Dr capt Alok Ranjan

Dr capt Alok Ranjan मिट्टी का तन,मस्ती का मन ,क्षण भर जीवन मेरा परिचय

तुम जाना तो चाहती थी चुपके चुपके ,की मैं तुम्हारे पदचाप न सुन लूँ ,तुम भूल गई थी कि तुम्हारे पायलों के झंकार और मेरे हृद...
18/10/2024

तुम जाना तो चाहती थी चुपके चुपके ,की मैं तुम्हारे पदचाप न सुन लूँ ,
तुम भूल गई थी कि तुम्हारे पायलों के झंकार और मेरे हृदय की रक्त चाप में समानता थी ।

पायलों की मधुर स्वर तुम भी सुन सकती थी और मैं भी ,
ह्रदय की आवाज़ सिर्फ़ मैं सुन सकता था गहराई से सुनती तो तुम भी ।

हमारे गुजरने के साथ ही स्पंदन हुआ पूरे देह में ।
क्या हम जान सकते हैं कि ऐसा ही होता है नेह में ।
अभी जो हुआ वो अधपका प्रेम से इतर कुछ भी नहीं
प्रेम पक जाएगा बस यूहीं गुजरना ,करना कुछ भी नहीं ।

श्वासों को गिनना शुरू कर करो ,महसूस करो कुछ तो हुई है तेज़
मैं निढाल पड़ा अविरल उनको गिनता हूँ ,साँसों से हिलने लगी मेज़।

हिलने लगी है मेज़ सिर्फ़ श्वास हुई है तेज़ ,तुम्हारे मुस्कुराने का है इंतज़ार
पायल तुम्हारी ऐसी थी ,श्वाश तुम्हारा ऐसा था मन के सागर में लहर उठती है अनेकों बार ।

टकरा कर निकली बस एक बार ही तो ,गंध सुवासित छोड़ती
तुम स्वप्न लोक की परी हो जिसकी उत्कंठा तपस्या को मेरी तोड़ती ।

तप क्या है ? स्वर्ग की कामना या अमरता की चाह या देवत्व की पुकार
तप क्या है ,इंद्र के आसन को स्पंदित करना तुम्हारी देह ईस्टी में छुपा संसार ।

संसार क्या है ,केवल जन्म और मरण नहीं मर्त्यलोक आदि नर और आदि नारी का वरण।
यह ठीक है मर्त्यलोक में नारी को माता बनना पड़ता है ,
देह ढीली पर जाती है ,कंचुकी घड़ी घड़ी गीली हो जाती है |

पर माता बन वह क्या नहीं पाती है,प्रेम दूध की धार
स्वर्ग क्या वो सुख दे सकता है ? देवता चाहे बारंबार।

तो आओ प्रिय मिल जायें ,हमारे मिलन स्वर्ग मर्त्य सा हो जाएगा
मिट्टी इठलायेगी यही मेरा तप था ,की मृत्यु जीवन ही हो जायेगा ।

नौनिहालों के क्रदंन में मिट्टी बन जाएगी ,देवलोक और स्वर्ग बनेगी मिट्टी
प्रलापी इंद्र का आसान क्यों न डोलेगा
तप पूर्ण हुआ मेरा प्रेयसी , चाहे जगत क्यों न कुछ बोलेगा ।

08/10/2024

आज सरकारी वृधाश्रम में सेवा देने का अवसर मिला लेकिन थकान की वजह से लगभग १०० मरीजों में कुछ को ही चिकित्सीय सेवा दे सका ,आपलोग मुझे अच्छा इन्सान समझते होंगे लेकिन मुझसे एक भूल हो गयी की प्रत्येक मरीज को सेवा के बदले माँ से फ़ीस की बात की ,माँ ने समझया की गरीबों की सेवा जिनका कोई अपना नहीं है नाम भी कईओं के काल्पनिक रखे गए हैं क्योंकि या तो वे कुपुत्रों को याद नहीं करना चाहते या मानसिक बीमारी उनका सबकुछ लूट लिया ,नाम की तो बात ही क्या करें अस्तित्व का भी हरण हो गया ,लगभग ७०% बुजुर्गों का नामकरण काल्पनिक था |
कभी संतति विस्तार पर पैसों की बारिश करने वाले पिता और बलाएं लेनी वाली माँ को प्यार तो दूर की कौड़ी अंतिम संस्कार भी सरकारी फंडों से होनी तय है ,अतिशोक्ति नहीं होगी अगर मैं यह कहूँ की आपका पुत्र भी आपके लिए कुछ ऐसा ही प्रबंधन की शिक्षा ले रहा है |
मैं आपको भयभीत नहीं कर रहा हूँ आपके भविष्य का दर्शन करा रहा हूँ ,मैं पूरी जिम्मेदारी से और आप के भरोसे को खंडित नहीं करते हुए एक बी लघु कथा जो की बिलकुल सत्य है सुना रहा हूँ ,मैंने अपने पिता जी से सुना है की एक कुपुत्र अपने जनक को प्रतिदिन छड़ी से पिटता था कुछ दिनों के बाद बाप ने कहा "बेटा थोडा धीरे मारना चोट लगती है "
सरकारी मुख्य चिकित्सक बनना ख़ुशी कम पीड़ा अधिकं मिली|पुत्र अपने पिता से भीख मंगवाए !
किसकी नज़र लग गयी मेरे भारतवर्ष को ?
माँ की आज्ञा है की निःशुल्क भी सेवा करना हो तो इसे इश्वर की कृपा मानो |इश्वर ने तुम्हे चुना की पुत्रवत सेवा करो ,फ़ीस की ऐसी की तैसी |

मेरा एक कर्मचारी दिल्ली में अत्याधिक बीमार हो कर राममनोहर लोहिया अस्पताल में जीवन और मृत्यु से संघर्ष कर रहा था मैं रात को न सोकर श्री नरेन्द्र मोदी जी से दूरभाष से बात की और समुचित इलाज की व्यवस्ता उनके सौजन्य से करवाई |धन्यवाद् मेरे प्रिय प्रधान्सेवक जो लगके उस्किंप्यियों सौ[प

08/03/2024

राष्ट्रीय देवी दिवस|
लगभग चार दशकों पूर्व २४ जनवरी को भारत को अपनी पहली महिला प्रधानमंत्री स्व .श्रीमती इंदिरा गाँधी के रूप में मिली और २००९ से इस दिन को हम राष्ट्रीय बालिका दिवस के रूप में मना रहे हैं |
कल ही श्रद्धेय निशा मित्तल जी ने मेरे एक लेख पर प्रतिक्रिया दी की अगर भारत की महिलाओं पर कोई अभद्र चित्रण करे तो वह अक्षम्य है ,उनकी बात से मैं पूरी तरह सहमत हूँ ,भारत तो क्या विश्व के हरेक स्थान पर महिलाओं का सम्मान हो इसपर किसी को क्या आपत्ति हो सकती है ,मातृ –शक्ति का सन्मान होना ही चाहिए |
भारत में नारियों को देवी –तुल्य स्थान दिया गया है ,और देवियों को स्वर्ग में होना चाहिए अतः कोख से ही स्वर्ग भेजने की समुचित व्यवस्था का जितना प्रबंध हमने किया है वैसा किसी और संस्कृति ने शायद ही किया हो ,चिकित्सा सेवा भले ही और क्षेत्रों में विरल हो पर पर इस सांस्कृतिक योगदान के लिए हर शहर और हर कस्बे में सुलभ और सुगम है ,इस आस्थावान देश में जन्मे और पले-बढे चिकित्सक इस पावन कार्य से कैसे अपने को अलग रख सकते हैं ?
जिन देवियों को बचते –बचाते मृत्यु-लोक में आना पड़ गया जीवन पर्यंत उन्हें स्वर्ग पहुचाने की चेष्टा करने में भी हम उद्द्यमशील रहते हैं ,और इस भुलावे में मत रहें की यह सिर्फ पुरानी बात है ,अतीत है ,आधुनिक भारत में हालिया जनसंख्या सर्वेक्षणों पर ध्यान दें ,केरल और मेघालय को छोडकर किस राज्य में महिला तथा पुरुष का अनुपात बराबर है ?और बारीकी से देखें इन्ही दो राज्यों में हिंदुओं की जनसंख्या आनुपातिक रूप से पूरे भारत में अन्य धर्मों की अपेक्षा कम है ,और उन्ही हिंदुओं ने बचपन से रटा –“यत्र नार्यस्य पूज्यन्ते रमन्ते तत्र देवता” |
हमने पंडितों की तरह सिर्फ तोता-रटंत सूक्तियों से अपनी संस्कृति को स्वयं ही विश्व की सिरमौर संस्कृति के रूप में स्थापित करने का उपक्रम कर डाला |किसी ने आपत्ति की तो एक और सूत्र ,सूत्रों की कमी तो है नहीं ,स्वयं ही रचना और स्वयं ही बाचना है |इसी परम्परा और सभ्यता का ढोल पीट हम प्रफुल्लित होते हैं हम ?
आकडे बताते हैं भारत में प्रतिदिन ७००० कन्या भ्रूण हत्याएँ होती हैं ,तो इस हिसाब से साल में दो लाख ५० हज़ार की करीब ,इतना कत्लेआम तो नाजी सेनाओं ने भी शायद ही किया हो ,अगर यह संस्कृति है तो अपसंस्कृति की परिभाषा आप स्वयं बताएँ?
पत्थर की प्रतिमाओं में देविओं की स्थापना दिनों –दिन बढ़ती जा रही है और अगर उन्हें थोड़ा भी क्षत –विक्षत किया तो हमारे आस्थावान पहरुए आसमान सर पर उठा लेंगे ,मृत देविओं से यश और धन तत्काल प्राप्त होता है और पुरखों का इहलोक और परलोक संवर सकता है ,पर जीवित नारियाँ तो नर्क का द्वार है ,जो उन्हें क्योंकर स्वीकार हो ?
पत्थर की प्रतिमाएं उन्हें उबार देगी यहाँ तक की मृत सप्त –सतियों का स्मरण भी ,पर जीवित नारियों से नौका डूबी , तो उन्हें पहले सती हो कर वह योग्यता प्राप्त करनी होगी |
विडम्बना यह है की नारियों की भागीदारी पुरुषों से कम नहीं ,भ्रूण हत्या और भ्रूण परीक्षण के अधिकतर केंद्र नारी –चिकित्सा कर्मियों द्वारा संचालित और उस केंद्र तक जाने को बाध्य करने वाली सासें भी नारियों हैं |कभी –कभी तो पुरुषों से अधिक |
थोड़ा संस्कृति का पूर्वालोकन करें ,रामचरित मानस पर एक दृष्टि डालें ,महाराज दशरथ के चार पुत्रों के लिए पुत्र्येष्ठी यज्ञ का आयोजन हुआ अतः पुत्री का प्रश्न ही नहीं ,चारों भाइयों के भी पुत्र होने की चर्चा है ,सीता जी को नारी होने का का कुफल मिला यह तो पूर्वविदित है |द्वापर में आयें ,कौरवों के १०० भाइयों में एक मात्र बहन ,पांडवों में तो उसका उल्लेख भी नहीं मिलता ,ना उनके किसी पुत्री का उल्लेख हुआ है |क्या यह संयोग मात्र है ?
पांचाली का जन्म तो यज्ञ से मना गया है पर यज्ञ वस्तुतः पुत्र प्राप्ति के लिए किया गया ,और पांचाली का हाल भी हमसे छुपा नहीं है |
पुराणों के आगे भी अगर इतिहास को देखें तो राज –घरानों ने जन्म लेते ही अपनी बेटियों की हत्या करवा दी ,यह भी सर्व –विदित है |
और आज भी हम कहाँ बदले हैं , रामायण में भी दहेज का उल्लेख है और अब तो और विकराल रूप में प्रथा जारी है ,बेटी की कीमत बाप चुका रहा है ,रेट तय है ,कानून का इससे बुरा हाल हो ही नहीं सकता है |
अप्सराओं को ना देख पाने की हसरत ने बालिकाओं को बाजार में खड़ा कर दिया ,और दिल्ली में हर रोज क्या हो रहा है ,बताने की ज़रूरत नहीं है ,अखबार पर स्तंभ की भाति हर दिन खबर चपटी ही है , अपनी देविओं को वासना का प्रसाद अर्पित करने तक से शर्म नहीं हमें |जो बच जाती हैं उन्हें भी हर बार बस यही सुकून होता है की बाल –बाल बचे |
अगर अपवादों को छोड़ दें तो महिला –सशक्तिकरण बस नारों की भाषा है ,विधायिकाओं में ३३ % आरक्षण मिल भी जाये तो खतरा इस बात का है की कहीं कठपुतलियों को ना बैठा दिया जाये ,महिलाओं की सज्जा में ,और डोर किसके हाथ में होगी आपको भी पता है | पंचायत –चुनाओं में इसकी झलक मिल चुकी है हमें |
लेकिन इनसब का तोड़ एक है हमारी संस्कृति ,गड्ढे में गिरते जाएँ और सभ्यता का गीत गायें |

06/03/2024

आज सारा दिन यही सोचता रहा की क्या लिखूं ? सारा दोष मीडिया का है, न उनके पास मसाला था न मेरे पास मसला। तड़का लगाने के लिए पहली शर्त है दाल का होना, और दाल गलाना मीडिया का विशेषाधिकार है और गाल बजाना हमारा। इस चुनावी चक्कलस में पूरा दिन एक लेखक मुद्दे के अभाव में भटके यह समाज, लोकतंत्र और पत्रकारिता की घोर लापरवाही का सबूत है।

समाज का उत्तरदायित्व है घटना को अंजाम देना, लोकतंत्र का दायित्व है घटना स्थल का निरीक्षण करना तथा पत्रकारिता का दायित्व उसे मसाला मिला कर प्रस्तुत करना। लेखक तो निरीह है वह तो बस घर में बैठ कर उन तीनो संस्थाओं को खरी-खोटी सुना सकता है, अगर घटना न घटे तो साहित्य का विकास अवरुद्ध हो जाये, अगर अंग्रेज न होते तो हमें मुंशी प्रेमचंद की नब्बे प्रतिशत रचनाओं का रस कैसे मिलता ?अतः आप सबसे हिंदी के उत्थान हेतु आग्रह है, की घटनाओं के प्रवाह को अवरुद्ध न करें।

घर में दाल-रोटी चलती रहे और संपादक महोदय की कृपा-दृष्टि बनी रहे इस हेतु कल की ही घटना को नयी थाली में परोस रहा हूँ, कृपया आतिथ्य परंपरा का निर्वाह करते हुए इसे भी उसी सुरुचि-पूर्ण भाव से ग्रहण करें।

कल एक संवैधानिक संस्था ने एक चुनाव चिह्न प्रतीक को लाल कपडे से तथा उस पार्टी के नायिका के प्रतीक को हरे कपडे से ढँक कर जन-जागृति का सूत्रपात कर दिया।

हरेक प्रबुद्ध महानुभावों ने अपने-अपने विचार प्रस्तुत किये, एक महोदय ने तो कंगारू को हाथी का विकल्प बताया, पर समस्या तो वही रह जाएगी, कंगारू के प्रतीक को नीले कपडे का वस्त्र धारण करना पड़ेगा।

एक विकल्प है- प्रतीकों के बजाये प्रत्यक्ष को तरजीह दी जाये और एक संवैधानिक संस्था को दूसरे संवैधानिक संस्था से उलझाया जाये-"विषस्य-विषमोषधम" की तर्ज पर।

उन्होंने हाथी के प्रतीक को ओझल किया आप साक्षात् हाथिओं को सारे शहर में खड़ा कर दें, अगर उनपर पर्दा डाला गया तो वन्य-प्राणी अधिनियम तथा पशुओं के प्रति क्रूरता का मामला वन- विभाग में दर्ज करा दें, जब तक चुनाव- आयोग और वन- विभाग आपस में उलझे रहेंगे तबतक चुनावी-बैतरणी पार।

अगर हाथी न मिले उसी कद-काठी के किसी इन्सान को बैठा दें, अगर भूल से भी हाथी को उन्होंने हाजत में बंद किया तो उसके आहार को जुटाने में उन्हें अपना वेतन भी कम पड़ जायेगा मसल है-मरा हाथी भी नौ-लाख का होता है।

फिर भी अगर काम ने बने तो अपने गणेश जी कब काम आयेंगे, हाथी पर सनातन-पंथीओं की गोष्ठी बुला लें, बेडा पार।

हाथी से अब हाथ पर आते हैं, हाथ वालों का तो काम शुरू से ही आसान है, अपने उद्दंड कार्यकर्ताओं को हर चौक पर हाथ ऊपर कर के खड़ा होने को कहें, बीच-बीच में पाली बदलते रहें, कार्यकर्ताओं से भी निपटारा और प्रचार भी,महिला कार्यकर्ताओं का उपयोग जनता को अधिक आकर्षित करेगा , अगर उनपर पर्दा डाला तो महिला आयोग बिना शिकायत के ही चुनाव- आयोग को अपनी शक्ति का एहसास करा देगी, हो गया काम आपका।

साईकिल वाले ठीक चुनाव के दिन प्रदुषण-मुक्ति के नाम पर साईकिल दौड़ या साईकिल मैराथन का आयोजन करा दें, अगर रोक लगायी गयी तो प्रदूषण-नियंत्रण विभाग को सूचित कर दें, ओलम्पिक एसोसिएसन वैसे भी कॉमवेल्थ के बाद से सुस्त बैठे है, उन्हें पूर्व में ही आमंत्रित कर दें, दोनों मिलकर चुनाव आयोग की दौड़ लगवा देंगे, आप का भी भला हो जायेगा।

कमल वाले रातो-रात शहर के हर नाले में कमल के पौधे पुष्प सहित नर्सरी से लाकर लगा दें, अगर उन्हें हटाया गया तो पर्यावरण मंत्रालय में शिकायत दर्ज करा दें, या ग्लोबल वार्मिंग का ऐसा बवाल खड़ा करें की जनता को लगे अगर इन फूलों को हटाया गया तो सचमुच में ही २०१२ में धरती का विनाश हो जायेगा।

इस तरह हर दल की वैतरणी पार हो जाएगी, बस याद रखें-"तीरण से काटे तीर, तीरण को काटे तीर “!

27/02/2024

मत कहो इसे कालापानी,इसके कण कण में है बलिदानी - वीर सावरकर की जयंती पर प्रणाम

22/02/2024

सृजक और स्रष्टा(द्वितीय आयाम )
== सुवामा ==
सुवामा शक्ति स्वयं ,या किसी अपर शक्ति के आधीन ? हे राम! जनक-सुता का सार्वभौम से यह प्रश्न अति प्राचीन !

नारी मात्र कौशल्या हो या स्वयं ब्रम्ह की छाया? युगों-युगों से जलती आयी वैदेही की काया !

मायापति को मूर्त रूप देती जिस नारी की कोख | आश्रय होता उसका स्वयं निविड़ वाटिका अशोक !

रावण के कृत्यों का अबला क्यों अपराध सहे? अग्निसाक्षी निरपराध क्यों अग्नि-देव के चरण गहे?
विलासी इंद्र के अपकर्म से अहिल्या आज भी स्तब्ध है | शील न लुट जाये ,इस भय से मानवी शिला बनी निःशब्द है|

लक्ष्मण रेखा के आगे लांछा की ज्वाला है ,भीतर है धर्म प्रलाप,
जलती केवल नारी ,भीतर –बाहर उस रेखा करती विह्वल रौद्र अलाप|

भरी सभा में अग्नि-प्रगटा धर्मराज का व्यसन मोल चुकाती है, पुरुषोत्तम की मर्यादा हित भू-कन्या भूमि का आश्रय पाती है|

कुरुभूमि में पार्थ प्रिय गाण्डीव जिसकी प्रत्यंचा थी पांचाली के केश, भीम सना था रक्त सुज्जजित ,पांचाली से अधिक उसे था कुल –मर्यादा का क्लेश |

पांडू-सुतों को सुयोधन ,अगर समर्पित कर देता
पांच गाँव | उन्हें सताती याद कहाँ पांचाली के ह्रदय के हरे घाव |

रुधिर पिला कर पालन करती लघुता को सुवरिष्ट,तब स्रष्टा पूजे जाते हैं | सृजक जब सितकेशी हो ,प्रवया हो ,साकल्य छीन अंचल का न्यास चुकाते हैं !

दम तोड़ते सरस्वती पुत्र वसंत –पंचमी को जिस एक विशेष कारण से मेरे स्मृति पटल पर गहराई तक अंकित है,-वह इस दिन को सरस्वती क...
13/02/2024

दम तोड़ते सरस्वती पुत्र वसंत –पंचमी को जिस एक विशेष कारण से मेरे स्मृति पटल पर गहराई तक अंकित है,-वह इस दिन को सरस्वती के वरद पुत्र और छायावाद के प्रमुख काव्य –हस्ताक्षर ‘श्री सूर्य-कान्त त्रिपाठी निराला’ के जन्म –दिवस के रूप में मनाया जाना है।

इस दिन का पौराणिक महत्व जो कुछ भी हो निराला जी ने अपना जन्म –दिवस वसंत –पंचमी को मान स्वयं अपनी माँ वीणापाणि की शुभ्रता को और भी धवल किया।

“टूटें सकल बन्ध,
कलि के, दिशा-ज्ञान-गत हो बहे गन्ध।
रुद्ध जो धार रे, शिखर- निर्झर झरे”
“ मधुर कलरव भरे, शून्य शत-शत रन्ध्र।
रश्मि ऋजु खींच दे, चित्र शत रंग के,
वर्ण- जीवन फले, जागे तिमिर अन्ध।”
-निराला

मुक्त होने की निर्बोध तड़प , और आलोक की उत्कट अभिलाषा को परिलक्षित इन सोपानों के रचयिता को छायावाद की परिधि में बांधा ही नहीं जा सकता।हिंदी क्या किसी भी भाषा साहित्य को इनकी अभिव्यक्ति पर अभिमान होना ही चाहिए।

अपनी ‘कमलासना’ माँ के वरद पुत्र होने की सार्थकता का पूरा-पूरा निर्वाह किया इस महाकवि ने।अपनी पुत्री के अंतिम क्षणों में विवश और निरूपाय हो अपने हिंदी के सर्जक होने का मूल्य भी चुकाना पड़ा और ताउम्र मूल्य चुकाते रहे।

हिंदी साहित्य-शिल्पिओं के लिए एक मुहावरा तय है –सरस्वती और लक्ष्मी के बैर के शास्वत होने का, तथा इन्ही देवियों की महत्ता का आनुपातिक विश्लेषण कर एक सांस्कृतिक परिधि भी उनके लिए तय है।

पर क्या जीवन –यापन की न्यून आवश्कताओं का अधिकार भी सरस्वती-पुत्रों को नहीं है ?बस एक मृत उदहारण को ढाल की तरह खड़ा कर याद दिला दिया गया की साहित्य, काव्य और कला की सहज अभिव्यक्ति के लिए तुम्हारे सम्पूर्ण जीवन का असहज होना पहली शर्त है।

-कविता या साहित्य का प्रस्फुटन तुम्हारे हृदय से होता है, अतः हृदय के साथ –साथ शरीर के गलाने से उस रंग का निर्माण करो, स्वयं अपने तथा पूरे परिवार के लहू से उस रंग को और गहरा करो तब तुम्हारी अभिवक्ति सेठों की अलमारियों में रखने योग्य होंगीं।

एक बात और सिखलायी गयी हैं बड़े दार्शनिक रूप में –जीवन की घोर तपस्या का मूल्य साहित्यकार को जीवन के बाद ही मिलता है तो तपस्या को अधिक कष्टप्रद बनाने के लिए हे! सरस्वती पुत्रों, भूख –प्यास, सर्दी-गर्मी को झेलना अपना सौभाग्य मानो, सर्दी में ठिठुरोगे तो पूस की रात का चित्रण सहज रूप में कर सकोगे, हल्कू और तुममें कोई अंतर तो नहीं।

लेकिन, क्षोभ इस बात का की साहित्य संरचना के ये नियम मात्र हिंदी के रचयिताओं तक ही क्यों सीमित है, और ये आज की बात नहीं यह भेदभाव तो ५ शताब्दियों से चला आ रहा है और भविष्य में मात्र हिंदी सप्ताह या हिंदी दिवस की खानापूर्ति दशा और दिशा को बदलने वाली तो नहीं लगती, इन बेकार के आयोजनों से कुछ भी बदलने वाला नहीं है।

थोड़ा इतिहास का अवलोकन करें तुलसी और रहीम समसामयिक माने गए हैं रहीम श्रेष्ठ कोटि के हिंदी कवि हुए और मुग़ल दरबार का आश्रय लिया, और आश्रय मिलने का कारण उनकी श्रेष्ठ रचनाओं के साथ ही उनके मुसलमान होने को भी देना ही पड़ेगा, तो उनका जीवन बाधा –शून्य ही रहा, गंग के रचनात्मक शैली की प्रगाढ़ता को भी दरबार का आश्रय प्राप्त हुआ।

तुलसी काशी में दर-दर भटकते रहे और कुछ आलोचक तो यहाँ तक कहते हैं की एक प्लेग में उन्हें निरीह छोड़ दिया गया, हनुमान –बाहुक में उसका विवरण मिल जाता है –

“पाँय पीर पेट पीर बाँह पीर मुंह पीर, जर जर सकल पीर मई है।
देव भूत पितर करम खल काल ग्रह, मोहि पर दवरि दमानक सी दई है।।
हौं तो बिनु मोल के बिकानो बलि बारे हीतें, ओट राम नाम की ललाट लिखि लई है।
कुँभज के किंकर बिकल बूढ़े गोखुरनि, हाय राम राय ऐसी हाल कहूँ भई है।"

अधिकतर साहित्यकारों ने उस युग में दरबार के आश्रय को अपनी निजता से ऊपर रखा या दूसरा मार्ग अपनाया-हिंदी में अपनी रचना नहीं की।

तुलसी उनसे काफी ऊँचे उठ गए, परन्तु उनका मूल्यांकन तो उनके जाने के बाद ही हुआ, जीवन भर ठोकरे खाते रहे।

दरबारी कवियों को एक और सुविधा मिली –उनकी रचनाएँ सहेज कर रखीं गयीं, पृथ्वीराज –रासो जैसी अप्रमाणिक रचनाएँ अब तक बनी हुई हैं, राज –पुरुषों के महिमामंडन तथा उनके प्रेम का चित्रण ने उन कवियों को तथा उनकी रचनाओं को हर प्रकार का समर्थन दिलवाया।

कई अप्रतिम काव्य मज़हब के नाम पर नष्ट कर दिए गए, और कुछ को हिंदी के उस आदिम रूप के नाम पर भी, कुछ लोग तो ये मानते हैं की रामचरितमानस को बचाने के लिए तुलसी जी ने रहीम के यहाँ छुपा दिया।

जो हो हिंदी की हीनता उसके आदि स्वरुप में भी मिलती है, बचने का उपाय बस एक ही था दरबारी बनो अथवा हिंदी को छोड़ अरबी, फारसी में लिखो।

यही परंपरा आधुनिक काल तक बनी रही दरबार अब अंग्रेजों द्वारा संचालित थी, जिनके भारत आगमन के मसौदे में ईसाई धर्म का प्रचार भी था, बाधा संवाद की थी अतः हिंदी को बस धर्म प्रचार तक सीमित रखा गया, भारतीय साहित्य का कोई ज्ञान उन्हें था नहीं अतः दरबार से कविओं को प्रोत्साहन मिलना असंभव था।

रही –सही कसर हिंदी के स्वरुप –निरूपण ने पूरी कर दी, फारसी, हिंदी और उर्दू के विवाद को मजहब के विवाद से देखा गया, परि-शुद्ध हिंदी को अंग्रेजों ने दोयम दर्ज़ा ही दिया, हालाँकि भारतेंदु और सितारे-हिंद जैसे शुरुआती साहित्यकारों की भाषा उर्दू ही कही जा सकती है।

राष्ट्र-वाद के उदय ने हिंदी को जनमानस के स्तर पर तो पंहुचा दिया लेकिन साहित्यकारों की दुर्दशा और भी अधिक हो गयी, सरकार ने हिंदी के ग्रंथों को भडकाऊ बता जब्त करना शुरू किया और और साहित्यकारों के आर्थिक मदद का तो प्रश्न ही नहीं, प्रकाशक भी गिने –चुने, जीर्ण –शीर्ण।

उस समय भी एक बात बड़ी विचित्र है राष्ट्र-वादी नेताओं के अंग्रेजी में लिखे पुस्तक अच्छे प्रकाशन में छपे –‘डिस्कवरी आफ इंडिया ’ अंग्रेजी हुक्कम्ररानो को भी बहुत पसंद आई, पर प्रेमचंद जी की उर्दू और हिंदी दोनों भाषाओं की रचनाओं को हर तरह के बाधाओं से दो –चार होना पड़ा।

बांग्ला से भी उनका बैर भाव नहीं रहा, कमसे कम बाद के दिनों में, गीतांजलि के अंग्रेजी संस्करण ने उसे नोबेल पुरस्कार दिला दिया, हाँ एक बात अब भी वही थी, लेखक राष्ट्र –वादी थे और संस्करण अंग्रेजी था।

अगर स्वाधीनता को प्रेरित करने का आरोप प्रेमचंद पर लग सकता है तो इसी आंदोलन के शीर्ष नेताओं की रचनाओं का सन्मान इस बात को पूरी तरह नकार देने के लिए काफी है।

स्वन्त्रता के बाद दरबार के सिक्के बदल गए, हिंदी को उम्मीद थी पर उसके साहित्यकारों को अब और दुर्दशा देखनी थी, अंग्रेजी अब दरबार और उच्च वर्ग पर नशे की तरह सवार था, बच्चों को उस वर्ग ने विलायत में शिक्षा ना दे पाने की कसक उन्हें हिंदी साहित्य से दूर रख कर पूरा करना शुरू किया।

अंग्रेजी पत्रों की सुन्दर छपाई से लेकर बड़े प्रकाशन कम्पनिओं ने बेकार की तुकबंदियों को सुंदरता से प्रस्तुत किया “जानी-जानी येस पापा, ”लोकप्रिय होने लगे और अंगरेज़ी प्रकाशकों ने खूब दौलत बटोरी, हिंदी मटियामेट होती गयी।

आलोचना इस बात की भी हुई की हिंदी काव्य मात्रे में नहीं है, जबकि शायरी लयबद्ध है।बात इतनी ही है की शायरी को गीतों और फिल्मों के हिसाब से लिखा गया, और हिंदी कविताओं में दार्शनिक भाव प्रधान रहा।

“साँप !तुम सभ्य तो हुए नहीं,
नगर में बसना, भी तुम्हें नहीं आया।
एक बात पूछूँ--(उत्तर दोगे?)
तब कैसे सीखा डँसना--विष कहाँ पाया?” –
‘अज्ञेय’

अज्ञेय की इन पंक्तियों पर कई दिनों तक सूत्रात्मक व्याख्यान दिए जा सकते हैं पर फिल्मों या गज़लों के लिए अनुपयुक्त हैं अतः कोर्स से आबद्ध पाठकों तक ही इनकी परिधि है और उच्च-शिक्षा में हिंदी को पढ़ने वाले हैं ही कितने ?

कईओं ने इसे रहस्यवादी शैली के रचना के स्थान पर रहस्यमय या तिलिस्मी बता डाला।अर्थात, कोर्स के आगे इनकी पूछ कम है। तो प्रकाशक भी इन्हें उसी अनुपात में छापते और थोड़ा –बहुत मुआवजा राशि दे देते हैं।

“ख़ातिर से तेरी याद को टलने नहीं देते,
सच है कि हम ही दिल को संभलने नहीं देते
-अकबर इलाहाबादी, ”

यह लयबद्ध है और ग़ज़लों तथा महफिलों में गाई जा सकती है, तो उर्दू के बाद हिंदी में भी प्रकाशक बड़े आराम से बेच लेते हैं। अंग्रेजी दरबारों से निकल कर आम आदमी तक पहुँच चुकी है, तो बड़े ‘गोड आफ स्माल थिंग’ और ‘सिडनी स्लेडों’ और बच्चे ‘हैरी –पॉटर’ की प्रितियों में ‘स्टेटस-सिम्बोल’ की तलाश करते हैं।पांच साल के बच्चों को खाक समझ आता होगा ‘हैरी –पॉटर’ पर हरेक नए संपादन के लिए मारा –मारी है, स्टाल पर सुरक्षा कर्मियों को तैनात किया जाता है।

काव्य के लिए शेक्सपीयर को दिनकर से ऊपर माना जाता है, फैशन जो है !रुश्दी और तस्लीमा जी की विवादास्पद रचनाओं को शो –केसों में सज्जा के लिए कईओं ने खरीदा।

ज्ञानपीठ जीतने के बाद भी कई पाठक राग –दरबारी जैसी कालजयी रचना को खरीदना पसंद नहीं करेंगे, क्योकि उसे बुकर –पुरस्कार नहीं मिला, बुकर अंग्रेज़ी साहित्य पर दिया जाने वाला पुरस्कार है, पर कुछ लोगों से यह सुनने को मिला की राग –दरबारी ठीक ही होगी पर हिंदी वाले बुकर तक तो जीत नहीं पाते !

कुछ कवि सम्मेलनों से और साहित्य गोष्ठियों आशा थी , मुझे शुरू –शुरू में ऐसा प्रतीत हुआ जब मंच पूरा भरा हुआ था, पर हास्य रस पर आकार बात समाप्त हो जाती है अथवा पाकिस्तान को उसकी औकात बता कर।निराला जी, मुक्तिबोध, महादेवी जी की शैली तो कोसों दूर छोड़ गए हम।

एक कवि सम्मेलन में ‘कुमार विश्वास जी’ प्रस्तोता के रूप में श्रोताओं का हास्य मनोरंजन कर रहे थे और तालियाँ बज रही थीं, पर अंत में जैसे ही उनके स्वयं के काव्य पाठ की बारी आयी, अधिकतर लोग पार्किंग स्पेस से गाडियों को निकालने में व्यस्त हो गए।कविओं को कामेडी –सर्कस के कलाकारों के रूप में देखना पसंद करते हैं लोग !

हाँ, उर्दू मुशायरों में भीड़ उमडती है, प्यार –मोहब्बत की शायरी सरस और सुगम है, श्रोताओं के लिए धूमिल और निराला के बिंबों से जूझना नहीं पड़ा।

हिंदी में दो –चार कवियों या साहित्यकारों के नाम की याद नहीं आती जिनको सरकार ने प्रोत्साहित किया हो, दिनकर जी को राज्य –सभा तक जगह मिली, ज्ञानपीठ और साहित्य –अकादमी पुरस्कारों की राशि इनती कम है की अपनी रचना पर जीवन अर्पित करने वाले साहित्यकार को अपना स्वयं का पेट पालना मुश्किल हो।

तो हिंदी में सरस्वती –पुत्रों के जन्म पर शोक मनाया जाये या उल्लास, थोड़ा सोचिए ......, और पुत्र के बिना माता का क्या काम ?, कहीं पुत्रों के शोक में माँ सरस्वती भी अचेत तो नहीं हो चुकीं, थोड़ा ध्यान से देखियेगा प्रतिमाओं को, टटोलिए गा उनके नब्ज़ो को विसर्जित करने से पहले !

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