिया है; इसमें कोई चमत्कार नहीं होता।

महर्षि दयानन्द जी ने पतंजलि मुनि जी के योगदर्शन का अनुसरण करते हुए ईश्वर को "परमगुरु" स्वीकार किया है, जो सर्वज्ञ, सर्वव्यापक और निर्भ्रांत है। कोई भी मानव-गुरु कितना ही शास्त्रज्ञ या योगसाधक क्यों न हो, वह ईश्वर के समान सर्वज्ञ और सर्वसामर्थ्यवान नहीं हो सकता। अतः नित्य-सिद्ध परमेश्वर-गुरु का स्थान सर्वोच्च है, फिर भी योग्य मानव-गुरु की आवश्यकता का भी उन्होंने स्पष्ट समर्थन किया है।

जिस व्यक्ति में जितने सद्गुण और जितनी योग्यता हो, उसे उसी अनुरूप मान-सम्मान मिलना चाहिए। किंतु किसी अयोग्य, कपटी, स्वार्थी, दुराचारी, मिथ्याभिमानी, कुतर्की अथवा ढोंगी को कभी भी गुरु या मार्गदर्शक नहीं बनाना चाहिए। ऐसा व्यक्ति गुरु कहलाने योग्य नहीं है; बल्कि ऐसा गुरु न होना ही श्रेयस्कर है।

इसलिए एक आर्यसमाजी व्यक्ति से यह अपेक्षा की जाती है कि वह विवेकशील हो, और गुरु के चयन में योग्य-अयोग्य का भेद करने में सक्षम हो — साथ ही अन्य लोगों को भी इस विषय में जागरूक बना सके। इस विषय में सत्यार्थ प्रकाश के ग्यारहवें समुल्लास में वर्णित महर्षि दयानन्द जी के निम्नलिखित विचारों को सदैव अपने लिए मार्गदर्शक समझना चाहिए -

*"ब्रह्मा, विष्णु, महेश्वर और परब्रह्म परमेश्वर के नाम हैं। उसके तुल्य गुरु कभी नहीं हो सकता। यह गुरुमाहात्म्य गुरुगीता भी एक बड़ी पोपलीला है। गुरु तो माता, पिता, आचार्य और अतिथि होते हैं। उनकी सेवा करनी, उनसे विद्या, शिक्षा लेनी-देनी, शिष्य और गुरु का काम है। परन्तु जो गुरु लोभी, क्रोधी, मोही और कामी हो तो उसको सर्वथा छोड़ देना, शिक्षा करनी, सहज शिक्षा से न माने तो अर्घ्य, पाद्य अर्थात् ताड़ना दण्ड प्राणहरण तक भी करने में कुछ भी दोष नहीं। जो विद्यादि सदगुणों में गुरुत्व नहीं है, झूठ-मूठ कण्ठी तिलक वेद-विरुद्ध मन्त्रोपदेश करने वाले हैं वे गुरु ही नहीं किन्तु गड़रिये जैसे हैं। जैसे गड़रिये अपनी भेड़ बकरियों से दूध आदि से प्रयोजन सिद्ध करते हैं वैसे ही शिष्यों के चेले चेलियों के धन हर के अपना प्रयोजन करते हैं।"*

-- भावेश मेरजा

25/06/2025

प्रायः यह माना जाता है कि मनवाधिकारों की प्रथम अवधारणा संयुक्त राष्ट्र संघ की उद्घोषणा ( UN Charter) में है। यह भ्रम फैलाया जाता है कि दुनिया के सभी मजहब/ रिलीजन/ धर्म/ सम्प्रदाय समानता और मानवता से दूर हैं। सत्य यह है कि कुरान, बाइबिल, त्रिपिटक आदि मत मजहबों की किताबों मे समानता नहीं है।
परन्तु वेद मे मानवाधिकार का स्पष्ट विवरण है। विस्तार से जानने के लिए पढिए

*वेदों मे मानवीय मूल्य*

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वेद में वर्णित मानवीय मूल्य क्या है?

समानी प्रपा सहवोऽन्भागः समाने योषत्रे सहवो युनाज्मि।
सम्यंचोऽग्नि सपर्य्यतारा नाभिमिवा भितः।
अथर्व 3/30/6

तुम्हारा पीने के पदार्थ (जल दूध आदि) एक समान हो, अन्न भोजन आदि समान हो, मैं तुम्हें एक साथ एक ही (कर्त्तव्य) के बन्धन में जोड़ता हूँ। जिस प्रकार पहिये की अक्ष में आरे (Spokes) जुड़े होते हैं उसी पर आपस में मिलजुलकर परोपकारी सदाचारी विद्वान के नेतृत्व में चलो

संगच्छध्वं संवदध्वं सवो मनाँसि जानताम्।
देवा भागं यथा पूर्वे संजानाना उपासते॥
ऋग॰ 10/191/2

आपस में मिलों, संवाद करो, जिससे तुम्हारे मन एक ज्ञान वाले हों, जैसा कि तुमसे पहले के विद्वान एक मन होकर अपना कर्तव्य करते हैं।

समानीव आकूति: समाना हृदयानि व:।
समानमस्तु वो मनो यथा व: सुसहासति॥
ऋग॰ 10/191/4

हे मनुष्यों (व: ) आप सभी को (आकूति: ) विचार संकल्प (समानी) समान होवें। (व: ) आप सभी के (हृदयानि) हृदय (समाना) समान होवें (व: ) आप सभी के (मन: ) मनन-चिन्तन (समानम अस्तु) समान होवें। (यथा) जिससे (व: ) आप सभी का (सुसह-असति) एक साथ रहना होवे।

अज्येष्ठासो अकनिष्ठास एते सं भ्रातरो बावृधुः सौभगाय । -ऋ0 5/60/5

अर्थात् मनुष्यों में जन्म सिद्ध कोई भेद नहीं है। उनमें कोई बड़ा, कोई छोटा नहीं है। वे सब आपस में बराबर के भाई हैं। सबको मिलकर अभ्युदय पूर्वक मोक्ष की प्राप्ति के लिये यत्न करना चाहिये। इससे यह भी विदित होता है कि मनुष्यों में मनुष्यत्व की दृष्टि से वर्णों में कोई जन्म सिद्ध भेद नहीं है। और की स्थिति तथा अधिकार बराबर है।

यथेमां वाचं कल्याणीमावदानि जनेभ्यः
ब्रह्म राजन्याभ्यां शूद्राय चार्याय च स्वाय चारणाय।
यजु0 26/2

इस मन्त्र में शूद्र को नहीं अपितु मनुष्य मात्र को भी वेद पढ़ने का वैसा ही अधिकार दिया गया है, जैसाकि ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य को।

पंचजनाममहोत्रं जुषन्तां गो जाता उतये यशियाष्ठः पृथिवी नः | पार्थिवाह्यत्वं हसोऽन्तरिक्षं दिव्यात्पात्वस्मान् ॥
-ऋ० 10/53/5

इस मन्त्र में यजमान कहता है कि ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र और निषाद पांचों प्रकार के

मनुष्य मेरे यज्ञ को करें इत्यादि। उक्त मंत्रों से स्पष्ट है कि वेद में चारों वर्गों को द्विज बनाने का एक समान अधिकार है। यह अधिकार न होता तो वर्ण व्यवस्था की आयोजना हो ही नहीं सकती थी क्योंकि द्विजन्मा बिना कोई भी व्यक्ति किसी भी वर्ण के कार्य की शिक्षा प्राप्त नहीं कर सकता।

सबकी उन्नति व प्रेम की प्रार्थना

रुचं नो धेहि ब्रह्मणेषुरुचं राजसु नरस्कृधि ||
रुचं विश्येषु शूद्रेषुमयि धेहि रुचा रुचम् ॥
-यजु0 18/48
प्रियं मा कृण देवेषु प्रियं राजसु मा कृणु ||
प्रियं सर्वस्य पश्यत उत शूद्र उतार्ये ।।
अथर्व0 18/62/1

प्रथम मंत्र में ब्राह्मणों, क्षत्रियों वैश्यों और शूद्रों को समान रूप से तेज देने की प्रार्थना की गई है और दूसरे मंत्र में चारों वर्णों को परस्पर प्रेमी और प्यारा बनने की शिक्षा दी गई है। इससे विदित है कि वेद में चारों वर्णों के साथ एक सा व्यवहार किया गया है।

14/06/2025

वेदों के विषय में अनेकों भ्रांतियां फैलाई हुई हैं। इनके पीछे जहां आचार्य महीधर / सायण जैसे भारतीय आचार्य और उनके अनुयायी हैं वहीं
भारतीय वामपंथी, अम्बेडकरवादी और मैक्समूलर जैसे विदेशी विद्वान भी हैं।
इन्ही सभी भ्रांतियों का निराकरण एक ही पुस्तक में विस्तार पूर्वक किया गया है।
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आर्यसमाज के प्रवर्तक महर्षि दयानंद सरस्वती ने वर्तमान युग में वेदों के संबंध में कई मूलभूत वातों की ओर संसार का ध्यान आकर्षित किया है। जैसे कि -
१. ऋक्‌, यजुः, साम और अथर्व - ये चार मंत्र संहिताएं ही ‘वेद’ हैं। इन चार मंत्र संहिताएं ही ईश्वर-प्रणीत अथवा अपौरुषेय ज्ञान-पुस्तकें हैं। इन चार के अतिरिक्त जो भी पुस्तकें हैं - मान्य या अमान्य, वे सब मनुष्यों द्वारा रचित अर्थात् पौरुषेय हैं।
२. वेदों में ज्ञान, विज्ञान, कर्म और उपासना - ये चार विषयों का अथवा ईश्वर, जीव और प्रकृति (तथा प्रकृति से उत्पन्न सृष्टि) के संबंध में निर्भ्रान्त ज्ञान वर्णित है। वेद-ज्ञान की सहायता से मनुष्य अपने जीवन के चरम लक्ष्य मोक्ष की प्राप्ति कर सकता है।
३. वेदों में किसी राजा, प्रजा, देश, व्यक्ति आदि का बिलकुल इतिहास नहीं है। वेदों तो सृष्टि के आरंभ में प्रकाशित हुए हैं। उनमें किसी मनुष्य का इतिहास नहीं है। मनुष्यों ने वेदाविर्भाव के पश्चात् अपनी आवश्यकता अनुसार व्यक्तिओं, देशों, पर्वतों, नदियों तथा समुद्रों आदि के नाम वेदों के शब्दों के आधार पर निश्चित किए हैं। वेदों के शब्दों के आधार पर नाम रखने की यह परंपरा आज पर्यंत चली आ रही है। परंतु इससे वेदों में इन नामों वाले व्यक्तियों का इतिहास वर्णित है, ऐसा मान लेना तो बिलकुल ही अयोग्य समझा जाएगा। वेदों में मानवीय अनित्य इतिहास का नितान्त अभाव है। हां, सृष्टि की रचना कैसे होती है, प्रथम क्या बनता है, बाद में क्या बनता है, इसका चक्र कैसे चलता है, किन नियमों से सृष्टि चलती है, इत्यादि प्रश्नों के वैज्ञानिक समाधान के रूप में सृष्टि का नित्य इतिहास तो वेदों में है, परंतु उनमें किसी प्रकार का अनित्य मानवीय इतिहास बिल्कुल नहीं है। समस्त वैदिक साहित्य इस बात को प्रमाणित करता है कि वेदों में किसी भी देश, समाज या व्यक्ति का इतिहास नहीं है। इसलिए वे लोग जो वेदों में मानवीय इतिहास की कड़ियाँ या संकेत ढूंढने में विश्वास रखते हैं और इसी हेतु से कार्यरत हैं, वे वास्तव में वेदों के यथार्थ स्वरूप को समझने में भारी भूल कर रहे हैं।
४. वेदों में तीन पदार्थों को अनादि, अनुत्पन्न, नित्य स्वीकार किए गए हैं - ईश्वर, जीव और प्रकृति। इन तीनों पदार्थ की सत्ता सदैव बनी ही रहती है। इसलिए उनका कभी भी अभाव नहीं होता है। ये तीनों सत्ताएं अनादि हैं, वे कभी भी उत्पन्न नहीं होतीं हैं। ये तीनों तो बस ऐसे ही सदा से हैं और आगे भी सदैव बनी रहेंगी। ये तीनों सत्ताएं अनादि - अनंत काल से अपना अस्तित्व रखती आयी हैं और अनंत काल तक ऐसे ही विद्यमान रहने वाली हैं। उनका कभी भी अभाव होने वाला नहीं है। इसके अतिरिक्त, ये तीनों सत्ताएं एक में से दूसरी ऐसे परिवर्तित भी कभी नहीं होती हैं। अर्थात् ईश्वर कभी जीव या प्रकृति नहीं बनता है; जीव कभी ईश्वर या प्रकृति नहीं बनता है; और प्रकृति कभी ईश्वर या जीव नहीं बनती है। ये तीनों सत्ताएं अपने-अपने स्वाभाविक गुणों के आधार पर एक-दूसरे से सदैव भिन्न ही बनी रहती हैं; कभी भी अभिन्न - समान - एक नहीं हो जातीं। ईश्वर और जीव चेतन हैं, जबकि प्रकृति जड़ है। ईश्वर जीवों के कल्याण के लिए - उनकों उन्नति का - मोक्ष-प्राप्ति का अवसर प्रदान करने के लिए प्रकृति में से सृष्टि बनाता है। यह सृष्टि आज पर्यंत अनंत बार बनी-बिगड़ी है, और भविष्य में भी अनंत बार बनने-बिगड़ने वाली है। सृष्टि-प्रलय का यह क्रम भी अनंत है।
५. वेदों में मनुष्य के चरम विकास एवं उन्नति के लिए अपेक्षित समस्त ज्ञान वर्णित है। वेदों में सर्व प्रकार का ज्ञान-विज्ञान निहित है। वेदों में ईश्वर-प्राप्ति अथवा मोक्ष-प्राप्ति को मानव जीवन का चरम लक्ष्य बताया गया है। वेदों का प्रधान विषय यही अध्यात्म विज्ञान है। वेदों में भौतिक जीवन के प्रति भी अनादर के भाव नहीं हैं, उसके उत्कर्ष के लिए भी पर्याप्त सामग्री वेदों में उपलब्ध है; फिर भी आध्यात्मिक ऐश्वर्य की तुलना में भौतिक ऐश्वर्य को गौण जरूर बताया गया है।
६. वेद जगत् को वास्तविक एवं सप्रयोजन मानते हैं। जगत् को स्वप्नवत्‌ मिथ्या मानते हुए अपने शारीरिक, सामाजिक, आर्थिक, राजनैतिक अभ्युदय की प्राप्ति के लिए बिल्कुल कामना या यत्न ही न करना - इस प्रकार के निराशावादी चिंतन का वेदों में अभाव है। वेद हमें ज्ञान-कर्म-उपासनामय कर्मठ जीवन के पाठ पढ़ाते हैं।
७. वेदों में विशुद्ध एकेश्वरवाद का प्रतिपादन किया गया है। एक ही सच्चिदानंद-स्वरूप, सर्वव्यापक, निराकार, अनंत, सर्वशक्तिमान, चेतन ईश्वर के गुण-कर्म-स्वभाव का ज्ञान कराने के लिए वेदों में उसकी अनेकानेक नामों से स्तुति - यथार्थ वर्णन किया गया है। इसलिए वेदों में ईश्वर के लिए प्रयुक्त इन्द्र, वरुण, प्रजापति, सविता, विधाता, अग्नि, गणपति इत्यादि नामों को देखकर ऐसा निष्कर्ष निकाल लेना कि वेदों में तो अनेक ईश्वर की स्तुति है, वेदों तो बहुदेवतावादी हैं, एक गंभीर भूल ही मानी जाएगी। वेद एक ही ईश्वर की स्तुति-प्रार्थना-उपासना करने की शिक्षा देते हैं।
८. वेद मानवोपयोगी समस्त विद्याओं के मूल हैं। वेदों में मानव जीवन के सभी अंगो के विषय में - व्यष्टि एवं समष्टि दोनों के विषय में ज्ञान प्रस्तुत किया गया है। वेदों में भौतिक विज्ञान के रहस्य भी उपलब्ध हैं, परंतु वेदों में ये सब विद्याएं मूलवत् अर्थात् बीज या सूत्र रूप में वर्णित हैं। वेदों में किसी ‘शास्त्र’ के रूप में अमुक विद्या या विज्ञान-शाखा का सांगोपांग विस्तार या विशद विवेचन प्रस्तुत नहीं किया गया है। परंतु वेदों में से भौतिक जगत् विषयक संकेतों को ठीक से समझ कर उनके अवलंबन से सृष्टि का गहन वैज्ञानिक अध्ययन करके मनुष्य भौतिक जगत् की भी अनेक सच्चाइयों का अन्वेषण कर सकते हैं।
९. वेदों में यज्ञ, संस्कार आदि कर्मकांड का भी यथोचित वर्णन किया गया है। वेदों में वेदार्थ आधारित सार्थक एवं वैज्ञानिक कर्मकांड को समुचित स्थान दिया गया है। वेदों में ‘यज्ञ’ शब्द को अत्यंत विस्तृत अर्थ में प्रयुक्त किया गया है, जिसकी अर्थ-परिघि में उन सभी प्रकार के उत्तम कर्मों का समावेश हो जाता है, जो किसी सद्‌भावना से प्रेरित होकर किए जाते हैं और जिनके द्वारा सुखों की वृद्धि और दुःखो तथा क्लेशों का शमन होता हैं। फिर भी यह नहीं भूलना चाहिए वेद केवल द्रव्यमय यज्ञों या कर्मकांड के लिए ही प्रवृत्त नहीं हुए हैं। वेद ज्ञान के - सत्य विद्याओं के ग्रंथ हैं; ये याज्ञिक कर्मकांड के ही या मानवीय अनित्य इतिहास के ग्रंथ नहीं हैं। कर्मकांड में भी जो विनियोग होता है वह मंत्र के अर्थ के आधीन होना अपेक्षित है।
१०. वेद और सृष्टि दोनों ईश्वरीय हैं। जैसे वेद ईश्वर-प्रणीत हैं, ईश्वरीय ज्ञान के ग्रंथ हैं, वैसे ही यह सृष्टि अथवा जगत् भी वही ईश्वर द्वारा रचित एवं संचालित है। इसलिए इन दोनों में अर्थात् वेद तथा सृष्टि में अ-विरोध है, दोनों में पूरी संगति है, पक्का समन्वय है। सृष्टि विषयक जो बातें वेदों में वर्णित हैं, वही बातें हमें सृष्टि में उपस्थित व कार्यरत दिखाई पड़ती हैं। इसलिए वेद सर्वथा वैज्ञानिक हैं। वेदों में ऐसी एक भी बात नहीं है, जो सृष्टिक्रम के विरुद्ध हो या जिसका सृष्टि-विज्ञान से मेल न बैठता हो। इस तरह वेदों की रचना बुद्धिपूर्वक - ज्ञान-विज्ञानपूर्वक है, जो उनका ईश्वरीय होना सिद्ध करता है।
११. वेदों में मानव समाज का ब्राह्मण आदि चार वर्णों में विभाजन किया गया है; परंतु इस विभाजन का आधार व्यक्ति का जन्म नहीं, बल्कि उसके गुण-कर्म-स्वभाव हैं। जन्म आधारित जाति प्रथा न केवल वेदबाह्य है, बल्कि वेद-विरुद्ध भी है।
१२. वेदों को यथार्थ रूप में समझने के लिए ब्राह्मण-ग्रंथ, वेदांग, उपांग, उपवेद, प्रमुख – मौलिक उपनिषद् तथा मनुस्मृति आदि पुरातन वैदिक ग्रंथो का अध्ययन अत्यंत आवश्यक है। पाणिनि मुनि कृत अष्टाध्यायी, पतंजलि मुनि कृत महाभाष्य तथा यास्क मुनि कृत निरुक्त तथा निघंटु के अध्ययन से वेदों की भाषा तथा वेदों के अर्थ समझने में अनन्य सहायता प्राप्त हो सकती है।
१३. वेदों की शिक्षाएं - उपदेश सर्वथा उदात्त, सार्वभौम, सर्वजनोपयोगी और प्राणीमात्र के लिए हितकारी हैं। वेद मानवमात्र का ही नहीं, जीवमात्र का हित करने वाली बातों का उपदेश करते हैं। वेदों में जिसे संकीर्ण, एकांगी या सांप्रदायिक कहा जा सके ऐसा कुछ भी नहीं है। सभी का कल्याण और सर्वविध उन्नति कराने वाली सुभद्र बातों को प्रकाशित करने वाले वेद वैश्विक धर्म के प्रतिनिधि हैं। वेदों में उन समस्त विषयों का उल्लेख पाया जाता है, जिनका स्वीकार व आचरण कर कोई भी देश, समाज या व्यक्ति उन्नति के शिखर पर पहुंच सकता है और सभी लोग विश्व, देश, समाज या परिवार में सुख एवं शांतिपूर्वक रहकर जीवन व्यतीत कर सकते हैं। मनुष्यों को आज पर्यंत जिन-जिन सत्य विद्याओं की आवश्यता अनुभव हुई है और भविष्य में उन्हें जिन-जिन सत्य विद्याओं की आवश्यकता अनुभव होगी, उन सब सत्य विद्याओं का बीज रूप में समावेश वेदों में हुआ है।
१४. वेद ईश्वरीय ज्ञान है। अतः उन पर मानवमात्र का समान मौलिक अधिकार है। किसी को भी यह अधिकार नहीं है कि वह अन्य किसी को उसके वेदाधिकार से वंचित कर सके।
१५. मनुष्य के आत्मा में अपना जीवस्थ स्वाभाविक ज्ञान तो होता ही है, परंतु वह इतना अल्प होता है कि केवल उससे वह उन्नति नहीं कर सकता है। उन्नति तो होती है - नैमित्तिक ज्ञान से जिसे अर्जित या प्राप्त किया जाता है। वेद ईश्वर-प्रदत्त नैमित्तिक ज्ञान है। वह सर्वज्ञ ईश्वर का ज्ञान होने से निर्भ्रांत है और इसीलिए ‘परम-प्रमाण’ अथवा ‘स्वतः-प्रमाण’ है। वह सूर्य अथवा प्रदीप के समान स्वयं प्रमाणरूप है। उसके प्रमाण होने के लिए अन्य ग्रंथों की अपेक्षा नहीं होती है। चार वेदों के अतिरिक्त समस्त वैदिक अथवा वेदानुकूल साहित्य अति महत्त्वपूर्ण होते हुए भी मानवीय - पौरुषेय होने के कारण परत-प्रमाण है। इन ग्रंथों में जो कुछ वेदानुकूल है वह प्रमाण और ग्राह्य है, और जो कुछ वेदविरुद्ध है वह अप्रमाण और अग्राह्य है।
१६. वेदों के समस्त शब्द यौगिक या योगरूढ हैं, इसलिए वे आख्यातज हैं; रूढ या यदृच्छारूप नहीं हैं। इसलिए वैदिक शब्दों का तात्पर्य जानने के लिए व्याकरणशास्त्र के अनुसार यथायोग्य धातु-प्रत्यय संबंध पूर्वक अर्थ समझने का प्रयत्न करना चाहिए। धातुएं अनेकार्थक होने से मंत्र भी अनेकार्थक होते हैं और उनके आधिदैविक, आधिभौतिक और आध्यात्मिक अर्थ किए जा सकते हैं। दूसरे शब्दों में - प्रकरण आदि का विचार करके वेदमंत्रों के पारमार्थिक तथा व्यावहारिक दोनों प्रकार के अर्थ करने का प्रयास करना चाहिए।
१७. पिछली दो शताब्दियों में पश्चिम के अनेक विद्वानों ने वेदों पर कार्य किया है और तत्संबंधी ग्रंथ आदि भी लिखे हैं, जिनमें मेक्समूलर, मोनियर विलियम्स, ग्रिफिथ इत्यादि के नाम प्रसिद्ध हैं। ये पाश्चात्य विद्वान् वेदों को वास्तविक रूप में प्रस्तुत नहीं कर सके हैं; क्योंकि एक तो वे वेद तथा वेदार्थ की पुरातन आर्ष परंपरा से अपरिचित थे और दूसरा यह कि वे लोग अपने ईसाई मत के प्रति आग्रह रखते थे और विकासवाद को अंतिम सत्य मानकर चलते थे। इसलिए पाश्चात्यों का वेद विषयक कार्य प्रायः वेदों की प्रतिष्ठा को हानि पहुंचाने वाला ही सिद्ध हुआ है। इसी प्रकार सायण, महीधर आदि मध्ययुगीन भारतीय पंडित भी अपनी कुछ गंभीर मिथ्या धारणाओं के कारण वेदों को यथार्थ रूप में व्याख्यायित करने में असफल रहे हैं।
१८. वेदों में सत्य में श्रद्धा और असत्य में अश्रद्धा रखने की प्रेरणा दी गई है। वेद हमें विद्या की वृद्धि और अविद्या का नाश करने के लिए तथा वैज्ञानिक चिंतन को जाग्रत करने के लिए प्रोत्साहित करते हैं। मूर्तिपूजा, अवतारवाद, अद्वैतवाद, पयगंबरवाद, मृतक-श्राद्ध, फलित ज्योतिष, जन्म आधारित जातिप्रथा, चमत्कारवाद, नास्तिकवाद इत्यादि वेदविरुद्ध होने से खंडनीय एवं त्याज्य हैं।
लेख साभार : Bhavesh Merja

31/05/2025

ಶ್ರೇಷ್ಠ ಯಜ್ಞ ಸೂಕ್ತಿಗಳು (ಸೂಕ್ತಿಗಳ ಕನ್ನಡ ಭಾಷಾಂತರ)

೧. "ಯಜ್ಞೋ ವೈ ಶ್ರೇಷ್ಟತಮಂ ಕರ್ಮ ।" (ಶತಪಥ ಬ್ರಾಹ್ಮಣ)
ಯಜ್ಞವು ಈ ಲೋಕದ ಅತ್ಯುತ್ತಮ ಕರ್ಮವಾಗಿದೆ.

೨. "ಯಜ್ಞೋ ವೈ ಕಲ್ಪವೃಕ್ಷಃ ।"
ಯಜ್ಞವು ಇಚ್ಛೆಗಳನ್ನು ಪೂರೈಸುವ ಕಲ್ಪವೃಕ್ಷವಾಗಿದೆ.

೩. "ಈಜಾನಾಃ ಸ್ವರ್ಗಂ ಯಂತಿ ಲೋಕಂ ।" (ಅಥರ್ವವೇದ ೧೮.೪.೨)
ಯಜ್ಞ ಮಾಡುವವರು ಸ್ವರ್ಗ (ಸുഖ) ಪಡೆಯುತ್ತಾರೆ.

೪. "ಅಗ್ನಿಹೋತ್ರಂ ಜುಹೂಯಾತ್ ಸ್ವರ್ಗಕಾಮಃ ।"
ಸ್ವರ್ಗದ ಆಶೆ ಹೊಂದಿರುವವನು ಯಜ್ಞ ಮಾಡಬೇಕು.

೫. "ಹೋತ್ರಷದನಂ ಹರಿತಂ ಹಿರಣ್ಯಂ ।"
ಯಜ್ಞವಿರುವ ಮನೆ ಸಂಪತ್ತು ಮತ್ತು ಅನ್ನದಿಂದ ತುಂಬಿರುತ್ತದೆ.

೬. "ಯಜ್ಞಾತ್ ಭವತಿ ಪರ್ಜನ್ಯಃ ।"
ಯಜ್ಞದಿಂದ ಮಳೆ ಆಗುತ್ತದೆ.

೭. "ಇಯಂ ತೇ ಯಜ್ಞಿಯಾಃ ತನೂ ।"
ಈ ದೇಹವು ಯಜ್ಞ ಮತ್ತು ಸತ್ಕರ್ಮಗಳಿಗಾಗಿ ಆಗಿದೆ.

೮. "ಸ್ವರ್ಗ ಕಾಮೋ ಯಜೇತ್, ಪುತ್ರ ಕಾಮೋ ಯಜೇತ್ ।"
ಸ್ವರ್ಗ ಅಥವಾ ಪುತ್ರಬಲದ ಇಚ್ಛೆ ಇರುವವರು ಯಜ್ಞ ಮಾಡಬೇಕು.

೯. "ಯಜ್ಞಂ ಜನಯಂತ ಸೂರಯಃ ।" (ಋಗ್ವೇದ ೧೦.೬೬.೨)
ಓ ಬುದ್ಧಿವಂತರೇ! ಯಜ್ಞವನ್ನು ವಿಶ್ವದಲ್ಲಿ ಹರಡಿ.

೧೦. "ಯಜ್ಞೋ ವೈ ದೇವಾನಾಮಾತ್ಮಾ ।" (ಶತಪಥ)
ಯಜ್ಞವು ದೇವತೆಗಳ ಆತ್ಮವಾಗಿದೆ.

೧೧. "ಯಜ್ಞೇನ ದುಷ್ಯಂತೋ ಮಿತ್ರಾಃ ಭವನ್ತಿ ।" (ತೈತಿರೀಯ ಉಪನಿಷತ್ತು)
ಯಜ್ಞ ಮಾಡುವವನ ಶತ್ರುಗಳು ಸಹ ಸ್ನೇಹಿತರಾಗುತ್ತಾರೆ.

೧೨. "ಪ್ರಾಚಂ ಯಜ್ಞಂ ಪ್ರಣಯತಾ ಸಖಾಯಃ ।" (ಋಗ್ವೇದ ೧೦.೧೦೧.೨)
ಮಿತ್ರರೇ, ಯಜ್ಞವನ್ನು ಪೂರ್ವ ದಿಕ್ಕಿನಲ್ಲಿ ಪ್ರಾರಂಭಿಸಿರಿ.

೧೩. "ಅಯಜ್ವಾನಃ ಸನಕಾ ಪ್ರೇತಮೀಯುಃ ।" (ಋಗ್ವೇದ ೧.೩೩.೪)
ಯಜ್ಞವಿಲ್ಲದವರು ನಾಶವಾಗುತ್ತಾರೆ.

೧೪. "ನ ಮರ್ಧಂತಿ ಸ್ವತವಸೋ ಹವಿಷ್ಕೃತಂ ।" (ಋಗ್ವೇದ ೧.೧೬೬.೨)
ಯಜ್ಞ ಮಾಡುವವನನ್ನು ಬಲಿಷ್ಠನೂ ಹಾನಿ ಮಾಡಲಾರನು.

೧೫. "ಸಜೋಷಸೋ ಯಜ್ಞಮವಂತು ದೇವಾಃ ।" (ಋಗ್ವೇದ ೩.೮.೮)
ದೇವತೆಗಳು ಪರಸ್ಪರ ಪ್ರೀತಿ ಸಹಿತ ಯಜ್ಞವನ್ನು ರಕ್ಷಿಸಲಿ.

೧೬. (ಸಂಖ್ಯೆ ತಪ್ಪಿಹೋಗಿದೆ, ಮುಂದುವರಿಯುತ್ತೆ)

೧೭. "ಯಜ್ಞಸ್ಯ ಪ್ರಾವಿತಾ ಭವ ।" (ಋಗ್ವೇದ ೩.೨೧.೩)
ನೀನು ಯಜ್ಞದ ರಕ್ಷಕನಾಗು.

೧೮. "ಯಜ್ಞೋ ಹಿತ ಇಂದ್ರ ವರ್ಧನೋ ಭೂತ್ ।" (ಋಗ್ವೇದ ೩.೩೨.೧೨)
ಓ ಜೀವ! ಯಜ್ಞವೇ ನಿನ್ನ ಬೆಳೆಯುವ ಶಕ್ತಿಯಾಗಿದೆ.

೧೯. "ಯಜ್ಞಸ್ತೇ ವಜ್ರಮಹಿಹತ್ಯ ಆವತ್ ।" (ಋಗ್ವೇದ ೩.೩೨.೧೨)
ಯಜ್ಞರೂಪವಾದ ವಜ್ರ ಪಾಪವನ್ನಾಳಿಯುವ ಶಕ್ತಿಯಾಗಿದೆ.

೨೦. "ಅಯಜ್ಞಿಯೋ ಹತವರ್ಚಾ ಭವತಿ ।" (ಅಥರ್ವವೇದ ೧೨.೨.೩೭)
ಯಜ್ಞ ಮಾಡದವನು ತನ್ನ ತೇಜಸ್ಸನ್ನು ಕಳೆದುಕೊಳ್ಳುತ್ತಾನೆ.

೨೧. "ಯಜ್ಞೋ ವಿಶ್ವಸ್ಯ ಭುವನಸ್ಯ ನಾಭಿಃ ।" (ಅಥರ್ವವೇದ ೯.೧೦.೧೪)
ಯಜ್ಞವು ವಿಶ್ವದ ಮತ್ತು ಬ್ರಹ್ಮಾಂಡದ ಕೇಂದ್ರವಾಗಿದೆ.

೨೨. "ಈಛ್ಛಂತಿ ದೇವಾಃ ಸುನ್ವಂತಂ ।" (ಋಗ್ವೇದ ೮.೨.೧೮)
ದೇವತೆಗಳು ಯಜ್ಞ ಮಾಡುವವನನ್ನು ಇಷ್ಟಪಡುವರು.

೨೩. "ಅತಮೇರುರ್ಯಜಮಾನಸ್ಯ ಪ್ರಜಾ ಭೂಯಾತ್ ।" (ಯಜುರ್ವೇದ ೧.೨೩)
ಓ ದೇವರೆ, ಯಜಮಾನನ ಸಂತಾನ ದುಃಖವಿಲ್ಲದದಾಗಲಿ.

೨೪. "ಸ ಯಜ್ಞೇನ ವನವದ್ ದೇವ ಮರ್ಗಾನ್ ।" (ಋಗ್ವೇದ ೫.೩.೫)
ಪ್ರಭು ಯಜ್ಞದ ಮೂಲಕ ಮನುಷ್ಯನನ್ನು ದೇವತೆಗಿಂತ ಶಕ್ತಿಶಾಲಿಯಾಗಿ ಮಾಡುತ್ತಾನೆ.

೨೫. "ವಿಶ್ವಾಯುರ್ಧೇಧಿ ಯಜಥಾಯ ದೇವ ।" (ಋಗ್ವೇದ ೧೦.೭.೧)
ಓ ದೇವ! ನಮಗೆ ಸಂಪೂರ್ಣ ಆಯುಷ್ಯವನ್ನು ಯಜ್ಞಕ್ಕಾಗಿ ನೀಡಿ.

೨೬. "ಯಜಸ್ವ ವೀರ ।" (ಋಗ್ವೇದ ೨.೨೬.೨)
ಓ ಶೂರವೀರ! ಯಜ್ಞ ಮಾಡು.

31/05/2025

ನಮಸ್ತೆ🙏

ಸತ್ಯಾರ್ಥಪ್ರಕಾಶ ಮತ್ತು ಇತರ ಗ್ರಂಥಗಳಲ್ಲಿ ಶಿಕ್ಷಣ ಮತ್ತು ಪಠ್ಯಕ್ರಮದ ಕುರಿತು ಮಹರ್ಷಿ ದಯಾನಂದರು ಬಹಳಷ್ಟು ಬರೆದಿದ್ದಾರೆ. ಆದರೂ, ಮಹಿಳಾ ಶಿಕ್ಷಣದ ಕುರಿತು ಅವರು ಪ್ರತ್ಯೇಕವಾಗಿ ಒಂದು ಪುಸ್ತಕ ಬರೆಯಬೇಕೆಂದು ಇಚ್ಛಿಸಿದ್ದರು ಎಂಬುದು ಅವರ ಜೀವನ ಚರಿತ್ರೆ ಅಧ್ಯಯನದಿಂದ ಸ್ಪಷ್ಟವಾಗುತ್ತದೆ. ದುರಾದೃಷ್ಟವೆಂದರೆ, ಮಹರ್ಷಿಗಳು ಆ ಮಹತ್ವದ ಗ್ರಂಥವನ್ನು ಬರೆಯದೆ ಕಾಲಗ್ರಸ್ತರಾದರು. ಅವರು ಮಹಿಳಾ ವರ್ಗಕ್ಕೆ ಯಾವ ವಿಧವಾದ ವಿಶೇಷ ಶಿಕ್ಷಣವನ್ನು ನೀಡಲು ಬಯಸಿದ್ದರು ಎಂಬುದನ್ನು ಅವರ 'ಆರ್ಯೋದ್ದೇಶರತ್ನಮಾಲಾ" ಎಂಬ ಕಿರು ಪುಸ್ತಕದಿಂದ ಹಿಡಿದು ವೇದಭಾಷ್ಯದಲ್ಲಿ ನೀಡಿರುವ ಉಪಮಾರ್ಥಕ ಅರ್ಥಗಳನ್ನು ನೋಡಿ ಗ್ರಹಿಸಬಹುದಾಗಿದೆ.

ಉದಾಹರಣೆ:
व्यञ्जिभिर्दिव आतास्वद्यौदप कृष्णां निर्णिजं देव्यावः । प्रबोधयन्त्यरुणेभिरश्वैरोषा याति सुयुजा रथेन ।। (ऋ०१।११३।१४)
"ವ್ಯಂಜಿಭಿರ್ದಿವ ಆತಾಸ್ವದ್ಯೌದಪ ಕೃಷ್ಣಾಂ ನಿರ್ಣಿಜಂ ದೇವ್ಯಾವಃ।
ಪ್ರಬೋಧಯನ್ಯರುಣೇಭಿರಶ್ವೈರೋಷಾ ಯಾತಿ ಸುಯುಜಾ ರಥೇನ।। (ಋಗ್ವೇದ ೧।೧೧೩।೧೪)"

ಈ ಮಂತ್ರದಲ್ಲಿ ಪ್ರಾತಃಕಾಲದ ಬೆಳಗಿನ ಉಷಾ ಕಾಲದ ವರ್ಣನೆಯಿದೆ. ಆದರೆ ಮಹರ್ಷಿ ದಯಾನಂದರು ಇದನ್ನು" ವಾಚಕಲಪ್ತೋಪಮಾಲಂಕಾರ" ಎಂದು ಕರೆದು ಮಂತ್ರದ ಭಾವಾರ್ಥವನ್ನು ಈ ರೀತಿ ನೀಡುತ್ತಾರೆ:

"ಪ್ರಾತಃಕಾಲದ ಉಷೆಯು ತನ್ನ ಕಾಂತಿಯ ಮೂಲಕ ಉಜ್ವಲವಾಗಿ ಎಲ್ಲಾ ದಿಕ್ಕುಗಳಲ್ಲಿ ಪ್ರಕಾಶಿಸುತ್ತದೆಯೋ ಹಾಗೆಯೇ ಹೆಣ್ಣು ಮಕ್ಕಳು ವಿದ್ಯೆಯಿಂದ ಯುಕ್ತರಾಗಿ, ತಮ್ಮ ಶೀಲಾದಿ ಗುಣಗಳಿಂದ ಬೆಳಗಬೇಕು. ಉಷೆಯು ಹೇಗೆ ಅಂಧಕಾರವನ್ನು ದೂರಮಾಡುತ್ತದೆ ಮತ್ತು ಪ್ರಕಾಶವನ್ನು ನೀಡುತ್ತದೆಯೋ ಹಾಗೆಯೇ ಹೆಣ್ಣು ಮಕ್ಕಳು ತಮ್ಮ ಅಜ್ಞಾನವನ್ನು ನಿವಾರಿಸಿ ಸದ್ಗುಣಗಳಿಂದ ಪ್ರಕಾಶಮಾನರಾಗಬೇಕು.

ಇನ್ನೊಂದು ಮಂತ್ರದಲ್ಲಿ ಮಹರ್ಷಿಗಳು 'ವಿಶ್ವವಾರಾ' ಎಂಬ ಪದದ ಉಪಮಾರ್ಥದ (ವಿಶ್ವದ ಸಂಪೂರ್ಣ ಕಲ್ಯಾಣವನ್ನು ಆಯ್ಕೆಮಾಡುವವಳು) ಮೂಲಕ ಸ್ತ್ರೀಯರ ಸಾಮಾಜಿಕ ಮಹತ್ವವನ್ನು ಪ್ರತಿಪಾದಿಸುತ್ತಾರೆ.

माता देवानामदितेरनीकं यज्ञस्य केतुबृहती विभाहि । प्रशस्तिकृद् ब्रह्मणे नो व्युच्छा तो जने जनय विश्ववारे ।। (ऋ० १।११३/१९)
"ಮಾತಾ ದೇವಾನಾಮದಿತೆರನೀಕಂ ಯಜ್ಞಸ್ಯ ಕ್ಷೇತ್ರಬೃಹತೀ ವಿಭಾಹಿ।
ಪ್ರಶಸ್ತಿಕೃದ್ ಬ್ರಹ್ಮಣೇ ನೋ ವ್ಯುಚ್ಚಾ ತೋ ಜನೆ ಜನಯ ವಿಶ್ವವಾರೆ।।
(ಋಗ್ವೇದ ೧।೧೧೩।೧೯)"

ಮಹರ್ಷಿ ದಯಾನಂದರ ಅಭಿಪ್ರಾಯದಲ್ಲಿ ಸ್ತ್ರೀಯರ ಉನ್ನತ ಸ್ಥಾನ ಹಾಗೂ ಗೌರವವಿಲ್ಲದೇ ಸಮಾಜ ಹಾಗೂ ರಾಷ್ಟ್ರದ ಉನ್ನತಿ ಸಾಧ್ಯವಿಲ್ಲ.

ಆಧಾರ: ಉರೂಧಾರಾ ನಾರಿ (ನಾರಿ: ಒಂದು ಶಾಶ್ವತ ಸತ್ಯರೂಪ)"
ಲೇಖಕಿ: ಪೂಜ್ಯ ಆಚಾರ್ಯ ಡಾ. ಪ್ರಜ್ಞಾ ದೇವಿ, ಪಾಣಿನಿ ಕನ್ಯಾ ಮಹಾವಿದ್ಯಾಲಯ, ವಾರಾಣಸಿ
ಪುಟ: 44–47.
ಪಸ್ತುತಿ: ರಣವೀರ್ ಆರ್ಯ, ಹೈದರಾಬಾದ್.
ಪುಸ್ತಕದ ಆಯ್ದ ಪಂಕ್ತಿಗಳ ಸಂಕ್ಷಿಪ್ತ ಕನ್ನಡ ಅನುವಾದ.

31/05/2025

ಮಹರ್ಷಿ ದಯಾನಂದರ ವೇದಾರಿತ (ಋಗ್ವೇದ) ಚಿಂತನೆಗಳು:

ಜೀವನ್ಮುಕ್ತ ಅಂದರೆ ದೇಹಾಭಿಮಾನ ಹಾಗೂ ಇತರ ಲೌಕಿಕ ಬಂಧನಗಳನ್ನು ತ್ಯಜಿಸಿರುವವರು, ಶರೀರ ತ್ಯಾಗ ಮಾಡಿ ಮೋಕ್ಷವನ್ನು ಸಾಧಿಸಿರುವ ವಿದ್ವಾಂಸರೂ ಯಾರ ಆಶ್ರಯದಲ್ಲಿ ಆನಂದವನ್ನು ಪಡೆಯುತ್ತಾರೆಯೋ, ಆ ಪರಮಾತ್ಮನೇ ಎಲ್ಲರಿಗೂ ಉಪಾಸನಾರ್ಹನು.

ನಾವಿಕನು ಹೇಗೆ ಜನರನ್ನು ಸಮುದ್ರದಿಂದ ಸುರಕ್ಷಿತವಾಗಿ ಕರೆದೊಯ್ಯುತ್ತಾನೋ, ಹಾಗೆಯೇ ಸರ್ವರಕ್ಷಕ ಪರಮಾತ್ಮನು ಎಲ್ಲರನ್ನೂ ದುಃಖಸಾಗರದಿಂದ ಪಾರು ಮಾಡಿ ಸುಖವನ್ನು ನೀಡುತ್ತಾನೆ

ಓಂ

ಮಹರ್ಷಿ ಶ್ರೀ ದಯಾನಂದ ಸರಸ್ವತಿ ಅವರ ಸಂಸ್ಮರಣೋತ್ಸವ. ಆರ್ಯ ಸಮಾಜ, ದೇವರಾಜ ಮೊಹಲ್ಲಾ, ಮೈಸೂರು.ದಿನಾಂಕ: 10 ನವೆಂಬರ್ 2024"ಸಮಾಜದಲ್ಲಿ ಕಡೆಗಣೆನ...
11/11/2024

ಮಹರ್ಷಿ ಶ್ರೀ ದಯಾನಂದ ಸರಸ್ವತಿ ಅವರ ಸಂಸ್ಮರಣೋತ್ಸವ. ಆರ್ಯ ಸಮಾಜ, ದೇವರಾಜ ಮೊಹಲ್ಲಾ, ಮೈಸೂರು.

ದಿನಾಂಕ: 10 ನವೆಂಬರ್ 2024

"ಸಮಾಜದಲ್ಲಿ ಕಡೆಗಣೆನೆಗೆ ಒಳಗಾಗಿದ್ದ ಸ್ತ್ರೀ ಮತ್ತು ಶೂದ್ರರಿಗೂ ವೇದದ ಪರಮಾಧಿಕಾರವನ್ನು ಪ್ರತಿಪಾದಿಸಿದವರು ಮಹರ್ಷಿ ದಯಾನಂದ ಸರಸ್ವತಿ"
- ವಿಧಾನ ಪರಿಷತ್ ಸದಸ್ಯ ಡಾ.ಡಿ. ತಿಮ್ಮಯ್ಯ.

"ವೇದಗಳ ಮೇಲೆ ಆಧಾರಿತವಾಗಿ ನಿಂತ ಸನಾತನ ಧರ್ಮವು ಪ್ರತಿಯೊಬ್ಬ ಮನುಷ್ಯನಿಗೂ ವೇದಗಳ ಮಹತ್ವವನ್ನು ಸಾರುತ್ತದೆ. ವೇದಗಳಿಗೆ ಹಿಂತಿರುಗಿ ಎಂಬ ಮಹರ್ಷಿಗಳ ಸಂದೇಶ ಸಾರ್ವಕಾಲಿಕ ಮಹತ್ವವನ್ನು ಪಡೆದುಕೊಂಡಿದೆ. ಮನುಕುಲದ ಒಳಿತಿಗಾಗಿಯೇ ಇರುವ ವೇದಗಳ ನಿಜವಾದ ಸಂದೇಶ ಸಾರಲು ಸತ್ಯಾರ್ಥ ಪ್ರಕಾಶ ಎಂಬ ಗ್ರಂಥವನ್ನು ರಚಿಸಿ ಮನುಕುಲಕ್ಕೆ ನೀಡಿದರು".
- ಸಂಸ್ಕೃತ ವಿದುಷಿ ಡಾ.ಕೆ. ಲೀಲಾ ಪ್ರಕಾಶ್.

ಇದೇ ವೇಳೆ ಸಂಸ್ಕೃತ ವಿದುಷಿ ಡಾ.ಕೆ. ಲೀಲಾ ಪ್ರಕಾಶ್ ಮತ್ತು ಯೋಗಾಚಾರ್ಯ ಬಿ.ಪಿ. ಮೂರ್ತಿ ಅವರಿಗೆ ಮಹರ್ಷಿ ದಯಾನಂದ ಸರಸ್ವತಿ ಸದ್ಭಾವನಾ ಪ್ರಶಸ್ತಿ ನೀಡಿ ಗೌರವಿಸಲಾಯಿತು.

ಆರ್ಯ ಸಮಾಜದ ಅಧ್ಯಕ್ಷ ಎಸ್. ಹೇಮಚಂದ್ರ, ಉಪಾಧ್ಯಕ್ಷ ಪೃಥ್ವಿರಾಜ್, ಕಾರ್ಯದರ್ಶಿ ಕೆ.ವಿ. ಉಮೇಶ್, ನವೀನ್ ಕುಮಾರ್, ಹಿಮಾಲಯ ಪ್ರತಿಷ್ಠಾನದ ಅಧ್ಯಕ್ಷ ಎನ್. ಅನಂತ, ಸಂಚಾಲಕ ಎಂ.ವಿ. ನಾಗೇಂದ್ರಬಾಬು ಮೊದಲಾದವರು ಇದ್ದರು.

ಸೌಜನ್ಯ: ಕನ್ನಡಪ್ರಭ ವಾರ್ತೆ ಮೈಸೂರು



Hemachandra Srikantiah Naveen HV Naveen Hv आर्य समाज The Arya Samaj Arya Pratinidhi Sabha and Arya Samaj of Melbourne Umesh Venkatnarayana Shastry Devaki Halale

ನಮಸ್ತೆ🙏ನಾಳೆ ಬಾನುವಾರ (10.11.2024) ಬೆಳಿಗ್ಗೆ ಆರ್ಯ ಸಮಾಜ ದಲ್ಲಿ ನಡೆಯುವ ಮಹರ್ಷಿ ದಯಾನಂದ ಸರಸ್ವತಿ ಸಂಸ್ಮರಣ ಕಾರ್ಯಕ್ರಮಕ್ಕೆ ಸದಸ್ಯರೆಲ್ಲರ...
09/11/2024

ನಮಸ್ತೆ🙏

ನಾಳೆ ಬಾನುವಾರ (10.11.2024) ಬೆಳಿಗ್ಗೆ ಆರ್ಯ ಸಮಾಜ ದಲ್ಲಿ ನಡೆಯುವ ಮಹರ್ಷಿ ದಯಾನಂದ ಸರಸ್ವತಿ ಸಂಸ್ಮರಣ ಕಾರ್ಯಕ್ರಮಕ್ಕೆ ಸದಸ್ಯರೆಲ್ಲರೂ ತಮ್ಮ ಮಿತ್ರರೊಂದಿಗೆ ಹಾಗೂ ಕುಟುಂಬ ಸದಸ್ಯರೊಂದಿಗೆ ಭಾಗವಹಿಸಬೇಕಾಗಿ ವಿನಂತಿಸುತ್ತೇನೆ.

ತಮ್ಮ ವಿಶ್ವಾಸಿ
ಹೇಮಚಂದ್ರ
ಅದ್ಯಕ್ಷರು, ಆರ್ಯ ಸಮಾಜ ಮೈಸೂರು.


Arya Pratinidhi Sabha and Arya Samaj of Melbourne

16/07/2024

*🌷 पुनर्जन्म -विवेचन 🌷*

एक शरीर को त्याग कर दूसरा शरीर धारण करना ही पुनर्जन्म कहाता है। चाहे वह मनुष्य का शरीर हो या पशु, पक्षी, कीट, पतंग आदि कोई भी शरीर।
यह आवागमन या पुनर्जन्म एक शाश्वत सत्य है। जो जैसे कर्म करता है,वह वैसा ही शरीर प्राप्त करता है।धनाढ़य, कंगाल, सुखी,दुःखी, ऊँच, नीच आदि अनेक प्रकार के व्यक्ति एवं अन्य प्राणियों को देखने से विदित होता है कि यह सब कर्मों का फल है। कर्म से देह और देह से पुनर्जन्म अथवा आवागमन सिद्ध है। यह चक्र ऐसे ही चलता रहता है।
श्रीकृष्ण अर्जुन से कहते हैं-

*न त्वेवाहं जातु नासं न त्वं नेमे जनाधिपाः ।*
*न चैव न भविष्यामः सर्वे वयमतः परम् ।।*
-(गीता २/१२)

*अर्थ-*न तो ऐसा ही है कि मैं किसी काल में नहीं था अथवा तू नहीं था, या ये राजा लोग नहीं थे, और न ऐसा ही है कि इससे आगे नहीं रहेंगे।

*वासांसि जीर्णानि यथा विहाय*
*नवानि गृह्णाति नरोऽपराणि।*
*तथा शरीराणि विहाय जीर्णानि*
*अन्यानि संयाति नवानि देही ।।*

-(गीता २/२२)

*अर्थ-*जैसे मनुष्य पुराने वस्त्रों को त्यागकर दूसरे नये वस्त्रों को ग्रहण करता है। वैसे ही जीवात्मा पुराने शरीर को छोड़कर दूसरे नये शरीरों को धारण कर लेता है।

*बहूनि मे व्यतीतानि जन्मानि तव चार्जुन ।*
*तान्यहं वेद सर्वाणि न त्वं वेत्थ परंतप ।।*

-(गीता० ४/५)

*अर्थ-*हे अर्जुन ! मेरे और तेरे बहुत से जन्म हो चुके हैं,परन्तु हे परन्तप ! उन सबको तू नहीं जानता; मैं जानता हूं।

इस पुनर्जन्म के नैरन्तर्य को योगी पुरुष ही अनुभव कर सकता है; साधारण पुरुष नहीं। वह तो केवल यही जान सकता है कि प्राणी एक शरीर को त्यागता है और दूसरा धारण करता है।इसलिए परमात्मा से उत्तम जन्म अर्थात् शरीर प्रदान करने के लिए प्रार्थना की गयी है-

*असुनीते पुनरस्मासु चक्षुः पुनः प्राणमिह नो धेहि भोगम् ।*
*ज्योक् पश्येम सूर्यमुच्चरन्तमनुमते मृडया नः स्वस्ति ।।*
-(ऋ० 10/59/6)

*अर्थ:-* हे सुखदायक परमेश्वर ! आप कृपा करके पुनर्जन्म में हमारे बीच में उत्तम नेत्रादि सब इन्द्रियाँ स्थापन कीजिए।

प्राण अर्थात् मन, बुद्धि, चित्त, अहंकार, बल, पराक्रम आदि से युक्त शरीर पुनर्जन्म में कीजिए। हे जगदीश्वर ! इस जन्म और पर जन्म में हम लोग उत्तम उत्तम भोगों को प्राप्त हों।

हे भगवन् ! आप की कृपा से सूर्यलोक, प्राण और आपको विज्ञान तथा प्रेम से देखते रहें। हे अनुमते-सब को मान देने हारे! सब जन्मों में हम लोगों को सुखी रखिये, जिससे हम लोगों का कल्याण हो।

*आ यो धर्माणि प्रथमः ससाद ततो वपूंषि कृणुषे पुरूणि ।*
*धास्युर्योनिं प्रथम आ विवेशा यो वाचमनुदितां चिकेत ।।*

-(अथर्व० 5/1/2)

*अर्थ:-*जो मनुष्य पूर्व-जन्म में धर्माचरण करता है उस धर्माचरण के फल से अनेक उत्तम शरीरों को धारण करता है।

अधर्मात्मा मनुष्य नीच शरीरों को प्राप्त होता है।

जो पूर्वजन्म में किए हुए पाप-पुण्य के फलों को भोग करने के स्वभावयुक्त जीवात्मा है, वह पूर्व शरीर को छोड़के वायु के साथ रहता है। पुनः जल,ओषधि वा प्राण आदि में प्रवेश करके वीर्य में प्रवेश करता है, तदनन्तर योनि अर्थात् गर्भाशय में स्थिर होके पुनः जन्म लेता है। जो जीव अनुदित वाणी अर्थात् जैसी ईश्वर ने वेदों में सत्यभाषण करने की आज्ञा दी है, वैसा ही यथावत् जानके बोलता है और धर्म में ही यथावत् स्थिर रहता है, वह मनुष्य योनि में उत्तम शरीर धारण करके अनेक सुखों को भोगता है। जो अधर्माचरण करता है, वह अनेक नीच शरीर अर्थात् कीट, पतंग, पशु आदि के शरीर को धारण करके अनेक दुःखों को भोगता है।

पूर्वजन्म के पाप-पुण्यों के बिना उत्तम, मध्यम और नीच शरीर तथा बुद्धि आदि पदार्थ कभी नहीं मिल सकते।

*ये रुपाणि प्रतिमुञ्चमाना असुराः सन्तः स्वधया चरन्ति ।*
*परापुरो निपुरो ये भरन्त्यग्निष्टाँल्लोकात् प्रणुदात्यस्मात् ।।*
-(यजु० 2/30)

*अर्थ:-*जो दुष्ट मनुष्य अपने मन, वचन और शरीर से झूठे आचरण करते हुए अन्याय से अन्य प्राणियों को पीड़ा देकर अपने सुख के लिए दूसरों के पदार्थों को ग्रहण कर लेते हैं, ईश्वर उनको दुःखयुक्त करता है और नीच योनियों में जन्म देता है कि वे अपने पापों के फलों को भोगने के लिए फिर मनुष्य-देह के योग्य होते हैं।

इससे सब मनुष्यों को योग्य है कि ऐसे दुष्ट मनुष्यों वा पापों से बचकर सदैव धर्म का ही सेवन किया करें।

*अयं देवाय जन्मने स्तोमो विप्रेभिरासया ।*
*अकारि रत्नधातमः ।।*

-(ऋ० 1/20/1)

*अर्थ:-*मनुष्य जैसे कर्म करता है वैसे ही उसे जन्म और भोग प्राप्त होते हैं।

*🌷अग्रलिखित कथनों से भी पुनर्जन्म की सिद्धि होती है―*

जिस समय लक्ष्मण को शक्ति लगती है और वह मूर्च्छित हो जाते हैं, तो श्रीरामचन्द्र जी उसकी इस अचेतन अवस्था को देखकर विलाप करते हुए कहते हैं―

*पूर्वं मया नूनमभीप्सितानि,पापानि कर्माण्यसकृत् कृतानि ।*
*तत्राद्यायमापतितो विपाको ,दुःखेन दुःखं यदहं विशामि ।।*

-(वा०रा०यु० 63/4)

*अर्थ-*निश्चय ही मैंने पूर्वजन्म में अनेक बार मनचाहे पाप किए हैं।उन्हीं का फल मुझे आज प्राप्त हुआ है जिससे मैं एक दुःख से दूसरे दुःख को प्राप्त हो रहा हूं।

एक अन्य स्थल पर वर्णित है-सीता की खोज करते हुए हनुमान लंका में अशोकवाटिका में पहुंचे।उस समय सीता हनुमान से कहती हैं―

*भाग्यवैषम्ययोगेन, पुरा दुश्चरितेन च ।*
*मयैतत् प्राप्यते सर्वं, स्वकृतं ह्रापभुज्यते ।।*―

(वा०रा०यु० 113/36)

*अर्थ:-* मैंने पिछले जन्म में जो पाप किये हैं, उसी के परिणामस्वरुप मेरे भाग्य में यह विषमता आ गई है। मैं भी अपने पूर्वकृत का भोग प्राप्त कर रही हूं क्योंकि अपने ही किए का फल भोगना पड़ता है।

पुनर्जन्म की कई प्रत्यक्ष साक्षियाँ आए दिन प्राप्त होती रहती हैं।कोई न कोई बालक ऐसा उत्पन्न होता रहता है जो अपने पिछले जन्म की स्मृतियाँ साथ लाता है।ऐसे बालक भी देखने में आते हैं जो बिना सिखाए ही छोटी अवस्था में किसी कलाविशेष में निपुण पाये गये हैं।यथा-गायन, गणित, कविता इत्यादि।इनका समाधान पुनर्जन्म के अतिरिक्त और क्या है?

'पंजाब केसरी' में 29 जून, 2017 को प्रकाशित समाचार पुनर्जन्म का मुँह बोलता प्रमाण है। सत्य घटना यह है:-

" कालाँवाली २९ जून (महेश्वरी) । मृत्यु के पश्चात् फिर जन्म होता है, यह बात यहाँ उस समय सच साबित हुई जब कालाँवाली के चन्दसिंह नामक एक किसान की आठ साल पहले मृत लड़की सुखवीर कौर गत दिवस उसके घर पहुँच गयी।

लगभग आठ साल पहले चन्दसिंह की ढाई-वर्षीया पुत्री सुखवीर कौर की खसरा से मृत्यु हो गयी थी तथा वह उसे भूल गया था।

बताया जाता है कि उसी लड़की ने यहां से बीस किलोमीटर दूर पंजाब के फूलोखारी नामक ग्राम में ह्रदयसिंह नामक पिछड़े वर्ग के व्यक्ति के घर जन्म ले लिया। सर्वजीत नाम की इस लड़की की आयु आठ वर्ष है तथा वह चौथी कक्षा में रामामंड़ी में पढ़ती है। गत एक-दो महीनों से लड़की अपने वर्तमान माता-पिता से अक्सर यह कहने लगी कि वे मुझे उसके माँ-बाप के पास कालाँवाली ग्राम में ले चलें। जब उसे कालाँवाली लाया गया, वह अपने पूर्व-जन्म के घर में पहुँच गई और उसने पूर्व माँ-बाप को पहचान लिया। उसने अपने पूर्व-जन्म के भाई को दस-पन्द्रह अन्य बच्चों के बीच में से पहचान लिया।

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