04/01/2018
अपेक्षा करूँगा की आप इसे जरूर पढ़े:
पहाड़ से पलायन हुए लोगो को पुनर्स्थापित करने या पहाड़ के गाँव में रह रहे लोगो को पलायन होने से रोकने के लिए ठोस योजनाओं की जरुरत हैं. कोन विकास की तरफ नहीं जाना चाहता हैं. व्यक्तिगत विकास का मुख्य आधार आर्थिकी पर निर्भर करता है जो रोजगार या स्वरोजगार से आती हैं. अच्छे भविष्य की तलास में लोग विदेश तक जाते हैं तो गाँव से शहर तक का सरल विकल्प हर एक के पास हैं. हर एक अपनी अपने बच्चों की शिक्षा एवं स्वास्थ्य की दृष्टि से भी शहर की की तरफ आकर्षित हुए हैं. जब तक शिक्षा, रोजगार, स्वरोजगार, चिकित्सा की सुविधा नहीं होगी तब तक पालयन रुकने की संभावना ही कम है.
इसलिए गाँव में रह रहे लोगों के लिए निम्न लिखित कुछ योजना प्रार्थमिक स्तर पर उनके आधार कार्ड के सत्यापन के आधार पर होनी चाहिए :
1 हरित बोनस 10000 प्रतिमाह
2 नोकरी में आरक्षण
3 संरक्षित नोकरी मात्र अपने ब्लॉक तक ही।
4 स्वरोजगार को प्रोत्साहित कर बाज़ार उपलध करवाना
5 योजना में किसी भी ngo को पूर्णतः प्रतिबंधित रखना।
6 तीन साल से बंजर हुई किसी भी भूमि को सरकार द्वारा एक योजना से उपयोग में लाना
1. हरित बोनस क्यों: देश के पर्यावरण की सुरक्षा में अहम योगदान के बावजूद उत्तराखंड को राज्य सरकार की ग्रीन बोनस के मोर्चे पर केंद्र से नाउम्मीदी ही हाथ लगती है।
केंद्र सरकार उत्तराखंड के हर गांव को सड़क से जोड़ने के साथ ही बिजली मुहैया कराने की योजना से दूरदराज और दुर्गम इलाकों में भी अंधेरा छंटने का दावा तो करती है। वहीं, जैविक खेती के लिए केंद्र की महत्वाकांक्षी योजना को भी उत्तराखंड के लिए बेहद उपयोगी बताती है। पर बिजली , सड़क के सुविधा पहाड़ में पहुंचने के बाद भी पलायन पर अंकुश नही है। साथ ही मात्र खेती की महत्वकांक्षी योजना यहाँ कहाँ तक सफल होगी। खेती का स्वरूप पूर्णतः मशीन रहित है। जहाँ कृषि आधुनिक तरीके से हो भी रही है वहां किसान आत्महत्या कर रहे है।
देश का पर्यावरणीय सुरक्षा कवच मजबूत करने की कीमत उत्तराखंड को आर्थिक पिछड़ेपन के रूप में चुकानी पड़ रही है। राज्य का तकरीबन 70 फीसद हिस्सा वन क्षेत्र है। इस क्षेत्र में विकास गतिविधियों को अंजाम देना मुमकिन नहीं हो पा रहा है।
अवस्थापना सुविधाओं के विस्तार और विकास में पर्यावरणीय बंदिशों का असर रोजगार और आजीविका के साधनों पर भी पड़ रहा है। ये छोटा हिमालयी राज्य देश को हर साल तकरीबन 40 हजार करोड़ की पर्यावरणीय-पारिस्थितिकीय सेवाएं मुहैया करा रहा है।
चाहे पिछली यूपीए सरकार रही हो या मौजूदा एनडीए सरकार, सभी ने ग्रीन बोनस पर सहमति तो जताई, लेकिन इसे बजटीय व्यवस्था का हिस्सा अब तक नहीं बनाया जा सका है।
ग्रीन बोनस पहले तो केंद्र कब और कितना देता है। और अगर देगा तो उत्तराखंड सरकार की वितरण प्रणाली दुर्गम पहाड़ियों को इसका लाभ कैसे देगी।
इसलिये दुर्गम पहाड़ियों के वाशिन्दों को एक प्रतिमाह 10000 पैकेज की मांग होंने की पहल करूँगा।
यह निश्चित ही पलायन को प्रभावित करेगा।
2. नोकरी में आरक्षण क्यों: उत्तराखंड राज्य का गठन 9 नवम्बर 2000 को उत्तराखंड के वासियों के उपेक्षित विकास को भौगोलिक दृष्टि से संतुलित करने को हुआ था।
मगर उत्तराखंड राज्य गठन के बाद भी विकास पहाड़ न चढ़ सका तो पहाड़ी पलायन को विवस हुआ।
देश की आबादी बढ़ने की औसत रफ्तार 17 फीसद है। उत्तराखंड के ही मैदानी जिले ऊधम सिंह नगर की अबादी 33.40 फीसद, हरिद्वार की 33.16 फीसद, देहरादून की 32 फीसद और नैनीताल की आबादी 25 फीसद की रफ्तार से बढ़ी है। यानि, कुल मिलाकर अबतक 35 फीसदी से ज्यादा आबादी राज्य छोड़ चुकी है। गांव उजड़ रहे हैं और पूरा पहाड़ इतिहास के सबसे बड़े विस्थापन के मुहाने पर खड़ा है। पहाड़ों के प्रति यह उपेक्षा राज्य बनने के बाद ही शुरू हुई है। और ये उपेक्षा अर्थव्यवस्था में भी साफ झलक रही है।
पहाड़ के दुर्गम क्षेत्र के बच्चे क्षेत्रीय भौगोलिक स्थिति के कारण सबसे अधिक मौसम की मार झेलते है। वर्षात में घटना तक के शिकार हो जाते है। इसी तरह सर्दी भी उनकी शिक्षा को प्रभावित करती ही है।
दुर्गम क्षेत्र से पलायन के कारण बहुत से विद्यालय बन्द हो गए है। इसलिए प्राइमरी तक के बच्चों को 4 से 5 किमी तक पैदल भी जाना होता है। इस प्रत्यक्ष समस्या के अतिरिक्त उन परोक्ष समस्या की हानि भी पहाड़ी क्षेत्र के विद्यार्थियों को उठानी होती है जहां अधिकतर शिक्षक औपचारिक जिमेदारी निभाने तक ही पढ़ाते है।
इन स्थितियों में पहाड़ के विद्यार्थियों को पलायन को विवश होना पड़ता है।
पहाड़ के विद्यार्थी को पहाड़ो में महाविद्यालय न होने की दशा में भी सहर के विद्यलयों में दाखिले तक में उपेक्षा झेलनी होती है। तो नोकरी में तो इसका प्रभाव रहता ही है। जिसे सरकार कोई आवाज़ न होने के कारण नज़र अंदाज़ करती है। कभी कोई समस्या उठे भी तो सरकार अनर्गल प्रलोभन विकास योजना के द्वारा दबाती रहती है। कभी मंडवे भांग की खेती तो कभी मेरा गांव मेरी सेल्फी जैसी योजना के तहत।
3. संरक्षित नोकरी मात्र अपने ब्लॉक तक:
इससे लाभ यह होगा कि कोई भी नोकरशाह स्थानांतरण के भय में नही होगा जिससे वह अपनी सुविधा को अपने आजीविका स्थान के पास जोड़ेगा। जिससे कुछ लोगों की अपने स्थान पर रहने की इच्छाशक्ति अन्य को भी अपने स्थान की ओर आकर्षित करेगी। सुविधाओं और फैशन के कारण व्यापार भी प्रभावित होगा। विकास के नए रास्ते खुलेंगे।
प्रायः देखा जाता है जब से सड़क की सुविधायें गांवों तक पहुंची हैं तब से गाँव में नोकरी करने वाले लोग भी शहर से गाँव नोकरी के लिए जाते हैं. इससे अतिरिक्त उनकी पहाड़ के प्रति कोई रुचि दिखती भी नही है। वैसे सरकारी नियम यह भी है की व्यक्ति अपने आवास से 8 किमी की ही दुरी में ही नोकरी करेगा. अगर व्यक्ति अपने क्षेत्र में ही नोकरी में होगा तो उसे अवागमन के मार्गों में जाने से उन मार्गों की दुरस्ती के प्रति जागरूकता होगी. कुछ शिक्षित, सक्षम, अनुभवी व्यक्ति गाँव में रहेगा तो वहां के विकास के प्रति जागरूक भी रहेगा जिससे क्षेत्र का विकास निश्चित ही होगा.
कई शिक्षामित्र जब पुर्णकालिन शिक्षक, या सरकारी किसी भी पद में नोकरी लगे तो स्थानांतरण की वजह से पलायन हो गये। ऐसे ही सरकारी पद पर आसीन बहुत से व्यक्ति अपने पहाड़ी क्षेत्र न होने की वजह से मात्र औपचारिक जरूरत तक ही क्षेत्र का उपयोग करते है।
मेरा किसी सरकारी कर्मचारी से शिकायत नही मात्र नीति में परिवर्तन लाने का विचार है। सायद अपने ग्राम के आसपास तक ही नोकरी होने से कर्मचारी अपने स्थान को अधिक विकसित करने को तत्पर रहेगा।
4 स्वरोजगार को प्रोत्साहित कर बाज़ार उपलब्ध कराना
पहाड़ में स्वरोजगार को प्रोत्साहित करने के लिए एक मुहीम जरुरी है चाहे वह पलायन हुए प्रवासियों या गाँव में रह रहे लोगों के मध्य हो या सरकार के स्तर पर हो. जब तक स्वयं कोई अपनी सहायता के लिए तैयार न हो तो सरकार भी उदासीन ही रहती है. मगर पहाड़ के कुछ मुद्दे हैं भी मगर उचित नेतृत्व और विषम भोगोलिक परस्थिति के उचित जगह तक समस्या पहुँच ही नहीं पाहती हैं. पूरी तरह से कृषि द्वारा स्वरोजगार की कल्पना वर्तमान में तो की नहीं जा सकती है. कृषि योग्य भूमि पहाड़ में कम है और परम्परागत अनाज से आर्थिकी को लाभ भी नहीं होगा। बिना विशेषज्ञों के खेती को आधार मिल ही नहीं सकता है. कुछ जगह खेती अच्छी हो भी हो तो उचित सड़क व्यवस्था के बाज़ार तक उत्पाद पहुँच ही नहीं सकता है.
देव भूमि का हमें तमगा हासिल है, अपने तीर्थ स्थलों पर हम गर्व करते हैं पर यह पूरा सिस्टम इतना अव्यवस्थित है कि हम इससे अच्छा रोज़गार नहीं जुटा पा रहे हैं। पर्यटन की दृष्टी से हम बहुत निम्न स्तर के सेवा देने वालों में गिने जाते हैं। कई लोग इस सोच से घिरे दिखते हैं कि ये पर्यटक आज आया है इसे जितना लूटना हैं आज ही देख लेते हैं क्यूंकि कल किसने देखा है। ठोस योजनाओं की कमी के चलते हम तो इस बात का भी ढंग से काउंट नहीं रख पाते कि हमारे यहां कितने पर्यटक आये, बाकि की बातें तो फिर बहुत दूर की हैं।
कृषि प्रधान देश होने के नाते कई सीखें विरासत में हमें मिली हैं, पर हम उनका सही से प्रयोग नहीं कर पा रहे हैं। हमारे खेत छोटे हैं, बिखरे पड़े हैं और जहां गांवों में पलायन हो चुका है वहां खेत बंजर और खाली पड़े हैं। सरकार चाहे तो एक सुदृढ़ योजना बना कर उस बंजर या खाली पड़ी कृषि योग्य भूमि पर वैज्ञानिक तरीकों से कृषि करवा सकती है। यह कई स्तर पर रोज़गार बढ़ाने का प्रयास हो सकता है। पाली हाउस तकनीकों से ज़्यादा से ज़्यादा सब्ज़ियां उगाने पर ध्यान दिया जा सकता है। हिमाचल हमारे लिए एक उदाहरण है कि कैसे वहां कृषि को फलों की तरफ मोड़ कर समृद्धि हासिल की गयी।
पलायन को मात देनी है तो इसके कुछ चरण हो सकतें हैं और इसके पहले चरण में उन लोगों को रोकना होगा जो कम पढ़े-लिखें हैं। अगर इनके रोज़गार के साधन यहीं पैदा हो जाएं तो अगले चरण में हम तकनीकी कौशल संपन्न लोगों को रोक सकते हैं। काफी बातों के लिए हमने सरकार की ज़िम्मेदारी तय कर दी पर अपने गिरेबान में झांक कर देखिये कि हमने कैसा सामजिक ताना-बाना बनाया था? जातिगत आधार हो या देशी-पहाड़ी की लड़ाई, इसमें जीता चाहे कोई भी हो पर हारा सिर्फ पहाड़ ही है। निम्न स्तरीय राजनीति के शिकार हम लोगों ने ऐसे लोगों को सत्ता दी है, जिन्होंने हमें बर्बादी के मुहाने पर खड़ा किया है।
5 योजना में किसी भी ngo को पूर्णतः प्रतिबंधित रखना।
पालयन पर योजना बहुत लाये पर व्यकतिगत समृधि से अधिक पहाड़ को कुछ दे नहीं सके. हो सकता है इस सन्दर्भ में मेरे व्यक्तिगत अनुभव ठीक भी न हों.
6 तीन साल से बंजर हुई किसी भी भूमि को सरकार द्वारा एक योजना से उपयोग में लाना
पहाड़ में ३ वर्ष से बंजर भूमि के सन्दर्भ में सरकार को योजना बनानी चाहिए. उसको विकसित करने के उद्देश्य से सरकार को उक्त भूमि को मालिक का हक़ बराकर रखते हुए भूमि को आवंटित कर देना चाहिए. वितरण के लिए पहले प्रार्थमिकता गाँव के सदस्य को और फिर बाद में अन्य को दिया जाए. इससे जो व्यक्ति अपनी भूमि को इस वितरण प्रणाली से बचाना चाहेगा वह गाँव की तरफ किसी योजना के साथ निश्चित आएगा. जिसे भूमि के प्रति लगाव् नहीं भी होगा वह भूमि की वितरण प्रणाली को सहयोग देगा. जिस भूमि के प्रति कोई जबान नहीं होगा उसे सरकार पूर्ण अधिग्रहण कर विकास कार्यों में किसी भी योजना से लगा सकती है.