18/09/2024
☘️शीघ्र स्नेह लक्षण प्राप्ति विधि☘️
इसी प्रकरण में हम सद्यः स्नेह प्रयोगविधि का उल्लेख करना आवश्यक समझते हैं। क्योंकि कई बार अधिक व्यस्त व्यक्तियों स्नेह में शीघ्र स्नेह लक्षण प्राप्त करना आवश्यक हो जाता है। दरअसल सम्यक स्नेह लक्षणों की आप्ति में सात दिन का समय लग सकता है। चार-पाँच दिन में स्नेह लक्षण प्राप्त हो इसके लिए निम्नांकित आनुभविक प्रयोग चिकित्सकों के लिए समालोचनीय हैं -
सूत्रम
1-
घृत 80 मि.ली. + मूंग के दाल और चावल की खिचड़ी लवणयुक्त पकाकर 200 ग्राम मात्रा में सुबह खाली पेट सेवन करा दें और पूरा दिन आराम करें तथा गरम जल का सेवन करें। ध्यान रहे कि यह खिचड़ी गरमागरम सेवन न करें अन्यथा दस्त लग सकते हैं। इस प्रयोग से तीन दिन में ही स्नेहलक्षण प्राप्त हो जाते हैं। किसी भी स्नेह में सैन्धव लवण मिलाकर सेवन करने से अपेक्षित स्नेह लक्षण शीघ्र मिल जाते हैं। शास्त्र में पाँच प्रसूत की पेया का उल्लेख इसी उद्देश्य से किया गया था। स्नेह प्रविचारणा-🌷
स्नेहद्विषः स्नेहनित्या मृदुकोष्ठाश्च ये नराः। क्लेशासहा मद्यनित्यास्तेषांमिष्टा विचारणा।।
च.सू. 13/28
जो व्यक्ति स्नेह से नफरत करते हों, जो नित्य स्नेह का सेवन करते हो जिनके कोष्ठ मृदु हों, जो व्यक्ति सुकोमल प्रकृति के हों, जो प्रतिदिन मद्य का सेवन करते हो और उन्हें स्नेह सेवन कराना आवश्यक हो तो ओदन, विलेपी, मांसरस, दूध, दही,या फल, सूप, शाक, यूष. काम्बलिक, खंड, सत्तू, तिलकल्क, मद्य, लेह, भक्ष्य, अभ्यञ्जन, बंस्ति, उत्तरवस्ति, गण्डूष, कर्णतैल, नस्य और नेत्रतर्पण के माध्यम से उनके शरीर में पहुँचाना चाहिए।
दूसरे शब्दों में यह कहा जा सकता है कि जो स्नेह खिचड़ी, भात, सूप आदि या किसी शरीरोपयोगी अन्य द्रव्यों का योग कर उनके साथ मिलाकर प्रयोग किया जाता है उसे प्रविचारणा कहते हैं। चक्रपाणि ने कहा है कि स्नेह का किसी अन्य पदार्थ के साथ प्रयोग करने को प्रविचारणा कहते हैं।
स्नेह के योग्य व्यक्ति -🌷स्वेद्याः शोधयितव्याश्च रुक्षवातविकारिणः। व्यायाममद्यस्त्रीनित्याः स्नेह्याः स्युर्ये च चिन्तकाः॥
च.सू. 13/51 जिन व्यक्तियों को स्वेदन कराना हो वे प्रायः स्नेहन योग्य होते हैं। जो रुक्ष हो और वात विकारों से पीड़ित हों, जो नित्य व्यायाम, मद्य, स्त्री सेवन और मानसिक श्रम करते हों।
जिनका वमन विरेचन आदि से शोधन कराना हो, कृश व्यक्ति योद्धा, वृद्ध, बालक, स्त्रियाँ, क्षीणरक्त, क्षीणवीर्य तथा निद्रारोग पीड़ित स्नेहन योग्य है।
स्नेहन के अयोग्य व्यक्ति-
स्नेहन किसे नहीं कराना चाहिए इस सम्बन्ध में चरक संहित सूत्रस्थान 13/53-55 दृष्टव्य है-
🌷1- जो रुक्षण चिकित्सा करने योग्य हों। जो कफ और मेद वृद्धि से प्रस्र हों उन्हें बिना स्नेहन के ही स्वेदन कराना चाहिए।
🌷2- प्रवाहिका, लाला स्त्रावयुक्त, मन्दाग्नि, तृष्णा, मूर्च्छा, जिनका अर के प्रति द्वेष हो (भोजन से अरुचि हो), जिन्हें लगातार वमन हो रहा हो, स्नेहपान से ग्लानियुक्त, मदपान से पीड़ित, गर्भिणी, तालुशोषी
आमज विकार ग्रस्त तथा विष पीड़ित को स्नेहन नहीं कराना चाहिए।
🌷3- जिन्हें नस्य और बस्ति का प्रयोग किया जा रहा हो, अत्यन्त दुर्वल क्षीण, अजीर्णरोगी, तरुणज्वरी, अकालप्रसूता, उरुस्तम्भग्रस्त तथा अतितीक्ष्ण रोगी स्नेहन के अयोग्य होते हैं।
स्नेहपान की तैयारी-
चिकित्सक का कर्तव्य है कि स्नेहपान के पूर्व प्रयोग की जाने वाली सामग्री, स्नेहद्रव्य का पर्याप्त संग्रत कर लें। यह निर्णय का लेना चाहि
■ कि यह रोगी ■ स्नेहनयोग्य या नहीं। संभावित उपद्रवों के शमनार्थ साधन जुटा लेना चाहिए। इसमें अग्निमांद्य, अरोचक, शूल भ्रम, मूच्छा
अतिसार और वमन होने की संभावना होती है अतः शिवक्षार पाक ■चूर्ण, हिंग्वादिवटी, संजीवनी वटी, चित्रकादि वटी आदि औषधियों क संग्रह रखना चाहिए। अन्य कोई उपद्रव हो तो उसका सम्भावित उपव करना चाहिए।
घृतपान में उष्णजल, तैलपान में यूष (मूंग दाल 50 ग्राम + 14 पानी में पकाकर), वसा, मज्जा का स्नेहपान के रूप में प्रयोग करना। तो मण्ड को अनुपान के रूप में देना चाहिए, इसके अभाव में सर्वत्र अ जल देना चाहिए। नींबू, आलूबुखारा, इलायची आदि भी अरुचि। - करने में चुसवाने हेतु रखना चाहिए। आहांगसंग्रहकार ने निर्देश दियाहै। स्नेहादिषूपयोगाय तदव्यान
कुर्यात् प्रागेव तद्योगी द्रव्यसम्भार संग्रहम्॥
अ.सं.सू. 25/3 में
स्नेहपान की विधि🌷
रोगी को आस्था और विश्वास उत्पन्न करें। कोष- रोगी को धैर्य, आश्वासनयुक्त करें।
- स्नेहपान कराने वाले व्यक्ति का दोषबल, मनोबल, शरीरबल, कोष्ठबल और रोग तथा रोग बल देखकर चिकित्सक यह निश्चित करे कि कि कौन से स्नेह से स्नेहन करना है।
सूर्योदय के 15 से 30 मिनट के भीतर स्नेहपान कराना चाहिए। स्नेहन की पहली मात्रा 30 मि.ली. ही दें।
उत्तम स्नेह मात्रा में- प्रथम दिन 60 मि.ली., दूसरे दिन 90 मि.ली., तीसरे दिन 120 मि.ली., चौथे दिन 180 मि.ली., पाँचवे स दिन 240 मि.ली., छठवें दिन 300 मि.ली., सातवें दिन 360 यस मि.ली. मात्रा सेवन करावें। कुछ चिकित्सक इस मात्रा को प्रातः काल खाली पेट नाश्ता के समय गरम पानी के अनुपान से सेवन कराते हैं।
अन यद्यपि यह पद्धति उत्तम है परन्तु किसी-किसी को जब 180 रहा मि.ली. मात्रा सेवन का क्रम आता है तो अरुचि होने लगती है जोकि तो उन्हें विभाजित मात्रा में पूरे दिन में इतनी मात्रा स्नेह सेवन ही कराया जाता है। ध्यान रहे जब पूर्व दिन का स्नेहपान अच्छी तरह से र्बल, पच जाय तभी अगले दिन की मात्रा निर्धारित करनी चाहिए कि कितनी तथा मात्रा में स्नेह सेवन कराया जाय। इसके लिए स्नेह के पचने के समय होने वाले लक्षण और पचन हो जाने पर होने वाले लक्षणों का ज्ञान आवश्यक है।
उपर्युक्त जो मात्रा लिखी गयी है उसका कोई बन्धन नहीं है, बन्धन इस बात का है कि रोगी में सम्यक स्निग्ध लक्षण दिखायी पड़े।
बाधन कई बार यह मात्रा बढ़ानी भी पड़ती है और घटानी भी, इसके लिए कुशल चिकित्सक स्वतंत्र होता है।
स्नेह का पाचन लक्षण
सेवन किए गये स्नेह के पाचन के समय 🌷 "स्युः पच्यमानेतृड्दाहभ्रमसादारति क्लमाः ।। सु.चि. 31/33 के अनुसार शिर में पीड़ा, चक्कर आना, लालास्त्राव, मूर्च्छा, थकावट, क्लम, तृष्णा, दाह और अरति लक्षण हो सकते हैं। इन लक्षणों के आने पर चिकित्सक को निगरानी रखनी चाहिए और रोगी को सान्त्वना देना चाहिए कि ये लक्षण स्नेह के पाचन होने पर स्वतः ही समाप्त हो जाते हैं।
🌷जीर्ण तत् शान्तिलाघवात्। अनुलोमोऽनिलः स्वास्थ्यं क्षुत्तृष्णोद्गारशुद्धिभिः ॥
अ.सं.सू. 25
के अनुसार स्नेहपान के पश्चात् जब शिर की रुग्णता का शमन हो जाय, शरीर में हल्कापन, वायु का अनुलोमन होता है, भूख और प्यास ० लगती है, शुद्ध डकार आती है।
वे सम्यक स्निग्ध लक्षण
वायु का अनुलोमन, अग्नि की प्रदीप्ति, मल में स्निग्धता, मल में ल द्रवता, अंगो में मुलायमता और स्निग्धता, त्वचा में स्निग्धता, गात्रलघुता, हैं। गुद से स्नेह निर्गमन, ग्लानि और क्लम। ये लक्षण स्नेहकर्म का • सम्यग्योग होने पर होते हैं।
स्नेह का अयोग लक्षण🌷
मल का गाँठदार और रुक्ष होना, वायु का अनुलोमन न होना, से जठराग्नि की मन्दता अंगो में खरता और रुक्षता, छाती में जलन, नी दुर्बलता, वायु का प्रतिलोम होना तथा अन्नपचन में कठिनाई ये लक्षण य स्नेह के अयोग लक्षण होते हैं।
न स्नेह के अतियोग लक्षण🌷
शरीर में पाण्डुता, अंगगौरव, जड़ता, मल का अपक्व निस्सरण, न तन्द्रा, अरुचि, उत्क्लेश, मुखस्स्राव, गुददाह, प्रवाहिका, मल की अतिप्रवृत्ति, भोजन से अरुचि नाक से स्त्राव, गुदा से स्राव ये स्नेह के अतियोग के लक्षण हैं।
स्नेहकर्म के दौरान🌷-
उपर्युक्त लक्षणों को ध्यान में रखना चाहिए जैसे ही सम्यक स्निग्ध • लक्षण प्राप्त हो वैसे ही स्नेहपान रोक देना चाहिए और स्वेदन एवंशोधन की व्यवस्था करनी चाहिए। जैसे ही स्नेह लक्षण मिल जायें तो उसी दिन सायंकाल और दूसरे, तीसरे दिन सर्वांग वाष्प स्वेदन कराकर को वमन कर्म कराना चाहिए।
स्नेह व्यापद (उपद्रव) और चिकित्सा-
यदि चिकित्सक यह ज्ञान न कर पाये कि अमुक रोगी स्नेहन योग्य या नहीं या स्नेह लक्षण प्राप्त हो चुके या नहीं? स्नेहन प्रारम्भ करने के पूर्व रोगी साम या निराम ? यदि साम रोगी को बिना निराम किए स्नेहन प्रारम्भ करा दिया जाये तो भी स्नेहव्यापद होने लगता है।
ऐसे में रोगी को घबराना नहीं चाहिए। स्नेह व्यापद की चिकित्सा अत्यन्त सरल है। गरम जल का सेवन स्नेहपान से उत्पन्न हुए उपद्रवों को दूर करता है, स्रोतों का विस्तार करता है, स्नेह को पचाता है, मन्दाग्नि को दूर करता है और वायु का अनुलोमन करता है। इसके अलावा लंघन और स्वेदन कर्म कराना चाहिए (मालिश तो बिल्कुल नहीं करना चाहिए)। 3-4 दिन में स्नेह का पाचन स्वतः ही हो कर सम्पूर्ण उपद्रव समाप्त हो जाते हैं। इसके अतिरिक्त स्नेह व्यापद में जो-जो लक्षण उत्पन्न हो उनकी लाक्षणिक चिकित्सा भी करते रहें। त्रिकटु, गोमूत्र, आसव, अरिष्ट, शंखद्राव, रुक्ष, अन्न-पान का सेवन करते रहें।
स्नेहन के पश्चात् कर्म और पथ्यापथ्य-🌷
उष्णोदकोपचारी स्याद् ब्रह्मचारी क्षपाशयः । न वेगरोधी व्यायामक्रोधशोक हिमातपात्।। • प्रवातयामयानाध्वभाष्यात्यासनसंस्थितीः । नीचाव्युच्चोपधानाहः स्वप्नधूमरजांसि च। यान्यहानि पिवेत्तानि तावन्त्यान्यपि त्यजेत्। सर्वकर्मस्वयं प्रायो व्याधिक्षीणेषु च क्रमः ।।
अ.हृ. 16/26-28।