Yogi uttarakhandi

Yogi uttarakhandi जीवन जीने की कला को योग कहते हैं

21/10/2023

इस दृश्य में श्री राम द्वारा बालि को तीर मारने का अंकन है। यह पापनाथ मंदिर कर्नाटक से प्राप्त हुआ है। इस फलक के ऊपर उत्तरोत्तर गुप्तकालीन ब्राह्मी लिपि में "सुग्रीव" शब्द लिखा भी प्राप्त हुआ है। यह दृश्यांकन बाल्मिकी रामायण के सुग्रीव एवं बालि युद्ध प्रसंग को दर्शाता हुआ प्रतीत हो रहा है।जिसमें श्रीराम द्वारा बालि को अपने छोटे भाई सुग्रीव की पत्नी को बंधक बनाकर रखने के कारण बध करने का अंकन है।

This scene depicts Shri Ram shooting an arrow at Bali. This Papnath temple has been obtained from Karnataka. The word "Sugriva" has also been found written on this panel in Brahmi script of late Gupta period. This visualization seems to be depicting the war between Sugriva and Bali of Valmiki Ramayana, in which Shri Ram is depicted killing Bali for keeping his younger brother Sugriva's wife hostage.

संदर्भ - भारत में दरबारी संस्कृति और दृश्य कला: छठी से आठवीं शताब्दी के हिंदू मंदिरों पर रामायण राहतें, चित्र। 47, पेज नं. 201

Reference - Courtly Culture and Visual art in India: Ramayana Reliefs on hindu temples of the sixth to eight century, fig. 47, page no. 201

Sanatan Samiksha #कुशवाहा #हिन्दू #बुद्ध

20/10/2023

यह फलक गुप्त कालीन 5-6 इस्वी के है। यह एशियन आर्ट संग्रहालय, यूनाइटेड स्टेट ऑफ अमेरिका के सेन फ्रांसिस्को में संरक्षित है। इसमें रावण पुष्पक विमान में सीताजी को अपहरण करते हुए दर्शाया गया है तथा जटायु नामक पक्षी रावण से सीता जी की रक्षा हेतु युद्ध कर रहा है।यह घटनाक्रम बाल्मिकी रामायण से संबंधित है
This panel belongs to the Gupta period, 5-6 AD. It is preserved in the Asian Art Museum, San Francisco, United States of America. In this, Ravana is shown Kidnapping Sita in Pushpak plane and a bird named Jatayu is fighting to protect Sita from Ravana.
This incident is related to Valmiki Ramayan

संदर्भ-ईंट फाउंडेशन: उत्तर भारतीय ईंट मंदिर वास्तुकला और चौथी से छह शताब्दी ईस्वी की टेराकोटा कला, अंजीर। 8.4, पृष्ठ नं. 280

Reference -Brick Foundation: North Indian Brick Temple Architecture and Terracotta Art Of the Fourth to Six Centuries CE , fig. 8.4, Page no. 280

Sanatan Samiksha #कुशवाहा #बुद्ध #हिन्दू

18/10/2023
❣️फ्योंली ज्वान ह्वेगे🥰❣️देवभूमि उत्तराखण्ड में बसंत ऋतु के आगमन के साथ देवभूमि फ्योंली के फूलों की चादर ओढ़ लेती है।  इ...
19/03/2022

❣️फ्योंली ज्वान ह्वेगे🥰❣️

देवभूमि उत्तराखण्ड में बसंत ऋतु के आगमन के साथ देवभूमि फ्योंली के फूलों की चादर ओढ़ लेती है। इसे Yellow flax और गोल्डल गर्ल भी कहते हैं। फ्योंली एक ऐसा फूल है जो पहाड़ की लोक संस्कृति में रचा-बसा है। यहां के लोक कवियों और गायकों ने इसे अपनी रचनाओं में उकेरा ही नहीं बल्कि इसे खुद में जिया भी है।
उत्तराखंड के कई लेखकों और कवियों का कहना है कि पहाड़ों में फ्योंली का खिलना वसन्त के आने की सूचना देता है तो कवियों के लिए उनकी रचना का विषय भी देता है। जिसकी सुन्दरता से कवि अपनी कविता की रचना करते हैं। गढ़रत्न नरेंद्र सिंह नेगी जी द्वारा गाया गया बेहद लोकप्रिय गढ़वाली लोकगीत..
"हे जी सार्यूं मा फूली गे होली फ्योंली लयड़ि, मै घौर छोड़ि आवा।"
हेजी घर बौंण बौड़ी गे होलु बालु बसंत मै घौर छोड़ि आवा।आज जब भी सुनाई देता है तो मन में वसंत ऋतु की सुन्दर छवि उभर आती है।
दरअसल फ्योंली के बारे में उत्तराखंड की लोक कथाओं में कहा जाता है कि देवगढ़ के राजा की एकलौती पुत्री का नाम फ्योंली था जो अत्यधिक सुन्दर व गुणवान थी, लेकिन उसकी असामयिक मृत्यु हो गई थी। राजमहल के जिस कोने पर राजकुमारी की याद में राजा द्वारा स्मारक बनाया गया था उस स्थान पर पीले रंग का यह फूल खिला जिसका नाम फ्योंली रखा गया।
आज भी फ्योंली शब्द देवभूमि से दूर रह रहे उत्तराखंडियों को भावुक कर देता है। पहाड़ों में बसन्त के आगमन का संदेश लाने वाली फ्योंली वसन्त ऋतु में प्रफुल्लित हो जीवन में उल्लास और प्रेम का संदेश देती है।

हा कृष्ण! द्वारकावासिन्! क्वासि यादवनन्दन! ।इमामवस्थां सम्प्राप्तां अनाथां किमुपेक्षसे ॥
24/01/2022

हा कृष्ण! द्वारकावासिन्! क्वासि यादवनन्दन! ।
इमामवस्थां सम्प्राप्तां अनाथां किमुपेक्षसे ॥

16/12/2021
(ऋषिकेश नारायण भरत मंदिर) स्कन्द पुराण केदार खण्ड के अन्तर्गत इस प्राचीन मन्दिर का वर्णन इस प्रकार से है ।कृते वाराहरुपे...
22/11/2021

(ऋषिकेश नारायण भरत मंदिर)
स्कन्द पुराण केदार खण्ड के अन्तर्गत इस प्राचीन मन्दिर का वर्णन इस प्रकार से है ।
कृते वाराहरुपेण त्रेतायां कृतवीर्यजम् ।
द्वापरे वामनं देवं कलौ भरतमेव च ।
(स्कन्द पुराण 116/42)
यहाँ पर रैभ्य ऋषि एवं सोमशर्मा की कठोर तपस्या से प्रसन्न होकर भगवान विष्णु ने उनको दर्शन दिये और उनके आग्रह पर अपनी माया के दर्शन कराये। ऋषि ने माया के दर्शन कर भगवान से प्रार्थना की, प्रभु आप माया से मुक्ति प्रदान करें। भगवान विष्णु ने तब वरदान दिया कि आपने इन्द्रियों (हृषीक) को वश में करके मेरी आराधना की है, इसलिये यह स्थान हृषीकेश कहलायेगा और मैं कलियुग में भरत नाम से विराजूंगा। हृषीकेश के मायाकुण्ड में पवित्र स्थान के बाद जो प्राणी मेरे दर्शन करेगा उसे माया से मुक्ति मिल जायेगी। ये ही हृषीकेश भगवान श्री भरत जी महाराज हैं।
विक्रमी सम्वत् 846 (ई0 सन् 789) के लगभग आद्य शंकराचार्य जी ने बसंत पंचमी के दिन हृषीकेश नारायण श्री भरत भगवान की मूर्ति को मन्दिर में पुनः प्रतिष्ठित करवाया। यह मूर्ति शालिग्राम शिला पर निर्मित है। तभी से हर वर्ष बसन्त - पंचमी के दिन भगवान शालिग्राम जी को हर्ष उल्लास से मायाकुण्ड में पवित्र स्नान के लिये ले जाया जाता है एवं धूमधाम से नगर भ्रमण के बाद पुनः मन्दिर में आकर प्रतीकात्मक प्रतिष्ठित किया जाता है।

10/10/2021

🌺🌺🌺सिन्धु नदी🌺🌺🌺

कुछ दिनों पूर्व मुझे श्री गुरुकृपा से अपने पूज्य गुरुदेव,गुरुमाँजी तथा समस्त भृगु कुटुम्ब के साथ लद्दाख जाने का सौभाग्य प्राप्त हुआ , वहाँ पर सिन्धु का दिव्य दर्शन कर मन प्रफुल्लित हुआ कि यह वही पुण्यसलिला है जिसकी गोद में हमारी सभ्यता, संस्कृति और समाज ने सांसें लीं, जिसके कारण हम 'हिंदू' और हमारा देश 'हिंदुस्तान' कहलाया, जिसके तट पर वेद रचे गए, ऋषियों ने देवताओं का आवाहन किया और जिसका हर दिन स्मरण करना हिंदू अपना धर्म समझते हैं।

विद्वानों का मानना है कि परस्य (ईरान) देश के निवासी 'सिन्धु' नदी को 'हिन्दु' कहते थे क्योंकि वे 'स' का उच्चारण 'ह' करते थे। धीरे-धीरे वे सिन्धु पार के निवासियों को हिन्दू कहने लगे। सिन्धु शब्द पारसी में जाकर ‘हिन्दु’, और फिर ‘हिन्द’ हो गया। बाद में पारसी धीरे-धीरे भारत के अधिक भागों से परिचित होते गए और इस शब्द का प्रयोग भारतवर्ष के लिए किया जाने लगा। यही बाद में ‘हिन्दीक’ बना जिसका अर्थ है ‘हिन्द का’। यूनानी शब्द ‘इन्दिका’ या अंग्रेजी शब्द ‘इण्डिया’ आदि इस ‘हिन्दीक’ के ही विकसित रूप हैं। अंग्रेजी के ‘इण्डिया’ से ही अंग्रेज सिन्धु को 'इन्डस' कहने लगे। सिन्धु नदी की घाटी में बसी सभ्यता को इन्डस-वैली सभ्यता कहा गया। विशेषज्ञों का मत है क़ि इन्डस-वैली सभ्यता सिन्धु और सरस्वती नदियों के मध्य उपस्थित एक बड़ी सभ्यता का ही अंश है।

सिन्धु का उद्गम स्थान मानसरोवर जलक्षेत्र में कैलाश पर्वत के उत्तर में लगभग पांच हज़ार मीटर की ऊंचाई पर है। यहाँ से मानो शिव चरणों को धोती हुई सिन्धु दो सौ मील उत्तर-पश्चिम के पठारों और पर्वतों के बीच से गुजरती है। यह लद्दाख के ऊंचे नगर लेह से होकर गुजरती है। लेह से ग्यारह मील आगे उसमें जंसकार नदी का मिलन होता है। इस बीच अनेक छोटे-छोटे हिमनद और नदी-नाले सिंधु में मिलते जाते हैं। हिमनदों, पठारों और पर्वतों के बीच सिंधु का प्रवाह दैवी ऊर्जा का ही एक प्रतिरूप प्रतीत होता है। हुंजा और गिलगित की रक्त जमा देने वाली बर्फानी पहाड़ियों के बीच से गुजरती हुई सिंधु को मील-मील लम्बे हिमनद रोकने का प्रयास करते हैं। परन्तु जो तिब्बत के पठारों से निकलकर वज्र सामान पर्वतों का सीना चीरती हुई गिलगित तक आ गई हो उसे कौन सा हिमनद रोक सकता है? जब यह कोहिस्तान पहुंचती है तो अटोक के करीब इसमें अफगानिस्तान की नदी ‘काबुल’ का विलय हो जाता है। फिर यह नदी मैदानी क्षेत्रों में प्रवेश कर जाती है। पंजाब की पांच नदियों झेलम, चेनाब, रावी, व्यास और सतलुज की धाराओं को ‘पंचनद’ कहा जाता है। पंचनद की जलधारा भी पठानकोट के पास सिंधु नदी में मिल जाती है। वहां से सिंधु लगभग आठ सौ किलोमीटर दक्षिण की ओर बहती हुई कराची के निकट पहुंच जाती है। यहां से यह कई छोटी-छोटी धाराओं में बंटकर विशाल डेल्टा क्षेत्र बनाने लगती है और फिर सिन्धु-सागर में विलीन हो जाती है। इस नदी की कुल लंबाई लगभग 2,880 किलोमीटर है, जिसमें से 1,610 किलोमीटर की दूरी यह पाकिस्तान में तय करती है। सिन्धु नदी पाकिस्तान के बीचोबीच इस प्रकार बहती है मानो यह पाकिस्तान की रीढ़ हो।

भारतीय सभ्यता की पहचान वेदों में सिन्धु नदी के महत्व का मर्मस्पर्शी उल्लेख मिलता है। ऋग्वेद में सिन्धु नदी में अन्य नदियों के मिलने की समानता बछड़े से मिलने के लिए आतुर गायों से की गयी है। लिखा है कि जिस प्रकार मेघों से पृथ्वी पर घोर निनाद के साथ वर्षा होती है उसी प्रकार सिन्धु दहाड़ते हुए वृषभ की तरह अपने चमकदार जल को उछालती हुई आगे चली जाती है। ऋग्वेद में 'सप्तसिन्धवः' का उल्लेख है। यह सिन्धु तथा उसकी छः अन्य सहायक नदियों (वितस्ता [झेलम], अस्किनी [चेनाब], परुष्णी[रावी], विपाशा [व्यास], शतुद्री [सतलज] तथा सरस्वती) का संयुक्त नाम है। वाल्मीकि रामायण में सिन्धु को महानदी की संज्ञा दी गयी है। महाभारत के भीष्म पर् में सिन्धु का गंगा और सरस्वती के साथ उल्लेख है-'नदी पिबन्ति विपुलां गंगा सिंधु सरस्वतीम्। गोदावरी नर्मदां च बाहुदां च महानदीम्।।'। रघुवंश में कालिदास ने रघु की दिग्विजय के प्रसंग में सिन्धु तीर पर घोड़ों की नालों में केसर के लाल फूल भर जाने का मनोहर वर्णन किया है। बौध ग्रंथों में चन्द्रगुप्त मौर्य के अभियानों में भी सिन्धु के अनेक महिमामय उल्लेख हैं।

इस नदी की महिमा पूरे विश्व में पुनः प्रसारित करने के लिए लेह में 'सिन्धु दर्शन' महोत्सव प्रत्येक वर्ष मनाया जाता है। सिंधु नदी के किनारे लगभग ग्यारह हज़ार फीट की ऊंचाई पर बसा लेह पर्यटकों को जमीन पर स्वर्ग का आभास कराता है। सुंदरता से परिपूर्ण लेह में रूईनुमा बादल इतने नजदीक होते हैं कि लगता है जैसे हाथ बढाकर उनका स्पर्श किया जा सकता है। यहां बड़ी संख्या में खूबसूरत बौद्ध मठ हैं जिनमें बहुत से बौद्ध भिक्षु रहतें हैं। लेह में सिंधु के शांत जल में स्नान का अपना ही महत्व है। हर भारतीय सिन्धु नदी को स्मरण करे और गंगा, यमुना, नर्मदा एवं कावेरी के समान सिन्धु के पावन जल का आचमन करे, उसमे स्नान कर स्वयं को धन्य करे तथा तथा लद्दाख में शेष भारत से अधिक-से-अधिक संख्या में पहुंचकर भारत की अखंडता का जयनाद गुंजायें-यह सिन्धु दर्शन का उद्देश्य है।-योगी

31/05/2021

दारुहल्दी -किनगोड़🍇

'दारू हल्दी जिसे स्थानीय भाषा में किनगोड़ कहा जाता है, एक जबरदस्त एंटी डायबेटिक पौधा है। साथ ही इसमें अन्य औषधीय गुण भी है। इसका संस्कृत नाम दारुहरिद्रा,हिन्दी नाम दारुहल्दी तथा अन्य नाम किनगोड़, तोतर वा किलमोड़ा है
उत्तराखंड के पर्वतीय अंचल के पारंपरिक खानपान में जितनी विविधता एवं विशिष्टता है, उतनी ही यहां के फल-फूलों में भी है। खासकर जंगली फलों का तो यहां समृद्ध दुनिया है। यह फल कभी मुसाफिरों व चरवाहों की क्षुधा शांत किया करते थे। लेकिन धीरे-धीरे लोगों को इनका महत्व समझ में आया तो लोक ज़िंदगी का भाग बन गए। औषधीय गुणों से भरपूर जंगली फलों का लाजवाब जायका हर किसी को इनका दीवाना बना देता है।
उत्तराखंड में जंगली फल न केवल स्वाद, बल्कि स्वास्थ्य की दृष्टि से भी बेहद अहमियत रखते हैं। बेडू, तिमला, मेलू, काफल, अमेस, दाड़ि‍म, करौंदा, बेर, जंगली आंवला, खुबानी, हिंसर, किनगोड़, खैणु, तूंग, खड़ीक, भीमल, आमड़ा, कीमू, गूलर, भमोरा, भिनु समेत जंगली फलों की ऐसी सौ से ज्यादा प्रजातियां हैं,जो पहाड़ को प्राकृतिक रूप में संपन्नता प्रदान करती हैं। इन जंगली फलों में विटामिन्स व एंटी ऑक्सीडेंट भरपूर मात्रा में पाए जाते हैं। इन जंगली फलों में एक फल है किनगोड़।
किनगोड़ उत्तराखंड के 1400 से 2000 मीटर की ऊंचाई पर मिलने वाला एक औषधीय प्रजाति है। इसका बॉटनिकल नाम ‘बरबरिस अरिस्टाटा’ है। किनगोड़ से अब एंटी डायबिटिक दवा तैयार की जा रही है।
इसका पौधा दो से तीन मीटर ऊंचा होता है। पहाड़ में पायी जाने वाली कंटीली झाड़ी किनगोड़ आमतौर पर खेतों की बाड़ के लिए प्रयोग होती है। आपको यह जानकर हैरानी होगी कि यह औषधीय गुणों से भी भरपूर है। मधुमेह में किल्मोड़ा की जड़ बेहद कारगर होती है। इसके अलावा बुखार, पीलिया और नेत्र आदि रोगों के इलाज में भी ये फायदेमंद है।
इस पौधे की होम्योपैथी में बरबरिस नाम से दवा बनाई जाती है। इस पौधे की जड़ से अल्कोहल ड्रिंक बनता है। इसके अलावा कपड़ों के रंगने में इसका इस्तेमाल होता है। यह प्रजाति भारत के उत्तराखंड-हिमांचल के अलावा नेपाल और श्रीलंका में भी पाई जाती है।
किनगौड़ की जड़ों को पानी में भिगोकर रोज सुबह पीने से शुगर के रोग से बेहतर ढंग से लड़ा जा सकता है। फलों का सेवन मूत्र संबंधी बीमारियों से निजात दिलाता है। इसके फलों में मौजूद विटामीन सी त्वचा रोगों के लिए भी फायदेमंद है।
उत्तराखंड के जंगलों में यह बहुतायत में पाया जाता है। कई लोग इसके कंटीली झाड़ी से खेतों पर बाड़ लगाते हैं, इसका फल बहुत ही टेंगी होता है। इसे सभी पसंद करते हैं, इसकी औषधीय गुणवता की जानकारी ना होने की वजह से लोग इसका पर्याप्त फायदा नहीं उठा पाते हैं। लेकिन ध्यान यह रखें कि इसके प्रयोग से पहले इसकी प्रयोग की विधि किसी जानकार व्यक्ति से अवश्य लें। तभी ही इस औषधि का सेवन करें।_yogi uttarakhandi

दारुहल्दी -किनगोड़🍇'दारू हल्दी जिसे स्थानीय भाषा में किनगोड़ कहा जाता है, एक जबरदस्त एंटी डायबेटिक पौधा है। साथ ही इसमें अ...
31/05/2021

दारुहल्दी -किनगोड़🍇

'दारू हल्दी जिसे स्थानीय भाषा में किनगोड़ कहा जाता है, एक जबरदस्त एंटी डायबेटिक पौधा है। साथ ही इसमें अन्य औषधीय गुण भी है। इसका संस्कृत नाम दारुहरिद्रा,हिन्दी नाम दारुहल्दी तथा अन्य नाम किनगोड़, तोतर वा किलमोड़ा है
उत्तराखंड के पर्वतीय अंचल के पारंपरिक खानपान में जितनी विविधता एवं विशिष्टता है, उतनी ही यहां के फल-फूलों में भी है। खासकर जंगली फलों का तो यहां समृद्ध दुनिया है। यह फल कभी मुसाफिरों व चरवाहों की क्षुधा शांत किया करते थे। लेकिन धीरे-धीरे लोगों को इनका महत्व समझ में आया तो लोक ज़िंदगी का भाग बन गए। औषधीय गुणों से भरपूर जंगली फलों का लाजवाब जायका हर किसी को इनका दीवाना बना देता है।
उत्तराखंड में जंगली फल न केवल स्वाद, बल्कि स्वास्थ्य की दृष्टि से भी बेहद अहमियत रखते हैं। बेडू, तिमला, मेलू, काफल, अमेस, दाड़ि‍म, करौंदा, बेर, जंगली आंवला, खुबानी, हिंसर, किनगोड़, खैणु, तूंग, खड़ीक, भीमल, आमड़ा, कीमू, गूलर, भमोरा, भिनु समेत जंगली फलों की ऐसी सौ से ज्यादा प्रजातियां हैं,जो पहाड़ को प्राकृतिक रूप में संपन्नता प्रदान करती हैं। इन जंगली फलों में विटामिन्स व एंटी ऑक्सीडेंट भरपूर मात्रा में पाए जाते हैं। इन जंगली फलों में एक फल है किनगोड़।
किनगोड़ उत्तराखंड के 1400 से 2000 मीटर की ऊंचाई पर मिलने वाला एक औषधीय प्रजाति है। इसका बॉटनिकल नाम ‘बरबरिस अरिस्टाटा’ है। किनगोड़ से अब एंटी डायबिटिक दवा तैयार की जा रही है।
इसका पौधा दो से तीन मीटर ऊंचा होता है। पहाड़ में पायी जाने वाली कंटीली झाड़ी किनगोड़ आमतौर पर खेतों की बाड़ के लिए प्रयोग होती है। आपको यह जानकर हैरानी होगी कि यह औषधीय गुणों से भी भरपूर है। मधुमेह में किल्मोड़ा की जड़ बेहद कारगर होती है। इसके अलावा बुखार, पीलिया और नेत्र आदि रोगों के इलाज में भी ये फायदेमंद है।
इस पौधे की होम्योपैथी में बरबरिस नाम से दवा बनाई जाती है। इस पौधे की जड़ से अल्कोहल ड्रिंक बनता है। इसके अलावा कपड़ों के रंगने में इसका इस्तेमाल होता है। यह प्रजाति भारत के उत्तराखंड-हिमांचल के अलावा नेपाल और श्रीलंका में भी पाई जाती है।
किनगौड़ की जड़ों को पानी में भिगोकर रोज सुबह पीने से शुगर के रोग से बेहतर ढंग से लड़ा जा सकता है। फलों का सेवन मूत्र संबंधी बीमारियों से निजात दिलाता है। इसके फलों में मौजूद विटामीन सी त्वचा रोगों के लिए भी फायदेमंद है।
उत्तराखंड के जंगलों में यह बहुतायत में पाया जाता है। कई लोग इसके कंटीली झाड़ी से खेतों पर बाड़ लगाते हैं, इसका फल बहुत ही टेंगी होता है। इसे सभी पसंद करते हैं, इसकी औषधीय गुणवता की जानकारी ना होने की वजह से लोग इसका पर्याप्त फायदा नहीं उठा पाते हैं। लेकिन ध्यान यह रखें कि इसके प्रयोग से पहले इसकी प्रयोग की विधि किसी जानकार व्यक्ति से अवश्य लें। तभी ही इस औषधि का सेवन करें।_yogi uttarakhandi

26/05/2021

उत्तराखंड राज्य के उत्तरी कुमाऊं क्षेत्र में पंचचूली नाम का एक मनमोहक हिमशिखर है। वास्तव में यह शिखर पांच पर्वत चोटियों का समूह है। समुद्रतल से इनकी ऊंचाई 6,312 मीटर से 6,904 मीटर तक है। इन पांचों पीक्स को पंचचूली-1 से पंचचूली-5 तक नाम दिये गये हैं। इनको पंचचूली क्यों कहा गया, इसका पौराणिक आधार है। जानते हो महाभारत युद्घ के उपरांत वर्षों तक पांडवों ने सुचारू रूप से राज्य सम्भाला। जब वह वृद्घ हो गये तो उन्होंने स्वर्गारोहण के लिए हिमालय की ओर प्रस्थान किया। मान्यता है कि हिमालय में विचरण करते हुए इस पर्वत पर उन्होंने अंतिम बार अपना भोजन बनाया था। इसके पांच उच्चतम बिंदुओं पर पांचों पांडवों ने पांच चूल्ही अर्थात छोटे चूल्हे बनाये थे, इसलिए यह स्थान पंचचूली कहलाया।

25/05/2021
21/05/2021
अक्षय तृतीया-परशुराम मंदिर ,उत्तरकाशी"श्री भृगुकुल गौरव भगवान परशुराम जी को  भगवान विष्णु का छठा अवतार माना गया है. अक्ष...
14/05/2021

अक्षय तृतीया-परशुराम मंदिर ,उत्तरकाशी"

श्री भृगुकुल गौरव भगवान परशुराम जी को भगवान विष्णु का छठा अवतार माना गया है. अक्षय तृतीया को भगवान परशुराम का प्राकट्य दिवस मनाया जाता है। परशुराम, भगवान शंकर के परम शिष्य तथा भगवान शिव से उन्हें दिव्य अस्त्र प्राप्त थे. महाभारत काल में भीष्म और कर्ण भी परशुराम के ही शिष्य थे, उन्हें परशुराम ने ही धनुर्विद्या का ज्ञान दिया था। भगवान परशुराम को 7 चिरंजीवियों में भी स्थान प्राप्त हैं।
उत्तरकाशी भगवान परशुराम की जन्मस्थली तथा तपस्थली है जिसके अनेकों प्रमाण हैं जैसे परशुराम के पिता श्री जमदग्नि ऋषि का आश्रम उत्तरकाशी की यमुनाघाटी के थान गांव में स्थित हैं तथा वे वहां के आराध्य देव के रूप में प्रतिष्ठित हैं साथ ही परशुराम की माता रेणुका देवी का प्राचीन सिद्धपीठ गढ़ नाकुरी में स्थित है। उत्तरकाशी में काशीविश्वनाथ जी स्थापना तथा निर्माण भी परशुराम जी द्वारा हुआ जिसका प्रमाण स्कन्दपुराण में हैं। ऐसी मान्यता है कि धर्म की रक्षा के लिये भगवान परशुराम को धनुष तथा परशु भगवान शिव द्वारा यहीं पर प्रदान किया गया।
भारतवर्ष में कम संख्या में ही श्री परशुराम के मंदिर पाए जाते हैं, इन्हीं मंदिरों में से एक है उत्तरकाशी का परशुराम मंदिर। यह मंदिर मुख्य कस्बे में मौजूद भगवान दत्तात्रेय के मंदिर के ही पास स्थापित है.
यहाँ मौजूद शिलालेख पर अंकित ब्यौरे के अनुसार राजा सुदर्शन शाह के शासनकाल में मंत्री रहे धर्मदत्त द्वारा 1842 में इसका जीर्णोंद्धार कराया गया था.
स्थानीय लोग बताते हैं कि इस मंदिर के गर्भगृह में पहले भगवान विष्णु की चतुर्भुजी मूर्ति भी विराजमान हुआ करती थी.इसके अलावा उनकी दशावतार व नवग्रह मूर्तियाँ भी यहाँ हुआ करती थीं. संरक्षण के अभाव में इन मूर्तियों को चोरों, तस्करों ने गायब कर दिया, गर्भगृह में आज भगवान विष्णु की अत्यंत प्राचीन चतुर्भुज मूर्ति जो 24 अवतारों से शोभित है जिनमें भगवान परशुराम विराजमान हैपुराणों के अनुसार कार्तवीर्य के पुत्र द्वारा परशुराम जी की अनुपस्थिति में उनके आश्रम पर हमला कर उनके पिता जमदग्नि ऋषि का वध कर दिया गया था तब परशुराम ने पृथ्वी को जो अत्याचारी क्षत्रिय थे उनसे विहीन करने की प्रतिज्ञा की थी. उन्होंने 21 बार धरती को जो अधर्मी क्षत्रिय थे उनसे विहीन किया था।।
उन्होंने धर्म शिक्षा के लिये एक हाथ में शास्त्र और धर्म रक्षा के लिये एक हाथ में शस्त्र धारण कर सनातन धर्म पर उपकार किया ऐसे भृगुकुल श्रेष्ठ श्री परशुराम को कोटि कोटि प्रणाम-yogi uttarakhandi

12/05/2021
The power of flowers and their ability to contribute to our emotional health and well-being has been well researched and...
12/05/2021

The power of flowers and their ability to contribute to our emotional health and well-being has been well researched and documented.

11/05/2021

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