Arya Samaj, Mysore

Arya Samaj, Mysore was founded by Saraswati (1824-83) in April,1875 for reviving religion propounded the oldest scripture of the Vedas.

President:
Mr.Hemachandra Arya
9886826289

Secretary:
Mr. Umesh Arya
9448800595

05/09/2025

ಋಷಿ ದಯಾನಂದರ ದೃಷ್ಟಿಯಲ್ಲಿ ಶಿಕ್ಷಕರ/ಅಧ್ಯಾಪಕರ/ಆಚಾರ್ಯದ ಅರ್ಹತೆ ಮತ್ತು ಗುಣಗಳು.
(Source in Hindi:जीवन के पांच स्तम्भ। लेखक - डॉ प्रशान्त वेदालंकार। प्रस्तुति - आर्य रमेश चन्द्र बावा.
ಮೂಲ: ಜೀವನದ ಐದು ಸ್ತಂಭಗಳು. ಲೇಖಕ – ಡಾ. ಪ್ರಶಾಂತ್ ವೇದಾಲಂಕಾರ
ಪ್ರಸ್ತುತಿ – ಆರ್ಯ ರಮೇಶ್ ಚಂದ್ರ ಬಾವಾ. ಇದರ ಆಯ್ದ ಭಾಗಗಳ ಕನ್ನಡ ಅನುವಾದ).

ದಯಾನಂದರು ಆಚಾರ್ಯ, ಗುರು ಅಥವಾ ಪಂಡಿತ ಇತ್ಯಾದಿ ಪದಗಳನ್ನು ಅಧ್ಯಾಪಕ ಎಂಬ ಅರ್ಥದಲ್ಲಿಯೇ ಬಳಸಿದ್ದಾರೆ.

ವಿದ್ಯಾರ್ಥಿಗಳಿಗೆ ಅತ್ಯಂತ ಪ್ರೀತಿಯಿಂದ ಧರ್ಮಸಮ್ಮತ ನಡೆಗುಣಗಳ ಶಿಕ್ಷಣ ನೀಡಿ, ವಿದ್ಯಾವಂತರನ್ನಾಗಿಸಲು ತನ್ನ ತನು ಮನ ದೇಹ ಬಳಸುವವನನ್ನು ಆಚಾರ್ಯ ಎನ್ನುತ್ತಾರೆ.

ಶ್ರೇಷ್ಠ ಆಚಾರವನ್ನು ಅನುಸರಿಸಲು ಕಲಿಸಿ, ಎಲ್ಲ ವಿದ್ಯೆಗಳನ್ನು ಬೋಧಿಸುವವನನ್ನು ಆಚಾರ್ಯ ಎನ್ನುತ್ತಾರೆ.

ಆತನು ಸಂಪೂರ್ಣ ಪಂಡಿತನಾಗಿರಬೇಕು, ತನ್ನ ವಿಷಯದಲ್ಲಿ ಪರಿಣಿತನಾಗಿರಬೇಕು.
ಜೊತೆಗೆ ಆತನು ನೈತಿಕ ಮತ್ತು ಮಾನವೀಯ ಗುಣಗಳಿಂದ ಕೂಡಿರಬೇಕು.

ಆತ್ಮಜ್ಞಾನವಿರುವ, ಸೋಮಾರಿತನ ಮತ್ತು ನಿರುಪಯುಕ್ತತೆಯಿಂದ ದೂರವಿರುವ, ಸುಖ-ದುಃಖ, ಲಾಭ-ನಷ್ಟ, ಮಾನ-ಅಪಮಾನ, ನಿಂದೆ-ಸ್ತುತಿ ಇವುಗಳಲ್ಲಿ ಎಂದಿಗೂ ವ್ಯತ್ಯಯಗೊಳ್ಳದ, ಸದಾ ಧರ್ಮದಲ್ಲಿಯೇ ನೆಲೆಸಿರುವವನೇ ಪಂಡಿತ.

ಕಠಿಣ ವಿಷಯವನ್ನೂ ಕೂಡ ಶೀಘ್ರವಾಗಿ ತಿಳಿದುಕೊಳ್ಳಬಲ್ಲ, ಬಹುಕಾಲ ಶಾಸ್ತ್ರಗಳನ್ನು ಓದಿ, ಕೇಳಿ, ಚಿಂತಿಸುವ, ತಿಳಿದುದನ್ನು ಸದಾ ಪರೋಪಕಾರಕ್ಕೆ ಬಳಸುವ, ಸ್ವಾರ್ಥಕ್ಕಾಗಿ ಯಾವ ಕೆಲಸವನ್ನೂ ಮಾಡದ, ಯೋಗ್ಯ ಕಾಲ-ಸ್ಥಳ ತಿಳಿಯದೆ ಮತ್ತೊಬ್ಬರ ಪರವಾಗಿ ಒಪ್ಪಿಗೆ ನೀಡದವನೇ ಪ್ರಥಮ ಪ್ರಜ್ಞಾನ ಪಂಡಿತ.

ಎಲ್ಲ ವಿದ್ಯೆಗಳು ಮತ್ತು ಪ್ರಶ್ನೋತ್ತರಗಳಲ್ಲಿ ಅತ್ಯಂತ ನಿಪುಣನಾದ, ವಿಭಿನ್ನ ಶಾಸ್ತ್ರಗಳ ವಿಷಯಗಳನ್ನು ಸರಿಯಾಗಿ ತಾರ್ಕಿಕವಾಗಿ ವಿವರಿಸಬಲ್ಲ, ಸ್ಮೃತಿಗ್ರಂಥಗಳ ನಿಜಾರ್ಥವನ್ನು ತಕ್ಷಣ ಹೇಳಬಲ್ಲವನೇ ಪಂಡಿತ.

ಯಾರು ತಮ್ಮ ಆತ್ಮದಂತೆ ಇತರರ ಸುಖದಲ್ಲಿ ಸುಖ, ದುಃಖದಲ್ಲಿ ದುಃಖವನ್ನು ಅನುಭವಿಸುತ್ತಾರೋ, ಅವರು ಧರ್ಮವನ್ನು ಎಂದಿಗೂ ಬಿಡುವುದಿಲ್ಲ — ಇಂತಹವರೇ ನಿಜವಾದ ಆಚಾರ್ಯರು.

ನೀವು ನೀಡುವ ಶಿಕ್ಷಣವು ವಿದ್ಯಾರ್ಥಿಗಳನ್ನು ಸುಳ್ಳು, ಹಿಂಸೆ, ಕ್ರೂರತೆ, ಅಸೂಯೆ, ದ್ವೇಷ, ಆಲಸ್ಯ, ಮದ್ಯಪಾನ, ಕಳ್ಳತನ, ಮೋಸ ಇವುಗಳಿಂದ ದೂರಮಾಡಬೇಕು.

ನೀವು ಸದಾ ಸತ್ಯಾಚಾರವನ್ನು ಅನುಸರಿಸುವಂತೆ ಬೋಧಿಸಬೇಕು. ಅಗತ್ಯವಿದ್ದಷ್ಟೇ ಮಾತಾಡಬೇಕು, ಹೆಚ್ಚು ಅಥವಾ ಕಡಿಮೆ ಮಾತಾಡಬಾರದು.

ಇಂತಹ ಅನೇಕ ಗುಣಗಳನ್ನು ದಯಾನಂದರು ಅಧ್ಯಾಪಕರಲ್ಲಿ ಬಯಸಿದ್ದಾರೆ. ಏಕೆಂದರೆ ಅವರ ಈ ಗುಣಗಳಿಂದ ಪ್ರೇರಿತರಾಗಿ ವಿದ್ಯಾರ್ಥಿಗಳು ತಮ್ಮ ಜೀವನದಲ್ಲಿಯೂ ಅವನ್ನು ಅಳವಡಿಸಿಕೊಳ್ಳುತ್ತಾರೆ.

28/08/2025

◼️क्या शूद्र ईश्वर के पैरों से उत्पन्न हुए है?◼️
*प्रस्तुति - 🌺 ‘अवत्सार’*

🤨प्रश्न - वेद का 🔥‘ब्राह्मणोऽस्य' ( यजुर्वेद - ३१ । ११ ) मंत्र कहता है कि “इस यज्ञपुरुष के मुख से ब्राह्मण हुए और बाहु से क्षत्रिय, ऊरू से वैश्य तथा पैरों से शूद्र उत्पन्न हुए।”

🌻उत्तर - आपका यह अर्थ सर्वथा अशुद्ध और स्वयं वेद के ही विरुद्ध है, क्योंकि वेद ईश्वर को निराकार, अकाय वर्णन करते हैं जैसे 🔥‘स पर्यगाच्छुक्रमकायमव्रणमस्नाविरम्' इत्यादि यजुर्वेद [४०।८] वर्णन करता है कि ‘वह परमात्मा सर्वव्यापक, शीघ्रकारी, अकाय, व्रणरहित, नस तथा नाड़ी के बन्धन से रहित है' जब परमात्मा के शरीर ही नहीं है तो उसके मुख से ब्राह्मण, बाहु से क्षत्रिय, उरू से वैश्य तथा शूद्रों को परमात्मा के पाँवों से पैदा हुआ मानना वन्ध्या के पुत्र के विवाह में मिठाई खाने की भाँति असम्भव तथा उन्मत्तप्रलाप के सिवाय और क्या हो सकता है? इस मन्त्र के वास्तविक अर्थों को जानने के लिए इससे पूर्वमन्त्र के अर्थों का जानना आवश्यक है, जिसमें प्रश्न किया गया है और जिसके उत्तर में यह मन्त्र है। दोनों मन्त्र इस प्रकार हैं

🔥यत्पुरुषं व्यदधुः कतिधा व्यकल्पयन्।
मुखं किमस्यासीत्किं बाहू किमूरू पादा उच्येते ॥१०॥
🔥ब्राह्मणोऽस्य मुखामासीद् बाहूराजन्यः कृतः।
ऊरू तदस्य यद्वैश्यः पद्भयाशूद्रोऽजायत॥११॥
-यजुः० ३१।१०-११

भाषार्थ-जिस परमात्मा को कई प्रकार से कल्पना करते हुए पुरुष वर्णन करते हैं, उस पुरुष का मुख क्या है? उसकी भुजा कौन हैं, उसके ऊरू तथा पाँव कौन कहे जाते हैं? ॥ १० ॥

इस मन्त्र में जो परमात्मा को कई प्रकार की कल्पना करके वर्णन करने का ज़िक्र है, वह कल्पना क्या वस्तु है? इसको दूसरे शब्दों में अलंकार भी कहते हैं

🔥सौन्दर्यमलङ्कारः ॥ ६॥ -काव्यालंकारसूत्रवृत्ति
भाषार्थ-किसी बात को सौन्दर्य से वर्णन करने का नाम अलंकार है। अलंकार बहुत प्रकार के होते हैं, उनमें से एक अलंकार का नाम है उपमालंकार । उसका लक्षण यह है-

🔥उपमानोपमेययोर्गुणलेशतः साम्यमुपमा ॥ १॥
उपमान से उपमेय के गुणों की कुछ समानता का नाम उपमा है। वह उपमा दो प्रकार की है-

🔥सा पूर्णा लुप्ता च ॥४॥
वह पूर्णा तथा लुप्ता दो प्रकार की है। पूर्णा का लक्षण-

🔥गुणद्योतकोपमानोपमेयशब्दानां सामग्ये पूर्णा ॥५॥
जिसमें उपमान, उपमेय, उपमावाचक शब्द तथा गुणद्योतक शब्द-ये सारे विद्यमान हों, वह पूर्ण-उपमा है जैसे -

🔥‘कमलमिव मुखं मनोज्ञमिति' मुख कमल की भाँति सुन्दर है। इस वाक्य में -
▪️कमल-उपमान-जिससे उपमा दी जावे।
▪️मुख–उपमेय-जिसको उपमा दी जावे।
▪️मनोज्ञ-साधारणधर्म, समान गुण जो दोनों में मिलता हो।
▪️इव-उपमा-वचक शब्द, जिनसे समानता बताई जावे।
यहाँ उपमा के चारों अङ्ग विद्यमान हैं, अतः यहाँ पूर्ण उपमा है।

🔥लोपे लुप्ता॥६॥ -काव्यालङ्कारसूत्रवृत्ति ९ । १-६
जिसमें किसी अङ्ग का लोप हो जावे वह लुप्त-उपमा है, जैसे-

▪️ ‘शशीव राजा' 'चाँद-जैसा राजा' इसमें साधारणधर्म, जो गुण दोनों में मिलता है, जिसके कारण राजा को चाँद-जैसा कह गया है, वह लुप्त है, अतः इसका नाम 'धर्मलुप्तोपमा' है।
▪️ 'दूर्वा श्यामेयम्'-'यह स्त्री काली दूब है' यहाँ पर उपमावाचक शब्द का लोप है, जो समानता का वर्णन करता है, अतः इसका नाम 'वाचकलुप्तोपमा' है।
▪️ 'शशिमुखी' ‘चन्द्रमुखी'-यहाँ पर साधारणधर्म और उपमावाचक शब्द दोनों का लोप है, इसको ‘वाचकधर्मलुप्तोपमा' कहते हैं।

हम इसके कुछ उदाहरण देते हैं-

🔥सर्वोपनिषदो गावो दोग्धा गोपालन्दनः।
पार्थों वत्सः सुधीभॊक्ता दुग्धं गीतामृतं महत्।।
भाषार्थ-सब उपनिषद् गौवें हैं, दोहनेवाले कृष्ण हैं, पीनेवाला बुद्धिमान् अर्जुन बछड़ा तथा महान् अमृत गीता दूध है।

यहाँ पर उपनिषदों को गौवों की, कृष्णा को दोहनेवाले की, अर्जुन को बछड़े की तथा गीता को दूध की उपमा दी गई है। यहाँ उपमावाची शब्दों तथा साधारणधर्म का लोप है, अतः यहाँ पर 'वाचकधर्मलुप्तोपमा' है।

यहाँ पर गीता को दूध की उपमा ही दी गई है, वास्तव में गीता दूध नहीं है। यदि कोई आदमी इस श्लोक को ठीक रूप से न समझकर गीता को कटोरे में डालकर किसी को कहे कि लीजिए, दुग्धपान कीजिए तो सब लोग उसे मूर्ख ही कहेंगे, बुद्धिमान् नहीं।

🔥आत्मानदी संयमपुण्यतीर्था सत्योदका शीलतटा दयोर्मिः।
तत्राभिषेकं कुरु पाण्डुपुत्र न वारिणा शुद्ध्यति चान्तरात्मा ॥

भाषार्थ-आत्मा नदी है, संयमरूपी पवित्र तीर्थवाली, सत्य जलवाली, शील तट तथा दया लहरोंवाली है। हे युधिष्ठिर! उसमें स्नान कर, जल से आत्मा शुद्ध नहीं होता।
इस श्लोक में आत्मा को नदी की उपमा देकर तरंगों को भी उपमा दी गई है, किन्तु आत्मा वास्तव में नदी नहीं है।

🔥प्रणव धनुः शरो ह्यात्मा ब्रह्म तल्लक्ष्यमुच्यते।
अप्रमत्तेन वेद्धव्यं शरवत्तन्मयो भवेत् ॥
भाषार्थ-प्रणव धनुष है, यह आत्मा तीर है, ब्रह्म उसका लक्ष्य है, सावधानी से लक्ष्य को वेधना चाहिए, तीर की भाँति तन्मय हो जावे॥
यहाँ आत्मा को तीर की उपमा दी गई है, परन्तु वास्तव में आत्मा तीर नहीं है।

🔥आत्मानं रथिनं विद्धि शरीरं रथमेव तु ।
बुद्धिं तु सारथिं विद्धि मनः प्रग्रहमेव च।
इन्द्रियाणि हयानाहुर्विषयान् तेषु गोचरान्।
आत्मबुद्धिमनोयुक्तः कर्तेति उच्यते बुधैः ।।
भाषार्थ-आत्मा को सवार जान, शरीर को रथ समझ, बुद्धि को सारथि जान, मन को लगाम समझ। इन्द्रियों को घोड़े और विषयों को उनकी खुराक कहते हैं। बुद्धि और मन से युक्त आत्मा को बुद्धिमान् लोग कर्ता कहते हैं।
यहाँ आत्मा को रथी की उपमा देकर तत्सम्बन्धी वस्तुओं की भी उपमा दी है, किन्तु वास्तव में आत्मा रथी नहीं है।

इन सब स्थलों में 'वाचकधर्मलुप्तोपमा' अलंकार हैं, जिनमें उपमावाची शब्द तथा साधारण धर्म का लोप है। इसी प्रकार के अलंकार वेदों में भी हैं, जैसे-

🔥अजो वा इदमग्रे व्यक्रमत तस्योर इयमभवद् द्यौः पृष्ठम्।
अन्तरिक्षं मध्यं दिशः पाश्र्वे समुद्रौ कुक्षी ॥२०॥
🔥सत्यं च ऋतं च चक्षुषी विश्वं सत्यं श्रद्धा प्राणो विराट् शिरः।
एष वा अपरिमितो यज्ञो यदजः पंचौदनः ॥ २१ ॥
--अथर्व० ९।५
भाषार्थ-यह बकरा आगे आया, इसकी छाती यह पृथिवी, द्यौः पीठ, आकाश पेट, दिशाएँ पाश्र्व=पसवाड़े, समुद्र बगलें, ज्ञान तथा सत्य दोनों आँखें और सम्पूर्ण सत्य और श्रद्धा प्राण तथा ब्राह्मण सिर है, वह यह अपरिमित यज्ञ है, जिसको पञ्चौदन अज कहते हैं।

इस मन्त्र में परमात्मा को अज अर्थात् बकरे की उपमा देकर उसके अङ्गों की भी कल्पना करके परमात्मा का वर्णन किया गया है। परमात्मा वास्तव में बकरा नहीं है।

बस, इसी प्रकार 🔥'यत्पुरुषं व्यदधुः' इस मन्त्र में परमात्मा को पुरुष की उपमा देकर पूछा है कि उसके मुख, बाहू, ऊरू तथा पाँव कौन हैं। इसका ही उत्तर अगले मन्त्र में 🔥‘ब्राह्मणोऽस्य' दिया गया है कि 'ब्राह्मण उसका मुख हैं, भुजा क्षत्रिय, ऊरू वैश्य हैं और पाँव शूद्र' ।।

इस मन्त्र में परमात्मा को पुरुष की उपमा देकर ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्रों को उस पुरुष के मुख, बाहू, ऊरू तथा पाँव कल्पना किया गया है। यह पूर्ववत् उपमा अलंकार है। वास्तव में परमात्मा निराकार है, उसके मुखादि अङ्ग नहीं हैं। यहाँ पर परमात्मा को पुरुष की उपमा देकर तथा ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र को उसके मुख, बाहू, ऊरू तथा पैर कल्पना करने का यही प्रयोजन है कि मनुष्यसृष्टि में जो लोग मुख के समान सर्वसाधारण से पाँचगुणा ज्ञान रखते हों, लोगों को उलटे रास्ते से हटाकर सीधे रास्ते पर चलावें तथा अपनी पढ़ी विद्या लोगों को पढ़ावें, वे ब्राह्मण कहलाने के योग्य हैं तथा मनुष्यसृष्टि में जो लोग भुजा के समान अपने-आपको संकट में डालकर भी दूसरों की रक्षा करे वे क्षत्रिय कहलाने के योग्य तथा जो लोग पेट के समान राष्ट्र के कच्चे माल को पक्का माल बनाकर उसके व्यापार से जो लाभ हो उससे अपने देश का पालन करें वे वैश्य कहलाने के योग्य हैं। और मनुष्यसृष्टि में जो लोग न दिमाग़ी काम कर सकें, न रक्षा और व्यापार का काम कर सकें, केवल पाँवों के समान बोझ उठाने, अर्थात् कुलीपने का काम जानते हों वे शूद्र कहलाने के अधिकारी हैं। यह मन्त्र वर्ण-व्यवस्था का गुण-कर्म-स्वभाव से प्रतिपादन करता है-जन्म से नहीं, अत: हमारा किया हुआ अर्थ वेदानुकूल तथा आपका अर्थ स्वयं वेद के ही विरुद्ध होने से सर्वथा मिथ्या है।

साभार - पंडित मनसारामजी

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🌻 वेदों की ओर लौटें 🌻

*प्रस्तुति - 🌺 ‘अवत्सार’*

॥ ओ३म् ॥

28/08/2025

*गणेश पूजा व गणेश विसर्जन का वैदिक स्वरूप*

वेदों में अग्नि इन्द्र वरुण सोम ब्रह्मा विष्णु शिव गणेश महादेव आदि सब नाम एक ही निराकार सर्वव्यापक परमात्मा के लिए प्रयुक्त हुए हैं । इन नामों से पृथक पृथक देवी देवताओं की मूर्तियां बना कर पूजना कोरा पाखंड अन्धविश्वास व भेड़चाल है । माता पार्वती के शरीर की मैल से गणेश की उत्पत्ति व पिता शिव द्वारा उस गणेश का सिर काट कर हाथी का सिर लगाना सब काल्पनिक कहानियां हैं, पुराणों की गप्पे हैं । अहिंसा सत्य अस्तेय ब्रह्मचर्य अपरिग्रह शौच सन्तोष तप स्वाध्याय ईश्वर प्रणिधान आदि यम नियमों का पालन करते हुए परमात्मा का नित्य ध्यान करना और वेदों में वर्णित परमात्मा की आज्ञाओं का पालन करना ही सच्ची गणेश पूजा है । आर्ष ग्रन्थों में ओ३म् तथा अथ शब्द से मंगलाचरण होता है न कि श्री गणेशाय नमः से । वेद मंत्रों के पाठ व यज्ञ से हर कार्य का शुभारंभ करना चाहिए । पुजारी लोग जो गणेश पूजा करवाते हैं वह मात्र एक ढकोसला है ।

वेदों में एक ईश्वर के अनेक नाम बताए गए हैं । ईश्वर का हर नाम ईश्वर के गुण का प्रतिपादन करता हैं। ईश्वर के असंख्य गुण होने के कारण असंख्य नाम हैं । शिव शंकर गणेश महादेव शक्ति भगवान आदि सब नाम एक ही ईश्वर के हैं मुख्य नाम ओम् हैं-

1- शिव --(शिवु कल्याणे) इस धातु से ‘शिव’ शब्द सिद्ध होता है। ‘बहुलमेतन्निदर्शनम्’ इससे शिवु धातु माना जाता है, जो कल्याणस्वरूप और कल्याण का करनेहारा है, इसलिए उस परमेश्वर का नाम ‘शिव’ है।

2- शंकर --(डुकृञ् करणे) ‘शम्’ पूर्वक इस धातु से ‘शङ्कर’ शब्द सिद्ध हुआ है। ‘यः शङ्कल्याणं सुखं करोति स शङ्करः’ जो कल्याण अर्थात् सुख का करनेहारा है, इससे उस ईश्वर का नाम ‘शङ्कर’ है।

3-महादेव -‘महत्’ शब्द पूर्वक ‘देव’ शब्द से ‘महादेव’ सिद्ध होता है। ‘यो महतां देवः स महादेवः’ जो महान् देवों का देव अर्थात् विद्वानों का भी विद्वान्, सूर्यादि पदार्थों का प्रकाशक है, इसलिए उस परमात्मा का नाम ‘महादेव’ है।

4- गणेश- (गण संख्याने) इस धातु से ‘गण’ शब्द सिद्ध होता है, इसके आगे ‘ईश’ वा ‘पति’ शब्द रखने से ‘गणेश’ और ‘गणपति शब्द’ सिद्ध होते हैं। ‘ये प्रकृत्यादयो जडा जीवाश्च गण्यन्ते संख्यायन्ते तेषामीशः स्वामी पतिः पालको वा’ जो प्रकृत्यादि जड़ और सब जीव प्रख्यात पदार्थों का स्वामी वा पालन करनेहारा है, इससे उस ईश्वर का नाम ‘गणेश’ वा ‘गणपति’ है।

5 -शक्ति -(शकॢ शक्तौ) इस धातु से ‘शक्ति’ शब्द बनता है। ‘यः सर्वं जगत् कर्तुं शक्नोति स शक्तिः’ जो सब जगत् के बनाने में समर्थ है, इसलिए उस परमेश्वर का नाम ‘शक्ति’ है।

6- भगवान् - (भज सेवायाम्) इस धातु से ‘भग’ इससे मतुप् होने से ‘भगवान्’ शब्द सिद्ध होता है। ‘भगः सकलैश्वर्यं सेवनं वा विद्यते यस्य स भगवान्’ जो समग्र ऐश्वर्य से युक्त वा भजने के योग्य है, इसीलिए उस ईश्वर का नाम ‘भगवान्’ है।

7- इन्द्र- ( इदि परमैश्वर्ये ) इस धातु से रन् प्रत्यय करने से इन्द्र शब्द सिद्ध होता है । जो अखिल ऐश्वर्य युक्त है, इससे उस परमात्मा का नाम इन्द्र है ।

सत्य सनातन वैदिक धर्म में निराकार और सर्वव्यापक परमात्मा के अनेक गुणवाचक नामों में से एक नाम गणेश (गणपति) है।गणेश गणपति का उल्लेख ऋग्वेद और यजुर्वेद में है।

ग॒णानां॑ त्वा ग॒णप॑तिं हवामहे क॒विं क॑वी॒नामु॑प॒मश्र॑वस्तमम् । ज्ये॒ष्ठ॒राजं॒ ब्रह्म॑णां ब्रह्मणस्पत॒ आ न॑: शृ॒ण्वन्नू॒तिभि॑: सीद॒ साद॑नम्॥ ऋग्वेद 2.23.1(ऋषि- प्रजापतिः देवता-गणपतिः, छन्द- शक्वरी जगती, गायन स्वर- निषादः) इस मंत्र में परमेश्वर का वर्णन है ।

भावार्थ:- हे मनुष्यो ! जैसे विद्वान लोग सबके अधिपति, सर्वज्ञ, सर्वव्यापी, अन्तर्यामी परमेश्वर की उपासना करते हैं वैसे तुम भी सब गणों के स्वामी परमेश्वर की उपासना किया करो ।

ग॒णानां॑ त्वा ग॒णप॑तिं हवामहे प्रियाणां त्वा प्रियपतिं हवामहे निधिनां त्वा निधिपतिं हवामहे। वसो मम आहमजानि गर्भधमा त्वमजासि गर्भधम्॥ -यजुर्वेद 23.19

पदार्थ: (ग॒णानां॑) समूहों के बीच, (ग॒णप॑तिं) समूहपालक, (त्वा) आपको, (हवामहे) स्वीकार करते हैं, (प्रियाणां) अतिप्रिय सुन्दरों के बीच, (प्रियपतिं) अतिप्रिय सुन्दरों के पालक, (त्वा) आपकी, (हवामहे) प्रशंसा करते हैं, (निधिनां) विद्या आदि पदार्थों की पुष्टि करने वालों के बीच, (निधिपतिं) विद्या आदि पदार्थों के रक्षक, (त्वा) आपको (हवामहे) स्वीकार करते हैं, (वसो) आपमें सब प्राणी वसते हैं, अतः आप (मम) मेरे हो जाईये। (गर्भधमा) जिस जगत को गर्भ के समान धारण करने वाले (त्वम्) आप (अजासि) जन्म से रहित हैं, उस (गर्भधम्) प्रकृति के धारणकर्त्ता आपको, (अहम्) मैं ,(आ) अच्छे प्रकार से (अजानि) जानूँ।

भावार्थ:- हे परमपिता परमात्मा आप समस्त समूहों के राजा हैं हम आपकी प्रजा हैं इसलिए मैं आपको गणपति अर्थात् गणेश नाम से पुकार रहा हूँ आप प्रिय पदार्थों के पति हैं, आप समस्त धन सम्पत्तियों, खजानों आदि के स्वामी हैं, आप मेरे अर्थात् हम सबको वसाने वाले वसु हैं, आप जन्म आदि दोष से रहित हैं, मैं अपनी अविद्या को दूर फेंक दूँ। हे प्रभु मैं समस्त प्रकृति को गर्भ में रखने वाले आप को जान सकूँ। ऐसी आपसे विनम्र प्रार्थना है।

In Sanatan Vedic Dharma, shapeless and omnipresent God has been called by various qualitative names and Ganesha or Ganapati is one among them. He is the real Ganesha who is birthless and shapeless.This name has been mentioned in Rigveda and Yajurveda. Meaning of the 19th Mantra, Yajurveda Chapter 23,
(GanaaNaam) In Groups, (GanaPatim) Supervisor of Groups, (Twaa) You, (HawaMahay) we accept. (PriyaNaam) In Lovables, (PriyaPatim) Protector of Lovables, (Twaa) You, (HawaMahay) we praise. (NidhiNaam) In Treasures, (NidhiPatim) Protector of Treasures, (Twaa) You, (HawaMahay) we accept. `(Vaso) All creatures settles in You, hence (Mam) Become mine. (GarbhDhama) you hold the universe like child in womb (Twam) You, (AjaAsi) are Birthless, (GarbhDhama)Possessor of the materialistic cause of the Nature, (Aham)Let me, (Aa) appropriately (Ajaani) Know you.

श्री गणेश चतुर्थी की हार्दिक शुभकामनाएं।

लौटे वेदों की ओर

26/08/2025

ಮೂಲ: ಮಹರ್ಷಿ ದಯಾನಂದ ಸರಸ್ವತಿ ರಚಿತ “ಸಂಸ್ಕಾರವಿಧಿ” ಗ್ರಂಥ – ಸಂನ್ಯಾಸ ಪ್ರಕರಣ.
(ಹಿಂದಿ ಭಾಷೆಯಲಿ ಪ್ರಸ್ತುತಿ : ಶ್ರಿಯುತ ಭಾವೇಶ್ ಮೇರ್ಜಾ)

ಋಚೋ ಅಕ್ಷರೆ ಪರಮೇ ವ್ಯೋಮನ್ ಯಸ್ಮಿನ್ ದೇವಾ ಅಧಿ ವಿಶ್ವೇ ನಿಷೇದುಃ ।
ಯಸ್ತನ್ನ ವೇದ ಕಿಮೃಚಾ ಕರಿಷ್ಯತಿ ಯ ಇತ್ತದ್ವಿದುಸ್ತ ಇಮೇ ಸಮಾಸತೇ
(ಋಗ್ವೇದ : 1:164:39)

ऋचो अक्षरे परमे व्योमन् यस्मिन् देवा अधि विश्वे निषेदुः।
यस्तन्न वेद किमृचा करिष्यति य इत्तद्विदुस्त इमे समासते॥
(ऋग्वेद : 1:164:39)

ಭಾವಾರ್ಥ: ವೇದಗಳಿಂದ ಪ್ರತಿಪಾದಿತ, ಯಾವ ನಾಶರಹಿತನಾದ, ಜೀವಾತ್ಮ, ಮತ್ತು ಕಾರ್ಯ–ಕಾರಣ ರೂಪ ಜಗತ್ತಿನ ಆಧಾರವಾಗಿರುವ, ಆಕಾಶದಂತೆ ವ್ಯಾಪಕನಾಗಿರುವ ಪರಮೇಶ್ವರನಲ್ಲಿ, ಸಮಸ್ತ ಭೂಮಿ, ಸೂರ್ಯ, ಲೋಕಾದಿ ದೇವತೆಗಳು ಆಧಾರರೂಪವಾಗಿ ನೆಲೆ ಗೊಂಡಿರುವಿಯೋ, ವೇದಗಳ ಪರಮ ಪ್ರೇಮೇಯ ಪದಾರ್ಥರೂಪವಾದ ಆ ಬ್ರಹ್ಮನನ್ನು ಯಾರು ನಿಜವಾಗಿ ಅರಿಯುತ್ತಾರೆಯೋ ಅವರು ಧರ್ಮ, ಅರ್ಥ, ಕಾಮ ಮತ್ತು ಮೋಕ್ಷಗಳನ್ನು ಸಾಧಿಸಿ ಸರ್ವಾನಂದವನ್ನು ಅನುಭವಿಸುತ್ತಾರೆ. ಆದರೆ ಈ ತತ್ತ್ವವನ್ನು ಅರಿಯದವರು ವೇದಗಳಿಂದ ಯಾವ ಫಲವನ್ನೂ ಪಡೆಯುವುದಿಲ್ಲ.

Source: “Saṁskāravidhi” by Maharshi Dayananda Saraswati – Section on Sannyasa. Presented in Hindi by Shri Bhavesh Merja.

26/08/2025

• वेद अध्ययन का मुख्य प्रयोजन है - ईश्वर को जानना •
• Realisation of God is the chief objective of the study of the Vedas •
• Human life is a success if God is realised through Vedas •
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ऋचो अक्षरे परमे व्योमन् यस्मिन् देवा अधि विश्वे निषेदुः।
यस्तन्न वेद किमृचा करिष्यति य इत्तद्विदुस्त इमे समासते॥
— ऋग्वेद : मण्डल 1, सूक्त 164, मन्त्र 39
• अर्थ :
[हे लोगो !]
(यस्मिन्) जिस
(परमे) सर्वोत्तम
(व्योमन्) आकाशवत् व्यापक
(अक्षरे) नाशरहित परमात्मा में
(ऋचः) ऋग्वेदादि वेद और
(विश्वे) सब
(देवाः) पृथिव्यादि लोक और समस्त विद्वान्
(अधिनिषेदुः) स्थित हुए और होते हैं,
(यः) जो जन
(तत्) उस व्यापक परमात्मा को
(न वेद) नहीं जानता, वह
(ऋचा) वेदादि शास्त्र पढ़ने से
(किं करिष्यति) क्या सुख वा लाभ कर लेगा ? अर्थात् विद्या के विना परमेश्वर का ज्ञान कभी नहीं होता। और विद्या पढ़के भी जो परमेश्वर को नहीं जानता और न उसकी आज्ञा में चलता है, वह मनुष्य-शरीर धारण करके निष्फल चला जाता है और
(ये) जो विद्वान् लोग
(तत्) उस ब्रह्म को
(विदुः) जानते हैं।
(ते इमे इत्) वे ये ही उस परमात्मा में
(समासते) अच्छे प्रकार समाधियोग से स्थिर होते हैं।
[स्रोत : महर्षि दयानंद सरस्वती रचित "संस्कारविधि" ग्रंथ का संन्यास विषयक प्रकरण, प्रस्तुति : भावेश मेरजा]

25/08/2025

• Why Should We Pray? – Maharshi Swami Dayananda Saraswati’s Answer in Pune (6 July 1875) •
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• Question:

Why should we pray? If God is all-knowing and all-powerful, He already knows what is in our minds. Then why did He create us in such a way that we commit sins? If He placed sinful tendencies in us and then punishes us for sinning, how can He be just?

• Answer by Swami Dayananda Saraswati:

1. Gratitude to God is our duty:
Just like our parents take care of us using the resources provided by God and still deserve our gratitude, in the same way, God—who created the entire world and gave us countless benefits—definitely deserves our remembrance and thankfulness.

2. Gratitude brings inner peace:
A thankful person feels happiness and calmness within.

3. Purity of soul through devotion:
Taking refuge in God purifies the soul.

4. Prayer leads to repentance:
Through prayer, one feels true regret for past wrongs and gradually becomes free from the pull of sinful desires.

5. Truthfulness and love grow:
Sincere prayer strengthens qualities like truth and love within us.

6. Praising God builds deeper love for Him:
Stuti (praise) means describing God truthfully. As we better understand His divine qualities, our love for Him grows stronger.

Moreover, prayer brings joy to the soul. There is no other way to completely destroy sin apart from true worship and devotion.

Beliefs such as “going to Kashi (Varanasi) washes away sins,” “just repenting is enough to get rid of sins,” or “some holy person bore the burden of our sins by being crucified” are wrong ideas and not valid solutions.

True devotion gives us wisdom. A wise person does not get carried away by joy or sorrow caused by temporary, worldly things.

Now about God’s justice—God has given us free will. Because of this freedom, we can also choose to sin. If we were made completely dependent (like lifeless objects), we would have no responsibility and no real experience of joy either.

God’s omniscience (all-knowing nature) and our freedom of action are not contradictory. For example, a mother knows that if she lets her child roam freely, he might hurt himself, but still she doesn’t tie him up all the time. Similarly, God knows what we might do, but He still gives us freedom.

So, we are free in knowledge and action—within the limits of the abilities given by God. Without such freedom, life’s joy and experiences would not exist, and human creation would be meaningless.

[Source: Updesh Manjari – Pune Discourse No. 2
Presented by: Bhavesh Merja]

25/08/2025

ಮಹರ್ಷಿ ದಯಾನಂದ ಸರಸ್ವತಿಯವರ ವ್ಯಕ್ತಿತ್ವ 🙏(Source in Hindi: https://www.facebook.com/share/1J6ACz9wMA/)

● ಅವರು ವೇದಜ್ಞರು, ಭಾರತದಷ್ಟೇ ಅಲ್ಲ, ಇಡೀ ವಿಶ್ವದ ಮಟ್ಟಿಗೆ ವೇದ ಘೋಷ ಮೊಳಗಿಸಿದವರು.
● ಅವರು ಈಶ್ವರಭಕ್ತರು, ಪರಮಾತ್ಮನ ಸಾಕ್ಷಾತ್ಕಾರಕ್ಕಾಗಿ ತಮ್ಮ ಮನೆಯನ್ನೇ ತ್ಯಜಿಸಿದವರು.
● ಅವರು ಒಂದು ಬ್ರಹ್ಮಾಸ್ತ್ರರಾಗಿದ್ದರು – ಯಾರೇ ಪಂಡಿತ, ಪಾದ್ರಿ, ಮೌಲ್ವಿ,ಅಘೋರಿ, ಓಝಾ ಅಥವಾ ತಾಂತ್ರಿಕರಾದರೂ ಅವರನ್ನು ಸೋಲಿಸಲಾಗಲಿಲ್ಲ. ಯಾವ ಮಂತ್ರ, ತಂತ್ರ ಅಥವಾ ಪ್ರಭಾವವೂ ಅವರ ಮೇಲೆ ಪರಿಣಾಮ ಬೀರಲಿಲ್ಲ.
● ಅವರು ಮಹಾನ್ ವ್ಯಕ್ತಿ, ಲಕ್ಷಾಂತರ ರೂಪಾಯಿಗಳ ಸಂಪತ್ತಿನ ಪ್ರಲೋಭನೆಯನ್ನು ದಿಕ್ಕರಿಸಿ, ಸತ್ಯಮಾರ್ಗದಲ್ಲೇ ನಡೆದವರು.
● ಅವರು ದಾನಿ, ಗುರುದಕ್ಷಿಣೆಯಾಗಿ ತಮ್ಮ ಸಂಪೂರ್ಣ ಜೀವನವನ್ನೇ ಅರ್ಪಿಸಿದವರು.
● ಅವರು ಕ್ರಾಂತಿಕಾರಿ, ಮೊದಲ ಬಾರಿಗೆ ಸ್ವಾತಂತ್ರ್ಯದ ಘೋಷಣೆ ನೀಡಿ ಅನೇಕ ಜನರಲ್ಲಿ ಕ್ರಾಂತಿಯ ಚೈತನ್ಯವನ್ನು ಬೆಳಗಿಸಿದವರು.
● ಅವರು ಸ್ವದೇಶಭಕ್ತರು, ಮೊಟ್ಟ ಮೊದಲು ಸ್ವರಾಜ್ಯವನ್ನು ಶ್ರೇಷ್ಠವೆಂದು ಘೋಷಿಸಿ, "ನಿಮ್ಮ ಸಾಮ್ರಾಜ್ಯವು ನಾಶವಾಗುತ್ತದೆ" ಎಂದು ಬ್ರಿಟಿಷರ ಮುಂದೆಯೇ ಹೇಳಿದ್ದರು.
● ಅವರು ಗೌರಕ್ಷಕ ಮತ್ತು ಗೋಪ್ರೀಮಿ, ಮೊದಲ ಬಾರಿಗೆ "ಗೋಕರುಣಾನಿಧಿ" ಎಂಬ ಗ್ರಂಥ ಬರೆದು, ಗೌರಕ್ಷಣಿ ಸಭೆ ಸ್ಥಾಪಿಸಿ ಅದರ ನಿಯಮಗಳನ್ನು ರೂಪಿಸಿದವರು.
● ಅವರು ನಿರ್ಭಯ ವ್ಯಕ್ತಿ, ಸಮಾಜದ ಮೂಢನಂಬಿಕೆ, ಕಂದಾಚಾರಗಳ ಬಗ್ಗೆ ದಿಟ್ಟವಾಗಿ ಪ್ರಹಾರ ಮಾಡಿದವರು.
● ಅವರು ಸತ್ಯಾಗ್ರಹಿ, ಯಾವಾಗಲೂ ಸತ್ಯದಿಂದ ಹಿಂದೆ ಸರಿಯದವರು. ಪ್ರತಿಯೊಂದು ಮಾತನ್ನೂ ಘೋಷಣೆಗಳಂತೆ ಹೇಳುತ್ತಿದ್ದವರು. ಎಲ್ಲಾ ಪಾಖಂಡಗಳ ಖಂಡನೆ ಮಾಡಿ ಸತ್ಯದ ದಾರಿ ತೋರಿದವರು.
● ಅವರು ಧರ್ಮಧುರೀಣರು. ವೇದವನ್ನೇ ಅಲ್ಲದೆ ಖುರಾನ್, ಪುರಾಣ, ಬೈಬಲ್, ತ್ರಿಪಿಟಕ ಹಾಗೂ ಇತರ ಮತ–ಸಂಪ್ರದಾಯಗಳ ಗ್ರಂಥಗಳ ಜ್ಞಾನ ಹೊಂದಿದವರು.
● ಅವರು ಧರ್ಮಾಂತರ (ಕ್ರಿಸ್ತೀಕರಣ ಮತ್ತು ಇಸ್ಲಾಮೀಕರಣ) ತಡೆಯುವುದಷ್ಟೇ ಅಲ್ಲ, ಶುದ್ಧಿ ಮತ್ತು "ಘರ ವಾಪಸಿ" ಮೂಲಕ ದೇಶದ ಉದ್ಧಾರ ಮಾಡಿದವರು.
● ಅವರು ಸಂನ್ಯಾಸಿ. ತಮ್ಮ ಮೇಲೆ ಕಲ್ಲು–ಚಪ್ಪಲಿ ಬಿದ್ದರೂ ನಡುಗದವರು, ಬದಲಿಗೆ ತಮ್ಮ ಸಂಕಲ್ಪವನ್ನು ಇನ್ನಷ್ಟು ಬಲಪಡಿಸಿದವರು.
● ಅವರು ಋಷಿ. ಯಜ್ಞ–ಯೋಗ ಮತ್ತು ಪುರಾತನ ಋಷಿಗಳ ಜ್ಞಾನವನ್ನು ಪುನಃ ಸ್ಥಾಪಿಸಿದವರು.
● ಅವರು ಜ್ಞಾನಿಗಳಾಗಿದ್ದರು. ಪಾಣಿನಿ, ಜೈಮಿನಿ, ಬ್ರಹ್ಮ, ಚರಕ, ಸುಶ್ರುತ ಮುಂತಾದ ಋಷಿ ಮುನಿಗಳ ಗ್ರಂಥಗಳನ್ನು ಪುನರುಜ್ಜೀವನಗೊಳಿಸಿದವರು. ಋಷಿಗಳ ಹೆಸರಿನಲ್ಲಿ ರಚಿತವಾದ ಅಸತ್ಯಗ್ರಂಥಗಳ ಬಗ್ಗೆ ಜಾಗೃತಿ ಮೂಡಿಸಿದವರು.
● ಅವರು ಸಮಾಜ ಸುಧಾರಕ, ಮೊದಲ ಬಾರಿಗೆ ಸತಿ ಪದ್ಧತಿ, ಬಾಲ್ಯವಿವಾಹ ಮುಂತಾದ ಪಿಡುಗಗಳ ವಿರುದ್ಧ ಹೋರಾಡಿ, ಭಾರತದ ಮಹಿಳೆಯರ ಗೌರವವನ್ನು ಪುನಃ ಸ್ಥಾಪಿಸಿದವರು.ಮಾಂಸಾಹಾರ–ಶಾಕಾಹಾರದ ವ್ಯತ್ಯಾಸವನ್ನು ಸ್ಪಷ್ಟಪಡಿಸಿದವರು.
● ಅವರು ಸಾಹಸಿ, ಅವಮಾನ–ತಿರಸ್ಕಾರದಿಂದ ಕುಗ್ಗದವರು.

ಹೀಗೆ,ಕೇವಲ ಭಾರತದಷ್ಟೇ ಅಲ್ಲದೆ ಇಡೀ ವಿಶ್ವದ ಕಲ್ಯಾಣಕ್ಕಾಗಿ ನಿಸ್ವಾರ್ಥವಾಗಿ ಶ್ರಮಿಸಿದ ಮಹಾನ್ ವ್ಯಕ್ತಿ ಮಹರ್ಷಿ ದಯಾನಂದ ಸರಸ್ವತಿ ಅವರಿಗೆ ಶತ–ಶತ ನಮನಗಳು! 🌸

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【(ईश्वर)=(सनातन धर्म)=(वेद)】
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25/08/2025

*महर्षि दयानन्द सरस्वती*
● एक ब्रह्मास्त्र थे, जिन्हें कोई भी पंडित, पादरी, मौलवी, अघोरी, ओझा, तान्त्रिक हरा नहीं पाया और न ही उन पर अपना कोई मंत्र, तंत्र या किसी भी प्रकार का कोई प्रभाव छोड़ पाया ।
● वेद के ज्ञाता थे, जिसने सम्पूर्ण भारत वर्ष में ही नहीं अपितु पूरे विश्व में वेद का डंका बजाया था ।
● ईश्वर भक्त थे, जिसने ईश्वर को प्राप्त करने के लिए अपना घर ही त्याग दिया था ।
● महान व्यक्ति थे, जिसने लाखों की संपत्ति को ठोकर मार दी परन्तु सत्य की राह से विचलित नहीं हुए ।
● दानी थे, जिसने गुरु दक्षिणा में अपना सम्पूर्ण जीवन ही दान दे दिया ।
● क्रान्तिकारी थे, जिसने सबसे पहले स्वाधीनता का बिगुल फूँक न जाने कितने लोगों के अन्दर क्रान्ति की भावना को पोषित कर दिया |
● स्वदेशभक्त थे, जिसने सबसे पहले स्वदेशीय राज्य को सर्वोपरि कहा और अंग्रेजों के सामने ही उनका राज्य समस्त विश्व से नष्ट होने की बात कही ।
● गौरक्षक व गौ प्रेमी थे, जिसने सबसे पहले गौ रक्षा हेतु "गोकरुणानिधि" जैसे पुस्तक लिखा, और गौरक्षिणी सभा बनाई व इसके नियमों का प्रतिपादन किया ।
● निडर व्यक्ति थे, जिसने निर्भीक होकर समाज की कुप्रथाओं, कुरीतियों पर प्रहार किया ।
● सत्याग्रही थे, जिसने कभी भी सत्य से समझौता नहीं किया ।
● धर्म धुरन्धर थे, जो केवल वेद का ही नहीं अपितु कुरान, पुराण, बाइबल, त्रिपिटक व अन्य सम्प्रदायों व मत-मतान्तरों के ग्रन्थों का ज्ञान रखता था ।
● सत्य का पुजारी थे, जो अपनी हर बात डंके की चोट पर कहता था ।
● धर्म धुरन्धर थे, जिसने सभी पाखण्डों का खण्डन कर सत्य की राह दिखाई ।
● धर्म धुरन्धर थे, जिसने इस देश का धर्मान्तरण (ईसाइयत व इस्लामीकरण) होने से मात्र रोका ही नहीं वरन् शुद्धि व घर वापसी द्वारा देश का उद्धार किया ।
● सत्याग्रही थे, जिसे किसी प्रकार के लोभ व लालच विचलित नहीं कर पाये ।
● सन्यासी थे, जो पत्थरों, जूतों की मार से विचलित न हुआ वरन उसके संकल्प और भी मजबूत हुए ।
● ऋषि थे, जिसने यज्ञ, योग व पुरातन ऋषि महर्षियों के ज्ञान को पुनः स्थापित कराया ।
● ज्ञानी थे, जिसने ऋषिकृत पाणिनि, जैमिनी, ब्रह्मा, चरक , सुश्रुत आदि ग्रन्थों का उद्धार किया ।
● ऋषि थे, जिसने ऋषियों के नाम से बनाये गये सभी असत्य ग्रन्थों का भण्डा फोड़ा व हमारे ऋषियों के नाम पर लगे दाग को मिटाया ।
● समाज सुधारक थे, जिसने सबसे पहले सती प्रथा, बाल-विवाह जैसीे कुप्रथाओं पर प्रहार कर समस्त भारत में नारी की प्रतिष्ठा को समाज में पुनः स्थापित कराया ।
● समाज सुधारक थे, जिसने माँसाहार व शाकाहार में भेद स्पष्ट कर समाज को पुनः शाकाहार के रास्ते पर चलाया ।
● साहसी थे, जिसका साहस अपमान, तिरस्कार से कम नहीं हुआ बल्कि और भी दृढ़ हुआ ।
● समाज सुधारक थे, जिसने मात्र भारत के लिए ही नहीं अपितु सारे विश्व के कल्याण की भावना से निस्वार्थ काम किया ।
ऐसे महान व्यक्तित्व के धनी महर्षि दयानन्द सरस्वती को शत-शत नमन !


#महर्षिदयानंदसरस्वती8171

21/08/2025

ईश्वर के संबंध में महर्षि दयानन्द सरस्वती जी के विचार

चारों वेदों में ऐसा कहीं नहीं लिखा जिससे अनेक ईश्वर सिद्ध हों। किन्तु यह तो लिखा है कि ईश्वर एक है। देवता दिव्य गुणों के युक्त होने के कारण कहलाते हैं जैसा कि पृथ्वी, परन्तु इसको कहीं ईश्वर तथा उपासनीय नहीं माना है।जिसमें सब देवता स्थित हैं, वह जानने एवं उपासना करने योग्य देवों का देव होने से महादेव इसलिये कहलाता है कि वही सब जगत की उत्पत्ति, स्थिति, प्रलयकर्ता, न्यायाधीश, अधिष्ठाता है।
ईश्वर दयालु एवं न्यायकारी है। न्याय और दया में नाम मात्र ही भेद है, क्योंकि जो न्याय से प्रयोजन सिद्ध होता है वही दया से।
दण्ड देने का प्रयोजन है कि मनुष्य अपराध करने से बंध होकर दुखों को प्राप्त न हो, वही दया कहलाती है। जिसने जैसा जितना बुरा कर्म किया है उसको उतना है दण्ड देना चाहिये , उसी का नाम न्याय है। जो अपराध का दण्ड न दिया जाय तो न्याय का नाश हो जाय। क्योंकि एक अपराधी को छोड़ देने से सहस्त्रों धर्मात्मा पुरुषों को दुख देना है। जब एक को छोड़ने से सहस्त्रों मनुष्यों को दुख प्राप्त होता हो तो वह दया किस प्रकार हो सकती है? दया वही है कि अपराधी को कारागार में रखकर पाप करने से बचाना। निरन्तर एवं जघन्य अपराध करने पर मृत्यु दण्ड देकर अन्य सहस्त्रों मनुष्यों पर दया प्रकाशित करना।
संसार में तो सच्चा झूठा दोनों सुनने में आते हैं। किन्तु उसका विचार से निश्चय करना अपना अपना काम है। ईश्वर की पूर्ण दया तो यह है कि जिसने जीवों के प्रयोजन सिद्ध होने के अर्थ जगत में सकल पदार्थ उत्पन्न करके दान दे रक्खे हैं। इससे भिन्न दूसरी बड़ी दया कौन सी है? अब न्याय का फल प्रत्यक्ष दीखता है कि सुख दुख की व्याख्या अधिक और न्यूनता से प्रकाशित कर रही है। इन दोनों का इतना ही भेद है कि जो मन में सबको सुख होने और दुख छूटने की इच्छा और क्रिया करना है वह दया और ब्राह्य चेष्टा अर्थात बंधन छेदनादि यथावत दण्ड देना न्याय कहलाता है। दोनों का एक प्रयोजन यह है कि सब को पाप और दुख से प्रथक कर देना।
ईश्वर यदि साकार होता तो व्यापक नहीं हो सकता। जब व्यापक न होता तो सर्वाज्ञादि गुण भी ईश्वर में नहीं घट सकते। क्योंकि परिमित वस्तु में गुण, कर्म, स्वभाव भी परिमित रहते हैं तथा शीतोष्ण, क्षुधा, तृष्णा और रोग, दोष, छेदन, भेदन आदि से रहित नहीं हो सकता। अतः निश्चित है कि ईश्वर निराकार है। जो साकार हो तो उसके नाक, कान, आँख आदि अवयवों को बनाने वाला ईश्वर के अतिरिक्त कोई दूसरा होना चाहिये। क्योंकि जो संयोग से उत्पन्न होता हो उसको संयुक्त करने वाला निराकार चेतन आवश्य होना चाहिये। कोई कहता है कि ईश्वर ने स्वैच्छा से आप ही आप अपना शरीर बना लिया। तो भी यही सिद्ध हुआ कि शरीर बनाने के पूर्व वह निराकार था। इसलिये परमात्मा कभी शरीर धारण नहीं करता। किन्तु निराकार होने से सब जगत को सूक्ष्म कारणों से स्थूलाकार बना देता है।
सर्वशक्तिमान का अर्थ है कि ईश्वर अपने काम अर्थात उत्पत्ति, पालन, प्रलय आदि और सब जीवों के पाप पुण्य की यथा योग्य व्यवस्था करने में किंचित भी किसी की सहायता नहीं लेता अर्थात अपने अनंत सामर्थ्य से ही सब अपना काम पूर्ण कर लेता है। इसका अर्थ यह कदापि नहीं है की परमेश्वर वह सब कर सकता है जो उसे नहीं करना चाहिये। जैसे- अपने आपको मारना, अनेक ईश्वर बनाना, स्वयं अविद्वान, चोरी, व्यभिचारादि पाप कर्म कर और दुखी भी हो सकना। ये काम ईश्वर के गुण, कर्म, स्वभाव से विरूद्ध हैं।
ईश्वर आदि भी है और अनादि भी। ईश्वर सबकी भलाई एवं सबके लिये सुख चाहता है परन्तु स्वतंत्रता के साथ किसी को बिना पाप किये पराधीन नहीं करता।
ईश्वर की स्तुति प्रार्थना करने से लाभः- स्तुति से ईश्वर से प्रीति, उसके गुण, कर्म, स्वभाव से अपने गुण, कर्म, स्वभाव को सुधारना। प्रार्थना से निरभयता, उत्साह और सहाय का मिलना। उपासना से परब्रह्म से मेल और साक्षात्कार होना।
ईश्वर के हाथ नहीं किन्तु अपने शक्ति रूपी हाथ से सबका रचन, ग्रहण करता। पग नहीं परन्तु व्यापक होने से सबसे अधिक वेगवान। चक्षु का गोलक नहीं परन्तु सबको यथावत देखता। श्रोत नहीं तथाकथित सबकी बातें सुनता। अंतःकरण नहीं परन्तु सब जगत को जानता है और उसको अवधि सहित जानने वाला कोई भी नहीं। उसको सनातन, सबसे श्रेष्ठ, सबमें पूर्ण होने से पुरुष कहते हैं। वह इन्द्रियों और अंतःकरण के बिना अपने सब काम अपने सामर्थ्य से करता है।
न कोई उसके तुल्य है और न उससे अधिक। उसमें सर्वोत्तम शक्ति अर्थात जिसमें अनंत ज्ञान, अनंत बल और अनंत क्रिया है। यदि परमेश्वर निष्क्रिय होता तो जगत की उत्पत्ति, स्थिति, प्रलय न कर सकता। इसलिये वह विभू तथापि चेतन होने से उस क्रिया में भी है।
ईश्वर जितने देश काल में क्रिया करना उचित समझता है उतने ही देशकाल में क्रिया करता है। न अधिक न न्यून क्योंकि वह विद्वान है।
परमात्मा पूर्ण ज्ञानी है, पूर्ण ज्ञान उसे कहते हैं जो पदार्थ जिस प्रकार का हो उसे उसी रूप में जानना।
परमेंश्वर अनंत है। तो उसको अनंत ही जानना ज्ञान, उसके विरुद्ध अज्ञान अर्थात अनंत को सांत और सांत को अनंत जानना भ्रम कहलाता है। यथार्थ दर्शन ज्ञानमिति, जिसका जैसा गुण, कर्म, स्वभाव हो उस पदार्थ को वैसा जानकर मानना ही ज्ञान और विज्ञान कहलाता है और उससे उल्टा अज्ञान।
ईश्वर जन्म नहीं लेता, यदुर्वेद में लिखा है ‘अज एकपात्’ सपथर्यगाच्छुक्रमकायम।
यदा यदा…………..सृजाम्यहम्।
यह बात वेद विरुद्ध प्रमाणित नहीं होती। ऐसा हो सकता है कि श्रीकृष्ण धर्मात्मा धर्म की रक्षा करना चाहते थे कि मैं युग युग में जन्म लेके श्रेष्ठों की रक्षा और दुष्टों का नाश करूँ तो कुछ दोष नहीं। क्योंकि ‘परोपकाराय सतां विभूतयः’ परोपकार के लिये सत्पुरुषों का तन, मन, धन होता है। किन्तु इससे श्रीकृष्ण ईश्वर नहीं हो सकते।
वेदार्थ को न जानने, सम्प्रदायी लोंगो के बहकावे और अपने आप अविद्वान होने से भ्रमजाल में फँसके ऐसी ऐसी अप्रमाणिक बातें करते और मानते हैं।
जो ईश्वर अवतार शरीर धारण किये बिना जगत की उत्पत्ति, स्थिति, प्रलय करता है उसके लिये कंस और रावणादि एक कीड़ी के समान भी नहीं हैं। वह सर्वव्यापक होने से कंस रावणादि के शरीर में भी परिपूर्ण हो रहा है। जब चाहे उसी समय मर्मच्छेदन कर नाशकर सकता है। भला वह अनंत गुण, कर्म स्वभावयुक्त परमात्मा को एक शूद्र जीव को मारने के लिये जन्म मरण युक्त कहने वाले को मूर्खपन से अन्य कुछ विशेष उपमा मिल सकती है और जो कोई कहे कि भक्तजन के उद्धार करने के लिये जन्म लेता है तो भी सत्य नहीं है। क्योंकि जो भक्तजन ईश्वर की आज्ञानुकूल चलते हैं उसके उद्धार करने का पूरा सामर्थ्य ईश्वर में है। क्या ईश्वर पृथ्वी, सूर्य, चन्द्रादि जगत के बनाने से कंस रावाणादि का वध और गोवर्धनादि का उठाना बड़े कार्य हैं।
जो कोई इस सृष्टि में परमेश्वर के कर्मों का विचार करे तो ‘न भूतो न भविष्यति’ ईश्वर के सद्श्य न कोई है न होगा। इस युक्ति से भी ईश्वर का जन्म सिद्ध नहीं होता। जैसे कोई अनंत आकाश को कहे कि गर्भ में आया और मुठ्ठी में भर लिया, ऐसा कहना कभी सच नहीं हो सकता। क्योंकि आकाश अनंत और सब में व्यापक है इससे न आकाश बाहर आता और न भीतर जाता, वैसे ही अनंत सर्वव्यापक परमात्मा के होने से उसका आना जाना कभी सिद्ध नहीं हो सकता। आना और जाना वहाँ हो सकता है जहाँ न हो। क्या परमेशवर गर्भ में व्यापक नहीं था जो कहीं से आया और बाहर नहीं था जो भीतर से निकला। ऐसा ईश्वर के विषय में कहना और मानना विद्याहीनों के सिवाय कौन कह और मान सकेगा। इसलिये परमेश्वर का आना जाना और जन्म-मरण कभी सिद्ध नहीं हो सकता। इसलिये ईसा आदि को ईश्वर का अवतार नहीं समझना चाहिये। वे राग, द्वेष, क्षुधा, तृष्णा, भय, शोक, दुख, सुख, जन्म,मरण आदि गुणायुक्त होने से मनुष्य थे।
ईश्वर पाप क्षमा नहीं कर सकता। ऐसा करने से उसका न्याय नष्ट हो जाता है और मनुष्य क्षमा दान मिलने की आशा से महापापी बन सकता है। तथा वह निर्भय एवं उत्साह पूर्वक पाप कर्म करने में संलग्न हो जायगा।
जिस प्रकार अपराधी को यह भरोसा हो जाय कि कानून के द्वारा उसके अपराध करने पर कोई सजा नहीं मिल सकती तो वह निर्भय पूर्वक अपराध करता है।
सभी प्रणियों को कर्मानुसार फल देना ईश्वर का कार्य है, क्षमा करना नहीं। मनुष्य अपने कर्मों में स्वतंत्र एवं ईश्वर की व्यवस्था में परतंत्र है।
मजदूर ने पहाड़ से लोहा निकाला, दुकानदार ने खरीदा, लौहार ने तलवार बनाई, सिपाही ने तलवार ली, उसने किसी को मार दिया। अब अपराधी लोहे का निकालने वाला मजदूर, खरीदने वाला दुकानदार और बनाने वाला लौहार नहीं होगा। बल्कि केवल वह सिपाही होगा जिसने किसी की हत्या की। इसलिये शरीर आदि की उत्पत्ति करने वाला ईश्वर व्यक्ति के कार्यों का भोक्ता नहीं होगा। क्योंकि कर्म करने वाला परमेशवर नहीं होता। यदि ऐसा होता तो क्या किसी को पाप करने की प्रेरणा देता। अतः मनुष्य कार्य करने के लिये स्वतंत्र है। उसी तरह ईश्वर भी कर्मानुसार फल देने के लिये स्वतंत्र है।
जीव और ईश्वर दोंनो चेतन स्वरूप हैं। स्वभाव दोनों का पवित्र, अविनाशी एवं धार्मकिता आदि है। परन्तु परमेश्वर के सृष्टि की उत्पत्ति, स्थिति, प्रलय, सबको नियम में रखना, जीवों का पाप पुण्य के फल देना आदि धर्मयुक्त कार्य हैं। और जीव में पदार्थों को पाने की अभिलाषा (इच्छा), द्वेष दुखादि की अनिच्छा, बैर, (प्रयत्न) पुरुषार्थ, बल, (सुख) आनन्द, (दुख) विलाप, अप्रसन्नता, (ज्ञान) विवेक पहचानना ये तुल्य हैं। किन्तु वैशेषिक में प्राण वायु को बाहर निकालना, फिर उसे बाहर से भीतर लेना, (निमेष) आँख को मींचना, (उन्मेष) आँखों को खोलना, (जीवन) प्राण धारण करना, (मनन) निश्चय स्मरण अहंकार करना, (गति) चलना, (इन्दिय) सब इन्दियों को चलाना, (अंतर्विकार) भिन्न-भिन्न सुधा, तृष्णा, हर्ष, शोकादि युक्त होना, ये जीवात्मा के गुण परमात्मा से भिन्न हैं।
ईश्वर को त्रिकालदर्शी कहना मूर्खता के अतिरिक्त और कुछ नहीं। क्योंकि जो ईश्वर होकर न रहे वह भविष्यकाल कहलाता है। क्या ईश्वर को कोई ज्ञान रहके नहीं रहता? तथा न होके होता है? इसलिये परमात्मा का ज्ञान एक रस अखण्डित वर्तमान रहता है। भूत, भविष्यत् जीवों के लिये है। जीवों के कर्म की अपेक्षा से त्रिकालज्ञाता ईश्वर में है, स्वतः नहीं। जैसा स्वतंत्रता से जीव करता है, वैसा ही सर्वज्ञता से ईश्वर जानता है और जैसा ईश्वर जानता है वैसा जीव करता है अर्थात् भूत, भविष्य, वर्तमान के ज्ञान और फल देने में ईश्वर स्वतंत्र और जीव किंचित वर्तमान और कर्म करने में स्वतंत्र है। ईश्वर का अनादि ज्ञान होने से जैसा कर्म का ज्ञान है वैसा ही दण्ड देने का भी ज्ञान अनादि है। दोनों ज्ञान उसके सत्य हैं। क्या कर्म ज्ञान सच्चा और दण्ड ज्ञान मिथ्या कभी हो सकता है। इसलिये इसमें कोई भी दोष नहीं आता।
परमेश्वर सगुण एवं निर्गुण दोनों है। गुणों से सहित सगुण, गुणों से रहित निर्गुण। अपने अपने स्वाभाविक गुणों से सहित और दूसरे विरोधी के गुणों से रहित होने से सब पदार्थ सगुण और निर्गुण हैं। कोई भी ऐसा पदार्थ नहीं है जिसमें केुवल निर्गुणता या केवल सगुणता हो। किन्तु एक ही में निर्गुणता एवं सगुणता सदा रहती है। वैसे ही परमेश्वर अपने अनंत ज्ञान बलादि गुणों से सहित होने से सगुण रूपादि जड़ के तथा द्वेषादि के गुणों से प्रथक होने से निर्गुण कहलाता है। यह कहना अज्ञानता है कि निराकार निर्गुण और साकार सगुण है।
परमेश्वर न रागी है, न विरक्त। राग अपने से भिन्न प्रथक पदार्थों में होता है, सो परमेश्वर से कोई पदार्थ प्रथक तथा उत्तम नहीं है, अतः उसमें राग का होना संभव नहीं है। और जो प्राप्त को छोड़ देवे उसको विरक्त कहते हैं। ईश्वर व्यापक होने से किसी पदार्थ को छोड़ ही नहीं सकता। इसलिये विरक्त भी नहीं है।
ईश्वर में प्राणियों की तरह की इच्छा नहीं होती।
जो स्वयंभू, सर्वव्यापक, शुद्ध, सनातन, निराकार परमेश्वर है वह सनातन जीवरूपी प्रजा के कल्याणार्थ यथावत् रीतिपूर्वक वेद द्वारा सब विद्याओं का उपदेश करता है।
परमेश्वर के सर्वशक्तिमान और सर्वव्यापक होने से जीव को अपनी व्याप्ति से वेदविद्या के उपदेश करने में कुछ भी मुखादि की अपेक्षा नहीं है। क्योंकि मुख जिव्हा से वर्णोंच्चारण अपने से भिन्न को बोध होने के लिये किया जाता है, कुछ अपने लिये नहीं। क्योंकि मुख जिव्हा के व्यावहार करे बिना ही मन के अनेक व्यावहारों का विचार और शब्दोंच्चारण होता रहता है। कानों का उँगुलियों से मूँद कर देखो, सुनों कि बिना मुख जिव्हा ताल्वादि स्थानों के कैसे कैसे शब्द हो रहे हैं?
जब परमात्मा निराकार, सर्वव्यापक है तो अपनी अखिल वेद विद्या का उपदेश जीवस्थ स्वरूप से जीवात्मा में प्रकाशित कर देता है। फिर वह मनुष्य अपने मुख से उच्चारण करके दूसरे को सुनाता है। इसे ही वेद ज्ञान कहते हैं जो समस्त प्राणियों के कल्याण के लिए ईश्वर द्वारा दिया गया हैं।

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